मथुरा: जहां रचाया मोहन ने रास

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भारत की धरती पर युगों से चली आ रही तीर्थाटन की परंपरा को पर्यटन का जनक कहा जा सकता है। शायद इसीलिए 21वीं सदी में भी तीर्थाटन हमारे यहां एक जीवंत परंपरा के रूप में विद्यमान है। पिछले दिनों ऐसी ही किसी जगह जाने का मन बना तो हमने ब्रजभूमि की घुमक्कड़ी का कार्यक्रम बना लिया। फाल्गुन मास शुरू होते ही ब्रज में रंगों की अनोखी छटा बिखरने लगती है और उल्लास के उस माहौल में ब्रज की यात्रा का अपना अलग ही आनंद है। ब्रज यात्रा की तैयारी के दौरान हमने मथुरा और वृंदावन के अलावा ऐतिहासिक शहर आगरा को भी अपने कार्यक्रम में शामिल कर लिया।

क्रीड़ा स्थली कृष्ण की

योगेश्वर कृष्ण की क्रीड़ा स्थली को ही लोक में ब्रजभूमि की संज्ञा दी गई है। पुराणों के अनुसार इसमें बारह वन, चौबीस उपवन और पांच पर्वतों का समावेश था। लगभग चौरासी कोस में फैली इस भूमि पर ही कृष्ण ने कहीं गायें चराई थीं, कहीं राक्षसों का नाश किया और कहीं गोपियों के संग रास रचाया था। मान्यता है कि श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाथ ने यहां कृष्ण से जुड़े हर स्थान पर भव्य मंदिर बनवाए थे और उनमें कृष्ण के विभिन्न विग्रहों की स्थापना की, तब से यह क्षेत्र ब्रज, ब्रजधाम या ब्रजभूमि कहलाने लगा। इसके मध्य में स्थित है मथुरा, जहां से हमने अपनी यात्रा की शुरुआत की।

प्राचीन सप्तपुरियों में से एक ‘मथुरा’ कृष्ण के जन्म से पूर्व राजा बलि, राजा अमरीश और भक्त ध्रुव की भी तपस्थली रही थी। इसका प्राचीन नाम मधुरा था। तब यहां मधु नामक दैत्य का प्रभाव था। गौ पालन के लिए इस क्षेत्र को उपयुक्त जानकर यदुवंशियों ने इसे मधु दैत्य से मुक्त कराया और कालांतर में यही स्थान प्रतापी राजा शूरसेन की राजधानी बना। जिनके वंशज उग्रसेन थे। उग्रसेन के पुत्र कंस के अत्याचारों से त्रस्त इस धरती को तारने के लिए ही श्रीकृष्ण ने यहां अवतार लिया था।

रंगों की घटा

मथुरा में सबसे पहले हम वही स्थान देखने पहुंचे जिसे भगवान श्रीकृष्ण का जन्म स्थान माना जाता है। वहां आज एक विशाल मंदिर है, जो जन्मभूमि के नाम से विख्यात है। कहते हैं, इसी स्थान पर वह कारागार था जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। उस स्थान पर पहले केशवदेव मंदिर था। कड़े सुरक्षा इंतजाम के बीच से होकर हमने मंदिर में प्रवेश किया। अंदर पहुंच राधा-कृष्ण मंदिर के दर्शन किए और फिर एक ऐसे कक्ष में गए जो कारागार के समान है। इसकी दीवारों पर कृष्ण जन्म कथा का चित्रण है। इसे कटरा केशवदेव भी कहते हैं। जन्मभूमि परिसर में विशाल भागवत भवन है। जहां लक्ष्मी नारायण, राधाकृष्ण, जगन्नाथ जी, हनुमान जी और दुर्गा माता की मनोहारी झांकियां दर्शनीय हैं। कृष्ण जन्माष्टमी पर जगमगाते मंदिर के दर्शन करने के लिए यहां जनसैलाब उमड़ पड़ता है।

