उड़ीसा : जहां विराजते हैं जगत के नाथ

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उड़ीसा का नाम लेते ही आंखों के सामने दूर-दूर तक फैले सागर और पत्थरों में उकेरे देवस्थलों की एक अद्भुत और बहुरंगी छटा तैर जाती है। रंगीन चित्रों के इस दृश्य में क्या नहीं होता-कोणार्क का अप्रतिम सूर्य मंदिर, पुरी की विशाल रथ यात्रा, भाव और भक्ति को समेटे ओडिसी नृत्य से लुभाती बालाएं, खंडगिरि-उदयगिरि की प्राचीन गुफाएं, अपनी कलाबाजियों से अलौकिक आनंद की अनुभूति कराता सागर तट और भारतीय के इतिहास  के सबसे महत्वपूर्ण मोड़ का साक्षी धौली।

प्रकृति ने तो उड़ीसा को अपना खजाना खुले हाथों से लुटाया ही है, मनुष्य ने भी इसे संपन्न बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कृति और प्रकृति दोनों से संपन्न इस प्रांत में मंदिरों और सागर का सम्मोहन मुझे अक्सर खींच लाता है। सागर और मंदिरों के अनूठे समन्वय वाले पुरी, कोणार्क और भुवनेश्वर के इस त्रिकोण का दूसरा पहलू है इनका कला, इतिहास और पुराण का त्रिकोण होना।

एक दशक पहले जब मैं पहली बार उड़ीसा आया था तो पहले तो समझ ही नहीं सका कि शुरुआत कहां से करूं। सागर और मंदिरों के बारे में बहुत सुन रखा था और इतना मैं जानता था कि पुरी, कोणार्क और भुवनेश्वर तीनों ही जगहों पर सागर और मंदिर दोनों मौजूद हैं। यह भी कि तीनों जगहें आसपास हैं। कोई भी जगह एक-दूसरे से एक घंटे से अधिक की दूरी पर नहीं है।

वह अलौकिक स्नान

बाबा जगन्नाथ का धाम होने के नाते शुरुआत हमने पुरी से की।ठहरने का स्थान ढूंढने के बाद मैंने सीधा सागर तट का रास्ता पूछा। पुरी देश के चार धामों में से एक है और समुद्र के स्वर्ग द्वार पर स्नान करके ही वहां जाना अच्छा माना जाता है।

पुरी में सागर की लहरें जितनी उद्दाम हैं, उतनी ही दुर्दम भी हैं। इसकी गर्जना और पछाड़ खाती लहरों की टकराहट सिहरन के साथ ही रोमांच से भी भर देती है। स्वर्गद्वार से सटे कानपाता हनुमान, विदुरपुरी और सुदामापुरी हैं। माना जाता है कि वीर हनुमान सागर की गतिविधियां जानने के लिए आज भी यहां कान लगाए हुए हैं। विदुर की यादों से जुड़ी विदुरपुरी में आज भी शाक और चावल की खुद्दी का प्रसाद मिलता है। पुरी में सब कुछ इतना निकट है कि सागर तट पर बैठे-बैठे ही सभी मंदिरों में होती पूजा की ध्वनियां सुनी जा सकती हैं। समुद्र तट सुबह से देर रात तक जन कोलाहल से भरा रहता है।

ज्यादातर लोग यहां पवित्र स्नान के लिए आते हैं। ऐसे लोग समुद्र की लहरों से ताल मिलाते हुए शरीर को लहरों के सहारे छोड़कर समुद्र स्नान का सुख भोगते सुबह-शाम देखे जा सकते हैं। पुरी के तट पर नूलिया भी मिल जाते हैं। ये लोग थोड़े से पैसे लेकर आपके सहायक बन आपको थोड़े गहरे पानी में ले जाते हैं। यहां समुद्र का एक और आकर्षण सीपियां हैं। शाम को शंख और घंटों की ध्वनिलहरी के बीच समुद्र पर थिरकती रश्मियों की झिलमिलाहट पुरी के सौंदर्य का एक और अद्भुत आयाम है। समुद्र स्नान की अलौकिक अनुभूति के बाद तट की भुरभुरी मुलायम रेत में होते हुए मैं जगन्नाथ के मंदिर की तरफ बढ़ चला। गलियों से गुजरते हुए मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि गलियां आपस में जुड़ी हैं और मंदिर से समुद्र तट को कई गलियां जोड़ती हैं। दरअसल, यह शहर इस तरह बसा है कि मंदिर और सागर का अबाध रिश्ता बना रहे।

