नटराज और काली की लीलाभूमि चिदंबरम

  • SocialTwist Tell-a-Friend

चिदंबरम से सबसे पहले मेरा परिचय एक फिल्म के माध्यम से हुआ था। मलयालम के मशहूर फिल्मकार अरविंदन ने ‘चिदंबरम’ नाम से एक फिल्म बनाई थी। इस फिल्म का कथानक स्त्री-पुरुष संबंधों में विश्वासघात पर केंद्रित है। हालांकि इस फिल्म में चिदंबरम की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत को खास अभिव्यक्ति मिल सकी थी और न ही वहां के स्थानीय जनजीवन के किसी पक्ष को। बस फिल्म के अंत में जब नायक पर अपराध बोध हावी हो जाता है तब उसे चिदंबरम की याद आती है। अपनी भावप्रवणता और कथ्य की गहराई के कारण यह फिल्म दर्शकों और समीक्षकों द्वारा खूब सराही गई थी। कुछ लोग तो उसे अरविंदन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म भी मानते हैं। फिल्म ने उस वर्ष सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता था।

मेरे अंदर किसी तरह का अपराध बोध नहीं था। लेकिन चोल राजाओं द्वारा निर्मित इस परम धाम के दर्शन करने की अभिलाषा मेरे मन में तभी से घर कर गई थी जब मुझे अरविंदन की फिल्म ने छुआ था। तमिलनाडु के मध्य-पूर्व क्षेत्र में बसा यह छोटा सा स्थान अपने नटराज मंदिर के कारण दुनिया भर में प्रसिद्ध है। न केवल यहां का मंदिर शिव के सबसे बड़े मंदिरों में से एक है बल्कि यह देश का एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भरतनाटयम जैसे शास्त्रीय नृत्य की मूल मुद्राएं पत्थरों में गढ़ी हुई हैं। और सबसे बड़ी खूबी है यहां की आरती तथा उस वातावरण से उत्पन्न अलौकिक अनुभूति।  संध्याकालीन आरती की बेला में मंत्र का गुंजन, शंख और विशालकाय घंटों के निनाद व आरती की दीपशिखाएं मन-प्राणों में जो एक बार रम-बस जाती हैं तो बस आत्मा धन्य हो जाती है। ऐसा वातावरण और ऐसा अनुभव शायद ही अन्यत्र सुलभ हो। चिदंबरम के नटराज मंदिर की एक और खास बात यह है कि यहां के मूल मंदिर में आराध्य देव की कोई प्रतिमा नहीं है। वह निराकार हैं, साकार नहीं।

खुले हैं रास्ते

मैंने जब चिदंबरम जाने का कार्यक्रम तय किया उन दिनों मैं पांडिचेरी में था। एक हफ्ता पांडिचेरी में बिताने के बाद चिदंबरम के लिए प्रस्थान करना मेरे लिए किसी रोमांच से कम नहीं था। एक तो इसलिए कि मैं काफी अरसे बाद चिदंबरम जाने की अपनी अभिलाषा को पूरी होते देख रहा था और दूसरा इसलिए कि मेरे उस छोटे से भ्रमण काल में थोड़ी विविधता का पुट आने वाला था। ओरोविल आश्रम में शांति-सौहार्द के पाठ पढ़ने और पांडिचेरी के समुद्र के सौंदर्य को निहारने का आनंद लेने के बाद मैं तमिलनाडु के उस भव्य मंदिर की ओर रुख कर रहा था जो प्रदेश का एक खास गौरव है।

पांडिचेरी से चिदंबरम की दूरी कोई अधिक नहीं है। 66 किलोमीटर की दूरी बस आराम से डेढ़ घंटे में पूरा कर लेती है। अगर आपको पांडिचेरी से न आना हो तो भी आपके लिए चिदंबरम के रास्ते चारों दिशाओं से खुले हैं। चेन्नै से चिदंबरम की दूरी लगभग ढाई सौ किलोमीटर है और ट्रेन व बस दोनों ही साधनों से वहां जाया जा सकता है। बेंगलोर से आने वाले लोग तिरुचिरापल्ली होकर चिदंबरम पहुंच सकते हैं।