द्वारिकाधीश मंदिर में भी जन्माष्टमी पर बहुत भीड़ होती है। 1815 में निर्मित इस मंदिर में द्वारिकाधीश के रूप में भगवान श्रीकृष्ण की श्यामवर्ण चतुर्भुज प्रतिमा विराजमान है। बायीं ओर रुक्मिणी जी की प्रतिमा है। मंदिर में सोने-चांदी के बड़े हिंडोले भी रखे हैं। सावन में यहां अलग ही नजारा होता है। उन दिनों मंदिर की आंतरिक सज्जा में रोज एक अलग रंग की बहुलता होती है। भगवान की पोशाकों के अतिरिक्त मंदिर के वातावरण में उसी रंग की छटा बिखरी होती है। इसे रंगों की घटा कहते हैं। नित नये रंग की घटा में भगवान का नित नया रूप नजर आता है।

आरती यमुना जी की

मंदिर में दर्शन के बाद हम निकट ही स्थित विश्राम घाट पहुंचे। यमुना के तट पर यह मथुरा का प्रमुख घाट है। इसके अलावा यहां 24 घाट और हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार कंस का वध करने के बाद श्रीकृष्ण ने यमुना तट पर यहीं विश्राम किया था। इसी कारण 1814 में ओरछा के राजा वीरसिंह देव ने यहां घाट और मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया था। घाट पर तीन तोरण द्वार बने हैं। इन पर लटकी बड़ी-बड़ी घंटियों की आवाज हर समय गूंजती रहती है। घाट पर यमुना जी और श्रीकृष्ण के मंदिर के अतिरिक्त और भी छोटे-छोटे मंदिर हैं। ब्रज आने पर चैतन्य महाप्रभु ने भी यहां प्रवास किया था। संध्या के समय यमुना तट पर आरती का सुंदर दृश्य देखते ही बनता है। यमुना की अथाह जलराशि पर तैरते दीपों की श्रृंखला और पानी में बनती इन्हीं दीपों की अनूठी छवि दृष्टि को बांध सी लेती है। शीतल और शांत हवा में घुलती इनकी गंध वातावरण में एक पवित्र मादकता सी भर देती है। यहां नौका विहार का आनंद भी लिया जा सकता है।

घाट से चलकर हम वापस बाजार में आ गए। धार्मिक वस्तुओं की दुकानों की चमक-दमक बाजार को भव्यता प्रदान कर रही थी। नन्हें से गोपाल और राधा-कृष्ण आदि की पीतल की चमकती मूर्तियां, सुनहरी गोटे से सजी सुंदर पोशाकें, मोती जड़े छोटे से मुकुट, सब कुछ मोहक लग रहा था। ऊंची-नीची गलियों में बने मकान देखकर लगता है कि यह वास्तव में पुराना शहर है। हर गली-कूचे में गायें बहुतायत में घूमती मिलेंगी। बाजारों में दूध और दूध की बनी वस्तुएं भी खूब बिकती हैं। मथुरा के पेड़े इन वस्तुओं में सबसे प्रसिद्ध हैं।

स्तंभ पर अंकित गीता

अगले दिन सुबह हम शहर के बाहर की ओर स्थित बिरला मंदिर देखने गए। मंदिर में लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम और शंख व चक्र लिए भगवान श्रीकृष्ण की मोहक प्रतिमाएं हैं। एक स्तंभ पर गीता अंकित है। मंदिर की दीवारों पर चित्र तथा उपदेश भी अंकित हैं। इसे गीता मंदिर भी कहते हैं। इसके बाद हमने दाऊ जी मंदिर, गोवर्धन मंदिर, रंगेश्वर मंदिर, महादेव मंदिर और शक्तिपीठ चामुंडा देवी मंदिर भी देखे। मथुरा में एक राजकीय संग्रहालय भी है। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित कलात्मक वस्तुओं का भारी संग्रह है। यहां गुप्त और कुषाण काल की प्राचीन मूर्तियां और अन्य वस्तुएं भी प्रदर्शित हैं। मथुरा भ्रमण के दौरान हमें यहां के धर्मपरायण निवासी और उनकी मधुर ब्रज बोली ने बेहद प्रभावित किया।

