देखने चलें अतीत के जनजीवन को

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संग्रहालय कहीं न कही हमारी संस्कृति का प्रतिबिंब होते हैं इसलिए उनका पर्यटन महत्व कम नहीं होता। कभी संग्रहालय इतिहास, पुरातत्व, मानव विज्ञान विषयों तक ही सीमित थे लेकिन बीसवीं सदी में जब नए-नए विषयों को लेकर व्यवस्थित रूप से संग्रहालय बनाए जाने लगे तो संग्रहालयों की परिभाषा कई बार गढ़ी गई। विश्व की सारी जातियां व समाज कभी विकास के उसी क्रम से होकर गुजरे हैं जहां आज आदिवासी समाज है। प्रकृति के साथ तालमेल के साथ सदियों से रह रहे आदिवासियों का आज भी अपना आत्मनिर्भर संसार है जहां मानव जनजीवन की पुरानी झलक देखने को मिलती है। यदि आप मध्य भारत के भ्रमण पर हों और अतीत के जनजीवन को देखने के इच्छुक हों तो यहां के कुछ नगरों में स्थापित मानव या जनजातीय संग्रहालयों की सैर से आपकी सारी जिज्ञासाओं का समाधान मिल जाएगा।

21febytrp4a08जहां आप बगैर आदिवासी क्षेत्रों में गए मानव के विकास को उनकी प्राचीन परंपराओं के साक्ष्यों के साथ देख व समझ सकते हैं। बदलती मानव जीवन शैली के प्रमाण संरक्षित व सुरक्षित रह सके इसलिए विश्व के अन्य भागों की भांति ही भारत में संग्रहालयों की स्थापना की गई। इनमें से अधिकतर उन क्षेत्रों में केंद्रित हैं जहां पर आदिवासी जनसंख्या का अधिक प्रवास है। चूंकि मध्य-भारत के छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र झारखंड आदि राज्यों में आदिवासियों की बड़ी आबादी रहती है इसलिए यहां पर स्थापित मानवविज्ञान संग्रहालय, आदिवासी व जनजातीय संग्रहालयों में विकास क्रम के सबसे अधिक साक्ष्य देखने को मिलते हैं। इन संग्रहालयों कुछ अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हैं तो कुछ राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर के। यदि आप पर्यटन के साथ मानवविज्ञान को लेकर अपनी जानकारी में वृद्धि करना चाहते हैं तो ऐसे छह संग्रहालयों को देखा जा सकता है। इनमें से तीन मध्य प्रदेश में हैं जिनमें इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय व जनजातीय संग्रहालय राजधानी भोपाल व बादलभोई आदिवासी संग्रहालय राज्य के दक्षिणी जिले छिंदवाड़ा में है। मध्य-भारत के आदिवासी जनजीवन पर रोशनी डालने वाले बाकी तीन संग्रहालय बस्तर के जगदलपुर, विशाखापट्टनम के अरकु व महाराष्ट्र के पुणे में हैं। आइए इनका थोड़ा जायजा लिया जाए।
इंदिरा
गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय
दर्जन भर संग्रहालयों वाले भोपाल में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय सबसे प्रमुख है। यह भारत ही नहीं अपितु एशिया में मानव जीवन को लेकर बनाया गया विशालतम संग्रहालय है। इसमें भारतीय प्ररिप्रेक्ष्य में मानव जीवन के कालक्रम को दिखाया गया है। भोपाल की श्यामला पहाड़ी पर 200 एकड़ क्षेत्रफल में स्थापित इस संग्रहालय के दो भागों में एक भाग खुले आसमान के नीचे है तो दूसरा एक भव्य भवन में। मुक्ताकाश प्रदर्शनी में भारत की विविधता को दर्शाया गया है। इसमें हिमालयी, तटीय, रेगिस्तानी व जनजातीय निवास के अनुसार वर्गीकृत कर प्रदर्शित किया गया है। इनमें मध्य-भारत की जनजातियों को भी पर्याप्त स्थान मिला है जिनके अनूठे रहन-सहन को यहां पर देखा जा सकता है। इस परिसर के खुले आकाश के नीचे आदिवासियों के आवास है, जहां पर उनके बरतन, रसोई, कामकाज के उपकरण अन्न भंडार हैं। परिवेश को हस्तशिल्प, देवी देवताओं की मूर्तियों, स्मृति चिन्हों से सजाया गया है। बस्तर दशहरे का रथ भी यहां दिख जाता है जो आदिवासियों और वहां के राजपरिवार की परंपरा का एक हिस्सा है। नमूनों के खुले में वास्तविक रूप में प्रदर्शित करने से बात आसानी से समझी जा सकती है। भीतरी संग्रहालय भवन काफी विशाल है जिसका स्थापत्य अनूठा है। यह संग्रहालय