पधारो म्हारे देस

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किसी अल्हड़ सुंदरी के लहराते आंचल से फैले रेत के ऊंचे-नीचे टीले थार में फैले विस्तृत रेतीले मैदानों का सौंदर्य हैं। यहां प्रकृति दिन भर में कई रूप बदलती है। दूर-दूर तक फैले बियाबानों की अपनी एक अलग और रोमांचक खूबसूरती है। मरुभूमि की इस अनोखी खूबसूरती के प्रति आकर्षण के ही कारण हमने राजस्थान के जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर जैसे ऐतिहासिक शहरों के सफर का कार्यक्रम बनाया। मरुभूमि के प्रवेशद्वार जोधपुर पहुंचने पर हमारा स्वागत किया सुबह की शीतल बयार ने।

यह शहर सूरज का

सूर्य नगरी के नाम से प्रसिद्ध जोधपुर कभी मारवाड़ रियासत की राजधानी था। राठौड़ राजाओं के साहस और शौर्य के साक्षी रह चुके इस शहर की स्थापना 15वीं शताब्दी में राव जोधा ने की थी। ऊंची पहाड़ी पर विशाल किले का निर्माण करवाया गया और शहर के चारों ओर कई बुर्ज वाली मजबूत दीवार बनाई गई थी। इसमें आठ ऊंचे द्वार थे। यह शहर आज नए और पुराने दो हिस्सों में बंट चुका है। हम सबसे पहले मेहरानगढ़ फोर्ट देखने पहुंचे।

करीब 125 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थित इस अभेद्य किले के तीन पोल यानी प्रवेशद्वार हैं। यह पोल हैं- जयपोल, फतहपोल और लोहपोल। किले में स्थित महलों को देखने के बाद मेहरानगढ़ की भव्यता का अहसास होता है। उस दौर के राजशाही प्रयोग की धरोहर इन महलों में प्रदर्शित हैं। हाथी पर सवारी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले हौदे, घोड़ों पर कसी जाने वाली जीन और ऊंट की सवारी में प्रयोग की वस्तुएं यहां रखी हैं। श्रृंगार चौकी, पालकी, कलापूर्ण भित्तिचित्र, लोक वाद्य यंत्र रेशम के सुनहरे काम का बना सुंदर शामियाना और अकबर की तलवार भी यहां है। किले की प्राचीर पर तोपें रखी हैं। उस काल के अस्त्र-शस्त्र और पहनावे भी यहां देखे जा सकते हैं।

मौसम से मेल बनाते रंग

किले से शहर के विहंगम दृश्य में एक विशेषता देखने को मिली। यह थी पुराने शहर के घरों का हल्का नीला और सफेद रंग। शुष्क जलवायु का प्रभाव कम करने के लिए यहां घरों को नीला और सफेद रंगा जाता था। किले के पास ही छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है जसवंत थड़ा। जसवंत सिंह द्वितीय के इस स्मारक का निर्माण 1899 में हुआ था। स्मारक के सामने एक उद्यान है, जिसमें चार और छतरीनुमा स्मारक बने हैं। जसवंत थड़ा में महाराजाओं के मोहक चित्र भी लगे हैं।

शहर से थोड़ा हटकर एक विशाल टीले पर बना है 20वीं शताब्दी का एकमात्र महल उम्मेद भवन पैलेस। एक हिस्से में यहां आज भी राज परिवार रहता है। शेष में छोटा सा संग्रहालय और होटल है। इस भव्य महल में कई फिल्मों की शूटिंग भी हो चुकी है। इसके बाद हम शहर से 9 किमी दूर मारवाड़ की पुरानी राजधानी मंदौर पहंुचे। यहां बड़े से उद्यान के बीच लाल पत्थरों की शाही छतरियां हैं। इनके अलावा थंबा महल, वीर वीथिका, अजीत पोल और करोड़ों देवी-देवताओं का मंदिर दर्शनीय हैं। मंदौर से वापस आते हुए हम बालसमंद झील पर रुके। 1159 में बनवाई गई इस झील के पास एक महल है, जो कभी यहां के राजाओं का ग्रीष्म आवास था। यहां का उद्यान भी सुंदर है। टैक्सी ड्राइवर से जब हमने जोधपुर की खास डिश के बारे में पूछा तो उसने बताया कि राजस्थान का दालबाटी चूरमा तो यहां मिलता ही है, यहां की खास ‘मिर्ची वड़ा’ भी खाकर देखें।