वृंदा के वन में

हमारा अगला गंतव्य था, कान्हा की अलौकिक लीलाओं की धरती वृंदावन। मथुरा से मात्र 11 किमी दूर इस पावन धाम पर वर्ष भर भक्तों का तांता लगा रहता है। यही वह स्थान है जहां गऊपालक के रूप में श्रीकृष्ण ने गऊ धन के महत्व का संदेश दिया। गोपियों और सखाओं के संग यहीं उनका बचपन बीता। वृंदावन में हमने एक धर्मशाला में ठहरने का इंतजाम किया। उसी धर्मशाला में एक पंडे ने बताया कि इस क्षेत्र में कभी वृंदा यानी तुलसी के वन थे। इसलिए इस स्थान को वृंदावन कहा जाता है। इन्हीं वनों में कन्हैया ने राधा और गोपियों के संग रास रचाया था। यह भी कहते हैं कि राधा के सोलह नामों में से एक वृंदा भी है। राधा का कृष्ण के प्रति भक्तिपूर्ण प्रेम ही आज यहां के लोगों की भक्ति का सार है। कालांतर में चैतन्य महाप्रभु, श्री हित हरिवंश, महाप्रभु वल्लभाचार्य और स्वामी हरिदास के पधारने से भी यह धरती पुण्य हुई।

वृंदावन का प्रमुख मंदिर बांके बिहारी जी हमारी धर्मशाला के निकट ही था। सबसे पहले हम वही मंदिर देखने पहुंचे। बांके बिहारी मंदिर एक संकरी सी गली में स्थित है। मंदिर में बांके बिहारी की प्रतिमा इतनी चित्ताकर्षक है कि उस पर से भक्तों की नजर ही नहीं हटती। इसलिए यहां थोड़ी देर बाद पर्दा डाला जाता है। बिहारी जी का यह मोहक विग्रह स्वामी हरिदास ने 1864 में निधिवन से लाकर यहां स्थापित किया था।

फाल्गुन माह से सावन माह के मध्य यहां आए सैलानियों को अक्सर एक अद्भुत नजारा मिलता है। जब भक्तिरस से विभोर भक्त नित नये फूल और मालाओं से मनोहारी बंगलों की रचना करते हैं। अद्भुत बंगलों के बीच विराजमान प्रभुविग्रह को देखकर ऐसा लगता है मानो साक्षात श्रीकृष्ण भगवान के ही दर्शन किए हों। श्रावण शुक्ल तृतीया पर स्वर्ण हिंडोला दर्शन, जन्माष्टमी पर मंगल आरती और अक्षय तृतीया पर चरण दर्शन के मौके पर यहां दर्शनार्थियों की अत्यधिक भीड़ रहती है।

राधामय जगत यह

वृंदावन में सैलानियों को श्रीकृष्ण भावना अंतरराष्ट्रीय संघ का कृष्ण बलराम मंदिर भी मनभावन लगता है। स्थानीय लोग इसे अंग्रेजों का मंदिर या एस्कॉन मंदिर भी कहते हैं। सफेद पत्थर से बने आलीशान मंदिर में राधा-कृष्ण, कृष्ण-बलराम तथा गौर-निताई की सुंदर प्रतिमाएं हैं। प्रतिमाओं की पुष्प एवं वस्त्र सज्जा देखते ही बनती है। प्रांगण में दीवारों पर कृष्ण के जीवन से जुड़ी कईछवियां सुंदर ढंग से अंकित हैं। तमाम विदेशी यहां आकर वैष्णव धर्म की दीक्षा लेते हैं। मंदिर में एक ओर भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद का समाधि मंदिर भी है।