ट्रेन या बस द्वारा चिदंबरम में घुसते ही दूर से नटराज मंदिर के भव्य गोपुरम दिखाई देने लगते हैं। चोल राजाओं के शासनकाल में निर्मित यह मंदिर ग्रेनाइट पत्थरों से बना है। 32 एकड़ क्षेत्रफल में फैले इस मंदिर की भव्यता देखते ही बनती है। यही वह स्थल है जिसे शिव ने अपने आनंद तांडव की साधना के लिए चुना था।

शिव के आनंद तांडव के बारे में माना जाता है कि इसके पांच रूप हैं, यानी पंचकृत्य हैं। ये सब चिदंबरम के इस मंदिर में आपको देखने को मिलेंगे। कलाकारों ने इन मुद्राओं को धातुओं में गढ़कर यहां सुरक्षित कर रखा है। शिव के इन पंचकृत्यों से जुड़ी पांच सभाएं हैं। ये पांचों सभाएं भगवान शिव के कई रूपों की तरह तमिलनाडु के पांच स्थानों पर बनाई गई हैं। इनमेंकनकसभा चिदंबरम में है तो रजतसभा मदुरई में, रत्नसभा चेन्नै के पास तिरुवलंगडु में है तो ताम्रसभा तिरुनवेली में और चित्रसभा कुत्रालम में है।

वास्तुकला के कई नमूने

बस से उतरते ही मैंने एक साफ-सुथरा सा गेस्ट हाउस ढूंढा और थोड़ा फ्रेश होकर मंदिर के लिए निकल पड़ा। वहां तक पहुंचने के लिए मुझे किसी से कुछ पूछने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी। मंदिर के गोपुरम ही मेरी दिशा निर्देश के लिए काफी थे। दूरी भी इतनी नहीं थी कि मैं रिक्शा लेता। दस मिनट का पैदल रास्ता तय करने के बाद ही मैं मंदिर के पूर्वी गोपुरम के सामने खड़ा था। मूल रूप से चिदंबरम के इस मंदिर का निर्माण छठवीं से आठवीं सदी के बीच में हुआ था। मदुरई के विश्वविख्यात मीनाक्षी मंदिर की तरह चिदंबरम में भी चारों तरफ चार गोपुरम हैं। प्रत्येक गोपुरम लगभग 250 फुट ऊंचा है और इनमें एक गोपुरम के एक हिस्से में भरतनाटयम नृत्य की 108 मुद्राएं पत्थरों में उकेरी गई हैं। हर गोपुरम की दीवारों पर शिव की प्रतिमाएं अपने अनेक रूपों में मौजूद हैं। लेकिन इनमें कहीं भी नटराज मुद्रा अंकित नहीं है। यह मुद्रा सिर्फ मंदिर के मुख्य हिस्से के लिए ही सुरक्षित है।

विभिन्न समयांतरों में पूरा होने के कारण चिदंबरम का यह मंदिर सिर्फ एक प्रकार की वास्तुकला का नमूना नहीं है, बल्कि इसमें वास्तुकला के कई नमूनों का समावेश अपने-आप ही हो गया है। यह यहां के पांच विभिन्न सभाओं या हॉलों में देखा जा सकता है। ये पांच हॉल हैं नृत्यसभा, देवसभा, कनकसभा, चित्तसभा और राजसभा।

मंदिर में प्रवेश करते ही मुझे अन्य धार्मिक स्थलों की तुलना में एक फर्क साफ-साफ नजर आया। वह यह कि यह मंदिर मदुरई के मीनाक्षी मंदिर या तिरुपति के बाला जी मंदिर की तरह व्यावसायिकता की चपेट में नहीं आया है। मंदिर का काफी कुछ हिस्सा अपने प्राचीन रूप में ही है इसलिए इसमें प्राचीन गरिमा अभी भी विद्यमान है।