प्रायश्चित में बना मंदिर

बारहवीं शताब्दी में निर्मित जगन्नाथ मंदिर के बारे में कहा जाता है कि ब्राह्मण हत्या के प्रायश्चित के लिए राजा अनंग भीमसेन ने 1198 में इस मंदिर का निर्माण कराया था। भीमसेन के बाद जब गजपति राजाओं का शासन आया तो उन्होंने धन लगाकर इस मंदिर के सौंदर्य और श्री में वृद्धि की। आज का पुरी ज्यादातर सर्पाकार चक्रतीर्थ रोड के आसपास बसा हुआ है। यह सड़क समुद्र तट के साथ लंबी खिंची चली गई है। पुरी में एक और प्रमुख सड़क है ग्रेट रोड। यह जगन्नाथ और गुंडीचा मंदिर को जोड़ती है। गुंडीचा मंदिर में भगवान अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के साथ विराजमान हैं।

जगन्नाथ का मंदिर लगभग 220 फुट ऊंचा है और 640 फुट लंबे तथा उतने ही चौड़े क्षेत्र में फैला है। मंदिर के चारों तरफ तोरण हैं- सिंह द्वार, हस्ती द्वार, खंज द्वार और अश्वद्वार। पूरब की तरफ स्थित सिंह द्वार मंदिर का मुख्य द्वार है। इसके सामने कोणार्क से लाए गए क्लोराइट पत्थर का 34 फुट ऊंचा स्तंभ है, जिसके शीर्ष पर गरुड़की मूर्ति है। 22 सीढि़यां चढ़ने के बाद मंदिर का प्रांगण आता है। प्रांगण के पूर्व में योगमंदिर और पश्चिम में जगमोहन है। इसके पीछे बड़ा देवल है, जो 30 फुट लंबा और 192 फुट ऊंचा है। दूसरा प्राचीर पार करते ही कई देवी-देवताओं- गणेश, काशी के विश्वनाथ,  कागभुशुंडि, राम, लक्ष्मी, सर्वमंगला, काली, जय-विजय, सूर्य नारायण, राधा-कृष्ण, बुद्ध, पातालेश्वर, नृसिंह आदि की प्रतिमाएं हैं। दीवारों पर विभिन्न भंगिमाओं में नर-नारी की श्रृंगारिक मूर्तियां हैं।

दुनिया का सबसे बड़ा रसोई घर

स्थापत्य की दृष्टि से उड़ीसा के लगभग सभी मंदिर एक ही शैली में बने हैं। पुरी के मंदिर हों या भुवनेश्वर के, सभी में वही विमान, जगमोहन, नाटय मंदिर और भोग मंदिर। मंदिरों में मूर्ति शिल्प, नक्काशी और देवी-देवताओं का समावेश इतना उत्कृष्ट है कि पर्यटक अभिभूत हो जाता है। जगन्नाथ मंदिर के मूल से देवालय की रत्नवेदी पर सात मूर्तियां अर्थात सात रत्न हैं। एक तरफ जगन्नाथ देव, दूसरी तरफ बलभद्र तथा बीच में जगन्नाथ की बहन सुभद्रा हैं। इस मूर्ति के बायीं तरफ स्वर्ण लक्ष्मी और दाहिनी ओर रजत सरस्वती और पीछे नील माधव हैं। चौदह साल बाद ये देवमूर्तियां बदल दी जाती हैं।

जगन्नाथ देव को 21 वेषों में सजाया जाता है। दिन में कई बार वेश बदला जाता है। पूजा और भोग में यहां अपार सामग्री आती है और तरह-तरह की पूजा के लिए अलग-अलग दरें हैं। सबसे महंगी अटकिया पूजा होती है। मंदिर की आय से 6000 पुरोहितों और 25000 अन्य लोगों की जीविका चलती है। इस मंदिर में विश्व का सबसे बड़ा रसोई घर है जहां प्रसाद बनाया जाता है।

