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अमृतसर एक धार्मिक एवं ऐतिहासिक शहर है। इस शहर को गुरुग्रंथ साहिब में ‘सिफली दा घर’ कहा गया है, जिसका अर्थ है ऐसा पवित्र स्थान जहां परमेश्वर की कृपा बरसती है। संसार भर के सिक्खों के लिए पवित्रतम धर्मस्थल स्वर्णमंदिर की इस नगरी का नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। यह शहर आज 425 वर्ष पुराना है। इस लंबे इतिहास में इस शहर पर आक्रांताओं की कुदृष्टि भी कई बार पड़ी, लेकिन फिर भी इसका गौरव कभी कम नहीं हुआ। इसीलिए आज आस्था की नगरी अमृतसर का धर्मवैभव देश-विदेश से हजारों अनुयायियों को रोज अपनी ओर आकर्षित करता है।
इतिहास में दर्ज स्वाधीनता आंदोलन की कई बड़ी घटनाओं से भी अमृतसर का वास्ता रहा है। अंग्रेजों के अत्याचार का दंश इस शहर ने कई बार झेला, वहीं आजादी के बाद विभाजन के परिणामस्वरूप हुई त्रासदी का भी यह मूक गवाह रहा। पाकिस्तानी सरहद के निकट स्थित होने के कारण अमृतसर पर सीमा पार होने वाली हलचल का प्रभाव भी पड़ता है। दोनों देशों के बीच अमन-चैन कायम करने वाली सदा-ए-सरहद बस यात्रा इसी शहर से होकर सीमा पार करती है। दिल्ली की तरह अमृतसर भी कभी मजबूत चारदीवारी से घिरा होता था, जिसके 18 द्वार थे। आज यह पुराने व नये दो भागों में फैल चुका है। सिक्ख आस्था का भव्य केंद्र होने के साथ-साथ अमृतसर आज एक व्यावसायकि केंद्र तथा प्रसिद्ध पर्यटन स्थल भी है।
गुरुओं ने बसाया शहर
अमृतसर के अस्तित्व में आने का इतिहास बहुत रोचक है। कहते हैं एक बार गुरु नानक देव जी भाई मरदाना के साथ किसी यात्रा पर जा रहे थे। यात्रा के दौरान वह विश्राम के लिए एक रमणीक स्थान पर रुके। उस स्थान को देख गुरु नानक देव जी ने भाई मरदाना से कहा था, ‘एक दिन इस स्थान पर एक सरोवर होगा, जिसका जल अमृत के समान होगा। सरोवर के आसपास एक पवित्र शहर बसेगा।’
सन् 1570 में जब तीसरे गुरु गुरु अमरदास जी उस स्थान पर आए तो उन्होंने वहां एक नगर बसाने की कामना प्रकट की। संगत से मशवरा करने के बाद आसपास के गांवों के मुखिया वहां बुलाए गए। उन्होंने नया नगर बसाने के लिए अपने गांवों की थोड़ी-थोड़ी भूमि गुरुजी को सहर्ष प्रदान कर दी। लेकिन गुरुजी ने अपनी पुरानी परंपरा के अनुसार भूमि का मुआवजा देने के बाद ही उसे स्वीकार किया। इस विषय में एक कहानी यह भी है कि नया शहर बसाने के लिए मुगल सम्राट अकबर ने भूमि भेंट स्वरूप दी थी। 1579 में चौथे गुरु रामदास जी ने अमृतसर की स्थापना की। जिसे गुरु का स्थान कहा जाने लगा। नगर का नाम अमृतसर बाद में पड़ा था।
सरोवर के नाम पर
