ममल्लापुरम

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जब हमने मंदिर नगरी ममल्लापुरम के लिए प्रस्थान किया तो अनुमान भी न था कि हम प्रस्तर कला की जादूनगरी में जा रहे हैं। वैसे भी हमारा ध्यान ईस्ट कोस्ट हाइवे की सुंदरता पर था। चेन्नई का ईस्ट कोस्ट रोड एक मॉडर्न हाइवे है। यह मार्ग चेन्नई को पुद्दुचेरी से जोड़ता है। चार लेन के इस दोहरे मार्ग पर ही देश का पहला इलेक्ट्रॉनिक टोल गेट है। लॉन्ग ड्राइव का आनंद यहां भरपूर लिया जा सकता है। पुद्दुचेरी न जा सकें तो ममल्लापुरम तक इस कोस्टल मार्ग का आनंद तो ले ही सकते हैं। इसीलिए ममल्लापुरम में रोज देश-विदेश के हजारों सैलानी पहुंचते हैं और यह दक्षिण भारत का विश्र्वविख्यात पर्यटन आकर्षण बन चुका है।

महान योद्धाओं का शहर

ममल्लापुरम को महाबलीपुरम के नाम से भी जाना जाता है। किसी समय यह तटीय नगर कांचीपुरम के पल्लव नरेशों  का महत्वपूर्ण पत्तन केंद्र अर्थात बंदरगाह था। पल्लव वंश के राजाओं के विषय में मत है कि वे शातवाहनों के अधीन कांचीपुरम के प्रतिनिधि शासक थे। चौथी शताब्दी में शातवाहनों पर समुद्रगुप्त ने कई आक्रमण किए। इससे उनका राज्य क्षीण होने लगा। तब पल्लवों ने स्वयं को कांचीपुरम का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। पल्लव नरेशों ने चौथी से नौवीं शताब्दी तक एकछत्र राज किया। पल्लव वंश के राजा कलाप्रेमी और विद्वान होने के साथ-साथ महान योद्धा भी थे। महेंद्र वर्मन एवं नरसिम्ह वर्मन  तो अत्यंत प्रतापी राजा थे। उस काल में यह स्थान पल्लव राजाओं की समृद्ध व्यापारिक राजधानी बन गया था। इस बंदरगाह से दूरस्थ देशों से व्यापार किया जाता था और यहीं से सेनाएं भेजकर सिंहल द्वीप (वर्तमान श्रीलंका) पर उन्होंने अपना आधिपत्य जमाया था। उनके युद्ध कौशल का लोहा मानने वाले उन्हें ममल्ला कहा करते थे, जिसका अर्थ है महान योद्धा। इसी आधार पर नगर का नाम ममल्लापुरम अर्थात् महान योद्धाओं का शहर हो गया। उस काल में यह नगर श्रेष्ठ बंदरगाह था। इसीलिए ममल्लापुरम पल्लवों की दृष्टि में महत्वपूर्ण नगर बन गया, जिस पर वह अपना संपूर्ण कलाप्रेम उडे़ल देना चाहते थे। इस बात के प्रमाण अद्वितीय ‘शैल वास्तुशिल्प’ के रूप में हमें आज भी ममल्लापुरम में देखने को मिलते हैं। समुद्रतट पर विशाल चट्टानों और छोटी पहाडि़यों वाला यह क्षेत्र उनके द्वारा रचे शिल्प सौंदर्य के लिए एक आदर्श स्थान था। हालांकि पल्लव नरेशों के बाद यहां के बंदरगाह का महत्व कम होता गया और ममल्लापुरम गुमनामी में खो गया। यहां के कुछ मंदिर तो समुद्री लहरों और अन्य आपदाओं ने लील लिए और शेष मंदिर तट से उड़कर आती बालू से बने विशाल टीलों में छिप गए।

स्थापत्य के नमूने

सागरतट पर लगभग पांच किमी के दायरे में फैले महाबलीपुरम में स्थापत्य और शिल्पकला ही सबसे महत्वपूर्ण है। हम क्षेत्र के शांत व जीवंत वातावरण से प्रभावित हुए बिना न रह सके। यहां के मंदिर स्थापत्यकला के अद्भुत नमूने हैं। जो सदियों से समुद्री हवाओं से जूझ रहे हैं। यूनेस्को इन्हें विश्व विरासत घोषित कर चुका है। यह कलावैभव देखने के लिए हम बेचैन थे। इसलिए होटल में सामान रखने के बाद थोड़ी देर में ही निकल पड़े। छोटे से शहर में सैलानी पैदल घूमते हुए अपनी सुविधानुसार यहां के वास्तुशिल्प देख सकते हैं। होटल के रिसेप्शन पर हमें पता चला कि नगर भ्रमण के लिए साइकिल भी किराये पर मिल जाती है। बस फिर क्या था, हमने वहां साइकिलें किराये पर लीं और निकल पड़े।

