विशाखापट्नम: अनछुआ है सौंदर्य जिसका

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तीन दिशाओं से समंदर से घिरे हमारे देश की हजारों मील लंबी तटरेखा पर सैकड़ों मनोरम बीच हैं। लेकिन पर्यटकों का ध्यान कुछ खास सागर तटों पर जाकर ही ठहर जाता है। हमने तय कर लिया था कि बार-बार उन्हीं तटों के दृश्य निहारने से बेहतर है किसी अनछुए सागर तट की ओर जाएं। तभी एक दिन कॉफी हाउस में बैठे, बराबर वाली टेबुल पर दो व्यक्तियों को विशाखापट्नम के सागर तट की बात करते सुना। बस मेरे अंदर छिपे ट्रेवल बग ने मुझे काटना शुरू कर दिया। एक नए पर्यटन स्थल के प्रति उपजी उत्सुकतावश मैं शिष्टाचार भूल उनके वार्तालाप में हस्तक्षेप करने पहुंच गया। उनमें से एक सज्जन विशाखापट्नम से स्थानांतरित होकर हमारे शहर में आए थे। वह बड़े गर्व से बता रहे थे। शायद इसीलिए उन्होंने मेरे हस्तक्षेप का बुरा न माना। दरअसल विशाखापट्नम के बारे में यही सुना था कि वह हमारे देश का सबसे बड़ा जलपोत निर्माण केंद्र तथा एक व्यस्ततम बंदरगाह है। इससे ऐसा लगता था कि वहां के सागरतट पर बस पानी के जहाज ही आते-जाते रहते होंगे। सागर लहरों की दिलफरेब अदाओं का लुत्फ उठाने वालों के लिए शायद वहां कोई जगह न हो। लेकिन एक अंजान व्यक्ति द्वारा वहां के बीच की तारीफ ने इतना प्रभावित किया कि हमने आनन-फानन में विशाखापट्नम यात्रा का कार्यक्रम बना डाला। समता एक्सप्रेस से जब हम विशाखापट्नम स्टेशन पर उतरे तो दिन छिप चुका था। बाहर निकलकर हमने डॉलफिन होटल के लिए टैक्सी पकड़ी, जहां हमने पहले ही रूम बुक करा रखा था। शहर की जगमगाती शाम को देख एक बार ऐसा लगा कि हम किसी महानगर में तो नहीं आ गए। लेकिन विशाखापट्नम कोई महानगर तो नहीं, हां तेजी से विकसित होता एक भव्य शहर जरूर है।

स्थापना विजय के देवता की

ईसा से तीन शताब्दी पूर्व मौर्यकाल में यहां मछुआरों का एक छोटा सा गांव था। मौर्य शासकों के बाद यहां पल्लव वंश, चोल वंश, गंगवंश के राजाओं और उनके बाद विजयनगर साम्राज्य का आधिपत्य रहा। परंतु विशाखापट्नम को यह नाम 11वीं शताब्दी में मिला। जब एक हिंदू राजा ने अपनी काशी यात्रा के दौरान यहां पड़ाव डाला। उन्होंने यहां शौर्य और साहस के देवता विशाखा की मूर्ति स्थापित की। बाद में देवता के नाम के साथ ही पट्नम जुड़ने पर वह गांव विशाखापट्नम कहलाया। एक प्राकृतिक बंदरगाह होने के कारण यह धीरे-धीरे विकसित होता रहा। औद्योगिक क्रांति के बाद अंग्रेजों का व्यापार बढ़ने लगा तो इस शहर का महत्व भी बढ़ने लगा। क्योंकि विशाखापट्नम की भौगोलिक स्थिति समुद्री व्यापार के अनुकूल थी। अंग्रेजों ने इसे एक बड़े बंदरगाह के रूप में विकसित करने की कोशिश की। देखते ही देखते यह छोटा सा गांव एक शहर में तब्दील हो गया। बंदरगाह से कुछ ही दूर हरी-भरी पहाडि़यों के पास अंग्रेजों ने एक रिसॉर्ट टाउन बसाया। इसे वॉल्टेयर नाम दिया गया। यहां सुंदर बंगलों का निर्माण किया गया। समय के साथ दोनों स्थानों ने एक बड़े शहर का रूप ले लिया।