छोटा सा नखलिस्तान

दूसरे दिन हम मंदिर नगरी ओसियान देखने पहुंचे। यह प्राचीन नगर छोटा सा नखलिस्तान है। 8वीं से 12वीं सदी तक यह समृद्ध व्यावसायिक केंद्र था। उसी दौरान यहां 16 जैन और हिंदू मंदिरों का निर्माण हुआ। इनमें विशेष है सूर्य मंदिर, काली मंदिर और महावीर मंदिर। स्थापत्य कला की उत्कृष्टता के कारण इनकी तुलना कर्नाटक के होरुसाला मंदिरों से की जाती है। दोपहर में ओसियान से जब वापस चले तो सर्दियों की धूप भी बेहद तेज लग रही थी। शाम के समय खरीदारी के लिए बाजार निकले। नई सड़क घंटाघर, सोजती गेट, सरदार मार्केट क्षेत्र में अच्छा-खासा बाजार है।। जोधपुरी चप्पल और जूतियां, ऊंट की खाल के बने हस्तशिल्प, माखल के हस्तशिल्प, टाई एंड डाई के कपड़े और चादरें यहां की विशेषता हैं।

सभ्यता के ओर पर

जोधपुर से जैसलमेर के रास्ते में सड़क के दोनों ओर फैला था रेतीले मैदानों का सिलसिला और बंजर बियाबान में खड़े कैक्टस या कीकर के झाड़। जीवन यहां कठिन है और इसका मुख्य कारण पानी की कमी है। लगता था टेलीविजन और सेलफोन की संस्कृति से दूर किसी पुरानी सभ्यता के दौर में आ गए हों। हमारे साथ यात्रा कर रहे जैसलमेर निवासी एक सज्जन ने बताया कि यहां के जनजीवन को करीब से देखने का सबसे अच्छा साधन है कैमल सफारी। ऊंट की सवारी करते हुए सैलानी गांवों के बीच से होकर निकलते हैं। ऊंट का मालिक गाइड के रूप में साथ होता है। कैमल सफारी प्राय: सुबह और शाम को की जाती है। चांदनी रात में कैमल सफारी का अनुभव और भी रोमांचक हो सकता है। रात में ये गाइड आकाश के तारों की स्थिति से मार्ग का अनुमान लगा लेते हैं। ऊंट की सवारी करते हुए थक जाएं तो कहीं भी टेंट लगा सकते हैं या मुक्त आकाश के नीचे बिस्तर बिछा सकते हैं।

दमकता रूप सोने सा

लगभग छह घंटे सफर के बाद हम जैसलमेर पहुंचे। यहां हम पर्यटन निगम के मूमल टूरिस्ट बंगले में ठहरे। जैसलमेर छोटा सा शहर है, जहां पर्यटक पैदल भी घूम सकते हैं। 12वीं शताब्दी में भाटी राजपूत राव जैसल द्वारा बसाई गई यह नगरी गोल्डन सिटी के नाम से भी प्रसिद्ध है। सुनहरे रेतीले पत्थरों से बना यहां का किला और यहां के मकान धूप में सोने से चमकते प्रतीत होते हैं। इसलिए इसे गोल्डन सिटी कहा जाता है। मध्य एशिया और भारत के बीच पुराने व्यापार मार्ग पर बसा यह शहर एक जमाने में काफी संपन्न था। इस मार्ग के व्यापारियों का मुख्य व्यवसाय मसाले, सिल्क, सोने और जवाहरात का था। थकान के बावजूद मरुभूमि के मुख्य आकर्षण रेत के टीलों को देखने की लालसा हम दबा न सके। कैमल सफारी के लिए पर्याप्त समय न था, इसलिए हम जीप सफारी से रेत के टीले देखने चल पड़े। 40 किमी का सफर तय करने के बाद जीप रुकी तो हमारे सामने था रेत का अथाह समंदर। प्रकृति का यह रूप देखकर हमारा मन रोमांचित हो उठा। विभिन्न आकृतियों वाले पीली रेत के टीलों पर हवा से बन गई धारियां ऐसी लगती थीं मानो छोटी-छोटी लहरें हों।

