शक्ति उपासना की प्रतीक दुर्गापूजा

  • SocialTwist Tell-a-Friend

देशभर में होने वाली शक्ति उपासना में दुर्गापूजा का एक अहम स्थान है। सारे देश में जगह-जगह विशेषकर बंगाल में व्यापक रूप से मनाये जाने वाले इस पर्व पर जैसे आस्था का सागर ही उमड़ आता है। इसीलिए प्रतिवर्ष पूजा के समय हर ओर आस्था का एक वैभवशाली रूप देखने को मिलता है। इसके साथ ही दुर्गापूजा हर किसी के लिए अनूठे उल्लास, असीम उत्साह और तरंगित उमंगों का पर्व है।

देवी दुर्गा का उदय

हमारी संस्कृति में दुर्गा अनेक शक्तियों के संचय की प्रतीक हैं। शक्ति की देवी दुर्गा के उदय की कथा हमें यही बताती है कि सभी प्रकार की शक्तियां एकरूप होकर किसी भी विनाशकारी ताकत को मिटा सकती हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय महिषासुर नामक राक्षस ने स्वर्ग और धरा पर अपना आतंक फैला रखा था। उस आतंक को समाप्त करने के लिए सभी देवताओं ने एक-एक कर उससे युद्ध किया। किंतु भैसे का रूप धारण किए महिषासुर ने सबको परास्त कर दिया। क्योंकि उसे वरदान प्राप्त था कि उसे कोई पुरुष नहीं मार सकता। पूरी तरह से हताश देवतागण ब्रह्मा, विष्णु  शिव की शरण में पहुंचे। तब शिव ने अपनी क्रोधग्नि से एक दैवीय शक्ति को प्रकट किया जो स्त्री थी। इस शक्ति को सभी देवताओं ने अपने अस्त्र प्रदान किए जिससे वह महाशक्ति बन गई। सिंह पर सवार हो देवी ने महिषासुर को युद्ध के लिए ललकारा। फिर क्रोध भरी गर्जना के समय देवी ने दस भुजाओं में धारण दीप्तिमान अस्त्रों से उस दानव पर प्रहार किए। घनघोर युद्ध के उपरांत महिषासुर का अंत हुआ। इस तरह पाप पर पुण्य की विजय हुई। देवताओं ने शक्ति के इस स्वरूप को दुर्गा कहा और उनकी पूजा होने लगी।

इतिहास पूजा का

दुर्गापूजा का इतिहास देखें तो पूजा की वर्तमान परपंरा करीब चार सदी पुरानी नजर आती है। जहां तक ज्ञात है, सोलहवीं शताब्दी के अंत में बंगाल के ताहिरपुर में महाराज कंशनारायण दुर्गापूजा का भव्य अनुष्ठान किया था। घर में बड़े से ठाकुर दालान को सजाकर उसमें दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की गई।  उसके बाद सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में नादिया के महाराज भवानंद ने तथा बरीसा के सुवर्ण चौधुरी ने भी भव्य पूजा का आयोजन किया था। उसके बाद बड़े-बड़े जमींदारों ने इस शैली को अपना लिया। उस समय दुर्गापूजा के समय पशुबलि भी दी जाती थी। बंगाल के राजा-रजवाड़ों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। समय के साथ-साथ व्यावसायिक वर्ग ने इसे और समृद्ध बनाया। लेकिन जब उन्होंने अपने हित के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों को पूजा में आमंत्रित करना शुरू किया तो इसमें एक नया मोड़ आया। कोलकाता के शोवा बाजार के महाराजा नवकृष्णदेव द्वारा 1757 में राबर्ट क्लाइव को पूजा में निमंत्रित करना इस तरह का प्रथम उदाहरण था। इसके बाद पूजा प्रतिष्ठा का विषय बनने लगी। लेकिन जब महत्वपूर्ण लोगों के सामने साधारण भक्तों की अवहेलना होने लगी तो दुर्गापूजा ठाकुर दालानों से बाहर मैदानों में पंडाल लगाकर मनाई जाने लगी। 20वीं शताब्दी के शुरू में बारह लोगों द्वारा हुगली जिले के गुप्तीपाड़ा में हुई सार्वजनिक पूजा को पहली सार्वजनिक पूजा कहा जाता है। 1910 में बलरामपुर वसुघाट पर एक धार्मिक सभा द्वारा सार्वजनिक रूप में दुर्गापूजा मनाने के बाद इसका चलन बढ़ता गया। इसे बारोबाड़ी पूजा भी कहा जाता था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई बार सार्वजनिक पूजा को राष्ट्रीय फोरम के रूप में भी प्रयोग किया गया। धीरे-धीरे समूचे बंगाल में सार्वजनिक पूजा मनायी जाने लगी।