चित्तसभा मंदिर के प्रांगण के बिल्कुल बीच में है और मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा भी यही माना जाता है। इसी सभा में नटराज (शिव) और शिवकामी (पार्वती) की प्रतिमाएं हैं। चित्तसभा से जुड़ी कनकसभा है। चित्तसभा और कनकसभा की खासियत यह भी है कि ये दोनों ही जमीन से ऊपर एक प्लैटफॉर्म पर निर्मित हैं। चित्तसभा पूरी तरह काष्ठनिर्मित है। उसके चारों तरफ खंभे और खंभों के ऊपर झोंपड़ी के आकार में बनी छत सभी कुछ लकड़ी का है। शिव और पार्वती की मूर्तियां दोहरे पर्दे से ढकी रहती हैं। बाहर का पर्दा काले रंग का और अंदर का लाल रंग का है। ये पर्दे संध्या के समय सिर्फ  पूजा के दौरान ही दर्शन के लिए हटाए जाते हैं।

शिव का आकारहीन रूप

शिव प्रतिमा के दाहिनी तरफ एक रिक्त स्थान है जिसे चिदंबरा रहस्यम के नाम से जाना जाता है। इस रिक्त स्थान को स्वर्णिम पत्रों के हार से सजाया जाता है। असल में यह रिक्त स्थान आकाश लिंग है, जिसे पंचतत्व लिंगम में से एक माना जाता है। हिंदू दर्शनशास्त्र के पांच तत्वों के आधार पर दक्षिण के पांच स्थानों पर पांच शिवलिंग स्थापित किए गए थे। तिरुवनमलाई में अग्निलिंगम है, जबकि दक्षिण की काशी कांचीपुरम में पृथ्वीलिंगम है। इसी तरह जम्बुकेश्वर में जललिंगम और कालाहस्ती में वायुलिंगम है। चिदंबरम स्थित नटराज के इस मंदिर में आकाशलिंगम है जो भगवान शिव के निराकार रूप का प्रतीक है। इसीलिए जब पुजारी लोग पूजा के समय अंदर वाला लाल पर्दा उठाते हैं तो वहां सिर्फ स्पेस नजर आता है। यह असल में चिदंबरम का सबसे बड़ा रहस्य है जिसे कोई समझ नहीं पाया है, किंतु यह रहस्य सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी गुरु-शिष्य परंपरा के तहत चलता चला आ रहा है।

चित्तसभा के सामने ही कनक (स्वर्ण) सभा है जिसके द्वार रजत मढि़त हैं। वैसे तो कनक और चित्तसभा दोनों ही धरातल से ऊपर हैं, पर कनकसभा से चित्तसभा थोड़ी अधिक ऊंची है। कनकसभा से चित्तसभा तक पहुंचने के लिए चांदी से मढ़ी हुई पांच सीढि़यों को चढ़ना होता है। ये पांच सीढि़यां पंचाक्षर मंत्रम की प्रतीक हैं। इनमें हर सीढ़ी पांच अक्षरों वाले ‘नम: शिवाय’ मंत्र के एक-एक अक्षर का प्रतिनिधित्व करतीहैं।

कनकसभा के सामने एक वृहद रथ के आकार वाली नृत्यसभा है। इसके चारों कोनों पर बहुत ही सुंदर कशीदाकारी वाले चार खंबे स्थापित हैं, जो असल में इस विशालकाय रथ के चार स्तंभ हैं। इसके बीच में नटराज की ऊ‌र्ध्व तांडव मुद्रा वाली मूर्ति है। नटराज की यह मुद्रा काली नटराज की जुगलबंदी की याद दिलाती प्रतीत होती है।  नृत्यसभा के सम्मुख देवसभा है। इस सभा में कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इनमें पार्वती, विनायक, सुब्रह्मण्यम, चंडिकेश्वर आदि प्रमुख हैं।

