यात्राएं जिन्होंने बदली दुनिया

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पर्यटक किसी दर्शनीय स्थल में वही देखता है, जो वह देखना चाहता है और जिसके बारे में उसे पहले से जानकारी है, लेकिन यात्री नई जगहें और जानकारियां जुटाता है। पर्यटक और यात्री में यही फर्क है। यात्राएं न होतीं तो संस्कृतियों का मेलजोल कैसे होता, नई दुनिया की खोज कैसे होती, सामाजिक संबंधों में नए आयाम कैसे जुड़ते और व्यापारिक कारोबार कैसे फलते-फूलते। कहा गया है-सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां! प्रस्तुत है, चंद घुमक्कड़ व खोजी लोगों और उनकी यात्राओं पर महत्वपूर्ण जानकारियां।

मुश्किल राहों के मुसाफिर मार्को पोलो

यूरोपियन इतिहास में 13-14वीं सदी के सर्वाधिक प्रसिद्ध यात्री थे वेनिस [इटली] के व्यवसायी मार्को पोलो। उनका समय 1254-1324 के इर्द-गिर्द माना जाता है। महज छह वर्ष की आयु में वह पिता व चाचा के साथ यात्रा पर निकले थे। वह शायद पहले पश्चिमी थे, जिन्होंने सिल्क रोड से चीन तक की यात्रा की। 15 वर्ष की आयु में घर लौटे तो उनकी मां मर चुकी थीं।

यात्रा के आरंभिक पड़ाव में वह बुखारा पहुंचे तो चंगेज खान के पड़पोते कुबला खान से मिले। वह खान की नई राजधानी बीजिंग पहुंचे, वहां एक वर्ष तक रहे। वहां से जाते समय खान ने उन्हें अपने नाम वाला स्वर्णचिह्न प्रदान किया। यह वीआईपी पासपोर्ट था। इसे दिखा कर वह यात्रा के दौरान घोड़े, भोजन व जरूरी वस्तुएं मांग सकते थे। इसके तीन वर्ष बाद एक बार फिर उनकी चीन यात्रा शुरू हुई। वह चार भाषाओं के ज्ञाता थे। खान ने उन्हें प्रशासनिक विभाग में उच्च पद पर नियुक्त किया। बाद में वेनिस व जिनेवा के बीच हुए युद्ध में वह बंदी बनाए गए और जेल में रहते हुए उन्होंने अपने संस्मरण सुनाए, जिन्हें लिखा गया। मरुस्थलों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा है-यदि कोई रात में मरुस्थल की यात्रा करता और किसी कारणवश सहयात्रियों से पिछड़ जाता तो बड़ी मुश्किल होती। उसे भ्रम होता कि साथियों की आवाजें आ रही हैं। वह नाम लेकर उन्हें पुकारता। लेकिन ये आवाजें काफी दूर होती थीं, दोबारा वह साथियों से कभी नहीं मिल पाता। कई यात्री ऐसी दुर्गम यात्राओं में खो जाते या मौत के मुंह में चले जाते। कई बार तो दिन में भी कुछ ऐसा ही भ्रम होता। इससे बचने के लिए सोने से पूर्व मुसाफिर रेत पर दिशासूचक चिह्न बना लेते या अपनी गर्दन के इर्द-गिर्द छोटी-छोटी घंटियां बांध लेते थे, ताकि सहयात्री उनकी घंटियों की आवाज सुन सकें।