अनूठा शिल्प निर्माण का

इन मंदिरों को देखने के लिए हमने गाइड का सहयोग लिया। उसने ही बताया कि इस अनूठे कला संसार की खोज एक अंग्रेज पुरातत्ववेत्ता ने की थी। ममल्लापुरम के देवालय एकाश्म शिल्प की तीन शैलियों में बने हैं। प्रथम श्रेणी में चट्टानों को काट कर गुफा का रूप देकर बनाए गए देवालय हैं। इनमें अंदर भित्तियों पर मूर्तियां भी उकेरी गई हैं। दूसरी श्रेणी में चट्टानों को काट तराश कर मंडप जैसा स्वरूप दिया गया है। जबकि तीसरी श्रेणी में एक ही चट्टान को उंचाई से काट-तराश कर सुंदर मंदिर का रूप दे दिया गया। 6ठीं से 8वीं शताब्दी के मध्य बने इन मंदिरों में से अधिकतर नरसिम्ह वर्मन प्रथम के बनवाए हुए हैं। जबकि कुछ का राजासिम्ह, परमेश्र्वर वर्मन एवं नरसिम्ह वर्मन द्वितीय ने करवाया था। वैसे इनका निर्माण राजा महेन्द्र वर्मन के समय में ही शुरू हो गया था।

कठोर चट्टानों का उत्खनन कर मंदिरों के आकार में ढालना एक नया प्रयोग था। एक गुफा मंदिर पर शिलालेख में महेन्द्र वर्मन द्वारा अंकित कराया गया संदेश इस संदर्भ में गौर करने लायक है। इसमें अंकित है ‘यह ईंटरहित, गारे से रहित, काष्ठरहित तथा धातुरहित आलय ईश्र्वर के लिए बनवाया गया’। वास्तव में इन मंदिरों के निर्माण में ईंट, गारा, काष्ठ और धातु का तनिक भी प्रयोग नहीं है। तटीय क्षेत्र में बिखरे कठोर शिलाखंडों को छेनी-हथौड़े जैसे औजारों से काट-तराश कर मोहक रूप देना कितना कठिन रहा होगा, यह अनुमान इन्हें देख कर ही लगाया जा सकता है। महेन्द्र के पुत्र नरसिम्ह वर्मन ने अपने पिता की शैली में उत्खनन के अलावा गुफा मंदिरों की नई श्रृंखला शुरू की। उन्होंने पूरी तरह तराशे गए एकाश्मक मंदिरों, विमानों, रथ या मंडपों को भी आकार दिया। साथ ही कुछ बड़े आकार व खुली नक्काशीदार भित्ति रचनाओं को साकार किया। उनके द्वारा शुरू किए गए ये अलंकृत गुफा मंदिर उनके उत्तराधिकारयों द्वारा दो पीढि़यों तक कई चरणों में पूरे किए गए।

गुफाओं में मंदिर

भ्रमण की दृष्टि से ममल्लापुरम के प्रस्तर शिल्प मोटे तौर पर तीन दिशाओं में हैं। सबसे पहले हम पहाड़ी पर स्थित मंदिर देखने गए। इनमें आठ गुफा मंदिर हैं। पहाडि़यों पर स्थित ये गुफा मंदिर कोनेरी मंडपम, वराह मंडपम, महिषमर्दिनी मंडपम, आदिवराह गुफा मंदिर, रामानुज मंडपम आदि नामों से जाने जाते हैं। त्रिमूर्ति गुफा और आदिवराह मंदिर में पूजा-अर्चना भी होती है। पहाड़ी पर स्थित गुफा मंदिरों तक जाने के लिए सीढि़यां बनी हैं। वहीं एक पहाड़ी पर लाइटहाउस है। गुफा मंदिरों से कुछ दूर पंचपांडव मंडपम हैं। इनमें से द्रौपदी, अर्जुन, भीम और धर्मराज रथ एक पंक्ति में हैं। ये रथ पश्चिमाभिमुख हैं। जबकि नकुल-सहदेव रथ दक्षिणाभिमुख है। धर्मराज, अर्जुन व द्रौपदी के रथ वर्गाकार हैं तथा अन्य आयताकार हैं। एक से तीन मंजिल तक बने इन रथों की शिल्पकला बारीकी से देखने योग्य है। रथों के आसपास फैली बालू पर घूमते हुए सैलानी हर दिशा से इनके स्वरूप को कैमरों में कैद करने को बेताब नजर आ रहे थे। क्योंकि हर दिशा से जबकि मुख्य पहाड़ी के बीच एक शिलाखंड को तराश कर गणेश रथ बनाया गया है। इससे कुछ दूरी पर पिडारी रथ है। यह ग्राम देवी को समर्पित है। लगभग सभी मंडप कुछ अलग-अलग शैली में बने हैं। इनके भित्तिस्तंभों पर सुंदर मूर्तिशिल्प दर्शनीय है।