रहस्य रथयात्रा का

मुझे पैदल घूमना काफी भाता है और ऐसी जगह जहां हर कदम पर कला-शिल्प और श्रद्धा के फूल बिछे हों, वहां पैदल चलने से थकान भी नहीं लगती। कहा जाता है कि जब कृष्ण को एक शिकारी ने तीर से मार दिया तो पांडव भगवान के पार्थिव शरीर को यहां ले आए और संस्कार किया। जगन्नाथ मंदिर से थोड़ी ही दूर पांडवों को समर्पित शिवजी के पांच मंदिर हैं। जामेश्वर, कपालमोचन, मार्कडेश्वर और नीलकंठ के बाद सिद्ध वकुल और गंभीरा यानी काशी मिश्र के दर्शन काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

ग्रेट रोड के दूसरे सिरे पर गुंडीचा का मंदिर है। गुंडीचा देवी अवंती के राजा इंद्रदेव की पत्नी थीं। मंदिर प्राचीर से घिरा है। जब कृष्ण गोकुल से मथुरा आए तभी बलराम बहन सुभद्रा को लेकर मौसी के घर आए। सात दिन यहां बिताकर फिर लौट गए। उसी की याद में देवताओं को 14 मीटर ऊंचे, 10 मीटर वर्गाकार 16 चक्कों के साथ रथ पर सवार कर एक जुलूस के रूप में श्रावण माह में लाया जाता है। इसी उत्सव का नाम जगन्नाथ की रथ यात्रा है।

मैं अकेला हूं अनूठा

पुरी से पुरी-कोणार्क मैरीन ड्राइव के रास्ते कोणार्क की दूरी मात्र 35 किमी है। कोणार्क में एक ही मंदिर है और उस एक मंदिर के ही चलते कोणार्क की ख्याति दुनिया भर में है। कोणार्क के इस सूर्य मंदिर को नरसिंह देव ने बनवाया था। उन्होंने सन् 1238 से 1264 के बीच इस क्षेत्र पर राज्य किया। यह मंदिर एक विशालकाय रथ के आकार का है। सूर्य के इस रथ को सात घोड़े खींचते हैं और इसमें बहुत सुंदर बारह जोड़ी पहिये हैं। हर पहिया वर्ष के एक पखवाड़े का सूचक है और सात घोड़ों का अभिप्राय सप्ताह के सात दिनों से जोड़ा गया है।

कोणार्क का सूर्य मंदिर भी समुद्र की मिट्टी और शत्रुओं के हमलों के कारण कभी दब गया था, जिसे 1908 में खोदकर निकाला गया। यह मंदिर अभी भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है। मंदिर के मंडप और शिखर वाला हिस्सा काफी पहले टूट गया। फिर भी जितना यह मंदिर बचा है उसकी कलात्मकता और स्थापत्य शैली पर्यटकों को अभिभूत कर देती है।

मंदिर के प्रवेश द्वार पर दो सिंहों की मूर्तियां हैं। ऊपर जाने के लिए सीढि़यां पार करने के बाद तीन स्तरीय बरामदा आता है। इन हिस्सों में तरह-तरह की मूर्तियां हैं। देवी-देवताओं की मूर्तियां, वाद्य-गायन-नृत्य में रत मूर्तियां, मिथुन मूर्तियां, अपरूप सुंदरियों की मूर्तियां- सभी अपने सौंदर्य से विस्मित करती हैं।

खिंचते आते थे जहाज

पिछले हिस्से में कभी मूल देवता सूर्य की एक अनूठी प्रतिमा थी। अब वह प्रतिमा हटाकर संग्रहालय में रख दी गई है। पहले कभी इसी मंदिर पर कृष्ण पत्थर नाम का अद्भुत विशालकाय चुंबक था। शायद जहाजों के दिशा निर्देशन के लिए बनवाया गया था। इसकी क्षमता इतनी जबर्दस्त थी कि जहाज दूर-दूर से इसकी तरफ खिंचे चले आते थे। कहा जाता है कि ऐसा ही एक जहाज किनारे से टकराकर नष्ट हो गया था। नाराज जहाजियों ने चुंबक तोड़ दिया। नरसिंह देव सूर्य के उपासक थे। उन्होंने एक युद्ध जीतने के बाद इसे स्मारक के रूप में बनवाया। कोणार्क उस समय विख्यात बंदरगाह था। मंदिर के सामने पहले चंद्रभागा नदी बहती थी। उस समय उगते सूर्य की पहली किरण कोणीय अंश (कोणार्क) से जहां पड़ती थी, वहीं सूर्य देव की मूर्ति स्थापित की गई और उसके चारों ओर मंदिर बनाया गया। अब वह सूर्य-किरण और उसका कोणीय अर्क नहीं रहा।

