डलहौजी: सपनों का हिमलोक

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हिमाचल प्रदेश का छोटा सा शहर डलहौजी कुदरत के खूबसूरत नजारों के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। घास के मैदान के रूप में जाना जाने वाला खजियार प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही धार्मिक आस्था की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। जबकि धार्मिक आस्था, कला, शिल्प, परंपराओं और प्राकृतिक सौंदर्य को अपने आंचल में समेटे चंबा हिमाचल की सभ्यता और संस्कृति का जीवंत प्रतीक है।

गर्मी के मौसम में दैनिक जीवन की भागमभाग और प्रदूषण से जब ज्यादा ही उकताहट और बेचैनी होने लगती है तो पर्वतों की हसीन वादियां पुकारने लगती हैं। मन ऐसी जगह पहुंचने को करता है जहां जीवन के लिए नयी ऊर्जा हासिल की जा सके। कुछ ऐसे ही इरादे से हम इस बार हिमाचल प्रदेश की यात्रा पर निकले तो हमारे कार्यक्रम में शामिल थीं डलहौजी, खजियार और चंबा की वादियां। इन तीनों जगहों की अपनी अलग-अलग विशेषताएं हैं। डलहौजी की गिनती अंग्रेजों के समय से ही एक शांत सैरगाह के रूप में होती है। खजियार हरे-भरे जंगल के मध्य फैले घास के मैदान के लिए प्रसिद्ध है और चंबा ऐतिहासिक व धार्मिक महत्व वाला पर्वतीय नगर है। दिल्ली-जम्मू रेलमार्ग पर स्थित पठानकोट स्टेशन पर उतरने के बाद डलहौजी के लिए हमने टैक्सी ली। पहाड़ी मार्ग शुरू होते ही सर्पाकार सड़कों का सिलसिला शुरू हो गया। कुछ देर बाद ही मार्ग में हमें अनोखी सी पहाडि़यां नजर आई। जैसे विशाल पहाडि़यों को किसी संगतराश ने एक खास आकार देने का प्रयास किया हो। इन्हें देखकर अमेरिका के ग्रैंड केनयन का खयाल आता है, जिसे एक नदी के प्रवाह ने कुछ अलग ही आकार दे दिया है। ऐसा ही कुछ यहां भी लगता है। यहां के सूखे से पहाड़ ऐसे लगते हैं जैसे किसी नदी घाटी से उभर कर बने हों। इन पहाड़ों की मिट्टी में बहाव से घिसकर गोल हुए पत्थरों की भरमार है। ढाई घंटे बाद हम बनीखेत पहुंचे। यहीं से एक रास्ता चंबा के लिए जाता है। डलहौजी यहां से मात्र छह किलोमीटर दूर है। डलहौजी पहुंचकर ठहरने की व्यवस्था हमने ऐसे होटल में की जहां प्रकृति से हमारा सीधा साक्षात्कार हो सके।

पांच पहाडि़यों पर बसा शहर

प्रकृति के जिस अनूठे सौंदर्य ने अंग्रेज वायसराय लॉर्ड डलहौजी को प्रभावित किया था, वही सौंदर्य आज भी सैलानियों को लुभाता है। धौलाधार पर्वत श्रृंखला के साये में पांच पहाडि़यों पर बसा है यह शहर। चीड़ और देवदार के ऊंचे वृक्ष हरे रंग के अलग-अलग शेड दर्शाते हैं। जिन्हें छू कर आती सुहानी हवा यहां की जलवायु को स्वास्थ्यव‌र्द्धक बनाती है। यही शीतल जलवायु गर्मियों में सैलानियों को अपनी ओर खींचती है तो सर्दियों में चारों ओर फैली हिम चादर उन्हें मोहित करती है। उस समय घरों की छत पर पेड़ों की टहनियों पर लदी बर्फ एक अलग ही मंजर पेश करती है। 1853 में अंग्रेजों ने यहां की जलवायु से प्रभावित होकर पोर्टि्रन, कठलोश, टेहरा, बकरोटा और बलून पहाडि़यों को चंबा के राजाओं से खरीद लिया था। इसके बाद इस स्थान का नाम लॉर्ड डलहौजी के नाम पर डलहौजी रख दिया गया। बलून पहाड़ी पर उन्होंने छावनी बसाई, जहां आज भी छावनी क्षेत्र है। शहर मुख्यत: पौर्टि्रन पहाड़ी के आसपास बसा है।