सुंदरता सागर तट की

सुबह जब हम होटल से बाहर निकले तो वातावरण में फैली समुद्री हवाओं की सुगंध से हमें एहसास हो गया कि सागरतट यहां से दूर नहीं है। तीन ओर से कुछ छोटी-छोटी पहाडि़यों से घिरे विशाखापट्नम के एक तरफ विस्तृत सागर तट है। रामकृष्ण बीच शहर का प्रमुख और निकटतम बीच है। सागर तट के समानान्तर एक साफ-सुथरी सड़क है। जिसे बीच रोड कहते हैं। बीच रोड के दूसरी ओर बने ऊंचे-ऊंचे आधुनिक भवन सागर तट की शोभा बढ़ाते हैं। इन्हीं भवनों के मध्य रामकृष्ण मिशन का भवन भी है। उसी के आधार पर इस तट का नाम रामकृष्ण बीच पड़ा था। सड़क के किनारे पर बनी वाटिकाओं में आंध्र प्रदेश के अनेक स्वतंत्रता सेनानियों की मूर्तियां लगी हैं। वहीं एक काली मंदिर भी है। जो कोलकाता के दक्षिणेश्वर मंदिर की शैली में बना है। यहां विशाखा संग्रहालय, एक्वेरियम तथा वुडापार्क भी देखने योग्य हैं। बीच रोड पर कहीं भी ठहर जाएं, वहीं से सागर की मचलती लहरों का सौंदर्य और दूर तक फैली अथाह जलराशि नजर आती है। तट की सुनहरी रेत पर पहंुच कर सैलानी मतवाली लहरों के जल से सराबोर हुए बिना नहीं रह पाते। तभी तो रामकृष्ण बीच पर दूर-दूर तक पर्यटकों के समूह समुद्र स्नान का आनंद लेते नजर आते हैं। यूं तो सारे दिन सागर किनारे काफी रौनक रहती है। किंतु शाम होते ही यह रौनक और बढ़ने लगती है। क्योंकि तब यहां स्थानीय लोगों का जमघट भी लग जाता है। तट के आसपास कुछ छोटे रेस्तरां भी हैं। जहां अन्य भोजन के साथ सी फूड का स्वाद भी लिया जा सकता है। तट पर भी खानपान के कुछ स्टाल सजने लगते हैं। यहीं कुछ दुकानों पर शंख और सीपियों से बने हस्तशिल्प के सामान भी खूब मिलते हैं।

मंदिर, मसजिद और गिरजा

रामकृष्ण मिशन बीच के एक छोर पर डॉलफिन नोज नामक छोटी सी पहाड़ी है। इस पहाड़ी का आकार डॉलिफन जैसा होने के कारण इसका यह नाम पड़ा। इसके पास ही बंदरगाह है। बंदरगाह के आसपास तीन छोटी-छोटी पहाडि़यां हैं। इनमें से एक पहाड़ी वेंकटेश्वरकोंडा कहलाती है, जिस पर एक मंदिर है। दरगाहकोंडा पर एक मसजिद बनी है तथा कन्याकुमारीकोंडा पर एक गिरजाघर है। तीनों पहाडि़यां विशाखापट्नम में प्रचलित तीन प्रमुख धर्मो का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसी दिशा में मछुआरों की एक बस्ती भी है। समुद्र में मीलों दूर जाकर मछलियां पकड़ने वाले इन लोगों का जीवन जितना कठिन है, उनकी शैली उतनी ही सरल है। अपनी ही दुनिया में मस्त इन लोगों को यहां उनके वास्तविक परिवेश में देखा जा सकता है।

संग्रह पनडुब्बियों का

यहां के सागर तट पर पर्यटकों के लिए एक विशेष आकर्षण और है। वह है सबमेरिन म्यूजियम यानी पनडुब्बी संग्रहालय। किसी पनडुब्बी की अंदरूनी दुनिया को दर्शाता यह देश का एकमात्र संग्रहालय है। समुद्र की गहराइयों में रहने वाले इन जल सीमा प्रहरियों को आम आदमी प्राय: फिल्म या टेलीविजन के परदे पर ही देख पाता है। इसलिए जब यहां पनडुब्बी को अंदर से देखने का अवसर मिलता है तो पर्यटक रोमांचित हो जाते हैं। अंदर पनडुब्बी के कलपुर्जो को छूकर देखना, गाइड के मार्गदर्शन में पनडुब्बी की कार्यप्रणाली और उसकी मारक क्षमता जानना अपने आपमें एक अनोखा अनुभव होता है। यहां जल सैनिकों की कार्यशैली को समझने पर पता चलता है कि उनका कार्य कितना दूभर होता है। वास्तव में यह एक अद्वितीय संग्रहालय है।