एक छोटा-सा शहर होने के कारण यहां रिक्शा या ऑटो से आसानी से घूम सकते हैं। विभिन्न मंदिरों के दर्शन के लिए हम रिक्शे से चल पड़े। होली का पर्व निकट होने के कारण बाजार में अबीर-गुलाल की दुकानें भी सजी हुई थीं। भक्ति संगीत की धुनों पर होली के गीत बज रहे थे। कृष्ण की बाल सुलभ लीलाओं के चित्र तो पर्यटकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। यहां के लोग भी खानपान के बहुत शौकीन हैं। इस शौक का हिस्सा हैं पेड़े, खुरचन, कलाकंद, दूध और लस्सी। यह सब पर्यटकों को भी बहुत पसंद आता है। यहां एक विशेष बात और देखी कि यहां के निवासी नमस्ते की जगह राधे-राधे शब्द का प्रयोग करते हैं। दुकानदार भी अभिवादन के रूप में राधे-राधे कहते हैं।

उपवन रासलीलाओं का

रिक्शे वाले ने रंगजी मंदिर के सामने रिक्शा रोका। इस मंदिर की वास्तुकला में दक्षिण की मंदिर वास्तुकला शैली का अधिक प्रभाव है। इसी शैली में बने मंदिर के तीन गौपुरम हैं। इसका निर्माण 1852 में हुआ था। मंदिर के प्रांगण में 60 फुट ऊंचा स्वर्ण स्तंभ भी है। यहां से कुछ ही दूर गोविंद देव मंदिर है। जयपुर के महाराजा द्वारा बनवाया गया यह मंदिर सात मंजिला था। उसकी चार मंजिलें औरंगजेब द्वारा गिरवा दी गई थीं। उस समय मंदिर में स्थित विग्रह को बचाने के लिए जयपुर पहुंचा दिया गया था।

प्राचीन मंदिर के पास ही एक नया मंदिर है। यमुना तट के निकट ललित कुंज में शाह जी का मंदिर है। सफेद संगमरमर का बना यह मंदिर ग्रीक-रोमन वास्तुशैली में निर्मित है। मंदिर के बारह खंभों पर उत्कीर्ण कला के नमूने दर्शनीय हैं। सेवाकुंज नामक स्थान जिसे निकुंजवन भी कहते हैं, राधा-कृष्ण की रास लीलाओं का उपवन माना जाता है। कहते हैं आज भी रात में यहां कृष्ण और राधा रास के लिए आते हैं। यहां बंदरों की भरमार है। निधिवन को राधा-कृष्ण की विश्राम स्थली बताया जाता है। यहां पंडित हरिदास की समाधि भी है। लगभग 400 वर्ष पुराना मदन मोहन मंदिर अपनी अलग शैली के कारण आकर्षित करता है। लाल पत्थर से बना यह मंदिर साठ फुट ऊंचा है। टीले पर स्थित इस मंदिर के पास एक छोटा आधुनिक मंदिर भी है।

शहर के बाहर स्थित पागल बाबा मंदिर भी अत्यंत भव्य है। सफेद पत्थर के बने इस मंदिर को पागल बाबा नाम से प्रसिद्ध संत ने बनवाया  था। वृंदावन में कालिया दह, चीर घाट, राधा वल्लभ मंदिर, राधास्मरण मंदिर और गोपीनाथ मंदिर भी दर्शनीय हैं।

अद्भुत छटा महारास की

वृंदावन में साधु-संतों के अतिरिक्त तमाम विधवाएं भी नजर आती हैं। मुक्ति की चाह इन्हें यहां खींच लाती है। ये अपने जीवन के अंतिम दिन वृंदावन धाम में भजन-कीर्तन करते हुए व्यतीत करना चाहती हैं। इनमें से कुछ तो अपनी इच्छा से यहां आती हैं और कुछ को उनके परिवार वाले किसी आश्रम में व्यवस्था कर छोड़ जाते हैं। ईश्वर भक्ति ही इनकी दिनचर्या होती है। शाम के समय वृंदावन में हमें रासलीला देखने का अवसर मिला। यहां ऐसे कई स्थान हैं जहां अक्सर रासलीला का मंचन होता रहता है। ब्रज की इस लोककला में महारास का दृश्य वास्तव में देखने योग्य था। ब्रज भाषा में रासलीला के संवादों की भी अपनी अलग ही शैली है।

