नई रोशनी का उदय

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कैमल फेस्टिवल, बीकानेर, राजस्थान
थार के रेगिस्तान की सैर का उपयुक्त माहौल बनाता एक रंगारंग आयोजन। जूनागढ़ फोर्ट के लाल पत्थरों की पृष्ठभूमि में सजे-धजे ऊंटों की सवारी से शुरू होता है यह जलसा। जब ऊंट फेस्टिवल तो ज्यादातर आयोजन ऊंटों से जुड़े ही होते हैं। चाहे वह रस्साकसी हो, ऊंटों का नृत्य हो या उनकी कलाबाजियां। थाप से थाप मिलाते ऊंटों को देखकर लोग दांतो तले उंगली दबा लेते हैं। यह जानवरों और उनके ट्रेनरों के बीच बेहतरीन समझ का प्रदर्शन होता है। सबसे बेहतर नस्ल के ऊंट को भी इनाम दिया जाता है। हजारों की संख्या में देशी-विदेशी सैलानी इस आयोजन को देखने के लिए जुटते हैं। यह फेस्टिवल इसके कुछ ही दिनों बाद होने वाले मरु मेले के लिए भी पृष्ठभूमि बना देता है।

ममल्लपुरम डांस फेस्टिवल, ममल्लपुरम, तमिलनाडु
चेन्नई से 58 किमी दक्षिण में स्थित ममल्लपुरम अपने तटीय मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। पल्लव वंश के समय यह बंदरगाह हुआ करता था। 7वीं व 8वीं सदी का पल्लवकालीन शिल्प, मंदिर व खूबूसरत बीच इस जगह को घूमने का उपयुक्त स्थान बनाते हैं। ऐसे ही स्थान पर हर साल 31 दिन तक नृत्य व संगीत का अद्भुत आयोजन होता है। चट्टानों पर पल्लवकालीन शिल्प की शानदार पृष्ठभूमि में खुले आकाश के नीचे देश के ज्यादातर शास्त्रीय व लोकनृत्य यहां देखने को मिल जाते हैं।  हजारों की तादाद में विदेशी सैलानी भी इसे देखने पहुंचते हैं।
रोज परेड, पसाडेना, लॉस एंजेल्स, अमेरिका
एक अनुमान के मुताबिक एक सदी से भी पुराने इस जलसे को हर साल दस लाख लोग सड़कों के किनारे खड़े होकर और चालीस करोड़ से ज्यादा टीवी पर देखते हैं। पसाडेना के कोलोराडो बुलवर्ड पर दो घंटे होने वाली इस परेड में फूलों की झांकियां, बैंड व घुड़सवार कलाकार शामिल होते हैं। लॉस एंजेल्स का यह उपनगरीय इलाका हर साल होने वाले टूर्नामेंट ऑफ रोजेज के लिए जाना जाता है। रोज परेड व रोज बाउल फुटबाल मैच, इसी का हिस्सा होते हैं। कुल मिलाकर यह फूलों, संगीत व खेल का खूबसूरत आयोजन होता है। पहला टूर्नामेंट ऑफ रोजेज 1890 में हुआ था।