हिल उठा होना हमारा

रेत के इस समंदर की सैर कराने के लिए यहां ऊंट उपलब्ध थे। एक ऊंट वाले से रेट तय कर हम भी टीलों की ओर बढ़ते ऊंटों के काफिले में शामिल हो गए। ऊंट की सवारी ने कुछ देर में ही जैसे सारे शरीर को हिलाकर रख दिया। रेत के टीलों पर पर्यटकों का हुजूम जुटने से वहां मेले जैसा माहौल बन गया था। शाम ढलते-ढलते वह मंजर भी आ गया जिसकी प्रतीक्षा थी। मीलों तक जहां नजर जाती बस रेत ही रेत दिखती थी। क्षितिज के करीब पहंुचता सूर्य इसी रेत में समाने वाला था। रेतीले वातावरण पर नारंगी रंग छा गया था। कुछ देर में ही सूर्य रेत के पीछे लुप्त हो गया। वास्तव में यह एक विरल नजारा था। सूर्यास्त के साथ ही पर्यटक वापस चल दिए। लोक संगीत की धुन अभी भी सन्नाटे को चीरती पर्यटकों तक पहंुच रही थी।

विरल छवि सूरज की

अगले दिन की शुरुआत सूर्योदय के नजारे के साथ हुई। जैसलमेर की गढ़ीसर झील के किनारे से उगते सूरज को देखने की अलग ही सुखद और दुर्लभ अनुभूति है। पानी में झिलमिलाता लाल सूरज का प्रतिबिंब देखते ही बनता है। गढ़ी सिंह ने इस झील का निर्माण बरसात का पानी इकट्ठा करने के लिए करवाया था। झील के तट पर बड़ा सा द्वार, एक इमारत और कुछ मंदिर हैं। यहां लोक संस्कृति संग्रहालय भी है।

दुर्ग नगर जैसलमेर का विशाल दुर्ग ‘सोनार किला’ कहलाता है। राव जैसल देब ने इस किले का निर्माण 1156 में शुरू करवाया था। 80 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थित किले की चंद्राकार परिधि 2 किमी से अधिक है। इस पर बने परकोटे में 99 बुर्ज हैं। सोनार किले के चार द्वार – अक्षय पोल, सूरजपोल, गणेश पोल और हवापोल हैं। स्थापत्य कला में बेजोड़ इस किले में कई महल हैं। विलास महल, रंग महल, बादल विलास, सर्वोत्तम विलास और जनाना महल के अलावा यहां आठ जैन और चार वैष्णव मंदिर भी हैं। किले में राज परिवार के महलों के साथ ही प्रजा के घर भी बने थे। आज भी किले में पूरा नगर बसा है। किसी जमाने में जब यह शहर बेहद संपन्न हुआ करता था तब यहां के दीवान और सेठों ने आलीशान हवेलियां बनाई थीं। इनमें 1825 में बनी सलीम सिंह की हवेली, 1860 में बनी पटाखों की हवेली और 1965 में बनी दीवान नथमल की हवेली दर्शनीय हैं। सभी हवेलियों में नक्काशीदार झरोखों और जालियों के अलावा चित्रकारी और लकड़ी का काम मनमोहक है।