नगर निर्माण के दौरान कार सेवा के लिए आई बीबी रजनी तथा उसके कोढ़ग्रस्त पति की घटना से अनायास एक ऐसे जलाशय का पता चला, जिसके जल में चमत्कारी गुण थे। उस ताल के जल से जब कोढ़ जैसा रोग भी दूर हो गया तो गुरु रामदास जी ने उस जलाशय को एक सरोवर का रूप देने का निश्चय किया। उन्हें यह समझने में देर न लगी यही वह अमृत के समान जल है जिसके बारे में गुरु नानक देव जी ने कहा था। उन्होंने वहां एक विशाल सरोवर का निर्माण कराया। सरोवर के मध्य एक चबूतरा भी बनाया गया, जहां रोज सुबह-शाम गुरु का दरबार लगता था और श्रद्धालु बड़े मनोयोग से गुरु की वाणी सुनते थे। बाद में गुरु अर्जुन देव जी ने सरोवर को पक्का बनवाकर उसके चारों ओर सीढि़यां बनवाई। अमृत के समान जल वाले सरोवर को उन्होंने अमृत सरोवर तथा अमृतसर कहना आरंभ कर दिया। बाद में सरोवर के नाम से ही शहर का नाम अमृतसर पड़ गया।
यह चमक सुनहरी
अमृतसर आने वाला हर सैलानी सबसे पहले स्वर्णमंदिर के ही दर्शन करने पहुंचता है। स्वर्णमंदिर को अमृतसर का हृदय कहा जाए तो गलत न होगा। स्वर्णमंदिर का वास्तविक नाम हरिमंदिर साहिब है, जिसका निर्माण गुरु अर्जुनदेव जी ने करवाया था। अमृतसरोवर के मध्य बने चबूतरे पर उन्होंने 1588 में एक भव्य मंदिर का निर्माण आरंभ कराया, जिसके अलग-अलग दिशाओं में चार द्वार थे। हरिमंदिर साहिब निर्माण के बाद यहां गुरुग्रंथ साहब की स्थापना की गई। किंतु हरिमंदिर साहिब की वर्तमान इमारत वह नहीं है, जिसका निर्माण गुरु अर्जुनदेव जी के समय हुआ था। दरअसल 18वीं शताब्दी में जब अफगान तथा मुगल आक्रांता देश के धर्मस्थलों को क्षति पहुंचाने लगे तब अमृतसर का यह पवित्र स्थल भी बच न सका। 1757, 1762 और 1765 में इसे तीन बार तहस-नहस किया गया, लेकिन सिख अनुयायियों ने पूरी आस्था और लगन से हरिमंदिर साहिब को पुन: प्रतिष्ठित किया। आज हरिमंदिर साहिब जिस रूप में विद्यमान है, उसका श्रेय महाराजा रणजीत सिंह को जाता है। उन्होंने देश भर से निपुण शिल्पकारों को बुलवाकर मंदिर के सुंदरीकरण का कार्य करवाया था। हरिमंदिर साहिब के गुंबद को पहले कांस्य चादर से ढक कर उस पर सोने की परत चढ़ाई गई थी। बाद में बाहर तथा अंदर की दीवारों पर भी स्वर्णपत्र चढ़ाए गए। हरिमंदिर साहब की स्वर्णिम आभा के कारण ही इसे स्वर्णमंदिर कहा जाने लगा। आज स्वर्णमंदिर पर 1600 किलोग्राम से भी अधिक सोना मढ़ा है जिसकी सुनहरी चमक हर दिशा से पर्यटकों को प्रभावित करती है।
स्वर्णमंदिर की वास्तुकला में विभिन्न वास्तुकलाओं का समावेश किया गया था। गुंबद के ऊपरी हिस्से पर उलटे कमल की आकृति बनी। यह शैली आगे भी विभिन्न गुरुद्वारों के निर्माण में अपनाई गई। मंदिर के अंदर की दीवारों एवं छत पर स्वर्ण के अतिरिक्त रंगीन कांच व मूल्यवान पत्थरों से मनमोहक एवं कलात्मक आकृतियां व बेलें आदि बनी हैं। प्राकृतिक रंगों से बने पुराने चित्र आज भी उतने ही आकर्षक दिखते हैं, रंग-बिरंगे झाड़फानूस हरिमंदिर