भव्य हो गया है आयोजन

आज दुर्गापूजा का आयोजन इतना भव्य हो गया है कि इसकी तैयारी महीनों पूर्व आरंभ हो जाती है। इसके लिए जगह-जगह पूजा कमेटियां बनती हैं जो चंदा आदि एकत्र कर पंडालों के आकार व मूर्तियों के स्वरूप का निर्णय लेती हैं। दुर्गा मां की मूर्ति बनाने का काम भी परंपरागत मूर्तिकारों द्वारा काफी पहले आरंभ कर दिया जाता है। बंगाल के हर शहर और कस्बे में ये मूर्तिकार पीढ़ी दर पीढ़ी इस कला यात्रा को जारी रखे हैं। इनके परिवारों के अनेक लोग बंगाल के बाहर भी, जहां बंगाली बहुसंख्या में हैं मूर्तिकला की इस शैली का विस्तार कर रहे हैं। मूर्ति निर्माण का कार्य विधिपूर्वक पूजापाठ के बाद आरंभ होता है। कोलकाता में परंपरागत मूर्तिकारों की बस्ती में एक प्राचीन रीति चली आ रही है जिसके अनुसार मूर्ति निर्माण के लिए पहले सोनागाछी या कालीघाट से तवायफों के आंगन की मिट्टी लाई जाती है। उसी मिट्टी को मिलाकर दुर्गा की पवित्र मूर्ति का निर्माण होता है। पूजा के लिए बड़े-बड़े पंडाल भी कई सप्ताह पूर्व बनने आरंभ हो जाते हैं। लकड़ी, बांस, प्लाईवुड, तम्बू आदि की सहायता से विस्तृत पंडाल बनाने में समय जो लगता है। फिर इनके अंदर की साज-सज्जा में हर प्रकार की भव्यता का समावेश भी किया जाता है। छोटे शहरों में पूजा पंडालों में भव्यता कम होती है। लेकिन बड़े शहरों की पूजा कमेटियां पंडाल पर दिल खोलकर व्यय करती हैं। कुछ पंडाल तो महलों जैसे नजर आते हैं। दरअसल पंडालों की भव्यता आज एक प्रतिस्पर्धा का रूप ले चुकी है। पंडालों की छतों पर बड़े-बड़े झूमर लगाए जाते हैं। लकड़ी की दीवारों पर सुंदर चित्र बनाए जाते हैं। बल्बों और रंगबिरंगी रोशनी की मनमोहक झांकियां बनाने के लिए बंगाल के चंदन नगर से विशेष कलाकार बुलाए जाते हैं। पंडालों में किसी भी नवीनतम घटना पर झांकी बनाने का प्रयास होता है। ये कलाकार सुर-असुर संग्राम जैसी पौराणिक झांकियों से लेकर कारगिल युद्ध और व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर जैसे विषयों की बेहद आकर्षक झांकियां बना देते हैं। पंडालों के गेट भी इनकी भव्यता का खास हिस्सा होते है। प्राय: किसी ऐतिहासिक या प्रसिद्ध इमारत का प्रतिरूप गेट के रूप में बनाया जाता है। इसलिए कहीं लाल किला नजर आता है तो कहीं संसद भवन। कहीं व्हाइट हाउस में भक्त प्रवेश कर रहे होते हैं तो कही एफिल टावर में। बड़े शहरों में पंडालों की भव्यता देखने के लिए भी भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। सारा वातावरण पूर्ण रूप से जगमगा रहा होता है।

पर्व का आरंभ

दुर्गापूजा का पावन पर्व शरद ऋतु में आने वाले आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या से ही आरंभ होता है। उस दिन सुबह महालया की परंपरा है। महालया अर्थात मां दुर्गा की आगमन भेरी। बांग्ला व संस्कृत भाषा में देवी की आगमनी के गीत गाए जाते हैं। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन पर दुर्गा की आराधना, दुर्गा सप्तशती का गान और दुर्गापूजा से जुड़ी कथाओं को संगीतमय लय में प्रसारित किया जाता है। दुर्गा स्तुति की यह मधुरिम अनुगूंज बंगभूमि के हर व्यक्ति के अंतर्मन में एक स्पंदन सा जगा देती है। इसके साथ उनमें पूजा का उत्साह आरंभ हो जाता है। महालया के दिन नदियों में स्नान के उपरांत घट स्थापना का विधान है। मिट्टी के कलश पर सिंदूर से मंगल चिह्न बनाकर उस पर हरा नारियल रखा जाता है। पास ही केले के वृक्ष की बड़ी सी डाल रखी जाती है। पूजा स्थल को कलात्मक ढंग से सजाया जाता है। बंगाल को प्राचीन समय से ही दुर्गा का मायका माना जाता है। मान्यता है कि दुर्गा के मायके आने के दिन ही पूजा समारोह के दिन हैं। हर वर्ष दुर्गा कैलाश पर्वत पर स्थित शिवधाम से अपनी संतानों सहित अपने मायके आती हैं। अमीर हो या गरीब सभी इस अवसर पर खुशियां मनाते हैं, नये वस्त्र खरीदते हैं, मित्र व संबंधियों को उपहार देते हैं।