खिड़की है पहाड़ी

सागरतट की सैर के बाद हम कैलाशगिरि हिल की ओर चल दिए। मार्ग में टैक्सी ड्राइवर ने लॉसन-बे के पास टैक्सी रोकी। सर्फिग और समुद्र स्नान के शौकीन पर्यटकों के लिए यह भी एक अनुकूल स्थान है। इस छोटी सी खाड़ी का वास्तविक सौंदर्य कैलाशगिरि से ही नजर आता है। कुछ देर बाद ही हम कैलाशगिरि हिल पर पहुंच गए। कैलाशगिरि एक छोटी सी सुंदर पहाड़ी है। कहा जा सकता है कि यह पहाड़ी यहां की छोटी सी दुनिया की छोटी सी खिड़की है। यहां शिव-पार्वती की बेहद सौम्य प्रतिमा स्थापित है। ये दुग्धधवल प्रतिमाएं बिना किसी अलंकरण के भी अत्यंत भव्य और नयनाभिराम लगती हैं। प्रतिमाओं की पृष्ठभूमि में छाए बादलों से ऐसा दृश्य बन पड़ता है मानो शिवधाम में आ पहुंचे हों। आसपास सुंदर उद्यान है तथा पास ही छोटा सा शिवमंदिर है। पहाड़ी पर ही चिल्ड्रन पार्क, टाइटेनिक व्यूप्वाइंट, फूलघड़ी, टेलीस्कोपिक प्वाइंट भी है। पहाड़ी से एक दिशा में विशाखापट्नम का विहंगम दृश्य नजर आता है तो कहीं लासन खाड़ी का मनमोहक नजारा भी देखने को मिलता है। आकाश में यहां-वहां फैले बादलों की परछाई खाड़ी के जल को विभिन्न रंग-रूपों में विभाजित करती है।

प्राकृतिक परिवेश में

विशाखापट्नम का दूसरा महत्वपूर्ण बीच ऋषिकोंडा बीच है। जो शहर से करीब 8 किलोमीटर दूर है। अगले दिन हम उसी ओर चल दिए। सागर के किनारे-किनारे पूरा मार्ग बहुत सुंदर है। मार्ग में हम इंदिरा गांधी जूलोजिकल पार्क देखने रुके। लगभग 450 एकड़ में फैले इस प्राणी उद्यान में विभिन्न पशु-पक्षियों को उनका प्राकृतिक परिवेश प्रदान करने का प्रयास किया गया है। इसलिए इसे देखना सुखद लगता है। ऋषिकोंडा बीच एक शांत सागरतट है। भीड़भाड़ से परे देर तक नंगे पैर घूमते रहते हैं। जहां बार-बार लहरें आकर उन्हें थोड़ा-थोड़ा भिगो जाती हैं। जहां तक नजर जाती है दूर तक सूर्य की किरणों के पड़ने से सागर का नीला जल झिलमिल करता दिखता है। ऐसे में क्षितिज के पास मछुआरों की कोई नौका दिखते ही दृश्य और मनमोहक लगने लगता है। बेंच पर अधलेटे पर्यटक तट पर आती लहरों को निहारते रहते है। किस तरह पूरे वेग से चली लहरें किनारे पर आकर पूरी तरह समर्पण कर रेत पर फैल जाती हैं। तट पर कुछ अच्छे रेस्तरां और बच्चों के लिए झूले इत्यादि भी लगे हैं। ऋषिकौंडा में अपने मन के अनुकूल रमणीयता पाकर सैलानी यहीं रुकना चाहें तो सामने पहाड़ी पर पर्यटन विभाग का आरामदेह रिसॉर्ट भी है। जहां से प्रकृति का विस्मयकारी रूप और स्पष्ट नजर आता है।

