किन्नौर: एक दुनिया अलग सी

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भौगोलिक दृष्टि से किन्नौर हिमाचल राज्य के अन्य सभी क्षेत्रों से भिन्न है और इस क्षेत्र के पर्यटन का आनंद भी बिल्कुल अलग है। पहली बार आने वाले पर्यटकों को तो यहां आने के बाद एक अलग दुनिया में विचरने जैसा ही एहसास होता है। जैसे-जैसे इस घाटी में आगे बढ़ते जाते हैं, ऐसा लगता है जैसे तमाम रहस्यों को समेटे एक नई दुनिया की खिड़कियां हमारे लिए खुलती जा रही हों। सतलुज नदी के दोनों ओर बसे इस क्षेत्र में एक ओर हरे-भरे घने पेड़ों वाले पर्वतीय क्षेत्र और बर्फीले पर्वत हैं, तो दूसरी ओर विशालकाय चट्टानें और दुर्गम सूखे पहाड़ किन्नौर को एक अलग ही रूप देते हैं। फिर भी किन्नौर की तुलना बर्र्फीले रेगिस्तान कहे जाने वाले लद्दाख जैसे क्षेत्र से नहीं की जा सकती, जहां ग्रीष्मकाल में बहुत गर्मी पड़ती है और जाड़े के दिनों में तापमान शून्य से भी नीचे चला जाता है। लद्दाख में वर्षा भी नहीं होती, जबकि इस क्षेत्र में कहीं अधिक तो कहीं कम वर्षा होती है। गर्मी के दिनों में भी यहां मौसम ठंडा रहता है। तिब्बत से जुड़े किन्नौर का अधिकतर क्षेत्र साल में छह-सात महीने बर्फसे ढका रहता है।

भाबा व सांगला घाटियां, छितकुल, निचार, छोल्टू, टापरी, कड़छम, रिकांगपीओ, कल्पा, किन्नर कैलाश श्रीखंड पर्वत शिखर और नाथपा-झाकड़ी तथा अन्य जल विद्युत परियोजनाओं के अंतर्गत बने बांध किन्नौर में आकर्षण के केंद्र हैं। किन्नौर जिले में प्रवेश करते ही सतलुज के दोनों ओर छोटे-छोटे गांव दिखाई देते हैं। बहुत ऊंची ढलानों पर दूर-दूर बसे इन गांवों तक पहुंचने में दो से चार घंटे लगते हैं। नदी के आर-पार जरूरी सामान पहुंचाने के लिए कई जगह उड़नखटोलों (रोपवे ट्रॉलीज) का प्रयोग होता है। कुछ लोग एक-दो आदमी की क्षमता वाली ऐसी ट्रॉली में बैठने का दुस्साहस भी करते हैं। तिब्बत में मानसरोवर झील से निकलने वाली सतलुज नदी की बाढ़ कभी-कभी जनजीवन अस्त-व्यस्त कर देती है। तिब्बत सीमा पर पारछू झील है। चीन की पारछू नदी की बाढ़ का पानी इस झील से भारत में आकर सतलुज में मिलता है और कई बार प्रलयंकारी बाढ़ आती है।