साहिब की आंतरिक स”ाा का खास हिस्सा है। हरिमंदिर साहिब के प्रवेशद्वार पर गुरुमुखी भाषा में लिखी तहरीर के अनुसार इसका नवनिर्माण एवं सुंदरीकरण 1830 में पूरा हुआ था। स्वर्णमंदिर तक पहंुचने के लिए पुलनुमा मार्ग बना है, जिसका द्वार दर्शनी डयोढ़ी कहलाता है। मंदिर में प्रथम तल पर गुरुग्रंथ साहिब अवस्थित हैं जहां अखंड पाठ चलता रहता है। पाठ करने वालों को रागी कहते हैं। क्योंकि ये लोग संगीत के उन रागों के जानकार होते हैं जिनमें गुरुग्रंथ साहिब का पाठ किया जाता है। हरिमंदिर को दरबार साहिब भी कहा जाता है। मंदिर में माथा टेक कर लोग हरि की पैड़ी नामक स्थान पर अमृतपान करते हैं तथा बाहर आते हुए कढ़ा प्रसाद ग्रहण करते हैं।
अकाल तख्त
स्वर्णमंदिर एवं पवित्र सरोवर विशाल परिसर के मध्य स्थित है, जिसका मुख्य प्रवेशद्वार उत्तर दिशा में है। इस द्वार पर एक क्लॉक टॉवर बना है। मंदिर में प्रवेश करते समय सिर पर पगड़ी या कोई कपड़ा या टोपी अवश्य होनी चाहिए। अंदर सरोवर के आसपास संगमरमर का बना परिक्रमा पथ है। मंदिर परिसर में दिनभर गुरुवाणी की कर्णप्रिय गूंज सुनाई देती रहती है। परिसर में और भी अनेक महत्वपूर्ण भवन एवं छोटे गुरुद्वारे हैं। इनमें सबसे प्रमुख अकाल तख्त है। हरिमंदिर साहिब के सामने स्थित यह सफेद भवन सामाजिक नीतियों तथा धार्मिक विषयों का सर्वो”ा आसन है। अकाल तख्त से जारी प्रत्येक आज्ञा हर सिख के लिए अनुकरणीय होती है। अकाल तख्त की स्थापना छठे गुरु गुरु हरगोविंद सिंह जी ने की थी। भवन में गुरुओं के पुराने अस्त्र-शस्त्र, भेंट में प्राप्त मूल्यवान वस्तुएं तथा आभूषण आदि भी रखे हैं। यहीं कोठा साहिब नामक वह स्थान भी है, जहां गुरुग्रंथ साहिब को रात्रि के समय सुखासन के लिए लाया जाता है। प्रात:काल तीन बजे यहीं से गुरुग्रंथ साहिब की सवारी उसी सम्मान से हरिमंदिर साहिब ले जाई जाती है। अकाल तख्त के सामने दो निशान साहिब भी स्थापित हैं। अकाल तख्त के गुंबद पर भी सुनहरी चमक मौजूद है।
परिसर के अंदर स्थित अन्य दर्शनीय स्थलों में गुरुद्वारा लाची बेरी, गुरुद्वारा बाबा अटल राय, गुरुद्वारा घड़ा साहिब, गुरुद्वारा शहीदगंज, बाबा गुरुबख्श सिंह, बेर बाबा बुढ्डा जी, शहीद बुंगा बाबा दीप सिंह आदि है। स्वर्णमंदिर आने वाले हर श्रद्धालु गुरु के लंगर में आकर प्रसाद जरूर ग्रहण करता है, जो कि पूर्वी प्रवेशद्वार के निकट स्थित है। यह लंगर बारहों माह चलता रहता है। यहां अमीर-गरीब या जात-पात के भेदभाव के बिना सभी एकसाथ बैठकर लंगर ग्रहण करते हैं। यह एक दोमंजिले भवन में स्थित है जहां एक बार से हजार से अधिक लोग बैठ सकते हैं। परिसर में ही मंजी साहिब नामक विशाल सम्मेलन हाल भी है। जहां बड़े-बड़े धार्मिक सम्मेलन आदि आयोजित किए जाते हैं। परिसर के बराबर में गुरु