सफर की थकान दूर कर हमने होटल में लंच किया। उसके बाद प्रकृति के जादुई आंचल में खो जाने के लिए हम तैयार थे। हम होटल के लॉन में रखी कुर्सी पर आ बैठे। वहां हमारे सामने थी धौलाधार के धवल शिखरों की अटूट श्रृंखला। ऐसा लग रहा था गोया नीले आकाश के कागज पर प्रकृति ने हिम लिपि से कोई महाकाव्य रच दिया हो। हिम शिखरों के सामने फैली हरी-भरी पहाडि़यां उस महाकाव्य की व्याख्या करती हुई सी लग रही थीं। उन्मुक्त पर्वतीय वातावरण में बहता मंद मादक पवन हमें जाने किस दुनिया में ले गया कि कुछ ही घंटों में हम शहर की तपती गरमी और नीरस दिनचर्या को भूल चुके थे। धीरे-धीरे पर्वतों पर शाम उतर रही थी। सूर्यास्त के बाद लगने लगा जैसे पहाड़ भी सोने चले गए हों। हम भी होटल के कमरे में वापस आ गए।

भटकते फिरते रहे हम

किसी ने कहा था कि डलहौजी की खूबसूरती को आत्मसात करना हो तो किसी यायावर की तरह यहां की सड़कों पर भटक जाएं। आप अपने को किसी अनूठे लोक में पाएंगे। अगली सुबह हम इसी इरादे से पैदल ही डलहौजी की सड़कों पर निकल पड़े। हरे-भरे वृक्षों से घिरी घुमावदार साफ-सुथरी सड़कें यूं भी सैलानियों को चहलकदमी के लिए आमंत्रित करती हैं। टहलते हुए हम सुभाष चौक पहुंचे। यह यहां का छोटा सा प्वाइंट है, जहां तमाम पर्यटक जुटते हैं। पहाड़ी के किनारे पर सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा लगी है। अपने जीवन के कुछ दिन उन्होंने डलहौजी में बिताए थे। प्रतिमा के आसपास रोलिंग तथा कुछ बेंच लगे हैं। यहां से आसपास की पहाडि़यों के अलावा पंजाब के मैदानी क्षेत्र के दृश्य भी नजर आते हैं। यहां खड़े सैलानी सर्द मौसम की खिली धूप का आनंद लेते हैं। यहां एक चर्च भी है। डलहौजी का ऐसा ही दूसरा प्वाइंट है गांधी चौक। सुभाष चौक से गांधी चौक जाने के लिए दो मार्ग हैं। इनमें एक गर्म सड़क कहलाता है और दूसरा ठंडी सड़क। हमने एक सज्जन से इन नामों का रहस्य पूछा तो पता चला कि गर्म सड़क सन फेसिंग है। वहां अधिकांश समय धूप रहती है। जबकि ठंडी सड़क पर सूर्य के दर्शन कम ही होते हैं। हिमपात के दिनों में इधर बर्फ भी देर से पिघलती है। ठंडी सड़क को माल रोड भी कहते हैं। हम वहीं से गांधी चौक के लिए चल दिए। प्राकृतिक दृश्यों की कड़ी में, पूरे रास्ते हिम से ढके शिखरों का सिलसिला हमारे साथ चलता रहा। पर्वत की गोद में बसे गांव, घाटियां सुंदर नजर आ रही थीं। बलून पहाड़ी पर बसा छावनी क्षेत्र सबसे निकट दिख रहा था। मार्ग में पर्यटकों के विश्राम के लिए कुछ शेल्टर भी बने हैं। यहां से मनमोहक दृश्य दिखते हैं।