टोपी और डोरी है जरूरी

पर्यटन के अनुभव के साथ-साथ अपने आपमें सिमटी यहां की संस्कृति को जानने का आनंद भी कुछ अलग है। कहा जाता है कि महाभारत काल के किन्नौर के वंशज इस क्षेत्र के मूल निवासी थे जो कन्नौर कहलाते थे। इन्हीं के नाम पर यह क्षेत्र किन्नौर कहलाया। इस नाम के पीछे स्थानीय भाषा का प्रभाव भी लगता है। जैसे राज्य में भरमौर और सिरमौर नामक स्थान हैं ऐसे ही कन्नौराओं के नाम पर किन्नौर बन गया। यहां हर गांव का अपना देवता होता है, जो किसी न किसी शक्ति से संपन्न माना जाता है। माघ (जनवरी-फरवरी) मास के पहले दिन यहां साजों नामक त्योहार मनाया जाता है। मान्यता है कि यहां सभी मंदिरों के देवी-देवता माघ मास में कुछ सप्ताहों के लिए किन्नर कैलाश पर्वत पर चले जाते हैं। साजों पर्व मंदिरों से देवी-देवताओं की विदाई का प्रतीक है। लोकमान्यता है कि शीतकाल में शिवजी किन्नर कैलाश चले आते हैं। वहीं भगवान शिव देवताओं की सभा को संबोधित करते हैं।  पौराणिक गाथा है कि असुर राजा बाणासुर इस क्षेत्र पर राज्य करता था। पर्वत शिखर पर उसने घोर तप किया और भगवान शिव प्रसन्न हुए। इसीलिए यह शिखर किन्नर कैलाश कहलाया। इस क्षेत्र का दूसरा मुख्य त्योहार फुलैश है जो सितंबर में मनाया जाता है। किन्नौर के मंदिरों में प्रवेश के लिए सिर पर टोपी तथा कमर में डोरी बंधी होना जरूरी है। यदि किसी आगंतुक को जानकारी न हो तो स्थानीय निवासी और पुजारी यहां टोपी व डोरी का इंतजाम कर देते हैं। यहां के पेड़ों की बेहद मजबूत लकड़ी से बनाए गए मंदिर सैकड़ों वर्षो तक नए बने रहते हैं। यहां की लकड़ी में कीड़े नहीं लगते। किन्नौर में बौद्ध धर्म के भी कुछ अनुयायी हैं। वे हिंदू धर्म के सभी देवी-देवताओं की भी पूजा करते हैं और सभी त्योहार मनाते हैं। बड़ी पूजा के लिए पंडित को शिमला, सराहन या हमीरपुर से बुलाया जाता है। किन्नौर में ब्राह्मण बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। तिब्बत पर चीन के अतिक्रमण के बाद तमाम तिब्बती लोग किन्नौर में आए। इनमें से अधिकतर अपने धर्मगुरु दलाई लामा के निकट रहने के लिए किन्नौर से चले गए, पर कुछ लोग यहां बस गए। कभी बहुपति प्रथा वाले रहे इस क्षेत्र में पर्याप्त विकास एवं शिक्षा का प्रसार हुआ है। इसलिए बहुपति प्रथा अब कहीं-कहीं प्रतीक मात्र ही रह गई है। स्त्रियों की मान्यता है कि वे द्रौपदी की वंशज हैं।

कपड़े पट्टी के

किन्नौर के लोगों की वेशभूषा भी राज्य के अन्य क्षेत्रों से कुछ भिन्न होती है। स्ति्रयों और पुरुषों द्वारा सामान्य रूप से पहनी जाने वाली टोपी पर हरी मखमली पट्टी होती है। स्ति्रयां अपने लंबे कपड़ों पर कीमती जैकेट पहनती हैं। आम तौर पर वे चांदी के गहने अधिक पहनती हैं। लोग अपनी भेड़-बकरियों के ऊन से बने कपड़े तैयार करते हैं, जो खूब गर्मी देते हैं। पुरुष जिस गर्म कपड़े का कोट सिलाते हैं, उसे पट्टी कहा जाता है। इस कपड़े की लंबाई केवल एक कोट बनाने भर की होती है। पट्टी से बने कोट का चलन किन्नौर से लगे गढ़वाल क्षेत्र में भी है। यहां अधिकतर लोग मांसाहारी हैं। अलूचे, खुमानी तथा अंगूरों से तीन तरह की शराब यहां घर-घर में बनाई जाती है और सभी लोग इसका सेवन करते हैं। एक अनाज है कोदा, जो सरसों के दाने जैसा होता है। इससे आटा तो बनता ही है, शराब भी बनाई जाती है। इसी तरह जौ का भी प्रयोग होता है। हर घर को निजी प्रयोग के लिए शराब बनाने का लाइसेंस भी सरकार की ओर से मिलता है। इसे बेचना अपराध है।

