बस्तर जहां ठहर सा गया है समय

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राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 43 पर दौड़ते हुए जब हमारी कार घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर बढ़ने लगी, तो हम समझ गए, यही वह केशकाल घाटी है जिसके बारे में गाइड ने कुछ देर पहले ही बताया था। यह बहुत छोटा लेकिन मनोरम पर्वतीय स्थल है। मार्ग में स्थित तेलिन माता मंदिर के कारण इसे तेलिन घाटी भी कहा जाता है। पहाड़ी के शिखर पर एक पिकनिक स्पॉट के कारण यह स्थान छत्तीसगढ़ पंचवटी के नाम से जाना जाता है। राज्य के वन विभाग द्वारा विकसित इस स्थान से दूर तक फैली घाटी का दृश्य देखते ही बनता है। पंचवटी के नैसर्गिक सौंदर्य को देख हम मुग्ध हुए बिना न रह सके। हम बस्तर के उस अनोखे संसार की ओर बढ़ रहे थे, जहां कदम-कदम पर प्रकृति ने अपने अनगिनत रंग बिखेर रखे हैं।

बदलाव से बेखबर

बस्तर के बाशिंदे आज भी प्रकृति के इतने करीब हैं कि उनका तेजी से बदलती दुनिया से जैसे कोई सरोकार ही न हो। हम उत्सुक थे कि आखिर इस धरती पर प्रकृति इतनी मेहरबान क्यों है? हमारी जिज्ञासा का उत्तर काफी हद तक गाइड की बातों से मिल गया। उसने बताया कि बस्तर ही वह भूमि है जिसे रामायणकाल में दंडकारण्य के नाम से जाना जाता था। कई युग बीत गए, किंतु प्रकृति आज भी यहां उसी रूप में विद्यमान है और हम प्रकृति के उसी रूप से साक्षात्कार की चाह में बस्तर जा रहे थे।

रायपुर तक हम रेलमार्ग द्वारा पहुंच कर वहां से कार द्वारा जगदलपुर के लिए चल दिए थे। रायपुर को विशाखापट्टनम से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित जगदलपुर बस्तर का जिला मुख्यालय है। यही हमारी यात्रा का केंद्र था। लेकिन पहले हम जगदलपुर से आगे चित्रकोट जा रहे थे। वहीं हमारे ठहरने की व्यवस्था थी। केशकाल घाटी के बाद से ही हवा बदली सी महसूस हो रही थी। राजमार्ग के दोनों ओर ऊंचे-ऊंचे वृक्षों की कतार के पीछे फैले हरे भरे जंगल या कहीं नजर आते सुनहरे खेतों के कारण भी मौसम सुहाना प्रतीत हो रहा था।

झरनों का शोर मधुर

जब हम चित्रकोट पहुंचे तो दिन ढल चुका था। यह स्थान भव्य जलप्रपात के लिए विख्यात है। वहां एक शानदार कैंपसाइट पर सैलानियों के ठहरने के लिए लग्जरी टैंटों की सुंदर व्यवस्था है। पर्यटन विभाग ने इन टैंटों को छत्तीसगढ़ के जिलों के आधार पर अलग-अलग नाम दिए हैं। धमतरी में सामान रखने के बाद हमने कुछ देर विश्राम किया। वहां झरने का मधुर शोर निरंतर सुनाई पड़ रहा था।  जब हमारे गाइड आवेश अली ने बताया कि फाल्स के रूपहले सौंदर्य को निहारने के लिए रात में वहां कृत्रिम प्रकाश की व्यवस्था भी की गई है तो हम तुरंत ही चित्रकोट फाल्स देखने जा पहंुचे। कृत्रिम प्रकाश में झरना इतना खूबसूरत लग रहा था कि हम दंग रह गए। निकट बने पार्क की रेलिंग के सहारे खड़े कई पर्यटक उसका आनंद ले रहे थे। आसपास के सौम्य वातावरण के मध्य झरने की भयंकर गर्जना भी मधुर संगीत सी लग रही थी।