ब्रह्मपुत्र दर्शन फेस्टिवल, अरुणाचल प्रदेश
पूर्वोत्तर की खूबसूरती को झलकाता एक और शानदार आयोजन। ब्रह्मपुत्र देश की नदियों में एकमात्र पुरुष नदी मानी जाती है। यह फेस्टिवल इस नदी को सांप्रदायिक सद्भाव व एकता के प्रतीक के रूप में पेश करने का एक जरिया है। हर साल यह आयोजन अरुणाचल में अलग-अलग स्थानों पर होता है ताकि लोगों को पूरे अरुणाचल की छवि मिल सके। शुरुआत में नदी की पूजा होती है। अन्य आयोजनों में पारंपरिक नृत्य, संगीत व खेल की स्पर्धाएं होती हैं। स्थानीय खान-पान, हस्तशिल्प, स्थानीय जड़ी-बूटियां, नौका रेस व राफ्टिंग भी खूब होते हैं। अरुणाचल को देखने व वहां की संस्कृति को समझने का यह सबसे शानदार मौका हो सकता है।
ऐलीफेंट फेस्टिवल, काजीरंगा, असम
काजीरंगा देश के प्रमुख राष्ट्रीय पार्क में से एक है। यह गैंडों व हाथियों के लिए खास तौर पर प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि पूर्वोत्तर के जंगलों में साढ़े सात हजार हाथी हैं। यह देश में हाथियों की कुल आबादी का पचास फीसदी है। लेकिन न केवल काजीरंगा बल्कि सारी दुनिया में वन क्षेत्र इनसानों के अतिक्रमण और जानवरों व इनसानों में टकराव के मैदान बन रहे हैं। इसी तथ्य को सामने लाने, हाथियों के संरक्षण को बढ़ावा देने और लोगों को जंगल की बेहतर समझ विकसित करने का अवसर देने के लिए ऐलीफेंट फेस्टिवल जैसे आयोजन किए जाते हैं। महावतों के साथ प्रदर्शन करते हाथी इस बात को भी जाहिर करते हैं कि वे इनसानों के दोस्त हैं और इनसान भी उनके दोस्त बनें। इस फेस्टिवल में हिस्सा लेने के लिए दूर-दूर से हाथी जमा होते हैं।
ममर्स परेड, फिलाडेल्फिया, अमेरिका
अमेरिका में नए साल को अलग अंदाज में मनाने की एक और जगह। फिलाडेल्फिया में नए साल के जलसे का इतिहास जॉर्ज वाशिंगटन के दिनों से मिलता रहा है। वैसे ममर्स परेड की जड़ें रोमन फेस्टिवल सैटर्न में देखी जाती हैं। वहां एक दिन सब आजाद होते थे और गुलाम अपने मालिकों का भेष धारण करके सड़कों पर उतरते थे। ममरी का आशय एक झूठे तमाशे या छलावे की परेड या भेष बदलकर मस्ती से लिया जा सकता है। यही परंपरा आगे जाकर ममर्स परेड में बदल गई। अब इसमें अलग-अलग कॉस्ट्यूम, क्रॉस ड्रेसिंग व मसखरेपन की भरमार होती है। फैशन का अनूठा नजारा देखने को मिलता है। इस स्ट्रीट पार्टी को देखने के लिए दस हजार से ज्यादा लोग इसे देखने पहुंचते हैं।
थाईपुसम , सिंगापुर
यह एक हिंदू पर्व है लेकिन इसके आयोजन का यह स्वरूप हमें सिंगापुर व मलेशिया जैसे दक्षिण एशियाई देशों में ज्यादा देखने को मिलता है। भगवान सुब्रमण्य या मुरुगन स्वामी को समर्पित इस त्योहार की रस्में पश्चिमी देशों को तो हैरतअंगेज लगती ही हैं, हम भारतीयों में से भी ज्यादातर को विचलित कर सकती हैं। सिंगापुर में सेरंगून रोड पर चार किलोमीटर लंबे जुलूस में हजारों लोग विनयगार मंदिर की तरफ जाते हैं। खास बात उन श्रद्धालुओं की है जो अपने शरीर को तमाम तरह से कष्ट देते हैं। जीभ या गाल के आर-पार तीर कर देना और बदल में जगह-जगह हुक व कांटे लगाकर उनपर वजन डालना इस पर्व के सबसे प्रमुख प्रतीक हैं। लेकिन ये लोग खास होते हैं, इस तकलीफ में खुद को झोंकने से पहले वे एक तय अनुशासन में रहते हैं। यह आयोजन देखना कमजोर दिलवालों का काम नहीं है।

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