रामदास सराय, नानक निवास आदि में यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था भी है। मुख्य प्रवेशद्वार के निकट स्थित केंद्रीय सिख संग्रहालय भी यहां का दर्शनीय स्थान है जहां सुंदर पेंटिंग प्रदर्शित है जिनमें दस गुरुओं के सौम्य चित्रों के साथ अनेक महत्वपूर्ण हस्तियों तथा घटनाओं के चित्र एवं धर्म की राह पर शहीद होने वाले वीरों के चित्र भी सजे हैं। संग्रहालय में अनेक पुरानी पांडुलिपियां, हुक्मनामे, दस्तावेज, शस्त्र एवं सिक्के भी प्रदर्शित हैं।
एक तीर्थ राष्ट्रीयता का
अमृतसर का पर्याय बना स्वर्णमंदिर यहां का धार्मिक तीर्थ है तो शहर का दूसरा पर्याय जलियांवाला बाग एक राष्ट्रीय तीर्थ है। शहीदों के रक्त से सिंचित इस बाग की धरती से आज भी देशभक्ति की महक आती है। जलियांवाला बाग साक्षी है उस दौर का जब अंग्रेजी हुकूमत अ¨हसावादी आंदोलन पर भी क्रूरता का कहर बरपाती थी। जब जनरल डायर ने क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए शांतिपूर्ण सभा पर मशीनगनों से अनगिनत गोलियां चलवाई थीं।
13 अप्रैल 1919 को रौलट एक्ट के विरोध में रोष प्रकट करने के लिए यहां एकत्र हुए तमाम निर्दोष और निहत्थे भारतीय उन गोलियों के शिकार हुए। सदी की इस क्रूरतम घटना में दो हजार से अधिक लोग मारे गए तथा घायलों की संख्या भी हजारों में थी। जलियांवाला बाग में शहीद होने वालों की याद को कायम रखने के लिए ऑल इंडिया कांग्रेस ने एक ट्रस्ट बनाकर इस बाग की धरती को इसके मालिकों से खरीद लिया। फिर यहां जलियांवाला बाग मेमोरियल बनाया गया। आज इस बाग में ज्योति के आकार जैसा करीब 35 फुट ऊंचा लाल पत्थर का स्मारक बना है। उन शहीदों को श्रद्धांजलि के रूप में एक अमर ज्योति यहां सदैव प्रज्ज्वलित रहती है। बाग की दीवारों पर आज भी उन गोलियों के निशान देखे जा सकते हैं। बाग में वह शहीदी कुआं भी विद्यमान है जिसमें उस समय सैकड़ों लोग गिर गए थे। यहां बने एक छोटे से संग्रहालय में उस दौर के चित्र घटना के मर्म का एहसास कराते हैं। यहां शहीद उधम सिंह की तस्वीर भी लगी है, जिन्होंने 19 साल बाद जलियांवाला बाग कांड के लिए जिम्मेदार जनरल डायर को लंदन में मार गिराया था।
एक तीर्थ भवानी का
अमृतसर की पवित्र धरती पर एक ओर तीर्थ है, जिसे दुग्र्याणा तीर्थ कहा जाता है। यह भवानी दुर्गा का मंदिर है, जिसका निर्माण 16वीं शताब्दी में हुआ था। पहले यहां एक छोटा मंदिर था। बाद में समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार भी होता रहा। वर्तमान दुग्र्याणा मंदिर स्वर्णमंदिर के सयान एक सरोवर के मध्य स्थित है। मंदिर की दीवारें कांगड़ा शैली के सुंदर चित्रों से सजी हैं। नवरात्रों के पावन अवसर पर यहां भक्तों की अपार भीड़ आती है। दुग्र्याणा मंदिर के सामने लक्ष्मी नारायण मंदिर है। इसकी स्थापना 1925 में पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा की गई थी।
