आंध्र प्रदेश: इतिहास जैसे जीवित है यहां

  • SocialTwist Tell-a-Friend

दक्षिण के पठारी क्षेत्र में स्थित आंध्र प्रदेश देश की पूर्वी तट रेखा तक फैला है। पर्यटकों के आकर्षण के लिए वैसे तो यहां बहुत कुछ है, पर इनमें हैदराबाद और विजयवाड़ा का अपना अलग ही महत्व है। अपनी ऐतिहासिक और धार्मिक पृष्ठभूमि के साथ आधुनिक महानगर का रूप ले चुके इन शहरों ने अपनी परंपरा और संस्कृति को धुंधला नहीं पड़ने दिया है। हैदराबाद हेरिटेज सिटी से हाई टेक सिटी बन रहा है तो विजयवाड़ा इस क्षेत्र का सबसे व्यस्त व्यापारिक केंद्र हो चुका है। इन दोनों ही शहरों के आसपास फैले पर्यटन स्थल सैलानियों से भरे रहते हैं। जनवरी में जब पूरा उत्तर भारत कड़ाके की ठंड से ठिठुर रहा होता है, उस समय ऊंचे पठार पर बसे इन शहरों का सुहाना मौसम पर्यटकों को सबसे ज्यादा रास आता है। सर्दी से दूर कहीं हल्की गर्मी का आनंद लेने के लिए ही हमने हैदराबाद-विजयवाड़ा की घुमक्कड़ी का इरादा बनाया था।

इतिहास झलकता है यहां

हमारा पहला गंतव्य था हैदराबाद। सुपरफास्ट और राजधानी एक्सप्रेस जैसी ट्रेनों से जुड़े इस शहर तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई। राज्य में आम बोलचाल की भाषा तेलुगु है, पर अब हैदराबाद की अपनी एक खास बोली बन चुकी है। हैदराबादी कही जाने वाली यह बोली दरअसल ¨हदी और उर्दू का मिला-जुला रूप है, जिसमें अंग्रेजी और तेलुगु शब्दों का खासा अंश होता है। पर्यटकों और स्थानीय लोगों को आपसी संवाद में खासी आसानी हो जाती है।

हैदराबाद ऐसा शहर है जहां इतिहास केवल इमारतों तक सीमित नहीं है, बल्कि यहां के रीति-रिवाज, भाषा और लोककला के साथ तहजीब में भी झलकता है। विभिन्न संस्कृतियों के प्रभाव में रह चुके इस क्षेत्र ने उन सभी संस्कृतियों को अपने भीतर समाहित कर लिया है। हैदराबाद के निवासियों के जीवन में उन्हीं संस्कृतियों का संगम आज भी देखने को मिलता है। 16वीं शताब्दी के अंत में जब कुतुबशाही शासकों की राजधानी गोलकुंडा की आबादी बढ़ने लगी तो मोहम्मद कुली कुतुबशाह ने मूसी नदी के तट पर नया शहर बसाना शुरू किया। उस शहर का नाम उन्होंने अपनी प्रेमिका भागमती के नाम पर भाग्यनगर रखा। शाही परिवार का हिस्सा बनने के बाद जब भागमती को हैदर महल नाम से नवाजा गया तो शहर का भी नाम बदलकर हैदराबाद कर दिया गया। बाद में अंग्रेजों के समय में शहर का नया हिस्सा विकसित हुआ, जिसका नाम निजाम सिकंदर के नाम पर सिकंदराबाद पड़ गया। दिल्ली और नई दिल्ली की तरह ये ट्विन सिटी यानी जुड़वां शहर कहलाने लगे। भारतीय उप महाद्वीप के ठीक मध्य में बसा यह शहर समुद्र तल से 536 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसलिए यहां की जलवायु प्राय: सुहानी रहती है।