कोणार्क मंदिर की सबसे अद्भुत चीज है इसकी कला। इसमें इतनी विविधता है कि किसी संग्रहालय के अलावा किसी एक स्थान पर एक साथ शायद ही कहीं मिले। एक तरफ इसकी दीवारों पर बेल-बूटे, पत्तियों और फूलों वाली वह कला है, जो सजावट के लिए बनाई जाती है तो दूसरी तरफ समाज को प्रतिबिंबित करती कला है जिसमें घरेलू दैनिक कार्यो और स्त्री के सौंदर्य को उकेरती मूर्तियां दिखाई पड़ती हैं। एक चित्र में नरसिंह देव के सामने खड़े विदेशी और उसी दृश्य में एक जिराफ की उपस्थिति यह इशारा देने के लिए पर्याप्त है कि राजा नरसिंह देव के संबंध अफ्रीका की किसी सियासत से भी थे।

आत्मनियंत्रण की कसौटी

सजावट और समाज को प्रतिबिंबित करती मूर्तियों के अलावा कोणार्क में हर मंदिर की तरह समाज की धर्मपरायण भावना को प्रकट करती कला मंदिर का अनिवार्य हिस्सा है। इसके अलावा इसमें आकर्षण और प्रसिद्धि का एक और प्रमुख कारण है बाहर दीवारों पर उत्कीर्ण मूर्तियों में दर्शायी गई काम कला। उस समय देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ कामकला के आयाम दर्शाती मिथुन मूर्तियां चलन में थीं। जैन और बौद्ध कला में भी यह देखा जा सकता है। मुझे रवींद्रनाथ टैगोर की ‘कोणार्क’ शीर्षक कविता याद आती है, जिसमें वह कहते हैं कि यह काम कला और कुछ नहीं, बल्कि संतों के लिए एक चुनौती थी कि क्या वे मंदिर में प्रवेश से पहले अपनी कामवासना को नियंत्रित कर सकते हैं।

इसी संदर्भ में मुझे अमरीकी अर्थशास्त्री गालब्रेथ का वह किस्सा भी याद आ जाता है जिसमें उन्होंने बताया कि जब जेकेलिन केनेडी कोणार्क गई तो सीआईए के जवान एकदम से उस वक्त हरकत में आ गए जब किसी फोटोग्राफर ने श्रीमती केनेडी का तब फोटो लेने की कोशिश की जब वह कामकला के किसी दृश्य को निहार रही थीं। कोणार्क मंदिर के परिसर के निकट ही संग्रहालय भी हैं, जहां कोणार्क से प्राप्त वस्तुओं का संग्रह है। इसमें अग्निदेवता की एक छोटी सी मूर्ति काफी सुंदर है। मंदिर से समुद्र तट सिर्फ तीन किमी दूर है। हजार साल पहले मंदिर निर्माण के समय यह तट काफी निकट था पर अब काफी दूर चला गया है। मुझे यह तट पुरी के तट से कहीं ज्यादा खूबसूरत लगा। इसकी वजह यह थी कि यह कम भीड़ वाला और अत्यंत साफ-सुथरा तट है।

एक श्रृंखला अनवरत

कोणार्क से सिर्फ 65 किलोमीटर और सड़क से एक घंटे की दूरी पर भुवनेश्वर है। इसका इतिहास दो हजार वर्ष से भी ज्यादा पुराना है। भुवनेश्वर में रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डा सब कुछ है। इसलिए कोणार्क, पुरी आने वाले पर्यटक अक्सर भुवनेश्वर से यात्रा शुरू कर कोणार्क होते हुए पुरी जाते हैं। दिल्ली की तरह भुवनेश्वर भी दो भागों में बंटा है। एक तरफ दफ्तरों व बस्तियों वाला नया भुवनेश्वर है, दूसरी तरफ मंदिरों की श्रृंखला वाला पुराना भुवनेश्वर। इन मंदिरों का निर्माण आठवीं और बारहवीं सदी के बीच हुआ। कहते हैं कि कभी बिंदु सागर के पास भुवनेश्वर में 7000 मंदिर थे पर आज उनकी संख्या बहुत कम है। गाइड यहां 500 मंदिर बताते हैं पर यह संख्या भी अधिक लगती है। भुवनेश्वर के मुख्य लिंगराज मंदिर समेत यहां बमुश्किल एक दर्जन मंदिर दर्शनीय हैं।