प्रतिमाओं की स्थापना

षष्ठी के दिन पुरोहित पहले घट यानी घड़े को पंडाल में रखते हैं। केले के वृक्ष को लाल किनारे वाली साड़ी पहनाई जाती है। तब पंडालों में दुर्गा की प्रतिमाएं स्थापित कर दी जाती है। विस्तृत पंडाल में सामने देवी की प्रतिमा स्थापित होती है।  सिंहवाहिनी दस भुजाधारी दुर्गा भाले से महिषासुर का मर्दन कर रही होती हैं। इस प्रतिमा के एक ओर उनके पुत्र गणेश एवं कार्तिकेय की मूर्तियां और दूसरी ओर पद्महस्ता लक्ष्मी तथा वीणाधारी सरस्वती विराजमान होती हैं। ये मूर्तियां इतनी सजीव होती हैं कि मूर्तिकारों की रचनाशीलता की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जाता।

अंजलि एवं आरती

रोज पूजा में अंजलि एवं आरती का क्रम चलता है। अष्टमी का दिन दुर्गापूजा का सबसे शुभ दिन माना जाता है। लोग बड़े चाव से पूजा में भाग लेते हैं। अष्टमी को लगभग पूरी रात ही पंडालों में भीड़ रहती है क्योंकि अष्टमी एवं नवमी के संधिकाल के समय मध्यरात्रि में सौंधी पूजा अर्थात संधी पूजा एक महत्वपूर्ण पूजा होती है। देवी के सामने 108 दीपक प्रज्जवलित किए जाते हैं। कहीं-कहीं आरती के समय ढाक की ताल के साथ स्ति्रयां धूनी नृत्य करती हैं। ढाक एक पारंपरिक वाद्य है जो ढोल के समान होता है। रंगीन कपड़े और झालरों से सजे ढाक बजाने वाले ढाकी भी विशेष तौर पर बुलाए जाते हैं। पंडाल के अंदर का वातावरण पूरी रात भक्तिपूर्ण उल्लास से परिपूर्ण नजर आता है तो बाहर बनी दुकानों पर भी भीड़ लगी रहती है। इसके अलावा लोग एक पंडाल से दूसरे पंडाल को देखने बढ़ते रहते हैं। नवमी को भी पूजा का जोर बराबर बना रहता है। अंत में वह दिन भी आ जाता है जिस दिन दुर्गा को पारंपरिक ढंग से विदा किया जाता है। विजय दशमी के दिन मूर्ति के समक्ष दीप जलाकर स्ति्रयां देवी को सोंदेश यानी संदेश का भोग लगाती हैं। उनके मस्तक पर सिंदूर लगाती है फिर शुभकामना स्वरूप उसी सिंदूरदानी से अन्य सुहागिनों को सिंदूर लगाया जाता है। इसके उपरांत शंख ध्वनि तथा जयघोष के बीच दुर्गा को अश्रुपूर्ण विदाई दी जाती है। आलीशान प्रतिमाओं को ट्रक आदि पर रख कर शोभा यात्रा के रूप में नदी के तट पर ले जाया जाता है जहां बड़ी श्रद्धा से इन्हें जल में विसर्जन के बाद दो पक्षी आकाश में छोड़ने की परंपरा भी है। मान्यता यह है कि ये पक्षी कैलाश पर्वत जाकर शिव को दुर्गा के आगमन की सूचना देते हैं। लोग नदी से शांति जल पंडाल और घर में लेकर आते हैं और सब पर छिड़कते हैं। विसर्जन के बाद लोग एक-दूसरे को शुभ बिजोय की शुभकामनाएं देते हैं।

कोलकाता की दुर्गापूजा

कोलकाता महानगर में दुर्गापूजा का जोश तो जैसे जुनून की सीमाएं पार कर जाता है। इस महानगर में आज एक हजार से अधिक स्थानों पर दुर्गापूजा का आयोजन होता है। अधिकतर पूजा पंडाल इतने भव्य होते हैं कि लोग धक्का-मुक्की करते हुए एक पंडाल से दूसरे पंडाल में पहंुच जाते हैं। दरअसल यह महानगर पंडालों की साज-सज्जा में सबसे आगे है।