अद्भुत संग्रह कला का

नगर भ्रमण पर निकले तो सबसे पहले हम हैदराबाद की खास पहचान चारमीनार देखने गए। करीब 54 मीटर ऊंची इस भव्य इमारत का निर्माण सन् 1591-92 में कुली कुतुबशाह ने उस समय शहर में फैला प्लेग समाप्त होने की खुशी में करवाया था। इसके चारों कोनों पर बनी मीनारों के कारण इसका नाम चारमीनार पड़ गया। आसपास फैले बाजार के कारण यहां हमेशा रौनक रहती है। यहां की चहल-पहल से भरी गलियां देख पुरानी दिल्ली की याद आती है। चारमीनार से कुछ दूरी पर स्थित है मक्का मस्जिद। ग्रेनाइट पत्थर की बनी यह मस्जिद दक्षिण भारत की सबसे बड़ी मस्जिद है। यहां एक बार में दस हजार से अधिक लोग नमाज अदा कर सकते हैं। इसके निर्माण के दौरान कुछ ईटें पवित्र शहर मक्का से लाकर लगाई गई थीं, इसलिए इसका नाम मक्का मस्जिद पड़ गया।

हैदराबाद पहुंचकर हम सालारजंग संग्रहालय देखने के लिए बेहद उत्सुक थे। संग्रहालय की दो मंजिलों में स्थित 38 दीर्घाओं में निजाम के प्रधानमंत्री सालारजंग का नायाब कला संग्रह प्रदर्शित है। देश-विदेश से जुटाई गई लगभग तीस हजार कलाकृतियां, इस संग्रहालय में संग्रहीत हैं। एक ही व्यक्ति द्वारा मूर्तियों, चित्रों, परिधान, पांडुलिपि और हथियार आदि के इस विशाल संग्रह को देख हम चकित रह गए। साड़ी में लिपटी सुंदर नारी की एक प्रतिमा से तो दर्शकों की निगाह ही नहीं हटती। रोम में बनी इस प्रतिमा को कलाकार ने इतनी बारीकी से तराशा है कि नारी का चेहरा और उसे ढकने के लिए लगा झीना सा घूंघट दोनों वास्तविक लगते हैं। राष्ट्रीय महत्व के इस संग्रहालय में कुछ कृतियां वास्तव में कला का उत्कृष्ट नमूना हैं।

झील के मध्य में महात्मा बुद्ध

हैदराबाद और सिकंदराबाद के मध्य स्थित हुसैन सागर एक सुंदर झील है। इसके बीच में स्थित रॉक ऑफ गिब्राल्टर पर स्थापित महात्मा बुद्ध की 18 मीटर ऊंची प्रतिमा पर्यटकों के लिए आकर्षण का खास कारण है। इस सौम्य प्रतिमा को नजदीक से देखने के लिए हम नाव से गए। 350 टन की इस प्रतिमा को यहां स्थापित करना कठिन काम था। जब यह प्रतिमा नाव से यहां लाई जा रही थी तो वह नाव पलट गई थी और प्रतिमा झील में जा गिरी। बाद में सन् 1992 में विशेषज्ञों की सहायता से इसे निकाल कर यहां स्थापित किया गया। झील के पास लुंबिनी पार्क में संगीतमय फव्वारे लगे हैं। ये शाम के समय बेहद सुंदर दिखते हैं। झील से सटे टैंक बंड रोड पर आंध्र प्रदेश की महान विभूतियों की 33 प्रतिमाएं लगी हैं। वहां से हम श्री वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर देखने पहुंचे। सफेद संगमरमर का बना यह मंदिर 250 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। इसे बिड़ला मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इसकी वास्तुकला में उत्तर और दक्षिण भारतीय शैलियों का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है। यहां से हुसैन सागर का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित बिड़ला तारामंडल तथा विज्ञान संग्रहालय भी देखने लायक हैं।

वह शाम हमने लुंबिनी पार्क के संगीतमय फव्वारों के बीच बिताई। वहां से चलते समय जब टैक्सी ड्राइवर से हैदराबाद के खान-पान के बारे में पूछा तो पता चला कि यह शहर खान-पान के शौकीन लोगों के लिए स्वर्ग है। दरअसल नवाबों और जागीरदारों के समय में भारतीय भोजन में मुगलई भोजन के स्वादों को मिलाकर नये स्वाद वाले कई व्यंजन तैयार किए गए। इसलिए नवाबी शहर की तहजीब की तरह नवाबी खान-पान का अंदाज भी निराला है। हैदराबादी बिरयानी और पुलाव की तारीफ किए बिना तो कोई रह ही नहीं सकता। शाही कबाब, दम का मुर्ग, मुर्ग मेथी और शाही कोरमा मांसाहारी लोगों की पसंद है, तो मिर्ची का सालन, बघारे बैगन और शाही दही बड़ा शाकाहारी लोगों के पसंदीदा व्यंजन  हैं। इसके अलावा भोजन के बाद लेने के लिए मीठे में यहां शाही कोरमा, खीर, फिरनी या कबाबी का मीठा प्रमुख हैं।