होली बरसाने की

वैसे तो पूरे भारत में होली का पर्व जोश और उल्लास के साथ मनाया जाता है पर ब्रज में होली की अलग ही धूम होती है। रंगों का यह उत्सव यहां एक महीने से भी अधिक चलता है। बसंत पंचमी के बाद से ही यहां होली का माहौल बनने लगता है। जैसे-जैसे होली निकट आती है वातावरण में रंगों का असर और चटख होता जाता है। अबीर और गुलाल की दुकानों से बाजार रंग-बिरंगे हो जाते हैं। मतवाले ब्रजवासी राह चलते किसी के भी माथे पर गुलाल लगा देते हैं। कोई इसका बुरा नहीं मानता। धीरे-धीरे पूरा ब्रज फाग के रंगों से सराबोर होने लगता है।

बरसाने की लट्ठमार होली का तो ढंग ही निराला है। तमाम लोग सिर्फ यही देखने यहां आते हैं। बरसाना राधा का गांव था और नंदगांव श्रीकृष्ण का। श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ राधा और गोपियों से होली खेलने यहां आते थे। उसी क्रम में फाल्गुन एकादशी पर नंदगांव से युवकों की टोली बरसाने आती है। ये बरसाने की स्ति्रयों पर रंगों की बौछार करते हैं तो वे जवाब में लाठियों की बरसात शुरू कर देती हैं। युवकों की टोली अपनी सुरक्षा के लिए ढाल साथ लाती है। इस होली का नजारा देखने के लिए छतों पर लोगों का हुजूम जुट जाता है। इस मौके पर यहां ठंडाई और भांग भी खूब छनती है। जगह-जगह होली के गीत बजते हैं। पूरा माहौल रंगों में भीग जाता है। इसके अगले दिन नंदगांव में होली खेली जाती है।

लट्ठमार होली का आयोजन

वृंदावन से टैक्सी के जरिये हमने ब्रज भूमि के अन्य स्थान देखे। बरसाना में ब्रह्मपर्वत पर राधाकृष्ण मंदिर, वृषभानु मंदिर और अन्य मंदिर देखे। इसके बाद हमने नंदगांव, गोवर्धन, गोकुल, बलदेव और महावन भी देखे। हर जगह किसी न किसी रूप में कृष्ण, राधा और बलराम मंदिरों में विद्यमान हैं। टैक्सी ड्राइवर ने बताया कि पर्यटकों के लिए मथुरा में जन्मभूमि के प्रांगण में भी एक दिन लट्ठमार होली का आयोजन किया जाता है। इसमें भाग लेने के लिए बरसाना और नंदगांव से टोलियां आती हैं। ब्रह्मोत्सव, बसंत पंचमी, अक्षय तृतीया और हरियाली तीज पर भी ब्रज में बहुत भीड़ रहती है।

गोवर्धन परिक्रमा के मौके पर भक्तों की आस्था देखते ही बनती है। मीलों लंबे परिक्रमा पथ पर भक्तों का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। वास्तव में ब्रज रज में ऐसा कुछ है कि जो एक बार यहां आता है वह बार-बार आना चाहता है। अगले दिन सुबह वृंदावन से आगरा के लिए प्रस्थान करने से पूर्व हम एक बार फिर बांके बिहारी के दर्शन करने पहुंच गए। वृंदावन की कुंज गलियों का राधा-कृष्णमय वातावरण हमें भी बांध रहा था। हम एक बार फिर वहां आने की इच्छा के साथ वहां से चल दिए।