गांधी चौक पर तो घुमक्कड़ लोगों का जमघट ही लगा रहता है। यहां डलहौजी का मुख्य डाकघर होने के कारण इसे पहले जीपीओ स्क्वेयर कहते थे। डाकघर के सामने ही गांधी जी की प्रतिमा है। इसके पीछे एक चर्च है। गांधी चौक पर भी छोटा सा बाजार, कुछ रेस्टोरेंट और फास्ट फूड पार्लर आदि हैं। यहीं एक ओर कतार में कुछ घोड़े भी खड़े रहते हैं, जो लोगों की घुड़सवारी का शौक पूरा करते हैं। चौक से थोड़ा आगे तिब्बती बाजार है। यहां एक टैक्सी स्टैंड है, जहां आसपास की घुमक्कड़ी के लिए टैक्सियां मिल जाती हैं। दो-चार किलोमीटर पैदल चलने की क्षमता है तो कुछ स्थान पैदल ही देखे जा सकते हैं। सतधारा, पंजपुला, सुभाष बाओली और जंदरी घाट जैसे दर्शनीय स्थल निकट ही हैं।

स्थानीय लोग बताते हैं कि सतधारा में पहले कभी जल की सात धाराएं झरने के रूप में बहती थीं और इसका जल औषधीय गुणों से युक्त होता था। आज यहां साधारण सी एक जलधारा बहती है। सतधारा से एक किलोमीटर दूर पंजपुला है। यह एक छोटा सा पिकनिक स्पॉट है। यहां से एक पैदल मार्ग धर्मशाला की ओर जाता था। उस मार्ग पर पांच पुल थे। सैलानियों को यह मार्ग बहुत सुंदर लगता था। इसलिए उन्होंने इसे पंजपुला कहना शुरू कर दिया। पंजपुला में स्वतंत्रता सेनानी अजीत सिंह की समाधि भी है। सुभाष चंद्र बोस के सहयोगी रह चुके सरदार अजीत सिंह शहीद भगत सिंह के चाचा थे। जिस दिन देश स्वतंत्र हुआ उसी दिन यहां उनका देहांत हो गया था। यहां आने वाले पर्यटक उस महान सेनानी को श्रद्धासुमन अर्पित करना नहीं भूलते। गांधी चौक से एक मार्ग सुभाष बाओली और जंदरीघाट के लिए जाता है। सुभाष बाओली का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि डलहौजी प्रवास के दौरान नेताजी इस बाओली पर प्राय: आते थे। आज यहां एक छोटा सा जल स्त्रोत है, किंतु यहां से हिमाच्छादित पर्वतों के मनभावन दृश्य देखते ही बनते हैं। एक किलोमीटर दूर जंदरीघाट है। यहां की दृश्यावली में शामिल हैं छोटे-छोटे गांव, ढलानों पर बने सीढ़ीनुमा खेत, ऊंचे वृक्षों की लंबी कतारें। चंबा के राजाओं ने यहां एक छोटा सा महल भी बनवाया है। यह महल पर्वतीय वास्तु शैली में ढलवां छतों वाले विशाल घर के समान बना है। इसके सामने एक सुंदर उद्यान है। महल में ऐतिहासिक वस्तुओं और चित्रों का अच्छा संग्रह है। राजघराने की निजी संपत्ति होने के कारण पर्यटक इसे केवल बाहर से ही देख पाते हैं।

चट्टानों पर भित्तिचित्र

हम वापस गांधी चौक आए तो वहां खासी रौनक थी। हनीमून पर आए तमाम युगल यहां-वहां घूम रहे थे। गांधी चौक से होटल की ओर जाने के लिए हम गर्म सड़क से चल दिए। इस सड़क पर भी होटलों की कमी नहीं है। इस मार्ग की पहाड़ी चट्टानों पर सुंदर भित्तिचित्र बने हैं। ये भित्तिचित्र तिब्बती बौद्ध धर्मावलंबियों ने बनवाए हैं। इन चित्रों का सुंदर ढंग से संयोजन किया गया है। इनके पास फहराती धर्म पताकाएं स्वत: ही सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। डलहौजी में बसे तिब्बतियों के लिए ये चित्र आस्था के प्रतीक हैं। तिब्बत से पलायन के बाद धर्मशाला से पहले दलाईलामा कुछ समय डलहौजी में भी रुके थे। तब से कई तिब्बती परिवार यहां रहते हैं। लगभग 150 वर्ष पूर्व यह क्षेत्र चंबा के राजाओं के आधिपत्य में था। उसके बाद अंग्रेजों के प्रभाव में रहा। आजादी के बाद यह पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध हो गया। गांधी चौक के निकट ही रघुनाथ मंदिर है। सड़कों के निकट स्थित घरों को ज्यादातर लोगों ने होटलों में तब्दील कर लिया है। पर्यटकों के साथ ही यहां नया फैशन भी पहुंचता है। इसका असर युवाओं पर देखा जा सकता है। यहां दो-तीन छोटे बाजार हैं।