करतल की गूंज शिखर तक

अगले दिन हम शहर से 11 किमी दूर गोलकुंडा फोर्ट देखने गए। यह स्थान कई शासकों की राजधानी रह चुका है। गोलकुंडा का इतिहास सन् 1364 से शुरू होता है। आरंभ में यह देवगिरी के यादव वंश और वारंगल के काकतिया वंश के प्रभाव में रहा। बाद में सन् 1518 में कुतुबशाही शासकों के आने के साथ ही शुरू हुआ गोलकुंडा के वैभव का दौर। सुलतान कुली कुतुबशाह ने गोलकुंडा के किले का विस्तार शुरू किया और कुतुबशाही वास्तु शैली में कई महत्वपूर्ण निर्माण कराए।

ग्रेनाइट की 120 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थित यह किला चार मील दायरे में फैला है। ऊंची चारदीवारी से घिरे इस किले के आठ द्वार हैं। किले में कुल 87 बुर्ज हैं। किले में हमें जो विशेष बात देखने को मिली वह सभी पर्यटकों को अचंभित करती है। मुख्य द्वार के निकट बने एक गुंबद के नीचे जब ताली बजाई जाती है तो उसकी गूंज लगभग 400 फुट ऊपर बने दरबार हाल तक सुनाई पड़ती है। आपात काल में किले के सुरक्षा तंत्र को सतर्क करने के लिए ध्वनि प्रसार की यह तकनीक  विकसित की गई थी। गाइड ने हमें बताया कि आज ब्रिटिश राजशाही मुकुट की शान बना कोहनूर हीरा कभी गोलकुंडा की विरासत था। किले में हमने शाही महल, रानी महल, सभागार, बारूद खाना, शाही हरम आदि देखे। धीरे-धीरे खंडहर में तब्दील हो रही इन इमारतों को देख बेहद अफसोस हुआ। यदि इनकी सुरक्षा के सही प्रयास न किए गए तो ये सब भी नष्ट हो जाएंगे।

जीवंत होता इतिहास

किले से कुछ दूर इब्राहिम बाग में स्थित विशाल कुतुबशाही मकबरे भी दर्शनीय हैं। ये कुतुबशाही वास्तु कला के भव्य उदाहरण हैं। वास्तु की कुतुबशाही शैली अपने मूल रूप में भारतीय, अफगान और फारसी शैलियों का एक समन्वित रूप है। शाम के समय हम ध्वनि एवं प्रकाश कार्यक्रम देखने गए। यह कार्यक्रम गोलकुंडा के गौरवशाली अतीत को सचमुच जीवंत कर देता है।

हैदराबाद के बाहरी क्षेत्र में और भी कई दर्शनीय स्थल हैं। इनमें प्रमुख है हाई टेक सिटी। यहां स्थित साइबर टावर्स पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। वहां से हम उसमान सागर पहुंचे। 1920 में मूसी नदी पर बनाए डैम से यह झील निर्मित की गई थी। इसके आसपास सुंदर उद्यान और एक गेस्ट हाउस है। शिल्पग्राम में आंध्र प्रदेश ही नहीं, पूरे देश की शिल्पकला की झांकी देखने को मिलती है। इस शिल्पग्राम में शिल्पकारों को काम करते भी देखा जा सकता है। हैदराबाद का नेहरू प्राणी उद्यान देश का सबसे बड़ा चिडि़याघर है। यहां टॉय ट्रेन और लॉयन सफारी का आनंद भी लिया जा सकता है।