ढालदार भूमि पर 10 हजार वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में बना है। इसके अंदर अनेक प्रदर्शनी कक्ष हैं। प्रथम कक्ष में मानव जीवन के विकास की कहानी माडलों से समझाई गई है। संग्रहालय में मानव विकास की कहानी को चरणबद्ध रूप से दर्शाने के लिए माडलों व स्केचों का सहारा लिया गया है। देश के विभिन्न भागों से जुटाए गए साक्ष्यों को भी यहां रखा गया है। इस संग्रहालय में विभिन्न समाजों के जनजीवन की बहुरंगी झलक देखने को मिलती है। इसमें अलग-अलग क्षेत्रों के परिधान व साजसज्जा, आभूषण, संगीत के उपकरण, पारंपरिक कला, हस्तशिल्प, शिकार, मछली मारने के उपकरण, कृषि उपकरण, औजार व तकनीकी, पशुपालन, कताई व बुनाई के उपकरण, मनोरंजन, उनकी कला से जुड़े नमूनों को रखा गया है। पहले यह संग्रहालय 1977 में नई दिल्ली के बहावलपुर हाउस में खोला गया था किंतु दिल्ली में पर्याप्त जमीन व स्थान के अभाव में इसे भोपाल में बनाया गया। चूंकि प्रस्ताव श्यामला पहाड़ी के ऐसे भाग में स्थापित करने का आया था जहां पर पहले से ही प्रागैतिहासिक काल की कुछ प्रस्तर पर बनी कलाकृतियां थीं तो अंतिम रूप से इसे वहां बनाने का निर्णय लिया गया।
राज्य
आदिवासी संग्रहालय
भोपाल में दूसरा संग्रहालय राज्य आदिवासी संग्रहालय के नाम से ख्यात है। यह भी श्यामला पहाड़ी पर स्थित है और आदिम जाति अनुसंधान केंद्र के परिसर में है। मध्यप्रदेश के आदिवासियों के जनजीवन व उनकी संस्कृति के संरक्षण को लेकर इस संस्थान की स्थापना 1954 में छिंदवाड़ा में कर दी गई थी किंतु किसी केंद्रीय स्थान में इसकी उपयोगिता को देखते हुए 1965 में इसे छिंदवाड़ा से भोपाल स्थानांतरित कर दिया गया। इस संग्रहालय में जनजातियों की उपासना की मूर्तियां, संगीत उपकरण, आभूषण, चित्रकारी, प्रस्तर उपकरण, कृषि उपकरण, शिकार करने के हथियार-तीर कमान, मस्त्य आखेट के उपकरण, वस्त्र हस्तशिल्प व उनके औषध तन्त्र आदि संग्रहीत हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के गठन से पूर्व में इसमें वहां की भी जनजातियां भी शामिल थी किंतु राज्य बनने के बाद इस संग्रहालय का क्षेत्र कुछ कम हो गया है। राज्य की तकरीबन 40 जनजातियों के आर्टिफैक्टों को यहां रखा जा रहा है जिनमें सहरिया, भील, गोंड भरिया, कोरकू, प्रधान, मवासी, बैगा, पनिगा, खैरवार कोल, पाव भिलाला, बारेला, पटेलिया, डामोर आदि शामिल हैं।  यदि आप पातालकोट जा रहे हों तो छिंदवाड़ा के आदिवासी संग्रहालय को देखना न भूलें जो सारे जनजातीय संग्रहालयों में सबसे पुराना है। इसमें अविभाजित मध्यप्रदेश की लगभग 46 जनजातियों की जीवन शैली, सांस्कृतिक धरोहर, प्रतीक चिह्नों और कला शिल्प को प्रदर्शित किया गया है जिनमें मुखौटे, अग्नि प्रज्वलन के साधन, देवी देवताओं की मूर्तियां, मृतक स्तंभ, कृषि उपकरण, पेंटिग्स, अस्त्र-शस्त्र, पोशाकें, कंघियां, जूते, खड़ाऊ, घास के सुनहरे आभूषण, विभिन्न जनजातियों के नृत्यों के माडल, मिट्टी के बरतन, वस्त्र निर्माण, फॉसिल, टोपी, ढोलक, खुदाई से प्राप्त प्रस्तर मूर्तियां, पाषाण युग के भित्ति चित्र, नृत्य प्रसाधन, वैवाहिक मुकुट आदि शामिल हैं। इनकी कुल संख्या 2200 है। संग्रहालय में विशेष जनजातियों को पृथक केसों में माडल, चार्ट, पेंटिग्स व मानचित्रों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है।
जगदलपुर
का मानव विज्ञान संग्रहालय