दीवारों पर कृष्णलीला

ममल्लापुरम में विशाल चट्टानों पर बड़े मूर्ति समूह के रूप में विख्यात मुक्ताकाश नक्काशी रचना प्रस्तर कला का शानदार उदाहरण है। इनमें सबसे विख्यात ‘अर्जुन तप’ नाम का खंड है। यह किसी गुफा में नहीं है। इसमें अर्जुन को तप करते दिखाया गया है। एक तिरछी चट्टान के मस्तक पर उकेरा गया यह शिल्प 27 मीटर चौड़ा व 9 मीटर ऊंचा है। यह दीवार पर बना विश्व का सबसे बड़ा नक्काशी शिल्प है। यहां अन्य देवी-देवताओं, मनुष्यों, पशु-पक्षियों का भी भव्य चित्रण है। इसमें हाथियों के समूह का चित्रण तो देखते ही बनता है। अर्जुन तप वाले दृश्य में कठोर तप के बाद शिव द्वारा अर्जुन को वरदान स्वरूप पाशुपतास्त्र प्रदान करने का चित्रण किया गया है। ऐसा एक दृश्य कृष्ण मंडप में है। इसमें कृष्ण द्वारा गोवर्धन धारण के दृश्य उकेरे गए हैं। गोवर्धन के नीचे गोप-गोपियों को आश्रय लिए भी दर्शाया गया है। यह चित्रण हमें काफी प्रभावशाली एवं यथार्थपरक लगा। गाइड ने उसमें एक खास दक्षिण भारतीय प्रभाव की ओर भी इशारा किया। इसमें कृष्ण की प्रिय गोपी नप्पिन्नै को कृष्ण के पास खड़े दिखाया गया है। वेशभूषा तथा मुद्रा से वह समूह की अन्य महिलाओं से अलग लगती है। दरअसल कृष्ण नप्पिन्नै विषय का दक्षिण भारतीय साहित्य एवं परंपरा में विशेष स्थान है।

पहाड़ी गुफा मंदिरों से कुछ दूर एक ढलान पर गोल चट्टान की अनगढ़ आकृति है। यह बड़े ही खतरनाक ढंग से संतुलित विशाल शिलाखंड है। गाइड ने बताया कि इसे कृष्ण का माखन लड्डू कहा जाता है। पास के ही बड़े उद्यान में बैठ कर हमने अपनी थकान मिटाई और दूसरे दर्शनीय स्थलों की ओर बढ़े।

युद्ध में निर्माण ठप

ममल्लापुरम के बहुत से स्थापत्य अपूर्ण लगते हैं। इस बारे में गाइड ने बताया कि जब पल्लव राजा युद्धों में व्यस्त होते थे तब निर्माण कार्य रुक जाता था। क्योंकि वे अपनी देखरेख में ही यह कार्य करवाते थे। इस संरक्षण के कारण ही इसे ‘ममल्ला शैली’ के रूप में जाना जाता है।

समुद्रतट पर स्थित ‘शोर टेंपल’ अर्थात् तट मंदिर भी यहां ममल्लापुरम की शानदार कृति माने जाते हैं। इनका निर्माण नरसिम्ह वर्मन द्वितीय ने 700 से 728 ई. में कराया था। यह तट मंदिर सहायक मंडपों, प्राकार और छोटे गोपुरों सहित तीन मंदिरों का एक परिसर है। इन तीनों में सबसे बड़े विमान का मुख पूर्व में समुद्र की ओर है। इसे क्षत्रिय सिंहेश्र्वर कहते हैं। उसके पीछे पश्चिम में स्थित नगर की ओर मुख वाला छोटा विमान राजसिंहेश्र्वर है। ये दोनों मंदिर शिव को समर्पित हैं। दोनों मंदिरों के मध्य एक आयताकार मंडप मंदिर है। जिस पर कोई अधिरचना नहीं है। यह नरपतिसिंह पल्लव विष्णुगृह कहलाता है। इसे एक निचले शैलांश पर तराशा गया है। जिसमें शयनमुद्रा में विष्णु प्रतिमा विराजमान है। तीन मंजिला छोटा विमान वर्गाकार है। इसका शिखर एवं ग्रीवा अष्टकोणीय है और शीर्ष पर स्तूपी है। इन्हें एक विशाल प्राकार से घेर दिया गया है। जबकि बड़े विमान का अपना अतिरिक्त प्राकार है। यह विमान चौमंजिला है तथा ग्रीवा तक वर्गाकार है। इसका शिखर, ग्रीवा तथा काले पाषाण की स्तूपी अष्टकोणीय है। इन मंदिरों के मूर्तिशिल्प नमी और लवणयुक्त समुद्री हवाओं से का़फी हद तक मिट से गए हैं। इनके वास्तुशिल्पीय आयाम और स’जा के साथ पृष्ठभूमि में अनंत सागर का दृश्य इस समूह को गौरवशाली स्मारक का स्वरूप प्रदान करते हैं। शोर टेंपल के विषय में कहा जाता है कि हमारे देश में ताजमहल के समान यह दूसरा वास्तुशिल्प है, जिसके सबसे ज्यादा फोटो लिए जाते हैं।