गहनों का बाजार अनूठा

खरीदारी के शौकीन लोगों को भी हैदराबाद शहर बहुत भाता है, विशेषकर स्ति्रयों को। यहां वस्त्र, आभूषण और हस्तशिल्प की विविधता दर्शनीय है। पर्ल सिटी के नाम से प्रसिद्ध यह शहर मोतियों के व्यवसाय का बड़ा केंद्र है। यहां चावल के दाने जितने राइस पर्ल भी मिल जाते हैं। खास हैदराबादी ढंग की बनी माला, नथ, टीका, लाचा, कर्णफूल, बाजूबंद आदि भला किस नारी का मन नहीं मोहेंगे। यहां चूडि़यों का भी खासा बाजार है। हस्तशिल्प की श्रृंखला में बीदर आर्ट और निर्मल आर्ट की कई मनमोहक चीजें यहां मिल जाती हैं। काले धातु की वस्तुओं की नक्काशी के बाद सोने या चांदी के तारों से खूबसूरत पच्चीकारी बीदर कला कहलाती है। निर्मल आर्ट में लकड़ी की पच्चीदारी की वस्तुएं और फर्नीचर यहां मिलते हैं। स्ति्रयों को यहां वेंकटगिरि, पोचमपल्ली, धर्मावरम सिल्क और जामदानी साडि़यों की बहुत वेरायटी मिल जाती है। वैसे तो शहर में आधुनिक शोरूम, शॉपिंग माल और मॉडर्न बुटीक बहुत हैं, परंतु चारमीनार के पास लाड बाजार में खरीदारी का मजा एकदम अलग है। इसके अलावा सुलतान बाजार, नामपल्ली, बशीर बाग और आबिद एरिया में भी खरीदारी की जा सकती है। खरीदारी के बाद हमें लगा कि  इसके बिना तो यह सफर अधूरा रह जाता। उसी शाम हमने विजयवाड़ा के लिए प्रस्थान किया।

आंध्र प्रदेश का दिल

विजयवाड़ा एक समृद्ध शहर है। इसे आंध्र प्रदेश का दिल कहा जाता है। विजयनगर साम्राज्य से आज तक के लंबे इतिहास का साक्षी है यह शहर। कृष्णा नदी के तट पर बसे इस शहर में धर्म की कई धाराओं को पनपने का अवसर मिला। देश के पूर्वी सागर तट से निकट होने के कारण यह सदियों से महत्वपूर्ण व्यावसायिक केंद्र रहा है। साथ ही धार्मिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक समृद्धि भी पर्यटकों को यहां आकर्षित करती है। शहर के चारों ओर फैली छोटी-छोटी पहाडि़यां और हरे-भरे पेड़ इसे अलग तरह की खूबसूरती प्रदान करते हैं।

विजयवाड़ा शहर के मध्य बहती कृष्णा नदी अपने-आपमें आकर्षण का एक केंद्र है। सबसे पहले हम इस नदी पर बना प्रकाशम बैराज देखने पहुंचे। बैराज ने नदी को एक बड़ी झील का रूप दे दिया है। यहां लोग नौका विहार का आनंद लेते हैं। बैराज पर खड़े होकर सूर्यास्त का नजारा अत्यंत मनमोहक लगता है।

मंदिरों में अखंड आस्था

यहां से कुछ दूर पहाड़ी पर स्थित है कनक दुर्गा मंदिर। यहां देवी की पूजा चंडी रूप में होती है। यह मंदिर विजयवाड़ा ही नहीं, पूरे दक्षिण भारत के लोगों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। कहते हैं यहां अगस्त्य मुनि, मार्कण्डेय मुनि और पांडवों ने भी देवी की पूजा की थी। आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने यहां श्रीचक्र की स्थापना की। इसके बाद इस मंदिर का महत्व और बढ़ गया। मंदिर के मार्ग में 17वीं शताब्दी में बनी कुछ गुफाएं भी दर्शनीय हैं। विजयवाड़ा के आस-पास पहाडि़यों में कई गुफा मंदिर हैं।

गांधी हिल पर कोई गुफा नहीं है। वहां गांधी स्तूप है। शहर का सबसे ऊंचा यह स्मारक 16 मीटर ऊंचा है। यहां का तारामंडल और टॉयट्रेन बच्चों को लुभाते हैं तो ध्वनि एवं प्रकाश कार्यक्रम सबको पसंद आता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार यहीं इंद्रकिला नामक पहाड़ी पर बैठकर अर्जुन ने विजयास्त्र पाने के लिए शिव की तपस्या की थी। आज यहां चट्टानों को तराश कर बनाए गए कुछ मंदिर हैं। शहर से चार किमी दूर स्थित उंडावली गुफाएं हमें बहुत सुंदर लगीं। काले गे्रनाइट की पहाड़ी के ढलानों पर स्थित इन गुफाओं में सातवीं शताब्दी में चट्टान काट कर हिंदू मंदिर बनाए गए थे। ये मंदिर पांच सोपानों में बने हैं। इनमें भगवान विष्णु की पांच मीटर लंबी प्रतिमा अत्यंत नयनाभिराम है। इस प्रतिमा में भगवान अनंत शैया यानी शेषनाग पर लेटे हैं। यहां ब्रह्मा, विष्णु और महेश की और भी प्रतिमाएं हैं।