बौद्ध धर्म के विस्तार का साक्षी

विशाखापट्नम के आसपास कुछ स्थान ऐसे भी हैं जो मौर्यकाल में बौद्ध धर्म के विस्तार से जुड़े हैं। इस प्रकार के प्रमाण ऋषिकोंडा से लगभग 7 किलोमीटर दूर थोटलाकोंडा नामक स्थान पर देखने को मिलते हैं। यह स्थान सागर तट के सामने 128 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। यहां प्राचीन स्तूप, चैत्यगृह और विशाल प्रार्थना गृहों के अवशेष मौजूद हैं। दो शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईसा तक थोटलाकोंडा बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा का महत्वपूर्ण आराधना केंद्र था। तब यहां करीब सौ बौद्ध भिक्षु रहा करते थे। तब इस क्षेत्र से विदेशी व्यापार भी होता था। इसलिए यहां से विदेशों में बौद्ध धर्म का प्रचार संभव हो सका। पहाड़ी के मार्ग में एक वाटिका के मध्य भगवान बुद्ध की एक सौम्य प्रतिमा लगी है। वाटिका से पीछे मुड़कर देखते हैं तो पूरे क्षेत्र में हवाओं से लहराते ऊंचे नारियल वृक्ष नजर आते हैं। इनके पीछे समंदर का वही स्वप्निल सौंदर्य दिखाई देता है।

दिलकश समुद्री नजारों के लिए प्रसिद्ध भीमली शहर से 25 किलोमीटर दूर है। इसका पूरा नाम भिमूलीपट्नम है। 17वीं शताब्दी में यहां डच लोगों का आधिपत्य था। उस समय तक विशाखापट्नम एक गांव था। किंतु भीमली एक पोर्ट के रूप में विकसित हो रहा था। यहां से डच व्यापारी व्यापार किया करते थे। लेकिन डच लोगों के प्रस्थान के साथ ही इसका विकास थम गया। उस दौर का शस्त्रागार तथा एक कब्रिस्तान यहां आज भी शेष हैं। गोस्थानी नदी के मुहाने पर स्थित यह तट तैराकी के शौकीन लोगों के लिए बेहद सुरक्षित है। यहां सागर का जल अधिक गहरा नहीं है। भीमली कस्बे की एक विशेषता यह भी है कि यहां की नगर पालिका व्यवस्था देश की दूसरी सबसे पुरानी व्यवस्था है। भीमली से वापस चलते समय दिन छिप रहा था। सागर के समानांतर दौड़ती टैक्सी में समुद्री हवाओं के झोंके हमें बहुत सुहाने महसूस हो रहे थे।

घाटी अरकु की

आंध्रप्रदेश का एक छोटा सा पर्वतीय स्थल अरकु घाटी विशाखापट्नम से मात्र 112 किलोमीटर दूर है। अरकु प्रकृति का दिया वह बेमिसाल तोहफा है कि अगर उसे न देखा जाए तो विशाखापट्नम की यात्रा अधूरी मानी जाएगी। अरकु घाटी सड़क मार्ग एवं रेलमार्ग दोनों से ही विशाखापट्नम से जुड़ी है। ये दोनों ही मार्ग इतने मनमोहक हैं कि लगता है जैसे प्रकृति बांहें पसारे सैलानियों का स्वागत कर रही हो। शायद इसीलिए पर्यटन विभाग ने अरकु घाटी का टूर कुछ इस ढंग से आयोजित किया है कि यात्री घाटी के चप्पे-चप्पे को निहार सकें। अगले दिन प्रात: हम ट्रेन द्वारा अरकु वैली के लिए चल पड़े। विशाखापट्नम से किरंडुल तक चलने वाली यह एक मात्र यात्री गाड़ी है, जिसमें एक बोगी पर्यटकों के लिए होती है। वैसे यह लाइन बैलाडीला खानों से लौह अयस्क की ढुलाई के लिए आरंभ की गई थी। आदिवासी बहुल क्षेत्र से होकर गुजरती इस ट्रेन में आदिवासियों को यात्रा करते भी देखा जा सकता है। इस रेलमार्ग में 72 सुरंगों और 87 छोटे-बड़े पुलों के अतिरिक्त हरे भरे वन, गहरी घाटियां और सुंदर झरने मार्ग के अतिरिक्त आकर्षण हैं। रेलपथ पर ब्रॉडगेज का देश में सबसे ऊंचाई पर स्थित रेलवे स्टेशन सिमलीगुडा भी है।