अब चलते हैं छत्तीसगढ़ राज्य के ठेठ आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर, जिसके केंद्र जगदलपुर में हैं-क्षेत्रीय मानवविज्ञान संग्रहालय। चित्रकोट रोड पर धर्मपुरा के समीप इस संग्रहालय में बस्तर ही नहीं अपितु आसपास के राज्यों के जनजातीय जनजीवन का साक्षात्कार किया जा सकता है। जगदलपुर का क्षेत्रीय मानवविज्ञान संग्रहालय वर्ष 1972 में अस्तित्व में आया। इसकी स्थापना से पूर्व यहां पर भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण का क्षेत्रीय केंद्र खोला गया जिसके अधीन यहां पर संग्रहालय को स्थापित करने की योजना बनी। इस संग्रहालय का क्षेत्र निर्धारण करने के बाद यहां बसी जनजातियों को चिह्नित में अधिक समय लगा। जनजातियों के रहन-सहन से जुड़ी सामग्री के नमूनों को इकट्ठा करने का चुनौतीपूर्ण कार्य पांच साल तक चला और तब जाकर इसे 1977 में जनता को समर्पित किया गया।  चार एकड़ भूमि पर फैले इस संग्रहालय में उड़ीसा के जनजातीय बहुल जिलों कोरापुट व मल्कानगिरी व महाराष्ट्र के चन्दरपुर जिले तक की जनजातियां भी शामिल हैं। यहां अबूझमाडि़या, हल्बी, बाइसन हार्न माडि़या, भुरिया, भतरा देउरला, गड़वा, घु्रवा सहित अनेकानेक जनजातियों की सामग्री को एक साथ दिखाया गया है। मानवविज्ञान सर्वेक्षण के इसे क्षेत्रीय केंद्र के आधारतल की गैलरी व आठ कक्षों में जनजातीय जीवन को विषयवार प्रदर्शित किया गया है। इसमें गैलरी के अलावा विभिन्न कक्षाओं में उनके रहन-सहन, देवी देवता, कृषि यंत्र, वाद्य यंत्र, बर्तन, मनोरंजन, घरेलू साजोसामान, शिल्प, शिकार के आयुध, पारंपरिक जीवन पद्धतियों को चित्रों व सामग्री से दर्शाया गया है। एल्विन के बस्तर की जनजातियों पर शोध को देखते हुए इस ब्रिटिश मिशनरी के नाम से छत्तीसगढ़ पर्यटन विकास निगम सुप्रसिद्ध चित्रकोट प्रपात के समीप 2 करोड़ की लागत से अलग से आदिवासी संग्रहालय बनाने जा रहा है जिसमें एल्विन द्वारा संग्रहीत उन साक्ष्यों को रखने की भी योजना है जो देश में इधर-उधर बिखरे हें।
अरकु
और पुणे के संग्रहालय
आंध्र के प्रमुख हिल स्टेशन अरकु का जनजातीय संग्रहालय पर्यटन महत्व का है। समेकित जनजातीय विकास समिति का यह संग्रहालय हालांकि बहुत बड़ा तो नहीं है लेकिन प्रवेश की कम सरकारी औपचारिकताओं के कारण व सुगम स्थान पर होने से यहां पर पर्यटन सीजन के दिनों में दिन भर मेला सा लगा रहता है। इसकी खासियत इसकी आसान पहुंच, आसान प्रवेश नियम, अनूठा डिजाइन तो है साथ में इसमें आदिवासी जनजीवन की झलक का प्रस्तुतीकरण भी बेहद प्रभावी है। इससे समझ में पूरी बात आ जाती है। गोलाकार संरचना लिए यह संग्रहालय दो मंजिल का है। इसमें राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्र के जनजीवन को दर्शाया गया है। उधर महाराष्ट्र में भी लगभग 72 लाख की आबादी जनजातीय श्रेणी में आती है। जनजातीय जनसंख्या के हिसाब से महाराष्ट्र देश में तीसरा स्थान रखता है। राज्य के आदिवासियों पर केंद्रित जनजातीय संस्कृति संग्रहालय पुणे में स्थापित है। हालांकि अभी यह एक पुराने भवन पर चल रहा है। इसका संचालन जनजातीय शोध व प्रशिक्षण संस्थान महाराष्ट्र के अधीन है। पुणे के इस संग्रहालय में लगभग ढाई हजार के आसपास आर्टीफैक्टों को संग्रहीत किया गया है जो राज्य के जनजातीय आबादी के जनजीवन व संस्कृति का प्रतिबिंब हैं। इसमें उनके घर, आभूषण, संगीत उपकरण, देवी देवताओं की मूर्तियां, घर की बनावट, कृषि उपकरण, औजार, शिकार करने के आयुध, मुखौटे, आदिवासी पेंटिग्स को दर्शाया गया है। यह भी एक राज्य स्तरीय संग्रहालय है जिसमें महाराष्ट्र राज्य की जनजातियों को शामिल किया गया है। इनमें कतकरी, मडि़या गोंड व कोलम प्राचीनतम हैं। इससे पहले कि आदिवासी जनजीवन की सभी यादें साक्ष्य समाप्त हो जाएं महाराष्ट्र राज्य आदिवासी विकास परिषद गोंडवाणा क्षेत्र की जनजातियों को लेकर नागपुर में भी विशाल संग्रहालय को बनाने की योजना बना रहा है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इन संग्रहालयों के समय रहते बनने से काफी कुछ साक्ष्य बचे रह गए जो कि हमें कल्पनालोक से हटकर उस वास्तविकता को करीब से देखने का एक मंच प्रदान करते हैं जिसके बारे में आम तौर पर हम केवल सुनते-पढ़ते रहे हैं।

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