हिमाचल : कुल्लू की पहचान दशहरा

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हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में यूं तो साल भर कोई न कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम होता रहता है, परंतु दशहरे का समय यहां के लिए खास तौर से उत्सवी हो जाता है। देश में जिन उत्सवों को देखने के लिए भारत ही नहीं, विदेशों से भी पर्यटक आते हैं उनमें कुल्लू के दशहरे का प्रमुख स्थान है। दशहरा यहां अनूठे ढंग से मनाया जाता है। कुल्लू दशहरे की खासियत यह है कि यह विजयदशमी को शुरू होता है, जबकि भारत के अन्य प्रांतों में दशहरा संपन्न होता है। सात दिन चलने वाले इस उत्सव के अंत में यहां रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतले नहीं जलाए जाते। बल्कि बुराई के प्रतीक स्वरूप लंका का दहन जरूर किया जाता है।

कुल्लू दशहरे का आयोजन घालपुर मैदान में होता है। कुल्लू घाटी के अतिरिक्त सेराज और रूपी घाटियों तथा अनेक अन्य गांवों से स्थानीय लोग अपने देवी-देवताओं को मंदिरों से बाहर निकालते हैं। बड़ी श्रद्धा और पवित्रता से उन्हें सुंदर सजी पालकियों में बैठाया जाता है। इसके बाद पारंपरिक ढंग से पुजारी और उनके शिष्य तथा भक्तगण पालकियों के साथ घालपुर मैदान की ओर ढोल-नगाड़े व तुरी आदि बजाते हुए चल पड़ते हैं।

रघुनाथ जी की रथयात्रा

इसी बीच कुल्लू के राजाओं की देवी हिडिंबा को मनाली से लाया जाता है। हिडिंबा का मंदिर मैदान से 45 किमी दूर है। देवी के पहुंचे बिना उत्सव प्रारंभ नहीं होता। दूसरी ओर समीपवर्ती सुलतानपुर के मंदिर से खूबसूरती से सजाए गए लकड़ी के रथ में श्री रघुनाथ जी को बैठाकर मेला मैदान में लाया जाता है। उनके पहुंचने पर अन्य सभी देवी-देवता रघुनाथ जी के चारों ओर घेरा बना कर खड़े हो जाते हैं। सुगंधित जल छिड़का जाता है। कुल्लू और शांगरी राजवंश के लोग प्राचीन परंपरा के अनुसार श्री रघुनाथ जी और अन्य देवी-देवताओं की बार-बार परिक्रमा करते हैं। इसके बाद श्रद्धापूर्वक श्री रघुनाथ जी के रथ को रस्सों से खींचते हुए मैदान के एक ओर ले जाया जाता है, जहां वह सात दिन तक रहते हैं। सभी देवी-देवताओं को उत्सव संपन्न होने तक मैदान में ही प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। सारा वातावरण कई घंटों तक ढोल-नगाड़ों और पारंपरिक वाद्य यंत्रों की ध्वनि से गूंजता रहता है। पहले दिन का पूरा कार्यक्रम शाम होने से पहले ही संपन्न हो जाता है। मलाना के जामलू देवता भी इस अवसर पर आते हैं, परंतु वह पास ही बहती ब्यास नदी के दूसरी ओर ही रहते हैं और सातों दिन का कार्यक्रम देखते हैं। यह स्थान घालपुर मैदान के ठीक सामने है।

मेले जैसी चहल-पहल

पूरे क्षेत्र में व्यवस्थित ढंग से दुकानें लगती हैं और बड़ी चहल-पहल होती है। दुकानों में हथकरघे पर बनी वस्तुएं, शालें, पट्टू, पुराने ढंग के बर्तन आदि कई चीजें ली जा सकती हैं। मैदान के साथ ही हिमाचल प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा नृत्य, नाटक और संगीत के कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। इन कार्यक्रमों में राज्य तथा विदेशों की संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। देशी और विदेशी पर्यटक यहां खूब आनंद लेते हैं। स्थानीय लोग पारंपरिक वेशभूषा में देखे जा सकते हैं। वास्तव में इस उत्सव के दौरान कुल्लू के सामाजिक रीति-रिवाज, लोगों के रहन-सहन, संगीत और नृत्य के प्रति उनके प्रेम के  साथ ही क्षेत्रीय  इतिहास और धार्मिक आस्थाओं को सजीव रूप में देखा जा सकता है।