सेब, खुमानी, जंगली खुमानी, चेरी, बादाम, चिलगोजे तथा अखरोट आदि यहां के मुख्य फल हैं। किन्नौर का सेब सबसे उत्तम माना जाता है। यह देर से पकता है और लंबे समय तक खराब नहीं होता। सब्जियों में आलू और मटर अधिक मात्रा में होते हैं। एक विचित्र प्रकार की सब्जी भी किन्नौर में पैदा होती है जिसे गुछी कहते हैं। बादलों की बिजली की गर्जन से चीड़ के पेड़ों की जड़ों में यह पैदा होती है। इसे उखाड़ कर सुखा लिया जाता है। इसका बा़जार भाव 4 से 5 हजार रुपये प्रति किलोग्राम होता है।

जहां से शुरू होता है किन्नौर

शिमला से रिकांगपीओ की दूरी 260 किलोमीटर है जिसे बस द्वारा 10 घंटे में तय किया जाता है। इस सड़क को राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 21 या हिंदुस्तान तिब्बत रोड भी कहते हैं। चार घंटे की यात्रा के बाद रामपुर बुशहर पहंुचते हैं। समुद्रतल से लगभग चार ह़जार फुट की ऊंचाई पर स्थित होने से शिमला से आने वालों को यहां गर्मी लगती है। यह स्थान एक रियासत था। नवंबर में यहां व्यापारिक मेले का आयोजन होता है, जिसे लवी मेला कहते हैं। किसी ़जमाने में तिब्बत और गढ़वाल से भी लोग यह मेला देखने आते थे। रामपुर से आगे बढ़ने पर बाई ओर 5227 मीटर (18500 फुट) ऊंचे श्रीखंड पर्वत के दर्शन होते हैं तथा झाकड़ी गांव आता है जहां नाथपा-झाकड़ी जल विद्युतगृह है। अगला पड़ाव ज्यूरी शिमला जिले का अंतिम बड़ा स्थान है। इसके बाद चौरा नामक स्थान है। चौरा से ही जिला किन्नौर शुरू होता है। यहां एक बड़ा प्रवेशद्वार बना है। आगे बड़ा स्थान भाबा नगर आता है। भाबा घाटी के नाम पर बने इस नगर के समीप ही नाथपा गांव है, जहां नाथपा बांध है। इस क्षेत्र में कुछ-कुछ दूरियों पर निचार, वांगतू, छोल्टू, टापरी आदि स्थान हैं। नाथपा बांध के पास ही सतलुज के दूसरी ओर भाबा पॉवर हाउस है। विद्युत उत्पादन के लिए इसका जल भाबा घाटी स्थित काफनू गांव में बने बांध से आता है। यह बांध भाबा नदी पर बना है।

हाइवे पर चलते हुए टापरी से कुछ आगे दो और मार्ग मिलते हैं। इस मार्ग संगम से एक मार्ग रोगी होते हुए कल्पा को, दूसरा किल्बा से होते हुए सांगला और तीसरा जो हिंदुस्तान तिब्बत रोड है, भारत-चीन सीमा की ओर बढ़ता है। इसी मार्ग पर कड़छम एक बड़ा स्थान है जहां सतलुज पर बड़ा पुल बना है। इसे लांघते ही बाई ओर का रास्ता रिकांगपीओ जाता है तथा अन्य सीमा क्षेत्रों को लांघता हुआ आगे कोरिक तक पहंुचता है। दाई ओर सांगला घाटी को जाया जाता है। कड़छम से इसकी दूरी 18 किलोमीटर है।