हजार खंभों वाला हॉल

दक्षिण के कई प्रमुख धार्मिक स्थलों की तरह चिदंबरम के प्रांगण में भी हजार खंभों वाला हॉल है, जिसे राजसभा कहा जाता है। मंदिर के प्रमुख महोत्सवों के अवसर पर शिवगंगा ताल में स्नान कराकर नटराज की प्रतिमा को यहां लाया जाता है। शिवगंगा ताल मंदिर के प्रांगण में ही है। धार्मिक आयोजनों और पर्वो के अवसरों पर शिवगंगा ताल में आने वाले श्रद्धालुओं का जमघट लग जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस ताल में डुबकी लगाने से विघ्न-बाधाएं और रोग दूर हो जाते हैं। कहा जाता है कि चौदहवीं सदी का एक राजा जो कोढ़ से पीडि़त था, इस ताल में डुबकी लगाने के बाद एकदम स्वस्थ और निरोग हो गया।

मेरा चिदंबरम आगमन नवंबर में हुआ था। अगर मैं एक माह बाद आता तो संभवत: यहां के भव्य ब्रह्मोत्सव को देख सकता था। माघ मास में पूर्णिमा के दिन से शुरू होकर एक महीने तक चलने वाला ब्रह्मोत्सव ही चिदंबरम का प्रमुख वार्षिकोत्सव है। चारों ओर से इस उत्सव में भाग लेने के लिए श्रद्धालु उमड़ पड़ते हैं। इस दौरान कई दिनों तक देवी-देवताओं को रथ में घुमाया जाता है। इन्हीं दिनों नटराज को मंदिर से निकाला जाता है और स्नान, अभिषेक के बाद विशाल रथ यात्रा निकाली जाती है। रथ यात्रा को देखने के लिए देश के कोने-कोने से भक्तगण आते हैं। ब्रह्मोत्सव के अलावा अब हर वर्ष यहां शास्त्रीय नृत्य-संगीत का नाटयांजलि उत्सव भी होता है। फरवरी-मार्च के इस उत्सव में देश के नामी कलाकार बड़े उत्साह के साथ अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।

नटराज का साधना स्थल

मुझे बताया गया कि नटराज मंदिर के अलावा यहां काली का भी एक मंदिर है। यह मंदिर भी अत्यंत भव्य और दर्शनीय है। असल में इस मंदिर से जुड़ी एक रोचक पौराणिक कथा भी है। कहा जाता है कि आज जहां नटराज का मंदिर है वहां कभी नटराज का निवास था और यही उनकी साधना का स्थल भी था। यह स्थान काली को भी पसंद आया और वह भी यहां रहने चली आई। पर नटराज को यह बात पसंद नहीं आई, क्योंकि उन्हें लगा कि काली के यहां रहने से उनकी साधना में बाधा होगी।  अंतत: यह निश्चय किया गया कि इस बात का निर्णय नृत्य करेगा कि किसको यहां रहना है। फिर क्या था! नटराज और काली मैदान में कूद पड़े। दोनों की ताल, भंगिमाओं, थिरकनों और मुद्राओं से तीनों लोक गूंज उठे। कला का यह सुंदर नजारा देखने के लिए स्वर्ग से देवी-देवता उमड़ पड़े। इस प्रतियोगिता में नटराज की हर मुद्रा का जवाब काली के पास मौजूद था। दोनों काफी लंबे समय तक काल की ताल पर थिरकते रहे। सबको यह लगने लगा कि दोनों में से कोई थकने वाला नहीं है और सिलसिला तो अनंत काल तक चलता रहेगा। तभी अचानक नटराज के कान की एक बाली नीचे गिर पड़ी और फर्श पर बिखर गई।