कभी बहुत पहले यही भुवनेश्वर कलिंग राज की राजधानी था। कलिंग जहां सम्राट अशोक ने अपने जीवन का अंतिम युद्ध लड़ा और रक्त से सनी यही माटी देखकर उन्होंने शपथ ली कि अब कभी शस्त्र नहीं उठाएंगे। अशोक के राज के उत्थान और पतन के कई वर्ष बाद ययाति कलिंग के राजा बने। वह अयोध्या से दस हजार ब्राह्मण लाए, फिर शुरू हुआ मंदिरों के निर्माण का सिलसिला। ययाति ने अपने काल में लिंगराज मंदिर की योजना बनाई पर उससे पहले ही वह चल बसे। उसी अभिकल्पना को राजा ललाट केसरी ने वास्तविकता का जामा पहनाया।

दो दुनियाएं मंदिर में

उड़ीसा के ज्यादातर बड़े मंदिरों की तरह लिंगराज मंदिर की गठन शैली भी चार स्तरीय है। छोटे मंदिरों में मूलत: दो हिस्से होते हैं। जगमोहन यानी प्रवेश वाला कक्ष और दूसरा देवल या विमान जहां मंदिर के देवता की मूर्ति स्थापित होती है। लिंगराज जैसे बड़े मंदिरों में दो और हिस्से होते हैं, नट मंदिर, जो नृत्य कला के लिए सुरक्षित होता था और भोगमंडप वाला कक्ष। लिंगराज मंदिर 300 फुट लंबा और 75 फुट चौड़ा है। ऊंचाई 162 मीटर है। मंदिर त्रिभुवनेश्वर, यानी तीनों लोकों के स्वामी को समर्पित है और उन्हीं के नाम पर शहर का नाम भुवनेश्वर रखा गया है। कोणार्क और पुरी की तरह लिंगराज मंदिर की दीवारों पर कामकला को दर्शाती मूर्तियां हैं, पर कोणार्क की तुलना में ऐसी मूर्तियों की संख्या यहां कम है। मंदिर के बाहर प्राचीर में आठ दिकपाल हैं। पूर्व में इंद्र, पश्चिम में वरुण, उत्तर में कुबेर, दक्षिण-पूर्व में अग्नि, दक्षिण में यम और दक्षिण-पश्चिम में नैऋत्य हैं। निकट ही मंदिर में गणेश, कार्तिक और पार्वती की भव्य मूर्तियां हैं।

सम्मान धर्मभाव का

मंदिर से निकलकर मैंने एक अद्भुत दृश्य देखा। मंदिर के ठीक सामने एक ऊंचे प्लेटफार्म से एक विदेशी उचक-उचककर मंदिर की तरफ देखने की  कोशिश कर रहा था। बाद में पता लगा कि पुरी और लिंगराज के मंदिर में गैर हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है। गैर हिंदुओं के लिए यह प्लेटफार्म लॉर्ड क्लाइव ने हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसलिए बनवाया था कि गैर हिंदू भी दर्शन कर सकें। क्लाइव ने भी यहीं से दर्शन किए। इस प्लेटफॉर्म से दर्शन के लिए पंडों ने फीस भी लगा रखी है, जो श्रद्धानुसार पांच रुपये से हजार रुपये तक कुछ भी हो सकती है।

बूंद-बूंद से बना सागर

लिंगराज के उत्तर में थोड़ी दूरी पर बिंदु सरोवर है। कहते हैं यह सरोवर इस धरती के हर नद-नदी-सरोवर की बूंद-बूंद लाकर बनाया गया है, इसलिए इसका नाम बिंदुसागर है। लिंगराज के देव को वर्ष में एक बार इस सरोवर में स्नान कराया जाता है। इस बिंदु सागर के आसपास छोटे-बड़े कई मंदिर हैं जो देखने में लिंगराज के मंदिर जैसे दिखते हैं। पूर्वी तट पर अनंत वासुदेव मंदिर है। इस प्राचीन मंदिर के एक शिलालेख में भवदेव भट्ट का नाम उत्कीर्ण है। इस मंदिर के निकट 20 हाथ ऊंचा मुक्तेश्वर का मंदिर है। इसके निर्माण में बलुआ पत्थरों का प्रयोग किया गया है। इसका द्वार दो खंभों पर टिका है जिस पर पंचतंत्र की कथाएं उत्कीर्ण हैं। मंदिर में सप्तमातृका मूर्तियां है। मुक्तेश्वर के साथ ही परशुराम, सिद्धेश्वर और केदारेश्वर मंदिर है। केदारेश्वर यहां का सबसे प्राचीन (छठी शताब्दी) मंदिर बताया जाता है।