कल्पतरु की छांह

अगले दिन हम जीप से जैसलमेर के आसपास के अन्य दर्शनीय स्थान देखने गए। पांच किमी दूर लोद्रवा यहां की पुरानी राजधानी है। वहां पुराने शहर के अवशेषों के अलावा कुछ मंदिर और कल्पवृक्ष है। मंदिरों की धरोहर बचाए रखने के लिए संरक्षण का काम भी चल रहा है। बड़ा बाग वैसे तो शाही छतरियों यानी स्मारकों के लिए जाना जाता है, पर इस मरु उद्यान में फल-सब्जियां भी उगाई जाती हैं। सैम गांव के मार्ग पर स्थित मूलसागर भी सुंदर पिकनिक स्थल है।

लाल पत्थरों का किला

हमने रात्रि बस से बीकानेर के लिए प्रस्थान किया। पोखरन, फलौदी, खींचन और कोलामत होते हुए हम सुबह तक बीकानेर पहुंच गए। बीकानेर की स्थापना जोधपुर के राजा राव जोधा के पुत्र बीका जी ने 1486 में की थी। शहर के चारों ओर करीब 7 किमी लंबी चारदीवारी थी, जिसमें पांच द्वार थे। यहां से मध्य एशिया और पश्चिम एशिया से आने वाले कारवां गुजरा करते थे। बीकानेर की सबसे प्राचीन इमारत है जूनागढ़ किला। लाल पत्थरों के इस किले का निर्माण राजा रायसिंह ने 1593 में करवाया था। 37 बुर्ज वाला यह किला लगभग 970 मीटर के दायरे में बना है। इसके चारों ओर नौ मीटर चौड़ी खाई है। किले के मुख्य प्रवेश द्वार सूरजपोल के अलावा अन्य पोल हैं- दौलत पोल, फतह पोल, तरनपोल और धु्रव पोल। मेहराब और गलियारों की बनावट भी अनूठी है। चंद्र महल, फूल महल, अनूप महल, कर्ण महल और रंग महल के साथ किले में डूंगर निवास, गंगा निवास, गज मंदिर और हर मंदिर हैं। अनूप महल के मेहराबों की बनावट और स्तंभों की नक्काशी मनमोहक है तो फूल महल और चंद्र महल में कांच की जड़ाई और शीशे की सजावट बेजोड़ है। इन महलों में हाथी दांत का काम और चित्रकारी भी आकर्षक है। किले के कुछ कक्षों में कर्णीसिंह संग्रहालय भी है।

एक शहर अजूबों का

शहर से तीन किमी दूर स्थित लालगढ़ पैलेस आधुनिक महल कहा जा सकता है। महाराज लाल सिंह के पुत्र गंगा सिंह के बनवाए इस महल की नक्काशीदार जालियां और झरोखे देखने योग्य हैं। महल के अंदर एक तरणताल है और बाहर खूबसूरत उद्यान। महल के एक हिस्से में शाही परिवार रहता है, शेष में होटल और संग्रहालय है। संग्रहालय में बीकानेर के महाराजाओं की निजी वस्तुएं और चित्र हैं। राज्य का सबसे संपन्न गंगा स्वर्ण जयंती संग्रहालय भी यहीं है। यहां हड़प्पा सभ्यता, गुप्तकाल और कुषाण काल की मूर्तियों और वस्तुओं का नायाब संग्रह है। टेराकोटा बर्तन, प्राचीन सिक्के और बीकानेर शैली के लघु चित्र भी इसमें शामिल हैं। क्षेत्रीय कला और शिल्प की एक अलग दीर्घा है। बीकानेरी मिठाइयां और नमकीन तो पूरे भारत में प्रसिद्ध हैं। बीकानेर के पान भी लाजवाब होते हैं।