अगले दिन हम डलहौजी के अन्य दर्शनीय स्थल देखने गए। डलहौजी का सबसे ऊंचा स्थान दैनकुंड यहां से 10 किलोमीटर दूर है। यहां से आसपास का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। ऊंचे वृक्षों वाले वनों में जब हवा अपने वेग से चलती है तो वातावरण में संगीत सा बजता सुनाई देता है। इसलिए इसे संगीतमय पहाड़ी भी कहा जाता है। बताते हैं कि मौसम साफ हो तो यहां से व्यास, चिनाब और रावी नदी घाटियों का सुंदर दृश्य भी नजर आता है। इसके निकट ही कालाटोप नामक वन्य प्राणी संरक्षण वन है। यहां घूमने के लिए वन विभाग से अनुमति प्राप्त करके जाना चाहिए। यहां के सघन वनों में तमाम वन्य जीवों तथा पक्षियों को स्वच्छंद विचरण करते देखा जा सकता है।

एक दुनिया नयी सी

डलहौजी के बाद हमारा अगला पड़ाव खजियार था। हमने स्थानीय बस से खजियार जाने का कार्यक्रम बनाया। डेढ़ घंटे के सफर के बाद हम अपने गंतव्य पर पहुंच गए। ज्यादातर सैलानी पैकेज टूर के तहत खजियार घूमने आते हैं। यहां ठहरने वालों की संख्या कम होती है, इसलिए यहां होटल भी कम हैं। फिर भी हमें पर्यटन विभाग के रेस्ट हाउस में आसानी से स्थान मिल गया।

खजियार की खूबसूरती के विषय में जैसा सुना था वैसा ही पाया। छोटे से पठार पर स्थित खजियार घास का तश्तरीनुमा एक विशाल मैदान है। इसके चारों ओर चीड़ और देवदार के ऊंचे वृक्ष प्रहरी के समान खड़े हैं। घास के ढलवां मैदान के मध्य एक छोटी सी झील है। इससे इसका सौंदर्य और निखरता है। जहां तक नजर जाती है, हर तरफ हरियाली का ही साम्राज्य है। यहां आने वाले सैलानी सौम्य प्रकृति के सम्मोहन से बच नहीं पाते।