महाअष्टमी और नवमी को कोलकातावासियों का उन्माद देखते ही बनता है। चौराहों, नुक्कड़ों, गलियों में लोगों के हुजूम नजर आते हैं। सारा शहर नयी नवेली-दुल्हन की तरह सजा जगमगा रहा होता है। अनेक बड़ी कंपनियां पूजा पंडालों की साज-सज्जा एवं सुंदरतम मूर्तियों के लिए अवार्ड की घोषणा भी करती हैं। विजयदशमी पर विसर्जन के लिए मूर्तियों को जुलूस के रूप में ले जाने का दृश्य भी यहां एकदम अलग होता है। एक-एक जुलूस के साथ 25-25 बैंड साथ चलते हैं। उनके आगे रंगबिरंगे गेट बने होते हैं जो जुलूस की शोभा को बढ़ाते हैं। वास्तव में कोलकातावासी दुर्गापूजा के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। कहते हैं यहां के लोग पूजा के माह में इतनी खरीदारी करते है जितनी वर्ष भर में नहीं करते। दुर्गापूजा का यह रंग देखने यहां पर्यटक भी आते हैं। कोलकाता का जीवंत रूप देखना हो तो एक बार पूजा के अवसर पर वहां अवश्य जाना चाहिए।

बंगाल के बाहर दुर्गापूजा

बंगाल के बाहर पहली बार वाराणसी में दुर्गापूजा का आयोजन हुआ माना जाता है। इसके अतिरिक्त आज गोरखपुर, इलाहाबाद, पटना, भुवनेश्वर, कटक आदि शहरों में इसी रीति और परंपरा से दुर्गापूजा मनाई जाती है। दिल्ली में दुर्गापूजा की शुरुआत सन् 1911 में कोलकाता से राजधानी दिल्ली स्थानांतरित होने पर हुई क्योंकि तब अनेक कोलकाता निवासी भी दिल्ली में आ बसे थे। उनके साथ ही उनकी संस्कृति का अभिन्न अंग दुर्गापूजा भी यहां आयी। यहां रह रहे लगभग चार लाख बंगालीजन पूजा के चार दिनों में बाकी दुनिया को भूलकर जैसे जीवन की तमाम खुशियां समेटने में लग जाते हैं। दिल्ली व उसके आस-पास के क्षेत्रों में कुल मिलाकर दो सौ से अधिक छोटी-बड़ी पूजा आयोजित होती है। इनमें काली बाड़ी, चितरंजन पार्क, सरोजनी नगर, लोदी रोड, इंद्रप्रस्थ सोसायटी कॉम्प्लेक्स, अशोक विहार, मिन्टो रोड, के पूजा-पंडालों की छटा देखते ही बनती है। चितरंजन पार्क में तो कई भव्य पूजाओं का आयोजन होता है जिनमें कोलकाता की ही भांति भव्यता का दर्शन होता है। यहां लगभग सभी पूजा-पंडालों में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं जिसके लिए खास तौर से पश्चिम बंगाल से जात्रा नाटक मंडलियां बुलाई जाती हैं। दुर्गापूजा की धूम आज विदेशों में भी रहती है। खास तौर पर उन देशों में जहां भारतीय बंगाली समाज के लोग जा बसे हैं। उनके साथ ही अन्य भारतीय भी मिल दुर्गापूजा मानते हैं। इसके लिए तीन-चार माह पूर्व ही कोलकाता के कुमारतुली से दुर्गा मां की प्रतिमाएं मंगवा ली जाती हैं। हालांकि वहां उतनी भव्यता से पूजा नहीं होती परंतु फिर भी अपनी संस्कृति के प्रति लगाव को इस पूजा द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इंग्लैंड, अमेरिका के अतिरिक्त यूरोप के कई देशों में बसे भारतीय बंगाली लघु रूप में ही सही दुर्गापूजा अवश्य मनाते हैं। इन अवसरों पर वो बड़े गर्व से उस देश के लोगों को भी शामिल करते हैं। इस तरह भारत देश की रंगबिरंगी संस्कृति की झलक उनके सामने रखी जाती है।

दुर्गापूजा का समारोह कहीं भी मनाया जा रहा हो, पूजा के पल लोगों के लिए अविस्मरणीय बन जाते हैं। इसके साथ ही दुर्गापूजा हमें एकता का प्रतीकात्मक संदेश देती है।

VN:F [1.9.1_1087]
Rating: 9.8/10 (4 votes cast)
शक्ति उपासना की प्रतीक दुर्गापूजा, 9.8 out of 10 based on 4 ratings


Leave a Reply

    * Following fields are required

    उत्तर दर्ज करें

     (To type in english, unckeck the checkbox.)

आपके आस-पास

Jagran Yatra