धरोहर आदिवासी संस्कृति की

घाटी में फैली ऊंची-नीची पहाडि़यों पर मंडराती मेघमालाओं को देख लगता था जैसे वह रोज पर्यटकों के स्वागत में वहां आती हों। अरकु घाटी में कदम रखते ही ऐसा लगा मानो यहां न आते तो वास्तव में प्रकृति के अद्भुत खजाने से वंचित रह जाते। इस विस्तृत घाटी को तो बस थके-हारे यात्रियों के लिए ही बनाया गया है। तभी तो वहां की आबोहवा में पहुंचते ही हम एकदम तरोताजा हो गए। इसी आबोहवा ने अरकु घाटी को विविध प्रकार की वनस्पतियां प्रदान की हैं। इसका प्रमाण वहां का वनस्पति उद्यान है। वहां एक समृद्ध आदिवासी संग्रहालय भी है। यहां आंध्र प्रदेश के अलावा उड़ीसा एवं छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल की संस्कृति से जुड़ी धरोहरें भी देखने को मिलती हैं। इन सबसे आदिवासी जीवन की सरलता तथा उनके प्रकृति प्रेम का भान होता है। उनके हस्तशिल्प वेशभूषा, आभूषण, पात्र, शस्त्र और पूजा की वस्तुएं आदि यहां संग्रहीत हैं। सैलानियों के लिए पर्यटन विभाग की ओर से आदिवासियों के पारंपरिक नृत्यों का एक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी यहां आयोजित किया जाता है।

चित्रकृतियां प्रकृति की

अरकु घाटी से वापसी यात्रा बस द्वारा आरंभ होती है। टायडा जंगल बेल नेचर कैंप एक मनोरम स्थान है। यहां पर्यटन विभाग की लॉग हट है। यह स्थान ईस्टर्न घाट व्यू के लिए प्रसिद्ध है। उधर अनंतगिरि नामक स्थान सुंदर झरनों और कॉफी की खेती के लिए जाना जाता है। वैसे वापसी यात्रा का सबसे अनोखा आकर्षण बोरा केव है। बोरा गुफाओं को यदि कुदरत का कोई अजीबोगरीब करिश्मा कहा जाए तो गलत न होगा। करीब 100 फुट चौड़ी और 80 फुट ऊंची ये गुफाएं अंदर भी काफी दूर तक फैली हैं। इन्हें देखने के लिए नीचे जमीन की गहराई में उतरना पड़ता है। यूं तो प्रकाश की अच्छी व्यवस्था है किंतु फिर भी गुफा देखने के लिए गाइड के साथ जाना श्रेयस्कर है। इन प्राकृतिक गुफाओं में छत से टपकने वाले चूना मिश्रित जल से गुफा की छत और धरातल पर तमाम विचित्र आकृतियां बन गई हैं। इन आकृतियों में कोई शिवलिंग के आकार की है तो किसी में पर्यटक राम का रूप देखते हैं। कहीं छत पर झाड़फानूस लटका प्रतीत होता है तो कहीं मजबूत खंबे बन गए हैं। उत्शैल और अवशैल बनने की प्रक्रिया के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि ये गुफाएं लाखों वर्ष पुरानी हैं। यह जानकर पर्यटकों को बहुत आश्चर्य होता है।

वराह नरसिंह का मंदिर

विशाखापट्नम के निकट एक तीर्थ स्थान भी है। शहर से 16 किलोमीटर दूर सिंहाचलम मंदिर दक्षिण भारत में स्थित भगवान विष्णु के महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है। यह मंदिर विष्णु के दो अवतारों वराह एवं नरसिंह को समर्पित है। मंदिर के आराध्य देव को वराह नरसिंह कहा जाता है। सिहांचलम का अर्थ है सिंह की एक पहाड़ी। मंदिर में भगवान के दर्शन करने के बाद हमें एक पौराणिक कथा के संदर्भ से बताया गया कि इस पहाड़ी पर भगवान विष्णु ने भक्त प्रह्लाद को वराह-नरसिंह रूप में दर्शन दिए थे। प्रह्लाद ने बाद में मंदिर बनवाकर यहां भगवान के उसी रूप की स्थापना की थी। कालांतर में जब मंदिर का महत्व घटने लगा तब एक बार पुरुरवा अपनी पत्नी उर्वशी के साथ यहां आए। उन्होंने एक ईश्वरीय आदेश पर भगवान के स्वरूप को चंदन के लेप से ढक दिया तथा मंदिर का पुनरुद्वार किया। कहते हैं तब से आज तक यहां भगवान की प्रतिमा पर नित्य चंदन लेप लगाया जाता है। लेकिन वर्ष में एक बार अक्षय तृतीया के दिन चंदन लेप हटाया जाता है। उस दिन चंदन यात्रा उत्सव मनाया जाता है। उस दिन भगवान के वास्तविक दर्शन होते हैं। चैत्रमाह में एकादशी से पूर्णिमा तक यहां कल्याणोत्सव मनाया जाता है। उसमें विष्णु और लक्ष्मी का विवाह करने की परंपरा है।