खाने और जीने के कारण

सबसे पहले हम यहां स्थित खच्चीनाग मंदिर देखने पहुंचे। पर्वतीय शैली में स्लेट पत्थर की बनी छत वाला यह मंदिर उत्तर गुप्तकालीन है। मंदिर में खच्चीनाग की प्रतिमा है। मंडप में लकड़ी की बनी पांडवों की प्रतिमाएं भी हैं। अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने कुछ समय यहां भी बिताया था। कौतूहलवश हमने एक भक्त से खच्चीनाग देवता के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि एक बार यहां एक महात्मा आए। उन्हें ज्ञात हुआ कि यह छोटी सी झील अत्यंत गहरी है और इसमें देवताओं का वास है। उत्सुकतावश झील की गहराई नापने के लिए वह घास की रस्सी बनाने में जुट गए। वह एक वर्ष तक रस्सी बनाते रहे, फिर भी झील की गहराई नहीं नाप सके। इससे उन्हें बेहद निराशा हुई। महात्मा की लगन देख झील के देवता एक नाग के रूप में प्रगट हुए और उन्होंने बताया कि यह झील पाताल तक गहरी है। तश्तरीनुमा घाटी को तप योग्य उचित स्थान मानकर महात्मा ने देवता से इस घाटी का अधिकार मांगा। प्रत्युत्तर में देवता ने कहा, मैं तुम्हें घाटी का स्वामित्व तो नहीं दे सकता, लेकिन तुम जब तक चाहो यहां ‘खा’ और ‘जी’ सकते हो। खाने तथा जीने का अधिकार देने वाले नाग देवता के प्रति श्रद्धावश महात्मा ने यहां एक मंदिर बनाकर उसमें ‘खाजीनाग’ की प्रतिमा स्थापित की। इसी आधार पर इस जगह का नाम खाजीनाग पड़ गया। यही समय के साथ बदलते हुए खजियार कहलाने लगा। आज मंदिर के आसपास कुछ होटल और रेस्टोरेंट भी बन गए हैं। कुछ सैलानी झील के आसपास मखमली घास पर घूम रहे थे तो कुछ घुड़सवारी का लुत्फ उठा रहे थे। दूसरी तरफ कुछ युवक एक लोकगीत की धुन पर थिरकते हुए अपनी ही धुन में मस्त थे। संगीतमय वातावरण में खजियार ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति ने हरा दामन फैला रखा हो। झील उस दामन पर कढ़े बूटे के समान लग रही थी।

शाम ढलते ही दृश्य कुछ अलग ही लगने लगा। ऊंचे दरख्तों के पीछे से आकाश में पहुंच कर चांद अपनी शीतल चांदनी बिखेर रहा था। मफलर और स्वेटर से लैस होकर हम होटल से बाहर आकर छिटकी हुई चांदनी और सर्द मौसम का आनंद ले रहे थे। जहां चारों ओर एक आध्यात्मिक शांति व्याप्त थी।

पहाड़ में शेल्फ

खजियार से चंबा के लिए सुबह एक ही बस जाती है। हम समय से बस स्टैंड पर पहुंच गए। डलहौजी से चंबा जाने के दो मार्ग हैं। खजियार होकर जाने वाले मार्ग के ग्रामवासी चंबा जाने के लिए पूरी तरह इसी बस पर निर्भर हैं। दूसरी बस शाम के समय जाती है। किसी कारण बस रद्द हो जाने पर लोगों को अपने काम अगले दिन के लिए टालने पड़ते हैं। पहाड़ों के कठिन जीवन का यह भी एक पहलू है। कुछ ही देर में बस आ गई। हम एक बार फिर प्रकृति की बांहों के समान फैले पर्वतीय रास्तों पर थे। बस की खिड़की से सामने ही दिखते हिमशिखर ऐसा आभास दे रहे थे मानो हम उनके समानांतर उड़ रहे हों। गांवों में बने घर अधिकतर स्लेट की बनी ढलवां छत वाले हैं। सीढ़ीनुमा खेतों में कई तरह की फसलें उगी होने के कारण पहाड़ की ढलानों पर विभिन्न रंगों की छटा बिखरी हुई थी। एक घंटे के सफर के बाद नीचे खाई में रावी नदी के दर्शन हुए और सामने की पहाड़ी पर बसा चंबा शहर नजर आने लगा। एक ऊंचे पठार पर बसा शहर ऐसा दिख रहा था जैसे पहाड़ में शेल्फ बनाकर नगर बसाया गया हो। रावी पर बने पुल को पार कर बस ने चंबा की ओर चढ़ना शुरू कर दिया। इस पुल के पास ही पुराना पुल उस समय की याद दिला रहा था जब एक बार में पुल से एक ही बस निकलती थी।