दिन के उजाले में तो चित्रकोट फाल्स की छटा और भी निराली लगने लगी। इंद्रावती नदी के प्रवाह से बना यह झरना करीब 90 फुट की ऊंचाई से गिर रहा है। 25-30 फुट चौड़ी विराट जलधाराओं के रूप में झरता यह झरना बेहद मनमोहक लगता है। रेलिंग के सहारे खड़े सैलानी हवा के साथ आती हलकी फुहारों का आनंद लेते रहते हैं। जलधाराओं के गिरने से नीचे बड़ा सा तालाब बन गया है। इसके सामने रेत और चट्टानों से भरा मैदान सा बना है। इसके पास से ही इंद्रावती नदी आगे बह जाती है। पास ही बनी सीढि़यों से उतरकर सैलानी जब रेत के मैदान पर पहुंचते हैं तो वहां से जलप्रपात का एक अलग रूप नजर आता है। यह झरना किसी पहाड़ी से नहीं गिर रहा है। लगता है जैसे नदी के मार्ग में अचानक कोई गहरी खाई आने से झरना बन गया हो। भूगोलशास्त्री चाहे इसे भौगोलिक गलती कहें, पर सैलानियों के लिए तो यह शीतल एहसास देता एक चमत्कार है। मानसून के दौरान तो यह अर्धवृत्ताकार विशाल झरना पूरे उफान पर होता है।

नागवंश का शक्ति केंद्र

बंधी-बंधाई रूपरेखा से परे यायावर की तरह घूमने का अलग ही आनंद है। बस्तर भ्रमण का भरपूर आनंद लेने के लिए हमारे मन में भी यही खयाल आया। इसलिए यहां आकर हमने सब कुछ अपने गाइड पर छोड़ दिया। उसके मार्गदर्शन में अगले दिन हम बारसूर और दंतेवाड़ा की ओर चल दिए। छोटा-सा कस्बा बारसूर अपने ऐतिहासिक-धार्मिक महत्व के लिए जाना जाता है। 11वीं-12वीं सदी के आसपास यह क्षेत्र छिन्दक नागवंश के राजाओं का शक्ति केंद्र था। उन दिनों यहां 147 तालाब तथा 147 मंदिर थे। लेकिन आज गिने-चुने मंदिर ही यहां शेष हैं। फिलहाल यहां मामा-भांजा मंदिर सबसे अच्छी दशा में है। पंचरथयुक्त नागर शैली में बने इस मंदिर पर उड़ीसा शैली की झलक दिखती है। चतुष्कोणीय वेदिका के मध्य निर्मित इस मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है। प्रवेशद्वार पर गणेश मूर्ति का अंकन जरूर है। तीन सीढि़यों के बाद मंदिर के अंतराल तथा प्रवेशद्वार के बाद गर्भगृह है। मंदिर का विमान बहुत भव्य है। दीवारों पर छोटे-छोटे स्तंभों पर अलंकृत झरोखे हैं। कई जगह बेलबूटे उत्कीर्ण हैं। मंदिर का निर्माण बेहद निपुण एवं भव्य ढंग से प्रस्तरों को जोड़कर किया गया है। शायद इसीलिए यह आज भी सुरक्षित है।

जुड़वां मंदिर

कुछ ही दूर गणेश गुड़ी है। यहां आज मंदिर तो नहीं है, लेकिन गणेश जी की दो भव्य प्रतिमाएं दर्शनीय हैं। एक मंडप में रखी ये प्रतिमाएं गणेश द्वय या जुड़वां गणेश कही जाती हैं। इनमें एक प्रतिमा आठ फुट ऊंची और छह फुट चौड़ी है तथा दूसरी पांच फुट ऊंची और चार फुट चौड़ी है। इन प्रतिमाओं में गणपति सुखासन मुद्रा में विराजमान हैं।

बस्तर में ही बत्तीसा मंदिर में भगवान शिव के जुड़वां मंदिर भी देखने को मिलते हैं। यहां एक ही वेदिका पर बने दो गर्भगृहों में दो शिव विद्यमान हैं। इन्हें वीरोमेश्वर एवं गंगाधरेश्वर कहा जाता है। दोनों गर्भगृह 32 खंबों पर स्थित एक महामंडप में स्थित हैं। जो एक मीटर ऊंची चतुष्कोणीय वेदिका पर बना है। इन मंदिरों पर गुंबद नहीं है। भीतर अंतराल के सामने दो नंदी प्रतिमाएं भी हैं। यहां एक और प्रमुख मंदिर है चंद्रादित्येश्वर मंदिर। यह चंद्रादित्य तालाब के किनारे है। मंदिर की वाह्य दीवारों पर छोटे-बड़े आले बने हैं जिनमें कलात्मक मूर्तियां जड़ी हैं। इनमें नायिका, अप्सरा, कामुक तरुणियां, बह्मा, नर¨सह आदि के अलावा कुछ मैथुन मूर्तियां भी हैं। मंदिर के पास ही स्थित पुरातत्व संग्रहालय में विष्णु-लक्ष्मी, शिव-पार्वती, ब्रह्मा, काली, दुर्गा व भैरव के अलावा और भी कई प्रतिमाएं सुरक्षित हैं।