यह अभय अहेतुक

बीकानेर से 30 किमी दूर देशनोक 600 वर्ष पुराने कर्णीमाता मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। देशनोक के इस मंदिर में प्रवेश करते ही हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। मंदिर में पूरी तरह चूहों का साम्राज्य था। यहां चूहों को पवित्र माना जाता है और देवी पर चढ़ने वाले प्रसाद का भोग चूहे ही ग्रहण करते हैं। मंदिर का द्वार संगमरमर का बना है, जिस पर सुंदर नक्काशी की गई है। देशनोक से वापस आकर हम एशिया का एक मात्र ऊंट अनुसंधान केंद्र देखने गए। यहां ऊंटों की नस्ल सुधारने और उनको स्वस्थ रखने के अलावा प्रजनन से संबंधित अनुसंधान किए जाते हैं। रेगिस्तान की सीमा के प्रहरी सीमा सुरक्षा बल के लिए यहां से भी ऊंट भेजे जाते हैं।

कभी बीकानेर के महाराजाओं की शिकारगाह रहा गजनेर आज वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी है। यहां झील के तट पर गजनेर महल है, जो अब होटल में तब्दील हो चुका है। देवी कुंड पर बीकानेर के महाराजाओं का छतरीनुमा स्मारक है। यहां राज परिवारों के स्मारक प्राय: मंडपनुमा होते हैं और इन्हें छतरी कहा जाता है। कहीं-कहीं इनके गुंबद भी बनाए जाते हैं।

जिंदगी में रंग भरते उत्सव

यहां की संस्कृति ने लोगों के जीवन में कई रंग भर दिए हैं। त्योहार, मेले और उत्सवों पर ये रंग बरसने लगते हैं। तब गीत-संगीत की स्वर लहरियों के साथ पूरा मरुधर जीवंत हो उठता है। जोधपुर के लंगा हों या जैसलमेर के मंगनियार, अपने आसपास पूरे परिवेश को झूमने पर मजबूर कर देते हैं। लंगा सिंधी सारंगी बजाते हैं तो मंगनियार कमाइचा। यहां के लोकगीतों में क्षेत्रीय प्रेम कथाएं और रणबांकुरों की गाथाएं शामिल होती हैं। पर्यटन के विकास के साथ इनका हुनर विदेशों में भी धूम मचाने लगा है। पर्यटन विकास निगम द्वारा आयोजित मेलों और उत्सवों पर घूमर, कालबेलिया, फायर डांस, कच्ची घोड़ी और तेरह थाली जैसे नृत्य पर्यटकों को थिरकने पर बाध्य कर देते हैं। बीकानेर में हर वर्ष ऊंट उत्सव मनाया जाता है। जनवरी में होने वाले इस उत्सव में लोकगीत और नृत्य के अलावा ऊंट रेस, ऊंट नृत्य और ऊंट को सजाने की प्रतियोगिता भी होती है। जैसलमेर का मरु उत्सव फरवरी में और जोधपुर का मारवाड़ उत्सव अक्टूबर में होता है। इन उत्सवों में पर्यटक भी भाग लेते हैं। खासकर विदेशी पर्यटक पगड़ी बांधने की प्रतियोगिता तथा राजस्थानी वेशभूषा प्रतियोगिता में हिस्सा जरूर लेते हैं। स्थानीय त्योहारों के दौरान यहां की परंपराएं और वेशभूषा के अनोखे रंग देखने को मिलते हैं। पुरुष वेशभूषा में धोती पर एक अलग तरह की ऊंची कमीज और चटख रंग की गोल पगड़ी शामिल है और पैरों में शानदार जूतियां। महिलाएं रंग-बिरंगे लहंगे और चोली पर लहराती ओढ़नी के साथ पारंपरिक गहनों से लदी होती हैं। सिर पर बोरला होता है, गले में लंबे हार, हाथों में मोटे कड़े या कोहनी से ऊपर हाथी दांत का चूड़ा, पैरों में चांदी का कड़ा या खनकती पायल होती है। यहां के लोगों पर आधुनिकता का रंग जरूर चढ़ रहा है, लेकिन इन्हें अपनी सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं से आज भी उतना ही लगाव है।

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