पश्चिमी हिमालय की उपत्यकाओं के मध्य बसा चंबा भौगोलिक रूप से ऐसे क्षेत्र में है, जहां बाण और दयार के ऊंचे वृक्षों की सघनता, उन पर विचरते नभचरों की स्वरलहरियां और नदी व झरनों की थिरकती जलधाराएं अपनी भव्यता से हर ओर नैसर्गिक रंगीनियां बिखेरती हैं। समुद्र तल से 3200 फुट की ऊंचाई पर स्थित चंबा की पृष्ठभूमि में निश्चल खड़ी हैं धौलाधार और पंगीधार की बीस हजार फुट से भी ऊंची कई पर्वत चोटियां। इन विलक्षण विशिष्टताओं के अतिरिक्त यह पूरा क्षेत्र अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा पुरातत्व अवशेषों के कारण भी प्रसिद्ध है। पंजाब की पहाड़ी रियासतों में से एक रह चुके चंबा का लंबा इतिहास है।  प्राचीन काल में इस रियासत की राजधानी ब्रह्मपुर यानी भरमौर थी। कहते हैं दसवीं शताब्दी में यहां के राजा साहिल वर्मा ने अपनी पुत्री चंपावती की इच्छा पर इस मनोरम स्थान पर नगर बसाकर उसका नाम चम्पा रख दिया और अपनी राजधानी भी यहां स्थानांतरित कर ली। एक और जनश्रुति है कि कभी यह स्थान चंपक वनों से सुशोभित था। तब इसकी संरक्षक देवी चंपा थीं। राजा ने एक बार युद्ध में विजय के बाद यहां देवी का मंदिर बनवाया और नगर बसाकर उसका नाम चंपा रखा। वही चंपा बाद में चंबा कहलाने लगा।

शहर मंदिरों का

शहर के आरंभ में छोटा सा बस स्टैंड तथा एक बाजार है। उससे कुछ आगे बढें़ तो शहर का मुख्य हिस्सा शुरू हो जाता है। वहां कई साफ-सुथरे होटल हैं। हिमाचल पर्यटन निगम के होटल इरावती में हमने ठहरने की व्यवस्था की थी। चंबा की सैर के लिए होटल से निकले तो सामने घास का बड़ा सा मैदान नजर आया। यह मैदान चौगान कहलाता है। यहां से पहाड़ी पर बसा पूरा चंबा शहर नजर आता है। कभी यहां के राजाओं का पोलो ग्राउंड रहा यह मैदान आज एक विशाल उद्यान और मेला मैदान है। इसके सामने सड़क पर सरकारी कार्यालय और होटल हैं। दूसरी तरफ एक सड़क है, जिस पर पर्यटन विभाग का कैफेटेरिया रावी व्यू है। यहां से गहराई में बहती रावी नदी का दृश्य देखते ही बनता है। बड़ा बंघाल से निकलने वाली यह नदी अपने साथ बुढल, तुन्दाह, साहो और सियूल जैसी कई छोटी नदियों का जल भी समेट कर लाती है। रावी नदी का प्राचीन संस्कृत नाम इरावती है।

चंबा को मंदिर नगरी भी कहा जाता है। यहां कई ऐतिहासिक मंदिर हैं। इनमें लक्ष्मी नारायण मंदिर सबसे महत्वपूर्ण है। यह छह बड़े और कुछ छोटे मंदिरों का समूह है। जो धार्मिक आस्था तथा स्थापत्य कला, दोनों ही दृष्टिकोण से अद्वितीय हैं। प्रवेशद्वार के बाहर एक ऊंचे स्तंभ पर धातु की बनी गरुड़ की प्रतिमा है। अंदर प्रांगण में तीन मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित हैं और तीन भगवान शिव को। इनमें लक्ष्मी नारायण जी को समर्पित मंदिर सबसे बड़ा तथा प्राचीन है। इसके आसपास ही क्रमश: श्री राधाकृष्ण मंदिर, श्री चंद्रगुप्त, श्री गौरीशंकर, श्री त्रयम्बकेश्वर और लक्ष्मी दामोदर मंदिर हैं। श्री लक्ष्मी नारायण एवं श्री चंद्रगुप्त मंदिर 10वीं शताब्दी में राजा साहिल वर्मा द्वारा बनवाए गए थे। शेष मंदिर बाद के राजाओं के काल में बने। शिखर शैली में बने इन मंदिरों के ऊपर कलश हैं जिनके नीचे स्लेट पत्थर की छतरी बनी है। मंदिर के किनारों पर तथा आगे-पीछे गवाक्ष बने हैं। इनमें सुंदर मूर्तियां स्थित हैं। लक्ष्मी नारायण मंदिर में भगवान की चार मुख और चार भुजाओं वाली मानवाकार प्रतिमा है। संगमरमर की यह प्रतिमा कश्मीर शैली में बनी है। प्रतिमा के पीछे बने तोरण पर विष्णु दशावतार का वर्णन है। इस प्रतिमा को बैकुंठ भी कहते हैं। प्रांगण में एक हनुमान मंदिर तथा कुछ नंदी गणों के मंदिर भी हैं। ये सभी मंदिर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में हैं।