समारोह ध्वजारोहण का
अमृतसर के निकट ही पर्यटकों के लिए आकर्षण का एक और केंद्र वाघा बार्डर महत्वपूर्ण है। भारत-पाकिस्तान सीमा पर यह संयुक्त चौकी है। वैसे तो यह चौकी दिन भर वीरान होती है, लेकिन शाम होते-होते एकदम जीवंत हो उठती है। इसका कारण है रोज शाम को यहां होने वाला ध्वजारोहण, जिसे देखने के लिए शाम से पहले ही यहां पर्यटकों का हुजूम जुटने लगता है। शहर से करीब 32 किलोमीटर दूर स्थित यह चौकी उस समय एक समारोह स्थल में तब्दील हो जाती है। सीमा पर लोहे के दो गेट लगे हैं। तिरंगे के रंगों से सजा गेट भारत की दिशा में है तथा हरे रंग पर चांद सितारे वाला गेट पाकिस्तान की ओर है। इनके मध्य दोनों देशों के राष्ट्रीय ध्वज फहरा रहे होते हैं। पर्यटकों के आने पर वहां देशभक्ति के गीत गूंजने लगते हैं। लोगों में देशभक्ति का जज्बा देखते ही बनता है। ऐसा ही माहौल पाकिस्तान की ओर भी नजर आता है।
ध्वजारोहण का समय होने पर सीमा सुरक्षा बल के जवान अपना द्वार खोलते हैं। उसी समय दूसरी ओर का द्वार भी खुलता है। उस समय दोनों तरफ के जवानों की फुर्ती देखते ही बनती है, जिसे देख वहां उपस्थित लोग तालियां बजाने लगते हैं। फिर दोनों देशों के जवान धीरे-धीरे अपना ध्वज उतारते हैं। उसके बाद सीमा द्वार पुन: बंद कर दिया जाता है। वास्तव में यह अपने आपमें अनोखी रस्म है, जिसे देखने विदेशी सैलानी भी पहुंचते हैं। इसके लिए किसी टिकट या पास की जरूरत नहीं होती। वाघा सीमा का यह समारोह पर्यटकों को बेहद प्रभावित करता है।
बड़ियां अमृतसर की
शहर के नए हिस्से में स्थित रामबाग भी दर्शनीय स्थान है। इस सुंदर बाग में महाराजा रणजीत सिंह का महल है, जिसमें अब संग्रहालय है। इस संग्रहालय में पंजाब के महाराजाओं के चित्र तथा मुगलकाल के हथियार प्रदर्शित किए गए हैं। अमृतसर से 25 किलोमीटर दूर तरनतारन भी देखने योग्य स्थान है।
हालांकि अमृतसर कोई बड़ा शहर नहीं है। इसलिए सैलानियों को घूमने में जरा भी परेशानी नहीं होती। स्वर्णमंदिर परिसर के सामने ही एक बाजार है। यहां के पापड़, बडि़यां, अचार आदि काफी प्रसिद्ध हैं। यहां की बडि़यां बाहर भी खासी लोकप्रिय हैं। यहां आकर सैलानी अमृतसरी छोले-भटूरे तथा लस्सी का स्वाद जरूर लेते हैं। ऊनी वस्त्र, स्वेटर तथा कंबल आदि तो पर्यटकों की खरीदारी का खास हिस्सा होते हैं। वैसे अमृतसर की रौनक का उत्कर्ष अगर देखना हो तो यहां गुरुपर्व या दीपावली जैसे किसी बड़े पर्व पर आना चाहिए। उस समय स्वर्ण मंदिर रात्रि में प्रकाश से इस तरह जगमगाता रहता है कि वह छटा अन्यत्र दुर्लभ है। उस समय यहां पंजाब की लोकसंस्कृति की भी अच्छी झलक देखने को मिलती है।