इस सबके बावजूद नटराज की गति और तन्मयता पर जरा सा भी फर्क नहीं पड़ा। उसी आवेग और लय में नृत्य करते-करते नटराज ने अपने पैर के अंगूठे से कान की उस बाली को उठाकर फिर से धारण कर लिया। यह सब कुछ इतने कलात्मक तरीके से संपन्न हो गया कि किसी को कुछ पता ही नहीं चला। नटराज ने इस हिस्से को काफी चतुराई से अपने नृत्य का हिस्सा बनाते हुए उसी लय में विलीन कर दिया। एक पुरुष के लिए तो यह मुद्रा कला का एक प्रतिरूप हो सकती थी, लेकिन नटराज की इस मुद्रा का काली के पास कोई जवाब नहीं था। शायद एक स्त्री के लिए ऐसा कुछ कर दिखाना मर्यादा से परे होता। अंतत: काली ने हार मान ली और वह पास ही एक-दूसरे स्थान पर चली गई। कहते हैं कि उसी स्थान पर  काली का यह मंदिर बना हुआ है। काली और नटराज के बीच हुई यह प्रतियोगिता विभिन्न मुद्राओं के साथ चिदंबरम के मंदिर में गढ़ी हुई है। नटराज मंदिर की नृत्यसभा वाले हिस्से में काली-नटराज की ये मुद्राएं उस अपूर्व प्रतियोगिता को साकार करती प्रतीत होती हैं। चिदंबरम में जो भी भक्त नटराज मंदिर में आता है वह काली मंदिर में मां के दर्शन करने जरूर जाता है। ऐसी मान्यता है कि नटराज के बाद काली मां का दर्शन करने के बाद ही चिदंबरम की परिक्रमा पूरी होती है और दर्शनार्थी को अपना मनवांछित फल मिलता है।

चिदंबरम में नटराज और काली मंदिर के अलावा एक और महत्वपूर्ण स्थल है- अन्नामलाई विश्वविद्यालय। अन्नामलाई के पत्राचार कार्यक्रम पूरे देश में लोकप्रिय हैं और हर वर्ष लाखों की संख्या में शिक्षार्थी यहां से अपने पाठयक्रम पूरे करते हैं। इस विश्वविद्यालय का नृत्य शिक्षा केंद्र काफी समृद्ध है। विश्वविद्यालय के अलावा नजदीक ही नेव्येली कांप्लेक्स है जो एक व्यावसायिक केंद्र के रूप में बड़ी तेजी से विकसित किया जा रहा है।

समृद्ध शहर था पुम्पुहार

चिदंबरम के नटराज मंदिर की भव्यता और पवित्रता को अपने अंदर समाहित करने के लिए कम से कम तीन दिन यहां अवश्य रुकना चाहिए। मैंने चिदंबरम में पांच दिन व्यतीत किए और वहां आसपास के कई दर्शनीय स्थलों की घुमक्कड़ी की। इनमें पुम्पुहार और पिछावरम का अपना अलग ही महत्व है।

चिदंबरम से चालीस किलोमीटर दूर कावेरी नदी की गोदी का निर्माण चोल राजाओं के बंदरगाह पुम्पुहार में हुआ था। यह अपने समय का काफी महत्वपूर्ण बंदरगाह था, पर कालांतर में यह पूरा का पूरा समुद्र में समा गया। अब यहां सिर्फ एक छोटा सा गांव है। खोज और खुदाइयों में पुम्पुहार के बारे में काफी ऐतिहासिक तथ्य मिले हैं और तथ्यों के अनुसार लगभग 2000 साल पहले पुम्पुहार समृद्ध और योजनाबद्ध तरीके से बसाया गया शहर था। पुम्पुहार में खुदाई के दौरान नगर नियोजन के जो विवरण पाए गए हैं उन्हें देखकर नगर नियोजन के आज के दिग्गज भी चकित रह जाते हैं। पुरातत्व विभाग ने यहां खुदाई के दौरान दो हजार साल पहले बने घरों को खोज निकाला है। खुदाई में उस काल के सिक्के और अन्य सामग्रियां भी पाई गई हैं।