ताजमहल के शहर में

माना जाता है कि आगरा भी ब्रजभूमि के दायरे में आता था। लेकिन शताब्दियों पूर्व सैयदों, लोदियों और फिर मुगलों के प्रभाव में रहने के कारण इस शहर से ब्रज का प्रभाव कम होता गया। वृंदावन से हम दो घंटे से भी कम समय में आगरा पहंुच गए। जहां पर्यटन विभाग के टूरिस्ट बंगले में हमारे ठहरने का इंतजाम था। यह शहर भी यमुना नदी के तट पर बसा है। आगरा के इतिहास में मुगलों का दौर यहां का सुनहरा काल था। इसके सीधे प्रमाण हैं मुगलों द्वारा बनवाए गए किले, मस्जिद और मकबरे। इनमें सबसे प्रमुख है ताजमहल। ताज के कारण ही विश्व पर्यटन मानचित्र पर आगरा की खास पहचान है। यहां आने वाला हर पर्यटक पहले ताजमहल देखना चाहता है। हम भी सबसे पहले ताज की ओर ही जा रहे थे।

वास्तुशिल्प का यह अद्भुत नमूना मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल की याद में बनवाया था। ईरान से आई शिल्पी ईसा खान ने पहले ताजमहल का नमूना बनाया। इसी आधार पर 1621 में इसका निर्माण शुरू हुआ और 1653 में यह बनकर तैयार हुआ। ताजमहल परिसर का प्रवेशद्वार और अन्य इमारतें लाल पत्थर की बनी हैं। प्रवेश द्वार से अंदर कदम रखते ही सैलानी ताजमहल के दूधिया सौंदर्य को देख दंग रह जाते हैं। इसके सामने फैले चौकोर बगीचों वाले उद्यान इसकी सुंदरता को बढ़ाते हैं। उद्यान के मध्य में बनी लंबी हौज के आसपास आगे जाने का रास्ता है। हौज में फव्वारे लगे हैं। रास्ते पर आगे बढ़ते हुए बीच में एक चबूतरा बना है। इस पर हर समय पर्यटकों की भीड़ रहती है। इसी स्थान से पर्यटक ताज की खूबसूरती को कैमरे में कैद करते हैं। रास्ता तय करने के बाद करीब 12 फुट ऊंचे विशाल चबूतरे पर स्थित है संगमरमर का अजूबा ताजमहल। मकबरे का ऊंचा मेहराबदार गेट है। जिस पर सफेद पत्थर के बीच रंग-बिरंगे पत्थरों की कलात्मक कारीगरी की गई है। द्वार के दोनों ओर चार-चार मेहराबदार झरोखे नजर आते हैं। इनमें सफेद पत्थर की ही आकर्षक डिजाइन की जालियां लगी हैं। ऊपर मध्य में विशाल गुंबद है। जिसके आसपास छोटे गुंबद बने हैं। मकबरे के चारों ओर बनी चार ऊंची मीनारें इसे अनोखी भव्यता प्रदान करती हैं। अंदर मुमताज महल और शाहजहां की कब्र हैं। इनके आसपास भी संगमरमर की कलात्मक जालियां लगी हैं। वास्तविक कब्रें तहखाने में हैं। ताजमहल में अंदर की दीवारों पर भी रंगीन पत्थरों की मनमोहक पच्चीकारी देखने योग्य है। चांदनी रात में ताज की खूबसूरती का अलग ही मंजर होता है। इसे देखने के लिए सैलानी खास तौर से पूर्णिमा पर यहां आते हैं। कहते हैं शाहजहां का सपना अपने लिए काले संगमरमर का भव्य मकबरा बनवाने का था। लेकिन औरंगजेब द्वारा सत्ता हथिया कर उसे कैद करने के कारण उसका यह सपना पूरा न हो सका।