मंदिर के बाद हमने यहां के राजाओं का ऐतिहासिक अखंड चंडी महल देखा। पर्वतीय शैली में बना यह महल राजस्थान के महलों जैसा भव्य नहीं है। किंतु पहाड़ी स्थापत्य के पुरातत्व महत्व की यह एक महत्वपूर्ण इमारत है। उस दौर की तमाम वस्तुएं यहां संग्रहालय में हैं। रंगमहल भी यहां की एक ऐतिहासिक इमारत है। इस इमारत में हिमाचल हस्तशिल्प एवं हथकरघा निगम का कार्यालय भी है।

जब भेजी जाती है मिंजर

अगले दिन प्रात: हम ऊपर पहाड़ी पर स्थित चामुंडा देवी मंदिर के दर्शन करने चल दिए। लगभग 400 सीढ़ी तय करके हम मंदिर प्रांगण में पहुंचे। शिखर शैली के मंदिरों से अलग यह मंदिर पहाड़ी शैली का बना है। विशिष्ट पहाड़ी स्थापत्य कला में भवन व मंदिर निर्माण में ढलावदार छत होती थी। ताकि हिमपात होने पर उन पर बर्फ न ठहर सके। अधिकतर मंदिर एक छत वाले होते थे। इनके निर्माण में लकड़ी का प्रयोग अधिक होता था। चामुंडा मंदिर के गर्भगृह की दीवारें भी लकड़ी और पत्थर की बनी हैं। मंदिर में देवी की सुंदर प्रतिमा विद्यमान है। बाहरी दीवारों पर देवी के अन्य रूप चित्रित हैं। चंबा के राजाओं की अधिष्ठात्री देवी चामुंडा के इस प्राचीन मंदिर के परिसर से रावी घाटी का विहंगम दृश्य भी नजर आता है। करीब एक किलोमीटर दूर दूसरी पहाड़ी पर सूही माता मंदिर है। यह मंदिर एक प्रकार से रानी सूही का स्मारक है। बताते हैं 10वीं शताब्दी में नगर स्थापना के समय रानी सूही का बलिदान देने पर यहां जल की धारा पहुंच सकी थी। इस मंदिर पर हर वर्ष एक मेला लगता है। सूही मेले के अवसर पर यहां की लड़कियां रानी सूही की प्रशंसा में गीत गाती हैं। इन पारंपरिक गीतों को घुरेई कहते हैं। चंबा में अन्य दर्शनीय मंदिर, हरिराय मंदिर, बज्रेश्वरी देवी मंदिर, चंपावती मंदिर और शीतला माता मंदिर हैं। धार्मिक आस्था से जुड़े चंबावासियों के जीवन में त्योहारों और मेलों का खास महत्व है। इन अवसरों पर नृत्यगान, वेशभूषा और राग-रंग के रूप में जनसाधारण का उल्लास और मेल-मिलाप देखते ही बनता है। लोहड़ी और बैसाखी पर्व यहां धूमधाम से मनाते हैं।