दिलचस्प हैं इब्न बतूता के विवरण

14 वीं सदी में मोरक्को में जन्मे सर्वाधिक प्रसिद्ध यात्री थे इब्न बतूता, जिन्होंने जीवन के 30 वर्षो में 75,000 किलोमीटर की यात्राएं कीं। उन्होंने कई देशों का भ्रमण किया। उन्होंने इराक, ईरान, चीन, भारत, अफ्रीका, दक्षिणी-पूर्वी यूरोप, सीलोन [श्रीलंका], बांग्लादेश, बर्मा [म्यांमार], दक्षिण-पूर्व एशिया, माले, अल्जरिया, सुमात्रा, फिलिस्तीन, मिस्त्र, मलेशिया, सीरिया और अरब के सभी देशों सहित तुर्की तक की यात्रा की। वह लिखते हैं: दमिश्क में होने वाले सामाजिक कार्य काबिले-तारीफ हैं। मक्का जाने वाले ऐसे लोगों को मदद की जाती है, जो आर्थिक रूप से निर्बल हैं। गरीब लड़कियों को नि:शुल्क शादी के जोड़े दिए जाते हैं। यात्रियों को भोजन व यात्रा-भत्ता दान में दिया जाता है। सड़कों, गलियों एवं फुटपाथ निर्माण के लिए भी दान दिया जाता है..।

बगदाद यात्रा के बारे में वह लिखते हैं:-

यह बहुत ही खूबसूरत जगह है। यहां के स्नानागार काले संगमरमर के हैं। बाथरूमों में लगे वाश-बेसिनों में ठंडे व गर्म पानी के लिए अलग-अलग नल हैं। नहाने वाले को तीन तौलिये मिलते हैं। एक जाते समय कमर में लपेटने के लिए, दूसरा नहाने के बाद कमर में लपेटने के लिए और तीसरा शरीर पोंछने के लिए..।

भारत के बारे में उन्होंने लिखा है:-

यहां पान के पौधे बहुत देखने को मिले। पूजा से लेकर आतिथ्य-सत्कार तक इसकी उपयोगिता है। पान की भेंट सोने-चांदी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। मेहमानों को भोजन के उपरांत चूना व सुपारी मिला पान खिलाया जाता है।

इब्न बतूता ने मार्को के 60 वर्ष बाद चीन-यात्रा की थी, लेकिन उनसे ज्यादा घूमे थे। उनका योगदान महत्वपूर्ण है।

बौद्ध धर्म के लिए थीं ह्वेनसांग की यात्राएं

इतिहास के विद्यार्थियों के लिए मशहूर चीनी बौद्ध भिक्षु, यात्री और अनुवादक ह्वेनसांग एक परिचित नाम है। उन्होंने भारत और चीन के मध्य संबंध बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चार भाई-बहनों के  बीच सबसे छोटे ह्वेनसांग 13 वर्ष की आयु में बौद्ध धर्म के संपर्क में आ गए थे। चीन में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के विषय में चिंतित थे। इसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने भारत को चुना, यहां लगभग 17 वर्ष रहकर उन्होंने बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया। वह नालंदा, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, लुंबिनी और फिर कुशीनगर गए, जहां बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था।

जब वह चीन वापस गए तो बौद्ध धर्म को पूरी तरह समझ चुके थे। चीन में राजा ने उन्हें पूरा समर्थन दिया। उन्होंने ह्वेनसांग को दरबारी सलाहकार बनाना चाहा, लेकिन इस यायावर भिक्षु ने विनम्रता से इनकार कर दिया, क्योंकि वह राजनीति में नहीं धर्म में आस्था रखते थे। वह राजा के आध्यात्मिक सलाहकार बन गए।

अपने आखिरी वक्त में भी चीन के राजा ने ह्वेनसांग को पास बुलाया। राजा के बाद उनके पुत्र ने इस भिक्षु को पूर्ण सम्मान प्रदान किया। उनके जीवन का अधिकांश समय बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार और बौद्ध साहित्य के अनुवाद में बीता।

आजीवन घुमक्कड़ रहे राहुल सांकृत्यायन

हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर थे राहुल सांकृत्यायन। आजमगढ़ [उत्तर प्रदेश] के छोटे से गांव में 1893 में जन्मे वह। उनका नाम केदारनाथ था, लेकिन उन्होंने नाम बदल कर राहुल रख लिया। जीवन के 45 वर्ष उन्होंने भारत, तिब्बत, श्रीलंका, रूस, एशिया, यूरोप की दुर्गम यात्राओं में गुजारे। लगभग पांच बार तिब्बत, श्रीलंका व सोवियत भूमि का भ्रमण किया। यूरोप व एशिया की 36 भाषाएं उन्हें आती थीं। उनकी रचना ‘अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा’ के कुछ अंश हैं:-