समय की शिला पर

आगरा का किला यहां का दूसरा आकर्षण है। मूलत: लाल पत्थर से बने इस विशाल किले में सफेद पत्थर का भी काफी प्रयोग किया गया था। इस किले का निर्माण 1565 में अकबर ने करवाया था पर इसकी अधिकतर इमारतें बाद में जहांगीर और शाहजहां ने बनवाई। जहांगीर महल, शीशमहल, रंगमहल, खासमहल, दीवाने आम और दीवाने खास के अलावा यहां तीन मस्जिदें भी हैं। इसमें मोती मस्जिद सबसे बड़ी है। इसे 1653 में शाहजहां ने बनवाया था। शाम के समय किले में होने वाला ध्वनि एवं प्रकाश कार्यक्रम उस दौर की दास्तां बयान करता है।

ताज नगरी के अन्य दर्शनीय स्थल हमने अगले दिन देखे। एत्मादुद्दौला नूरजहां के पिता का मकबरा है। वह जहांगीर के दरबार में वजीर थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि पूरी तरह सफेद संगमरमर से बनी यह पहली मुगल इमारत थी। इसकी दीवारों पर की गई पच्चीकारी भी दर्शनीय है। कुछ दूरी पर स्थित है अफजल खान द्वारा बनवाया गया मकबरा ‘चिन्नी का रोजा।’ शाहजहां ने 1648 में आगरा में भी एक जामा मस्जिद बनवाई थी। यह शहर के बीच भीड़-भाड़ वाले इलाके में है। 1528 में बाबर द्वारा बनवाया गया आराम बाग भी दर्शनीय है। अब इसे यहां रामबाग के नाम से जाना जाता है।

नक्काशी का बेजोड़ नमूना

शहर से दस किमी दूर दयालबाग राधास्वामी संप्रदाय के गुरु की समाधि है। संगमरमर पर मोहक नक्काशी और पत्थर को तराश कर बनाए गए बेलबूटे तथा अन्य आकृतियां इस आलीशान इमारत की विशेषता हैं। अकबर का मकबरा सिकंदरा भी शहर से बाहर है। इसका प्रवेश द्वार अत्यंत भव्य है। इस पर लाल पत्थर के बीच सफेद पत्थर की पच्चीकारी की गई है। अंदर पांच मंजिला इमारत है और सामने विस्तृत उद्यान। आगरा में चमड़े और संगमरमर की बनी कलात्मक चीजों के अलावा जेवरात की खरीदारी भी की जा सकती है।

फतेहपुर सीकरी

अगले दिन हम सुबह फतेहपुरी सीकरी देखने गए। शहर से 38 किमी दूर यह स्थान भी अकबर की राजधानी रह चुका है। सूफी संत सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से पुत्र प्राप्ति के बाद 1569 में अकबर ने यह नगर बसाया था। लंबी चारदीवारी से घिरे नगर के सात द्वार थे। फतेहपुर सीकरी में भी मुगल वास्तुशिल्प की सुंदर झलक देखने को मिलती है। पर्यटक सबसे पहले बुलंद दरवाजे पर पहुंचते हैं। 54 मीटर ऊंचा यह दरवाजा एशिया का सबसे ऊंचा दरवाजा है। अंदर प्रवेश करते ही विशाल प्रांगण में सफेद संगमरमर की बनी सलीम चिश्ती की दरगाह है। दरगाह की इमारत में संगमरमर की शानदार जालियां काबिले तारीफ हैं। यहीं पश्चिम दिशा में एक विशाल मस्जिद है। पूर्व में शाही दरवाजा है जहां से अकबर के महलों की ओर रास्ता जाता है। अकबर के महलों में भी कई भवन वास्तुकला की दृष्टि से देखने योग्य हैं। इनमें शामिल हैं जोधाबाई महल, मरियम महल, बीरबल महल, पंचमहल, आंख मिचोली, नौबत खाना, दीवाने आम, दीवाने खास और कारवां सराय। इनमें पांच मंजिला पंचमहल सबसे भव्य है। इसके हर खंबे पर अलग डिजाइन है। ये सभी इमारतें लाल पत्थर की बनी हैं। ब्रजक्षेत्र की हमारी यह यात्रा उस वक्त तो संपन्न हो गई, पर यह आज भी हमें कहने को विवश कर रही है, ‘ऊधो मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।’

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