स्तंभ स्मृतियों के

बस्तर में हम जहां भी निकलते मन को लुभाने वाले दृश्य हर ओर नजर आते थे। कहीं आकाश में कलरव करते पक्षियों के समूह, कहीं दूर तक फैले सरसों के पीले खेत या छोटी-छोटी पहाडि़यां, सब कुछ जैसे हमारे साथ चल रहे हों। मार्ग में ही जब हमें कहीं-कहीं पत्थर के छोटे-छोटे स्तंभ नजर आए तो हमने गाइड से उनके विषय में पूछा। ये स्तंभ दरअसल यादगार स्तंभ हैं। गांव वालों द्वारा अपने परिवार या गांव के किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी याद में ऐसे स्तंभ बनाने की परंपरा है। स्तंभों पर रंग-बिरंगे चित्र बना कर उस व्यक्ति की जीवन शैली तथा अच्छे कार्यो को वर्णित किया जाता है। ऐसे ही रास्तों पर 50 किमी की दूरी तय कर हम दंतेवाड़ा पहुंचे। यह नगर दंतेश्वरी देवी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर सिद्ध पीठ है। मान्यता है कि यहां सती का दांत गिरा था। डंकिनी एवं शंखिनी नदियों के संगम पर स्थित यह मंदिर महिषासुर मर्दिनी के एक रूप को समर्पित है। काकतियों के शासनकाल से काफी पहले से ही बस्तर के स्थानीय आदिम जातियों द्वारा शक्तिपूजा विभिन्न नामों से प्रचलित थी। वरंगल के अनन्मदेव ने नागवंशी राजाओं के ऊपर काकतियों द्वारा प्रभुत्व स्थापित करने के पूर्व 14वीं शताब्दी में इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था। मंदिर में मुख्यशाला, नरमंडप तथा गर्भगृह बने हैं। गर्भगृह में काले पाषाण की षडभुजी देवी प्रतिमा विराजमान है। विष्णु, शिव, पार्वती, गणेश, नरसिंह, द्वारपाल आदि की कई मूर्तियां मंदिर के प्रांगण तथा मंडप में रखी हैं। बाहर एक गरुड़ स्तंभ भी स्थापित है। मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए पुरुषों को पैंट या पायजामा पहनकर जाने की मनाही है। केवल धोती पहनकर मंदिर में प्रवेश किया जा सकता है। वैसे भक्तों के लिए मंदिर में ही धोती उपलब्ध हो जाती है।

मुख्य मंदिर के निकट ही एक छोटा मंदिर भी है। यह देवी की बहन भानेश्वरी देवी का मंदिर है। जिन्हें मावली माता भी कहते हैं। कुछ दूरी पर नदियों का संगम स्थल है। यह भी पवित्र स्थान माना जाता है। संगम के दूसरी ओर भैरव बाबा मंदिर भी श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है।

हस्तशिल्प में विविधता

बस्तर की आदिवासी शिल्पकला के प्रति हमारी रुचि देख गाइड ने अगले दिन हमें कोंडागांव चलने का सुझाव दिया। बस्तर शिल्प आज विश्वप्रसिद्ध हो चुके हैं। शिल्पकारों की नायाब कारीगरी के अलावा इनकी प्रसिद्धि का अन्य बड़ा कारण है यहां के पारंपरिक हस्तशिल्प में हड़प्पा एवं सिंधुघाटी सभ्यता की वस्तुओं की सी झलक नजर आना। बस्तर क्राफ्ट में खासी विविधता भी देखने को मिलती है। वस्तुत: बस्तर का आदिवासी समाज आत्मनिर्भरता के पुराने सिद्धांत के अनुसार अपने दैनिक प्रयोग या पूजापाठ से जुड़ी अधिकतर चीजें स्वयं बनाता था। उस समाज और संस्कृति से जुड़ी कई चीजें आज बस्तर शिल्प के रूप में प्रसिद्ध हैं। जगदलपुर के निकट बसा कोंडागांव बस्तर शिल्प का गढ़ माना जाता है। यहां के बने बैल मेटल, रॉट आयरन, टेराकोटा तथा काष्ठ के हस्तशिल्प देश-विदेश के पर्यटकों को बहुत भाते हैं। यहां  कलाकारों को उनके वास्तविक परिवेश में काम करते देखना हमारे लिए नया अनुभव था। वहीं हमारी मुलाकात जयदेव बघेल नामक एक ऐसे शिल्पकार से भी हुई जिन्हें इस क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर के अवार्ड मिल चुके हैं। इनके द्वारा बनाई बैलमेटल की वस्तुएं कई देशों की शिल्प प्रदर्शनियों में अपनी पहचान बना चुकी हैं। उधर साथी नामक संस्था के प्रांगण में शिल्पकारों के हाथों से आकार लेते टेराकोटा के लुभावने शिल्प देख हम चकित रह गए। यह संस्था पिछले पंद्रह वर्ष से शिल्पकारों की प्रगति के लिए कार्यरत है। बस्तर शिल्प में नए और पुराने का सुंदर तालमेल नजर आता है। बस्तर के कोसा सिल्क के बने वस्त्र भी देश भर में प्रसिद्ध हैं। इसे टसर सिल्क भी कहा जाता है। जगदलपुर स्थित कोसा सिल्क केंद्र में इन वस्त्रों की बुनाई भी देखी जा सकती है।