मंदिर के गर्भगृह में वराह नरसिंह की लगभग ढाई फुट ऊंची प्रतिमा विराजमान है, जिसमें भगवान त्रिभंगी मुद्रा में खड़े हैं। उत्तर दिशा में कल्याण मंडप है। जहां 96 नक्काशी युक्त सुंदर स्तंभ हैं। मुखमंडप में एक स्तंभ चांदी और रेशमी कपड़ों से सजा है। इसके ही समक्ष भक्तगण मनौतियां मानते हैं। यहां मन्नत पूरी होने पर बाल उतरवाने की परंपरा है। दक्षिण भारत के अन्य मंदिरों के समान इस मंदिर में भी भगवान के दर्शन करने के लिए विभिन्न टिकट दरों की व्यवस्था है।

नियति का शहर

विशाखापट्नम में सांस्कृतिक गतिविधियां कम ही होती हैं। दरअसल मनोरंजन के नाम पर यहां के लोगों को फिल्मों का शौक ज्यादा है। शहर में स्थित 40 से अधिक सिनेमाहाल तथा जगह-जगह नजर आते रंग-बिरंगे पोस्टर देखकर तो यही लगता है। वैसे यहां तेलुगु भाषा की फिल्मों के अतिरिक्त हिंदी, अंग्रेजी, कन्नड़ और तमिल फिल्में भी देखी जाती हैं। प्रतिवर्ष दिसंबर में यहां विशाखा उत्सव का आयोजन किया जाता है। उस दौरान कैलाशगिरि आर.के. बीच जैसे स्थानों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

विशाखापट्नम का लघु नाम वयजाग या विजाग है। इस शहर को सिटी ऑफ डेस्टिनी भी कहते हैं। यह शहर काफी तीव्रता से आधुनिकता के रंग में रंग रहा है। यहां के आधुनिक बाजार और शॉपिंग मॉल में वह सब नजर आता है जो महानगरों में मिलता है। यहां की यादगार के रूप में अगर कुछ खरीदना चाहें तो आंध्रप्रदेश के प्रसिद्ध हस्तशिल्प और वस्त्र आदि ले सकते हैं। शॉपिंग के लिए जगदम्बा कुरुपम मार्केट तथा द्वारका नगर मुख्य केंद्र हैं। वैसे जापान गिफ्ट्स पेरिस कॉर्नर और सिंगापुर प्लाजा जैसी कस्टम नोटिफाइड दुकानों पर भी पर्यटक खरीदारी करते नजर आते हैं। शहर का उत्तरी भाग रिहायशी क्षेत्र है। यह क्षेत्र वाल्टेयर के नाम से जाना जाता है। दक्षिणी भाग में औद्योगिक एवं व्यावसायिक गतिविधियां अधिक हैं। इस हिस्से में कई स्थानों पर ऊंचे खंबों पर बेल्ट के सहारे ट्राली में खनिज आदि ढोने का कार्य देखा जा सकता है। स्टेशन से बंदरगाह तक यह ढुलाई कार्य नियमित रूप से चलता रहता है।

विशाखापट्नम के आसपास और भी कई दर्शनीय स्थल हैं। अन्नावरम, अरसावल्ली, बावीकोंडा, संकरम आदि स्थानों के लिए पर्यटन विभाग के कंडक्टेड टूर भी चलते हैं। वैसे विशाखापट्नम में पर्यटन से जुड़ी हर सुविधा और ढेर सारे आकर्षण मौजूद हैं। आश्चर्य होता है कि पर्यटन की इतनी खूबियों के बावजूद यह शहर अब तक पर्यटकों की, विशेषकर उत्तर भारत के पर्यटकों की दृष्टि से ओझल क्यों रहा?

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