बिजली उत्पादन के केंद्र

विद्युत उत्पादन के लिए सतलुज पर कुछ स्थानों पर बांध बने हैं और कुछ बनाए जा रहे हैं। पर्यटन की दृष्टि से ये आकर्षण के नए केंद्र हैं। नाथपा-झाकड़ी जल विद्युत परियोजना के अंतर्गत बना विद्युत उत्पादन गृह हाल ही में राष्ट्र को समर्पित किया गया है। इसकी क्षमता 1500 मेगावाट विद्युत तैयार करने की है जो कि भाखड़ा विद्युत गृह की क्षमता से बहुत अधिक है। भाखड़ा में 600 मेगावाट बिजली तैयार होती है।

नाथपा गांव के समीप सतलुज के जल को पहाड़ के भीतर बनाई गई सुरंग द्वारा झाकड़ी गांव तक लाया गया है, जहां पॉवरहाउस में जलशक्ति से टरबाइंस चलती हैं और बिजली बनती है। हेड रेस टनल (एचआरटी), जहां से सुरंग के भीतर जल जाता है तथा टेल रेस चैनल (टीआरसी), जहां से बिजली बनाने के बाद जल बाहर निकलता है, दोनों स्थान देखकर मानवीय सूझ-बूझ व कार्यक्षमता के चौंकाने वाले मानदंडों का एहसास होता है। नाथपा में एचआरटी से लेकर झाकड़ी में एचआरसी तक सुरंग की लंबाई 27.5 किलोमीटर है। सार्वजनिक क्षेत्र में भाबा पॉवर हाउस तथा निजी क्षेत्र में बासपा फेज-2  जलविद्युत की अन्य बड़ी परियोजनाएं हैं।

सुरंग से आता है पानी

बर्फीले पहाड़, छोटे-छोटे ग्लेशियरों से निकल कर भाबा नदी में मिलने वाली नदियां, कलकल करती भाबा नदी तथा भोले-भाले लोग भाबा घाटी की अनमोल धरोहर हैं। नदी के किनारे ऊपर की ओर चलते हुए बेई, दुतरंग, शांगो, क्राबा, यंग्पा, कटगांव, हुरी, काफनू तथा होम्ते आदि गांव आते हैं। काफनू में भाबा नदी पर बांध बना है जिसका जल पहाड़ में बनी सुरंग के रास्ते भाबा पॉवरहाउस में पहंुचता है। होम्ते इस क्षेत्र का अंतिम गांव है। इसके आगे पर्वत श्रृंखलाएं तिब्बत से जुड़ी हुई हैं। इस गांव से लौटकर फिर हाइवे पर आना पड़ता है।

पुराने हिंदुस्तान तिब्बत मार्ग पर रामपुर से 70 किलोमीटर दूर बसा है निचार गांव। इस रमणीक स्थान पर बागान के बीच रेस्ट हाउस बना है। पर्यटकों के मन-मस्तिष्क में प्रकृति यहां एकांत में शांतिपूर्ण जीवन बिताने की महत्ता का बोध कराती है। नए हिंदुस्तान तिब्बत मार्ग पर बसा वांगतु नामक स्थान निचार से केवल चार किलोमीटर दूर है।

सांगला में लकड़ी के घर

सांगला घाटी समुद्रतल से 2680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। 18 किलोमीटर दूर कड़छम से यहां ट्रेकिंग करके पहंुचा जा सकता है। जीप और बस सेवाएं भी उपलब्ध हैं। सीमांत क्षेत्र होने के कारण कुछ वर्ष पहले तक इस घाटी में प्रवेश के लिए आधिकारिक अनुमति लेनी पड़ती थी, जो अब केवल विदेशी पर्यटकों के लिए जरूरी है।  हिमाच्छादित पर्वतों के बीच तथा बासपा नदी के किनारे बसे सांगला गांव में सरकारी रेस्ट हाउस और निजी होटल हैं। इसी गांव के नाम से प्रसिद्ध सांगला घाटी में ठहरने की असुविधा न हो इसलिए होटलों में स्थान सुरक्षित करवा लेना उचित रहता है। इसके लिए हिमाचल टूरिज्म के विभिन्न कार्यालयों से सहायता ली जा सकती है।