नक्काशी और कला की दृष्टि से लिंगराज से एक किलोमीटर की दूरी पर ब्रह्मेश्वर मंदिर है। यहां की श्रृंगार रस से भीगी मूर्तियां अद्भुत हैं। बिंदुसागर के निकट वेताल मंदिर की भी काफी मान्यता है। चामुंडा देवी का यह मंदिर आठवीं सदी का है और उस काल में तांत्रिक पूजा का केंद्र था। चामुंडा के गले में लटकी कपाल और मुंडों की माला धागों और रस्सियों में छिपी स्पष्ट नहीं दिखाई देती।

छवियां जीवन की

होटल कलिंग अशोक के ठीक सामने भुवनेश्वर का संग्रहालय है, जहां उड़ीसा की कला-संस्कृति और सभ्यता को कहीं दीवार पर टंगा और कहीं शीशों के बक्सों में बंद देखा जा सकता है। शहर के पश्चिमी किनारे पर एक आदिवासी शोध केंद्र है। यह कई मायनों में रोचक है। उड़ीसा आदिवासियों का बड़ा क्षेत्र है। यहां उनके उत्थान और विकास के लिए कुछ न कुछ शोध चलता रहता है। यहां तरह-तरह के मॉडल बने हैं और मानवशास्त्र में रुचि रखने वाले देख सकते हैं कि संथाल, जुआंग, कौंध प्रजाति के आदिवासी कैसे और किस तरह के घरों में रहते हैं।

गुफाओं में संस्कृति की संपदा

दूसरे दिन सुबह ही मैंने भुवनेश्वर से 8 किमी दूर शहर की पूर्वीघाट पर्वतमाला की तरफ रुख किया। यहां एक ही पहाड़ के आमने-सामने बौद्धगुफा उदयगिरि और जैन गुफा खंडगिरि है। भुवनेश्वर इस मामले में अद्भुत है कि यह कभी हिंदू, बौद्ध और जैन तीनों धर्मो का मुख्य केंद्र रहा। अजंता, एलोरा की तरह खंडगिरि, उदयगिरि की गुफाएं एक ही पहाड़ को खोदकर बनाई गई हैं। खंडगिरि की चोटी पर तीर्थकर महावीर और पा‌र्श्वनाथ का मंदिर है। 23 फुट ऊंचे पहाड़ की खुदाई से खंडगिरि का निर्माण हुआ जबकि उदयगिरि को 113 फुट ऊंचे पहाड़ से काटकर बनाया गया।

उदयगिरि की गुफाएं पहाड़ के कई स्तरों पर हैं और सीढि़यों से जुड़ी हैं। सबसे पहले पहाड़ी के आधार पर रानी की गुफा है। गुफा के मंदिर की नक्काशी काफी सूक्ष्म है। इसके ऊपर गणेश गुफा है। इसकी दीवारों पर हाथी की मूर्तियां हैं और सीताहरण की कथा उत्कीर्ण है। इसी गुफा के बरामदे में नीति कथाएं उत्कीर्ण हैं। इसके अलावा उदयगिरि में व्याघ्र गुफा, सर्प गुफा, अनंत गुफा, जैन गुफा है। हर गुफा में कुछ न कुछ रोचक और दर्शनीय है। उदयगिरि से नीचे उतरकर मैं खंडगिरि की तरफ बढ़ा। इस हिस्से में 30 गुफाएं हैं। कुल मिलाकर खंडगिरि, उदयगिरि में इतना कुछ देखने को है कि मुझे यहां भ्रमण करते-करते शाम हो गई और तब भी मैं उस दिन सारी गुफाएं नहीं देख पाया।