हाट में जनजीवन

बस्तर के आदिवासी जीवन को करीब से देखना है तो यहां के गांवों में लगने वाले किसी हाट में पहंुच जाएं। रोज किसी गांव में हाट बाजार लगता है। हाट आदिवासी जीवन का अभिन्न अंग है। शायद इसीलिए लोग 10-15 किमी पैदल चलकर यहां आते हैं। हम एक गांव के हाट में पहुंचे तो जैसे रौनक पूरे यौवन पर थी। चटकीले रंगों के कपड़ों में लिपटी श्यामवर्ण आदिवासी स्ति्रयां इसका खास हिस्सा थीं। इनकी पारंपरिक वेशभूषा धोती है। घुटने तक ऊंची धोती और उसी के पल्लू से वक्ष ढका होता है। युवतियों ने ब्लाउज पहनना शुरू कर दिया है। इसे यहां फैशन समझा जाता है। शरीर पर गोदना गुदवाना रिवाज है। कान, नाक व गले में पारंपरिक गहने पहने, बालों में क्लिप लगाए घूमती युवतियां हाट में मेले सा आनंद ले रही थीं। यहां हाट बाजार में आज भी वस्तु विनिमय देखा जा सकता है। लोग  नमक, तंबाकू, वस्त्र आदि खरीदते हैं तथा स्वयं उगाई सब्जी या अनाज और जंगलों से एकत्र की गई उपयोगी वस्तुएं बेचते हैं।

लाल चींटी के अंडे

यहां हमने एक अनोखी चीज विक्रय के लिए देखी। वह थी लाल चींटी के अंडे। इन अंडों की चटनी आदिवासी लोग बड़े चाव से खाते हैं। आजकल बाहर के दुकानदार भी हाट में दुकान लगाने लगे हैं। अकेले बस्तर में ही करीब तीन सौ हाट लगते हैं। गांवों में लगने वाले ये हाट आदिवासियों के लिए मेल मिलाप तथा मनोरंजन के केंद्र भी होते हैं। इन लोगों ने अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखा हुआ है और दैनिक जीवन को भी एक उत्सव के समान जीना जानते हैं। खरीद-फरोख्त के बाद लोग वहां आए अपने संबंधियों के साथ समूह में बैठते हैं तथा महुआ के फूल से बनी मदिरा पीते हैं।  मदिरापान के लिए इन्हें ग्लास या प्याले की जरूरत नहीं होती। पत्ते का दोना बना कर उसमें ही मदिरापान किया जाता है। इस क्रम में स्ति्रयां भी शामिल होती हैं। दूसरी ओर कुछ लोग हाट में एक तरफ चलते मुकाबले का मजा लेने पहंुच जाते हैं। यह मुकाबला दो मुर्गो के बीच होता है। मुर्गो की टक्कर पर भीड़ में खड़े लोग बाजी भी लगाते हैं।