उधर तीन किमी दूर मोगराजापुरम में पांचवीं सदी के रॉक टेंपल हैं। वहां अर्धनारीश्वर की प्रतिमा भक्तों का मन मोहती है। शहर में विजयेश्वर स्वामी और मल्लेश्वर स्वामी मंदिर भी दर्शनीय हैं। विजयवाड़ा शहर में हमने भव्य कोठियां और बंगले भी देखे। राज्य की बड़ी-बड़ी हस्तियों को भी यह शहर बहुत पसंद है। कई फिल्मी हस्तियों और राजनीतिज्ञों के बंगले इस शहर में हैं।

मंगलगिरि पर पाणकम

अगले दिन हम शहर से 12 किमी दूर मंगलगिरि पहुंचे। यहां भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार को समर्पित एक मंदिर है। मंदिर का ऊंचा गोपुरम दूर से ही आकर्षित करता है। यह राज्य का सबसे ऊंचा गोपुरम है। यहां भगवान को पण नरसिंह भी कहा जाता है। इसका कारण है यहां प्रसाद के रूप में पाणकम का भोग। कहते हैं भगवान आधा पाणकम ग्रहण कर लेते हैं और शेष भक्तों के लिए छोड़ देते हैं। ऊंची पहाड़ी पर स्थित मंदिर में 600 सीढि़यां चढ़ कर पहुंचते हैं। पहाड़ी के नीचे लक्ष्मी-नरसिंह मंदिर भी है। मंगलगिरि का वर्णन स्कंद पुराण में भी आता है। माना जाता है कि हिरण्य कश्यप का वध करने के बाद भगवान नरसिंह ने यहां विश्राम किया था। सन् 1512 में यहां चैतन्य महाप्रभु का आगमन हुआ। इस उपलक्ष्य में यहां हर वर्ष एक बड़ा उत्सव भी होता है।

गए अमरावती की ओर

मंगलगिरि से हम अमरावती की ओर चल दिए। यह विजयवाड़ा शहर से 30 किमी दूर है। हरे-भरे पेड़ और धान के सुंदर खेतों के मनोहारी मार्ग से होते हुए हम अमरावती पहुंच गए। यह स्थान महाराष्ट्र के अमरावती जैसा प्रसिद्ध तो नहीं लेकिन दर्शनीय जरूर है। कृष्णा नदी के तट पर यहां का प्रसिद्ध अमर लिंगेश्वर स्वामी मंदिर है। इसे अमरेश्वर मंदिर भी कहते हैं। मंदिर के आधार पर ही इस जगह का नाम अमरावती पड़ा।

इसके पास ही आधुनिक साई बाबा मंदिर है। मंदिर परिसर में हनुमान जी की विशाल सौम्य प्रतिमा है। यहां से कृष्णा नदी का दृश्य देख मन प्रफुल्लित हो उठता है। दो हजार वर्ष पूर्व जब यह क्षेत्र धरतिकोट नाम से सातवाहन वंश के राजाओं की राजधानी था, तब यहां बौद्धधर्म का प्रभाव था। उस समय अमरावती में बौद्ध स्तूप भी बना था। यहां स्थित बौद्ध स्तूप के कारण इसे आंध्र प्रदेश का सांची भी कहा जाता है। उसके निकट पुरातत्व विभाग का एक संग्रहालय भी है।