पत्थर पर अमिट संकल्प

शहर से 8 किमी पुरी वाली रोड की तरफ धौली है। कलिंग का युद्ध यहीं लड़ा गया था। यहां अशोक की शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा एक पत्थर पर खुदी है। धौली पहाड़ी की चोटी पर सफेद रंग का शांति स्तूप है। इसे जापानियों ने 1970 में बनवाया था। यहां कई बुद्धों की रंगीन मूर्तियां खुदी हुई हैं। भुवनेश्वर में नंदन कानन अभयारण्य भी है, घडि़याल और सफेद शेर यहां के खास आकर्षण हैं।

ऐसा माना जाता है कि पुरी में तीन दिन तीन रात ठहरने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। श्रद्धा और नीरनिधि के आलिंगन में मेरे छह दिन और छह रात कब गुजर गए मुझे पता भी नहीं चला। शायद मेरा स्वर्ग यहीं कहीं था।

एक नजर में

उड़ीसा का पर्यटन तंत्र सागर किनारे सौ किमी. के दायरे में सिमटे भुवनेश्वर, कोणार्क और पुरी, तीन शहरों में सिमटा है। कोलकाता से चेन्नई जाने वाले राष्ट्रीय सड़क मार्ग पर स्थित भुवनेश्वर वायु मार्ग द्वारा दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद, चेन्नई, रायपुर, विशाखापतनम, मुंबई आदि सभी प्रमुख शहरों से जुड़ा है। ऐसे ही मुख्य नगरों से कई सुपरफास्ट और मेल ट्रेनें भी भुवनेश्वर के लिए चलती हैं। स्थानीय भाषा उडि़या है, लेकिन प्रमुख शहरों में हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी बोली-समझी जाती है। पूरे वर्ष में कभी भी यहां आया जा सकता है, पर सितंबर से मार्च के बीच का समय ज्यादा अनुकूल होता है।

कहां ठहरें

पुरी और भुवनेश्वर में धर्मशालाओं से लेकर पंचतारा होटल तक हैं। मध्यम श्रेणी के होटल, रिसॉर्ट और गेस्ट हाउस भी खूब हैं। ज्यादातर भारतीय पर्यटक पुरी के बीएनआर होटल में ठहरना पसंद करते हैं। यह उन गिने-चुने पुराने होटलों में है जहां के किराये में खाना-पीना मुफ्त है। बीएनआर में कमरे बहुत खुले और हवादार नहीं हैं, पर बरामदों में खुली जगह ज्यादा है। मध्यम दर्जे के होटलों में उड़ीसा पर्यटन निगम द्वारा संचालित होटल श्रृंखला के आवास हर जगह मौजूद हैं। पुरी और भुवनेश्वर के पंथनिवास में 300 से 600 रुपये प्रतिदिन की दर से अच्छे कमरे उपलब्ध हैं। कोणार्क के पंथनिवास में किराया और कम है। निगम द्वारा संचालित कोणार्क के यात्री निवास में डबल बेड वाला वातानुकूलित कमरा महज 325 रुपये में मिल जाता है। भुवनेश्वर के अच्छे होटलों में केनिलवर्थ, प्राची भुवनेश्वर, ओबेरॉय और कलिंग अशोक हैं, जबकि पुरी में नीलांचल अशोक, होलीडे रिसॉर्ट और कोणार्क में शांति अशोक होटल हैं।

क्या खाएं

भुवनेश्वर और पुरी में पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण भारतीय खाना खूब मिलता है। भुवनेश्वर में मॉडर्न साउथ इंडियन होटल में अच्छा खाना मिल जाता है। हरे कृष्ण रेस्तरां में विशुद्ध शाकाहारी और पंथनिवास के फाहियान रेस्तरां में उत्तम चाइनीज खाना मिल सकता है। सी-फूड के शौकीनों के लिए भुवनेश्वर और पुरी में कई रेस्तरां बिखरे पड़े हैं।

क्या खरीदें

हैंडीक्राफ्ट के मामले में उड़ीसा का जवाब नहीं। खास तरह के कपड़ों पर उकेरी गई पातचित्र पेंटिंग्स और उडि़या प्रिंट के कलात्मक आभूषणों के लिए उड़ीसा खूब मशहूर है। टाइ-डाइ और इकत के कामों वाले वस्त्र और लकड़ी पर काटी गई सुंदर मूर्तियां, इस क्षेत्र की खास पहचान हैं।

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