सांगला घाटी में आगे चलते हुए छितकुल गांव आता है जहां तक पर्यटक जाते हैं। इस क्षेत्र का यह अंतिम गांव है। 3450 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस गांव के लोग लकड़ी के घर बनाते हैं। दो-तीन तलों के इन छोटे-छोटे घरों की बनावट अनोखी होती है और तिब्बत के घरों की शिल्पकला का पुट मिलता है। वर्ष में कई महीने यहां बर्फपड़ी रहती है। उस समय स्थानीय लोगों के घरों के अंदर रहने के तौर-तरीके विचित्र हैं। कुछ महीनों का राशन, जानवरों का चारा तथा उनके रहने के स्थान का प्रबंध घर के भीतर कर लिया जाता है। सरकारी नौकरियों में कार्यरत लोगों को सरकार द्वारा तीन महीने का अग्रिम वेतन दे दिया जाता है ताकि वे आवश्यक सामान खरीद सकें। छितकुल से आगे तीन किलोमीटर दूर नागस्ति नामक स्थान है जहां पैदल जाया जा सकता है। यहां भारत-तिब्बत सीमा पुलिस का कैंप है। इसके आगे जाने की अनुमति नहीं है।

उभरते हैं कई रंग

समुद्रतल से 2290 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है रिकांगपीओ जो किन्नौर का जिला मुख्यालय भी है। किन्नर कैलाश पर्वत के कई ओर बिखरी सुंदरता इस स्थान को एक महत्वपूर्ण पर्यटन केंद्र की श्रेणी प्रदान करती है। विकास की दृष्टि से यहां अछे विद्यालय, महाविद्यालय, कई शिक्षण संस्थान, चिकित्सालय, बाजार आदि हैं। बौद्ध धर्म के कुछ लोग भी यहां रहते हैं। पर्यटक यहां स्थानीय वेशभूषा-किन्नौर शॉल एवं टोपियां, ऊनी वस्त्र, कोट, जैकेट के लिए पट्टी तथा हस्तशिल्प की वस्तुएं आदि शौक से खरीदते हैं।

रिकांगपीओ से कुछ दूरी तथा 2960 मीटर की ऊंचाई पर कल्पा स्थित है। यहां से किन्नर कैलाश पर्वत पर शिवलिंग के रूप में खड़ी 28 फुट ऊंची चट्टान के दर्शन होते हैं। कहा जाता है कि धूप निकलने पर प्रात:काल से सायंकाल तक इस शिवलिंग में कई तरह के रंग उभरते हैं। सारी पर्वत श्रृंखला इतनी समीप लगती है कि मानो चंद घंटों में पर्वत पर जाया जा सकता है। 6050 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस शिवलिंग तक कई श्रद्धालु प्रतिवर्ष जाते हैं। परंतु यह दुर्गम तथा चढ़ाई वाला रास्ता अत्यंत जोखिम भरा है। 19800 फुट के लगभग ऊंचे स्थान पर ऑक्सीजन की बड़ी कमी अनुभव होती है। शिवलिंग तक पहंुचने में पैदल चलने की क्षमता रखने वालों को दो से तीन दिन लगते हैं। भोजन एवं विश्रामस्थल की व्यवस्था स्वयं करनी होती है। किन्नर कैलाश पर्वत स्थानीय लोगों की गूढ़ श्रद्धा का प्रतीक है। यहां पहंुचने के लिए रिकांगपीओ से कुछ किलोमीटर पहले पवारी नामक स्थान से सतलुज के दूसरी ओर शोंगठोंग नामक स्थान पर पहंुचा जाता है। इसके बाद तांगलिंग और फिर शिवलिंग तक पहंुचते हैं। बीच में सुविधानुसार रुका जा सकता है।