पुम्पुहार का सागर तट काफी रमणीक और स्वच्छ है, पर लहरों के मनमौजी आवेग के कारण इसे कभी स्नान या जलक्रीड़ा के लिए उपयुक्त नहीं पाया गया। यही कारण है कि यहां की अलौकिक छटा को किनारे से निहारा जा सकता है और पानी में 15-20 फुट की दूरी तक नहाया भी जा सकता है, पर उससे अधिक दूरी तक जाना ठीक नहीं है।

पुम्पुहार में तीन चीजें खासतौर से दर्शनीय हैं। एक यहां के सागर तट की रमणीयता, दूसरे मंदिर और तीसरी कला दीर्घा। सागर तट पर ही स्थित सिलापतिकारा नाम की कला दीर्घा में पिछले 40 वर्षो के दौरान हुई खुदाइयों के दौरान पाई गई ऐतिहासिक धरोहरों को सहेज कर रखा गया है। उस क्षेत्र और भूमि की गाथा को कभी यहां के कलाकारों ने पत्थरों पर उकेरा था। ये अवशेष यहां विगत 90 वर्षो की खुदाई के दौरान जगह-जगह पर मिले हैं जिनको इस कला दीर्घा में प्रदर्शन के लिए रखा गया है। यह दीर्घा तमिल संस्कृति का एक अनूठा प्रदर्शन स्थल भी है।

पिछावरम में पानी के रंग

मेरा माझी जब नैया को अपनी पतवार के माध्यम से पानी को चीरते हुए बड़ी आसानी से पानी पर रपटा रहा था तो मेरे मुंह से बोल फूट पड़े, ‘वाह क्या नृत्य था।’ असल में मैं इस वक्त पिछावरम आ चुका था, लेकिन मेरे मस्तिष्क में अभी तक चिदंबरम ही घूम रहा था। मेरी कल्पना में चल रहा था सदियों पुराना काली और शिव का वह नृत्य संवाद जिसको चिदंबरम अपनी आत्मा में समेटे हुए है और मेरे मुंह से बार-बार निकल रहा था, वाह-वाह।

चिदंबरम से महज सोलह किलोमीटर की दूरी पर तमिलनाडु की भूमि का वह हिस्सा है जहां चारों तरफ पानी ही पानी नजर आता है। यह पिछावरम और यहां के बैकवाटर्स हैं, जहां का ज्यादातर जीवन नाव और पानी के बीच बिताया जाता है। वैसे सोलह किलोमीटर की दूरी बस आसानी से पंद्रह मिनट में तय कर सकती है पर ऊबड़-खाबड़ सड़क और करीब दस जगहों पर ठहरने के बाद हमारी बस ने पूरे पैंतालीस मिनट में यह रास्ता तय किया। हमसे गलती यह हुई कि वापसी में बस में जबर्दस्त भीड़ हो जाने के कारण हमने ऑटो रिक्शा से जाना तय किया। उसने वही रास्ता पूरा करने में डेढ़ घंटे से ज्यादा समय लगा दिया। हमने धच्चियां भी खूब खाई, सो अलग। अगर हम अगली बस के लिए एक घंटे और इंतजार करने का धैर्य धारण करते तो शायद वह मुश्किल नहीं झेलनी पड़ी होती।

पिछावरम पहुंच कर मैंने सबसे पहले तमिलनाडु पर्यटन विकास निगम द्वारा संचालित बोट को आरक्षित कराया। पिछावरम के बैकवाटर्स भ्रमण के लिए बोट ही सबसे अच्छा साधन है। मुझे बताया गया कि एक दिन पहले ही अनिल कपूर यहां बैकवाटर्स में शूटिंग करके गए हैं।