कला का उत्सव अहम

ममल्लापुरम में उद्योग के रूप में मूर्ति बनाने का कार्य आज भी जारी है। मंदिर देखने निकले सैलानी जब पंचरथ समूह की ओर जाते हैं तो मार्ग में कारीगरों को छेनी-हथौड़े से पत्थरों में जान डालते देख सकते हैं। यहां बनी मूर्तियां कई देशों को निर्यात होती हैं।

संयोग से हम जनवरी में गए थे। दिसंबर-जनवरी में यहां हर साल इंडियन डांस फेस्टिवल होता है, जिसकी अपनी अलग पहचान है। मुक्ताकाशी मंच पर पारंपरिक वेशभूषा में अलंकृत कलाकार भरतनाट्यम, कथकली, कुचिपुडी ओडिसी आदि की प्रस्तुति से एक अलग ही समा बांध देते हैं। शाम को हम नृत्य देखने गए। विदेशी सैलानी भी यहां भारी संख्या में आते हैं।

7वीं सदी से समुद्री हवाओं के थपेड़े झेलते इन स्थापत्यों की उपस्थिति ने ममल्लापुरम को आज खास बीच रेसॉर्ट बना दिया है। ममल्लापुरम से कुछ दूर स्थित तटों पर कई रेसॉर्ट हैं। उनसे सटे सुंदर बीच सैलानियों के लिए आदर्श स्थान हैं। हालांकि यह तट समुद्र स्नान के योग्य नहीं है। समुद्रतट पर बहुत सी दुकानें भी हैं। जहां से शंख और सीपियों के बने हस्तशिल्प खरीदे जा सकते हैं। यहीं कुछ बीच रेस्टोरेंट हैं। जहां सैलानी प्राकृतिकदृश्यों के सामने बैठ सी-फूड का स्वाद लेना पसंद करते है। उनमें भी सी-फूड विशेष रूप से सर्व किया जाता है। ऐतिहासिक मंदिरों की अद्भुत नगरी की हमारी यह यात्रा एक यादगार बन गई।

ध्यान में रहे

कब जाएं: ममल्लापुरम जाने का उपयुक्त समय नवंबर से अप्रैल तक है। समुद्र तटीय शहर होने के कारण यहां का तापमान 25 डिग्री से 35 डिग्री के मध्य होता है।

कैसे जाएं: हवाई मार्ग से जाना हो तो ममल्लापुरम के निकटतम एयरपोर्ट चेन्नई के लिए सभी प्रमुख शहरों से नियमित उड़ानें उपलब्ध हैं। रेलगाड़ी द्वारा यात्रा करनी हो तो पहले चेन्नई पहुंचना होगा। वहां के लिए हर दिशा से कई ट्रेनें हैं। दिल्ली से राजधानी एक्सपे्रस, तमिलनाडु एक्सप्रेस और संपर्क क्रांति एक्सप्रेस प्रमुख है। इसके अलावा मुंबई, हैदराबाद, कोलकाता, बैंगलूरू, तिरुअनंतपुरम और वाराणसी आदि स्टेशनों से भी चेन्नई के लिए सुपरफास्ट ट्रेन उपलब्ध है। चेन्नई में चेन्नई सेंट्रल एवं एगमोर प्रमुख स्टेशन हैं। चेन्नई से ममल्लापुरम केवल 60 किमी दूर है। जहां डेढ़ घंटे में बस या टैक्सी द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। ममल्लापुरम के लिए पुद्दुचेरी, कांचीपुरम आदि अनेक शहरों से सीधी बस सेवा भी उपलब्ध है।

कहां ठहरें: बजट टूरिस्ट के लिए भी ममल्लापुरम शांतिपूर्ण छुट्टियां बिताने का एक बेहतर डेस्टिनेशन है। क्योंकि यहां होटल अधिक महंगे नहीं है।

यहां ठहरने के लिए अनेक बजट होटल हैं। लग्जरी होटल ममल्लापुरम से कुछ दूर ईस्ट कोस्ट रोड पर है।

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