लगता है देवताओं का दरबार

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू दशहरा संपन्न होने से एक दिन पूर्व सभी देवी-देवता श्री रघुनाथ जी के पास जाते हैं। इस सभा को देवता दरबार कहा जाता है। उत्सव के अंतिम दिन रथ को व्यास नदी के किनारे पेड़ों के घने झुरमुट में ले जाया जाता है। फिर घास का एक छोटा सा ढेर लगाकर उसमें आग लगाई जाती है जो लंका दहन का प्रतीक है। शाम होते-होते उत्सव संपन्न हो जाता है। श्री रघुनाथ जी को सजी हुई पालकी में बैठाकर सुलतानपुर के मंदिर में पुन: ले जाकर स्थापित कर दिया जाता है। अन्य देवी-देवताओं को भी अपनी-अपनी सुविधानुसार मंदिरों में वापस ले जाकर पुन: स्थापित कर दिया जाता है।

रहने योग्य अंतिम स्थान

समुद्रतल से लगभग 1200 मीटर की ऊंचाई पर बसे कुल्लू को प्राचीन काल में मनुष्य के रहने के अंतिम छोर पर बसा स्थान माना जाता था। लोकगीतों में कुल्लू को कुलंतापीठ अर्थात रहने योग्य अंतिम स्थान के नाम से संबोधित किया जाता है। वास्तव में कुल्लू का प्राचीन नाम कुलता है, जिसका उल्लेख विष्णु पुराण और रामायण में मिलता है। महाभारत में उत्तर भारत के राज्यों की सूची में भी इसका नाम है। सातवीं शताब्दी में आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने भी अपने यात्रा संस्मरण में क्यू-लू-तो नाम से इसका जिक्र किया है और इसे जालंधर से 117 मील उत्तर-पूर्व में स्थित बताया है।

इस क्षेत्र के प्राचीनतम ऐतिहासिक दस्तावेजों में कुल्लू के राजा द्वारा जारी किया गया एक सिक्का भी है।इस पर लिखा है-रज्न कोतुलतरया वीरयस्सय अर्थात् कुलता या कुलतस का राजा। यद्यपि राजवंश की वंशावली में इस राजा का नाम नहीं मिलता, परंतु माना जाता है कि यह सिक्का पहली या दूसरी शताब्दी का है।

ट्रेकिंग के रास्ते

यूं तो कुल्लू का प्राकृतिक सौंदर्य अपने-आपमें अनूठा है। यहां आने वाले देशी-विदेशी पर्यटक यहां दशहरा देखने के अलावा कुदरत की बेजोड़ छटा का लुत्फ भी लेते ही हैं। इसके अलावा कुल्लू के आपपास कई और महत्वपूर्ण जगहें हैं। खास तौर से ट्रेकिंग के शौकीन लोग मणीकरण जरूर जाते हैं। कुल्लू से 45 किमी दूर मौजूद मणीकरण से जरी, मलाना, किक्सा थैच, चंद्रखानी पास और नागरोनी होते हुए मनाली तक की ट्रेकिंग की जाती है। यहां हिमाचल पर्यटन विभाग द्वारा अकसर ट्रेकिंग कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है। मनाली के लिए ही ट्रेकिंग का एक और आयोजन कसोल से भी होता है। इस क्षेत्र के अन्य दर्शनीय स्थलों में 45 किमी दूर स्थित रिवालसर झील और 70 किमी की दूरी पर मौजूद पराशर झील भी शामिल हैं।

एक नजर में

कैसे पहुंचे हवाई मार्ग से : निकटतम हवाई अड्डा भुंतर है। यहां से कुल्लू की दूरी 10 किमी है। आजकल निजी एयरलाइंस के हवाई जहाज वहां जाते हैं।

रेलमार्ग से : चंडीगढ़ तक जाकर वहां से बस या प्राइवेट वाहनों द्वारा जाया जा सकता है। अगर आप रेलमार्ग से ही लंबी दूरी तय करना चाहते हैं तो पठानकोट पहुंचें। वहां से मीटर गेज की रेलगाड़ी से अंतिम स्टेशन जोगेन्द्र नगर पहुंचें। वहां से कुल्लू की दूरी अधिक नहीं है। बसें और निजी वाहन उपलब्ध है।

सड़क मार्ग से : दिल्ली, चंडीगढ़, पठानकोट, शिमला आदि सभी स्थानों से बसें व निजी वाहन उपलब्ध हैं। दिल्ली से चंडीगढ़ होते हुए कुल्लू की दूरी लगभग 52 किमी है। पठानकोट से कुल्लू 284 किमी है। शिमला से कुल्लू 236 किमी है।

क्या पहनें : कुल्लू मूलत: ठंडा स्थान है। किसी भी मौसम में वहां जाएं तो गर्म कपड़े जरूर ले जाएं।

कहां ठहरें : यहां सभी तरह के होटल मौजूद हैं।

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