नृत्य के धाम में

विजयवाड़ा से बीस किमी दूर कोंडापल्ली में सातवीं शताब्दी में कोंडावेट्टी राजाओं द्वारा बनवाया गया किला देखने योग्य है, लेकिन धीरे-धीरे यह खंडहर में तब्दील हो रहा है। आदिवासी बहुल इस गांव में आदिवासियों द्वारा लकड़ी के सुंदर खिलौने बनाए जाते हैं। यहां बनने वाले बोमालु खिलौने और गुडि़या अनूठे हस्तशिल्प हैं। ये खिलौने विजयवाड़ा और हैदराबाद के बाजारों में मिलते हैं। नृत्य कला के प्रति रुचिशील सैलानियों के लिए शहर से 60 किमी दूर कुचीपुड़ी गांव एक तीर्थ स्थल जैसा है। यह गांव कुचीपुड़ी शास्त्रीय नृत्य का उद्गम स्थल है। नृत्य की इस शैली के महापिता सिद्धेन्द्र योगी थे। उनकी याद में यहां एक नृत्य विद्यालय है।

विजयवाड़ा के पवित्र मंदिरों के बाद हमें यहां के निकटतम समुद्र तट का आकर्षण अपनी ओर खींचने लगा। 60 किमी दूर मछलीपट्टनम का मागिनापुडी सागर तट बेहद शांत और स्वच्छ है। इसका मार्ग भी बहुत खूबसूरत है। दाल और धान के खेत, ऊंचे नारियल वृक्ष, सड़क के साथ बहती नहरें, गांवों की सुंदर झोपडि़यां देखते हुए हम मछलीपट्टनम पहुंच गए। प्राचीन काल में यह तट व्यावसायिक बंदरगाह था। तट पर पहुंचते ही समुद्री हवाओं ने हमारा स्वागत किया। हम काफी देर तक भीड़ और शोर-शराबे से मुक्त इस शांत तट पर घूमते रहे। मछुआरे अपने कामकाज में व्यस्त थे। मछुआरों की ही एक नाव लेकर हम समुद्र में बहुत दूर तक घूम आए। उठती-गिरती लहरों के बीच नौकायन का यह अलग ही अनुभव था।  मछलीपट्टनम की प्रसिद्धि का एक अन्य कारण है यहां की कलमकारी वस्त्र छपाई कला। कलमकारी की साडि़यां तथा वस्त्र आज पूरे देश में पसंद किए जाते हैं। शाम ढलने से पूर्व ही हम विजयवाड़ा वापस आ गए।

हर क्षेत्र का अपना उत्सव

शाम के समय हम एक सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने गए। जहां हमें आंध्र प्रदेश की सांस्कृतिक झलक देखने को मिली। इस कार्यक्रम में हमने कुचीपुड़ी नृत्य के साथ कुछ लोकनृत्य भी देखे। आंध्र प्रदेश में प्राय: हर क्षेत्र और समुदाय के अपना अलग लोकनृत्य और उत्सव हैं। यहां के आदिवासी लोग फसल की कटाई के अवसर पर ठिमसा नृत्य करते हैं। गौंड जनजाति का गौंड नृत्य भी मनमोहक है। बंजारा जनजाति में होली पर्व अलग ढंग से मनाया जाता है। कोया जनजाति का खास पर्व है साम्मका। शिवरात्रि भी यहां बड़े जोश के साथ मनाया जाता है। हैदराबाद में ईद के मौके पर लोगों का उल्लास देखते ही बनता है।

विजयवाड़ा का कृष्णा पुष्करम मेला पूरे राज्य में प्रसिद्ध है। कुंभ मेले की तरह यह मेला भी बारह वर्ष में एक बार आता है, जब हजारों लोग कृष्णा नदी में स्नान करते हैं। हैदराबाद में पर्यटन विभाग की ओर से भी कुछ उत्सव आयोजित किए जाते हैं। इनमें प्रमुख है पर्ल एंड बैंगल फेस्टिवल तथा गोलकुंडा फेस्टिवल। आंध्र प्रदेश के दो बड़े शहरों हैदराबाद और विजयवाड़ा में इतिहास, धर्म और संस्कृति का अनोखा संगम पर्यटन को नए अर्थ प्रदान करता है।

VN:F [1.9.1_1087]
Rating: 6.5/10 (2 votes cast)
आंध्र प्रदेश: इतिहास जैसे जीवित है यहां, 6.5 out of 10 based on 2 ratings



Leave a Reply

    * Following fields are required

    उत्तर दर्ज करें

     (To type in english, unckeck the checkbox.)

आपके आस-पास

Jagran Yatra