एक दुनिया घाटी में

छत्तीसगढ़ में बस्तर ही सर्वाधिक वन आच्छादित क्षेत्र है। इन वनों में जहां प्रचुर संपदा छिपी है, वहीं कई ऐसे आकर्षण भी हैं जो सैलानियों को खींचते हैं। कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान इस वन क्षेत्र का ऐसा ही हिस्सा है। यह लगभग दो सौ किलोमीटर के दायरे में फैला है। घाटी में सबसे पहले हम तीर्थगढ़ फॉल्स देखने पहंुचे। इसकी निराली छटा ने हमें एकदम प्रभावित किया। कांगेर नदी के प्रवाह से बना यह झरना लगभग 150 फुट की ऊंचाई से गिर रहा है। आगे विभिन्न स्तरों पर गिरते हुए यह कई अलग-अलग सुंदर झरनों का सा रूप ले लेता है। तीर्थगढ़ जलप्रपात की धाराएं चित्रकोट के समान विशाल नहीं है। इसका सौंदर्य उससे एकदम भिन्न है। यहां भी अलग-अलग स्तर पर छोटे-छोटे तालाब बन गए हैं। जिनमें कुछ सैलानी स्नान का आनंद भी लेते हैं। नीचे जाने के लिए सीढि़यां बनी हैं। यहां एक चट्टान पर कुछ छोटे-छोटे मंदिर भी हैं।

अंधेरी बंद गुफा में

कांगेर घाटी का सबसे महत्वपूर्ण आकर्षण है कोटमसर गुफा। यह भारत की सबसे बड़ी तथा विश्व की सातवीं बड़ी भूगर्भीय गुफा बताई जाती है। एक पहाड़ी की तलहटी में स्थित इस गुफा में प्रवेश के लिए एक संकरा सा मार्ग है। अंदर प्रवेश करने पर पहले लोहे की सीढि़यों से 50-60 फुट नीचे उतरना पड़ता है। जहां गुफा का रहस्यमय संसार शुरू हो जाता है। आगे बढ़ने के लिए टॉर्च या पेट्रोमैक्स के प्रकाश की जरूरत होती है क्योंकि चारों ओर अंधकार है। वन विभाग द्वारा यहां गाइड की व्यवस्था है जो अपने साथ प्रकाश का इंतजाम रखते हैं। लगभग 4500 फुट लंबी यह गुफा किसी अजूबे के समान है। अलग-अलग स्थान पर इसकी गहराई 60 से 215 फुट के मध्य है। जहां ऊंचे-नीचे रास्तों पर चलते हुए भय भी लगता है। गुफा के अंदर हवा की कमी के कारण गर्मी महसूस होने लगी। लेकिन पृथ्वी के गर्भ में छिपे चमत्कारों का रोमांच हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा था। गुफा में कटावयुक्त दीवारें, विशाल शिलाखंड, अवशैल तथा उत्शैलों की अजीबोगरीब रचनाएं, सब कुछ अद्भुत नजर आ रहा था। कहीं छत पर लटके झाड़फानूस की सी आकृति बनी थी तो कहीं चट्टानों पर पौराणिक चरित्र खड़े नजर आते थे। एक जगह तो भव्य शिवलिंग की सी आकृति बनी है। आगे इतना बड़ा कक्ष आता है जैसे कोई सभागार हो। अंदर कहीं-कहीं छोटे से जलकुंड भी हैं। इनमें नन्ही सी मछलियां देखने को मिलीं। सदियों से घने अंधकार में पनपने वाली ये मछलियां प्रकाश में जीवित नहीं रह पातीं। गुफा के अंदर होने वाली स्टेलेक्टाइट और स्टेलेक्टमाइट की फॉर्मेशन के आधार पर वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ये गुफा करोड़ों वर्ष पुरानी है। घाटी में कैलाश तथा दंडक ऐसी ही अन्य छोटी गुफाएं हैं।

अद्भुत परंपराएं

कोटमसर गुफा की रोमांचक दुनिया से निकलकर हम कांगेर धारा के रोमानी संसार की ओर चल दिए। कोटमसर गांव के पास कांगेर नदी एक ओर छोटे प्रपात को आकार देती है। इसे कांगेर धारा कहते हैं। हनीमूनर्स के लिए तो यह आदर्श स्थल कहा जाता है। कांगेर घाटी में घूमते हुए वास्तव में प्रकृति का अृदश्य स्पर्श महसूस होता है।