कई श्रद्धालु चढ़ाई न चढ़कर पर्वत की परिक्रमा कर लेते हैं। यह परिक्रमा करने में कम से कम तीन दिन लगते हैं। इस परिक्रमा के दौरान रास्ते में आने वाले मुख्य स्थान हैं रिब्बा, जंगी, ठंगी, लाम्बा, कुन्नू, चारंग तथा छितकुल। इनमें से  कुछ स्थानों पर ठहरने और भोजन की व्यवस्था नहीं है। इसलिए अपना प्रबंध पहले से करके चलना पड़ता है। कल्पा से कुछ आगे पांगी गांव है और कुछ अन्य छोटे स्थान हैं। पुराने समय में तिब्बत से व्यापार करने वाले पारंपरिक व्यापारी लोग इस गांव में रहते हैं। प्राय: पर्यटक यहां तक भ्रमण करके लौट जाते हैं और कुछ ही लोग भारत-चीन सीमा की ओर काजा तथा कोरिक की ओर जाते हैं।

जूठी घास नहीं खाता याक

किन्नौर क्षेत्र में कहीं-कहीं याक पाया जाता है। यह जानवर पालतू व जंगली दोनों तरह का होता है। इसे बहुत पवित्र माना जाता है। इसकी विशेषता यह है कि अन्य अपवित्र पदार्थो की तो बात ही छोडि़ए, दूसरे जानवरों द्वारा चरी हुई घास को भी यह जूठा मान कर छोड़ देता है और नई उगी घास ही खाता है। याक में सूंघने की विलक्षण शक्ति होती है। ब़र्फ के नीचे छिपे गढ्डों का इसे पता चल जाता है और यह उनसे बच कर ठीक मार्ग बनाता हुआ आगे बढ़ता चलता है। हिमाच्छादित क्षेत्रों में कई जगह गहरे गढ्डों में गिरने से दुर्घटनाएं हो जाती हैं। याक की सूंघने की क्षमता का लाभ मनुष्य को भी मिलता है। इसे नमक बहुत पसंद है। किसी पत्थर पर नमक लगाकर इसके आगे रख दिया जाए तो याक उसे कई घंटों तक चाटता रहता है। वैसे तो यह सीधा-सादा जानवर है, परंतु किसी कारण इसे क्रोध आ जाए तो खैर नहीं। प्राय: किन्नौर के याक का रंग सफेद होता है। दूसरे रंग का याक सुगमता से दिखाई नहीं देता। किन्नौर की वादियों का आकर्षण देश-विदेश से यहां आए सैलानियों के हृदय में ऐसा समा जाता है कि वे यहां की नैसर्गिक संुदरता तथा धार्मिक आस्था वाले भोले-भाले लोगों से हुई अपनी मुलाकात को लंबे समय तक अपने दिल में संजोए रहते हैं। यही नहीं, हिमालय की रचना के गूढ़ रहस्यों को जानने की चेष्टा करते हुए जिज्ञासु पर्यटक बार-बार यहां आने की इच्छा मन में संजोए रहते हैं।

ज्यूरी में एक स्मारक

सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हिंदुस्तान तिब्बत मार्ग आज के किन्नौर की जीवन रेखा है। भयानक एवं विशालकाय पहाड़ों और चट्टानों को काट-काटकर यह मार्ग बनाया गया है। इसे बनाने वालों की जितनी भी सराहना की जाए, कम होगी। इस क्षेत्र में पर्यटन की सभी संभावनाएं इसी मार्ग से जुड़ी हैं। अपनी जान पर खेल कर जिन लोगों ने यह मार्ग आने वाली पीढि़यों को दिया है उनकी स्मृति में इसी मार्ग पर ज्यूरी नामक स्थान पर एक स्मारक बनाया गया है। स्थानीय लोगों का कहना है कि 20 अक्टूबर सन 1962 को हुए चीनी आक्रमण के दौरान मार्ग न होने के कारण सेनाएं शिमला से पैदल चलकर किन्नौर होते हुए सीमाओं तक गई थीं।

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