पानी में पानी के खेल

दो घंटे की सवारी के लिए 200 रुपये देकर मैं एक बोट में सवार हो गया और तीन हजार एकड़ में फैले इन बैकवाटर्स और पानी में उगे मैनग्रोव के जंगलों में सैर करने निकल पड़ा। असल में मेरा माझी ही मेरा गाइड था। उसने बताया कि तीन हजार एकड़ के  इस बीच में लगभग एक हजार से भी ज्यादा छोटे-छोटे टापू हैं। हकीकत तो यह है कि अगर इस इलाके को पूरी तरह देखना हो तो उसमें एक माह से भी ज्यादा का समय लग सकता है। हमारे पास न तो इतना समय था और न ऐसी कोई सुविधा ही थी। बहरहाल, माझी ने हमें आश्वासन दिया कि सिर्फ  दो घंटों के इस भ्रमण में वह इस क्षेत्र की खास चीजें जरूर दिखादेगा।

सबसे पहले हमने बड़ी झील को पार किया जिसमें आसपास मछुआरे अपनी नौका और जाल के सहारे मछलियां पकड़ने में मगन थे। झील को पार करने के बाद हम मैनग्रोव के जंगलों में घुस गए। मैनग्रोव असल में एक प्रकार का पौधा या पेड़ होता है। इसकी जड़ें नीचे पानी में होती हैं। इन जंगलों में पानी पर दोनों तरफ मैनग्रोव के पेड़ों से घिरे संकरे रास्ते होते हैं। कहीं-कहीं तो ये रास्ते इतने संकरे होते हैं कि बस एक नाव ही निकल सकती है। वास्तव में बैकवाटर्स की खूबसूरती का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा इन रास्तों में ही छिपा होता है। इसमें कहीं-कहीं तो सिर्फ घुटनों तक ही पानी होता है और ऐसे समय नाव को खेना भी बहुत मुश्किल हो जाता है। उस वक्त आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता यही होता है कि नाव से उतरकर धक्के लगाए जाएं। पानी और मैनग्रोव की गलियों में हमें कहीं-कहीं ऐसे स्थानीय लोग भी दिखे जो पानी में झुककर दोनों हाथ अंदर घुसाए हुए कुछ कर रहे थे। माझी ने हमें बताया कि ये मछुआरे हैं जो हाथ से ही मछली पकड़ते हैं। ये मछुआरे इतने गरीब होते हैं कि मछली मारने के लिए एक छोटी सी नाव खरीदने की भी स्थिति में नहीं हैं, इसलिए अपने दोनों हाथों से मछली पकड़ने की कला का सहारा लेते हैं।

मेरी नाव मैनग्रोव के नेटवर्क में बाएं-दाएं घुसती चली जा रही थी। कभी-कभी आगे-पीछे से किंगफिशर का पानी में डुबकी लगाकर मछली को पकड़ना एक अलग ही मनोहारी दृश्य उपस्थित कर जाता था। यह दृश्य दिसंबर और जनवरी में बड़ा ही आकर्षक होता है जब दूर देशों से तरह-तरह के पक्षी आकर उस जल प्रदेश को अपनी क्रीड़ा और कलरव का क्षेत्र बनाते हैं। जब मुझे लगा कि मेरा माझी मैनग्रोव के नेटवर्क में फंसकर रास्ता भूल गया है तब वह अचानक घने जंगलों से निकलकर खुले में आ गया। दो घंटे बीतने वाले थे और मुझे पता ही नहीं लगा। चिदंबरम के आत्मिक उल्लास के बीच पिछावरम की यात्रा एक ताजा बयार की तरह थी जो मेरी यादों में सदा अंकित रहेगी।

VN:F [1.9.1_1087]
Rating: 9.0/10 (1 vote cast)
नटराज और काली की लीलाभूमि चिदंबरम, 9.0 out of 10 based on 1 rating



Leave a Reply

    * Following fields are required

    उत्तर दर्ज करें

     (To type in english, unckeck the checkbox.)

आपके आस-पास

Jagran Yatra