दुनिया में सर्वश्रेष्ठ चीज है घुमक्कड़ी। आदिम पुरुष एक जगह नदी के किनारे पड़े रहते तो दुनिया को आगे नहीं ले जा पाते। बारूद, तोप, कागज, छापाखाना, चश्मे ने पश्चिम में विज्ञान युग का प्रारंभ कराया। इन्हें वहां ले जाने वाले मंगोल घुमक्कड़ थे। भारतीय घुमक्कड़ों ने लंका, बर्मा, मलाया, यवदीव, स्याम, कंबोज, चंपा, बोर्नियो और सेलीब्रीज, फिलिपाइन तक धावा मारा था और एक समय तो यही लगता था कि न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया भी वृहत्तर भारत के ही अंग बनने वाले हैं..।

साहित्य में भी हुई हैं महत्वपूर्ण यात्राएं

साहित्यिक दृष्टि से भी यात्रा वृत्तांतों का बड़ा योगदान है। जोनाथन स्विफ्ट ने ‘गुलिवर’ प्रदेशों की कथात्मक कड़ी प्रस्तुत की। इनके जरिये उन्होंने तत्कालीन शासकों और आम जनता के बीच होने वाले द्वंद्व और लोगों के दुख-दर्द का गहराई से वर्णन किया। ‘ए वॉयेज टु लिलिपुट’ में उन्होंने खुद को एक रोमांचक यात्री गुलिवर के रूप में प्रस्तुत किया है। यह यात्री समुद्री जहाज में होने वाली दुर्घटना के परिणामस्वरूप लहरों के साथ बहकर ऐसे अनजाने प्रदेश में पहुंच जाता है, जहां के लोग कद में बहुत छोटे होते हैं। गुलिवर ट्रेवल्स श्रृंखला की ये तमाम रचनाएं इतनी लोकप्रिय हुई कि बाद में इन पर आधारित कई पुस्तकें प्रकाशित हुई। लिलिपुटियन शब्द का अर्थ ही बौना हो गया। वॉल्तेयर की ‘केंडिड’ में भी देश-काल-परिस्थिति का अद्भुत समन्वय है। सात-वर्षीय युद्ध और लिस्बन में आए भूकंप इसकी पृष्ठभूमि में हैं। महाकवि कालिदास की रचना ‘मेघदूत’ भी काव्यात्मक यात्रा ही है। इसी तरह अल-बरुनी पहले मुसलिम विद्वान थे, जिन्होंने भारत का बारीकी से अध्ययन किया और यहां की सामाजिक संरचना को समझा।

धर्म से ज्ञान की यात्रा की नासिर खुसरो ने

नासिर खुसरो ईरान के कवि, दार्शनिक और यात्री थे। आधुनिक अफगानिस्तान में सन 1004 में जन्मे वह। गणित, ज्योतिष, चिकित्सा-शास्त्र, खगोल-शास्त्र जैसे तमाम विषयों का उन्हें खासा ज्ञान था। उन्होंने 1046 से 1052 तक मध्य-पूर्व से भारत तक की यात्रा की। उन्होंने सात वर्षो में 19 हजार किलोमीटर की यात्रा की। मक्का-मदीना की आध्यात्मिक यात्राएं चार बार कीं। वह ज्ञान-पिपासु भी थे। बगदाद, येरुशलम, सीरिया, लाहौर, मुल्तान और सिंध जैसे कई क्षेत्रों की यात्रा भी उन्होंने की।

अपनी रचना ‘सफरनामा’ में उन्होंने शहरों की संस्कृति, आबादी, सड़कों, इमारतों, स्कूल-कॉलेज-मदरसों, मसजिदों, राजाओं, वैज्ञानिकों, आम लोगों के अनुभव समेटे हैं। उन्होंने पद्य कविताओं का ‘दीवान’ भी लिखा। आज भी फारसी जानने वाले लोगों को ज्ञान और व्यावहारिक सलाह देने वाली ये कविताएं भाती हैं।

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