जगदलपुर में एक मानव विज्ञान संग्रहालय भी है। यहां छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों की आदिवासी जातियों के जीवन से जुड़े चित्र तथा प्रयोग की वस्तुएं देखी जा सकती हैं। बस्तर के आदिवासियों में गोंड जनजाति का बाहुल्य है। आदिवासियों से जुड़ी दो बातें ऐसी हैं जिनके बारे में सभी पर्यटक जानना चाहते हैं। इनमें एक है घोटुल परंपरा। घोटुल एक तरह का युवागृह होता है। भुरिया जाति का हर युवक एवं युवती इसके सदस्य होते हैं। रात में वे घोटुल में रहते हैं और संगीत, नृत्य व लोककथाओं से मनोरंजन करते हैं। ये सामाजिक कार्यो का संपादन भी करते हैं। इस परंपरा को ये लोग अपने देवता लिंगोपेन की देन मानते हैं।

कुतूहल जगाने वाला अन्य विषय अबूझमाड़ है। बस्तर के दक्षिण-पश्चिम हिस्से में सघन वनों से घिरी पहाडि़यों के मध्य स्थित इस क्षेत्र में रहने वालों को अबूझमाडि़या कहते हैं। बाहरी दुनिया से बिल्कुल टूटे ये लोग आज भी नितांत एकाकी जीवन जी रहे हैं। करीब डेढ़ हजार वर्ग किमी क्षेत्र में फैले इस क्षेत्र की दुर्गमता के कारण आम आदमी का वहां पहुंचना कठिन है। सीमित जीवनशैली के कारण उनकी आदिम परंपराएं, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मान्यताएं व प्राचीन सामाजिक संरचना तो जरूर सुरक्षित है, किंतु ये लोग बेहद पिछड़ा जीवन जी रहे हैं। फिर भी इन्हें अपने जीवन में बाहरी लोगों का हस्तक्षेप कतई पसंद नहीं है।

परिक्रमा दंतेश्वरी देवी की

जगदलपुर में ही बस्तर के राजाओं का महल है। महल के द्वार पर दंतेश्वरी देवी का मंदिर है। दशहरे के अवसर पर इस मंदिर की रौनक देखने लायक होती है। रोचक बात यह है कि बस्तर के दशहरे का राम-रावण की कथा से कोई संबंध नहीं है। यहां इस दिन कुलदेवी मां दंतेश्वरी की परिक्रमा की परंपरा है। यह पर्व तेरह दिन चलता है। इस दौरान यहां दो रथयात्राएं आयोजित की जाती हैं। दशहरे के दिन भारिया व धु्रवा जनजाति के लोग रथ को चुराकर कुम्हाड़ा कोट में छोड़ देते हैं। बाद में देवी की पूजा के बाद शोभायात्रा के रूप में रथ खींचकर मंदिर तक लाया जाता है। पूरी रात चलने वाले इस समारोह में हजारों आदिवासी भाग लेते हैं।  आदिवासी मूलत: प्रकृतिपूजक होते हैं। दशहरे के अतिरिक्त नवखानी, सरहुल छरका, दियारी पर्व, करमा, कार्तिका हरेली, गोचापर्व और मढ़ाई मेले में भी यहां पूरी धूम होती है। ऐसे अवसरों पर आदिवासी संस्कृति के लोकरंग नृत्य और संगीत की बहार देखते ही बनती है। बस्तर के जनजातीय नृत्यों में गौर, परब, ककसार, गेंडी, दोरला तथा मांदरी प्रमुख हैं। इनमें मांदरी घोटुल परंपरा का प्रमुख नृत्य है। जंगली भैंसे के सींग का मुकुट धरकर किया जाने वाला प्रसिद्ध बायसन डांस माढि़या जाति का नृत्य है। बहरहाल यह तो तय है कि बस्तर की संस्कृति में खासी विविधता है।

पहेली सुलझती सी

उस दिन शाम के समय हम दलपत सागर झील देखने पहुंचे। जगदलपुर की इस संुदर झील पर शाम के समय स्थानीय लोगों की भी अच्छी भीड़ होती है। यहां बोटिंग की सुविधा भी उपलब्ध है। झील के किनारे खड़े हम सोच रहे थे कि बड़े शहर की जगमगाती शामों से परे बस्तर की निस्तब्ध और धीर शामें कितनी सुहानी प्रतीत होती हैं। एक अनबूझ पहेली के समान शुरू हुआ हमारा सफर खत्म हो रहा था। लेकिन मानो हमने वह पहेली सुलझा ली थी। प्रकृति को संजोकर रखने वाले बस्तरवासी और बस्तर के रंग-बिरंगे आदिवासी चरित्र ने हमारे मन और मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ी थी। लगता था टाइम मशीन के सहारे प्राचीन सभ्यता के किसी दौर में आ पहुंचे। जहां समय कुछ ठहर सा गया है।

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