चंबा की संस्कृति की बात हो तो मिंजर मेले का नाम सबसे पहले यहां के लोगों की जुबान पर आता है। पूरे चंबा जनपद के लोग बड़ी व्यग्रता से इस मेले की प्रतीक्षा करते हैं। भावपूर्ण और मधुर गीत गाते हुए ये लोग समूह में जुटकर मेले में पहंुचते हैं। कृषि से जुड़ा यह ऐतिहासिक मेला हर वर्ष सावन माह में मनाया जाता है। मक्की पर जब मिंजर फूलती है तो कृषक उल्लास से भर उठते हैं। इसी उल्लास ने इस मेले की परंपरा को जन्म दिया। पारंपरिक परिधान पहने लोग मंदिरों में पूजा आदि करते हैं। इस मौके पर मित्रों और संबंधियों को मिठाई और मिंजर भेजी जाती है। महल से आरंभ होने वाली देवी-देवताओं की शोभायात्रा चौगान तक आती है। उस समय चौगान में उमड़ी भीड़ का दृश्य देखने योग्य होता है। सप्ताह भर तक चलने वाले मिंजर मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। लोकवाद्यों पर कुंजड़ी, मल्हार तथा अन्य मौसमी गीत गाए जाते हैं। जिनके साथ लोकनृत्य किए जाते हैं।

विशिष्ट शैली कला की

संस्कृति के साथ ही कला की दृष्टि से भी समूचा चंबा क्षेत्र समृद्ध है। कांगड़ा शैली की गुलेर चित्रकला यहां की विशिष्ट कला है। राजभवनों और मंदिरों में कई सदियों तक भित्तिचित्र परंपरा कायम थी। आज भी कुछ प्राचीन भित्तिचित्र यहां देखे जा सकते हैं। धातु मूर्तिकला के मामले में यहां के शिल्पकारों की खास पहचान थी। छठी सदी से शुरू हुई यह परंपरा आज भी जीवित है। चंबा चप्पल तथा चंबा रुमाल यहां की यादगार वस्तुओं में गिनी जाती हैं। दो तरफा कशीदाकारी की अनोखी शैली के कारण चंबा रुमाल पूरे देश में प्रसिद्ध हैं। राजघरानों के प्रश्रय में फलती-फूलती रही यह परंपरा आज की युवतियों द्वारा भी अपनाई गई है। इन रुमालों पर रेशमी धागों के सुंदर संयोजन से गद्दी युगल, पौराणिक चरित्र, पशु-पक्षी एवं प्राकृतिक दृश्य बनाए जाते हैं।

चंबा की कला और संस्कृति के इतिहास को समझने के लिए हम भूरीसिंह संग्रहालय पहुंचे, जहां चंबा की ऐतिहासिक स्मृतियों के कई साक्ष्य मौजूद हैं। यहां के संग्रह में चंबा व आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त प्राचीन शिलालेख, पनघट शिलाएं, मूर्तियां, पांडुलिपियां शामिल हैं। कांगड़ा और गुलेर शैली के लघु चित्र, राजाओं के वस्त्र-आभूषण, बर्तन, शस्त्र, सिक्के और चंबा रुमाल आदि कई चीजें महलों से लाकर यहां रखी गई हैं। संग्रहालय का वर्तमान भवन तो 1985 में बना, किंतु इसकी स्थापना 1908 में राजा भूरीसिंह ने की थी। चंबा आने वाले पर्यटक सरोल, सलूनी और भरमौर भी जा सकते हैं। भरमौर पुरातत्व महत्व के 84 मंदिरों के लिए मशहूर है। यहां हर वर्ष अगस्त में मणिमहेश यात्रा के लिए भीड़ जुटती है। मणिमहेश यहां के पर्वतों में स्थित सुंदर झील है। यहां हर साल भव्य मेला लगता है।

नैसर्गिक पर्यटन त्रिकोण का हमारा सफर तो पूरा हो चला था। धर्म के प्रति आस्था से संपन्न यहां के लोग और उनका विनम्र व्यवहार हमें भा गया। हिमाचली और पंजाबी भाषा की मिली-जुली बोली की मधुरता तो जैसे सैलानियों को फिर आने के लिए आमंत्रित करती है। पर्वतीय सौंदर्य और पर्वतवासियों ने हमारे दिल पर एक अनोखी छाप छोड़ी थी। जिससे यह निश्चित था कि यहां के निस्तब्ध सौंदर्य में गुम हो जाने की चाह जब भी प्रबल होगी, हम फिर लौटकर आएंगे।

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