कैलास-मानसरोवर की रोमांचकारी यात्रा

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कैलास-मानसरोवर की यात्रा न केवल हर ¨हिंदू श्रद्धालु का सपना होता है वरन यह यात्रा राष्ट्रीय एकता की एक अद्भुत मिसाल भी है। हर साल जून से सितंबर तक विभिन्न प्रदेशों के तीस-तीस यात्रियों के सोलह बैच इस रोमांचक, जोखिम से भरी कठिन यात्रा को पूरी करके भगवान शिव के चरणों में पहुंचते हैं।

आशंकाएं

अनेक आशंकाओं से घिरे होने के बावजूद हमने अपनी यात्रा आरंभ की। अन्य लोगों से मिलकर भय कुछ शांत हुआ। मैंने अपने मन को तसल्ली दी कि सब कुछ अच्छा ही होगा और इस यात्रा का हम भरपूर आनंद उठा पाएंगे। जब से लैंडस्लाइड में एक लड़की के मर जाने की खबर सुनी थी, तब से मन में एक डर बैठ गया था। लग रहा था इस क्षेत्र की यात्रा, जहां लैंडस्लाइड होना आम बात है, पर जाने की बात सोचकर हमने स्वयं को मुश्किल में डाल लिया है। लेकिन मेरे पति जाने के निर्णय पर दृढ़ थे, इसलिए निर्णय मुझे ही लेना था कि मैं साथ जाऊं या एक महीना उनके बिना बोर होती रहूं। कहावत है कि अगर आप किसी चीज के साथ संघर्ष नहीं कर सकते हैं तो उसमें शामिल हो जाना चाहिए। मैंने भी ऐसा ही किया। सच कहूं तो मैंने इस कार्यक्रम के रद्द हो जाने की प्रार्थना भी की, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

हम लोगों के 1999 के तेरहवें बैच में चालीस लोग थे। हमारा बैच सबसे बड़ा था और अड़तीस अजनबियों के साथ एक महीना गुजारना सचमुच एक घबराने वाली स्थिति थी। लेकिन सत्ताईस दिन बाद जब हम वापस लौटे, इतने एक-दूसरे से घुलमिल चुके थे कि महसूस ही नहीं हुआ कि हम सब देश के विभिन्न कोनों से आए थे और कुछ दिन पहले तक एक-दूसरे से बिलकुल अनजान थे। जाने से दो दिन पहले हम सारे ग्रुप से मिले जिसमें लाइजन ऑफिसर, पी.अल्ली रानी भी थे, जो ग्रुप लीडर भी थे। सारे निर्णय लेने का अधिकार उन्हीं को था। यह भी, कि अगर कोई ठीक से व्यवहार नहीं करता है तो उसे वह वापस भी भेज सकते थे। लेकिन हमारी उनके साथ बहुत अच्छी दोस्ती हो गई थी।

कुमाऊं मंडल विकास निगम (केएमवीएन) को दाद देनी पड़ेगी। चलने से दो दिन पहले दिल्ली में सारी बातें तय हुई और इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) में चेकअप हुआ। इस यात्रा के लिए हर तरह से स्वस्थ होना जरूरी है। इसके बाद केएमवीएन ने बागडोर संभाल ली। परिवहन, खाना-पीना, रिहाइश सब उनकी जिम्मेदारी थी।

यात्रा की शुरूआत

बस द्वारा काठगोदाम और बागेश्वर होते हुए धारचुला पहुंचे, जो कि नेपाल की सीमा पर है। यहीं से घोड़े और कुली लिए जाते हैं। यहां से लिपु लेह पास तक सारे रास्ते काली नदी के साथ-साथ चलते हैं। इस नदी के पार दिखती रहती है नेपाल की पहाड़ी। पहले दिन मांगती से गाला तक की चढ़ाई चढ़नी थी।

चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी। लगा, यह तो मुश्किल चढ़ाई नहीं होनी चाहिए। लेकिन वहां पहुंचते-पहुंचते जैसे-जैसे रात बढ़ती गई और बारिश होने लगी, दिल में घबराहट होने लगी। पिछले साल तेहरवां बैच लैंडस्लाइड में बह गया था जिसमें प्रसिद्ध नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी भी थीं। हमारे साथ आए राकेश मोदी, जिनके माता-पिता भी उसी में थे, उनकी यात्रा पूरी करने के लिए अपनी बीवी और बच्चों को जामनगर में छोड़कर निकले थे। हिम्मत और श्रद्धा की एक अनूठी मिसाल।

गाला से बुद्धी तक का सफर बहुत लंबा है। इसी में आती हैं पत्थर की ऊंची-ऊंची 4444 सीढि़यां जिनसे नीचे उतरते हैं और वापसी पर यही चढ़नी पड़ती हैं। चढ़ते समय मुझे कई बार ऐसा लगा कि मैं गाला तक नहीं पहुंच पाऊंगी। मगर ॐ नम: शिवाय’ का जाप करते-करते पहुंच ही गई।

झरनों वाला रास्ता

इस रास्ते पर एक विस्तार ऐसा आता है, जहां खूब झरने मिलते हैं। यहां तक कि कई बार तो इनके नीचे से गुजरना पड़ता है। बैच के आधे लोग गुजरात से आए थे। गुजरात सरकार ने इनको बहुत से तोहफे दिए थे जैसे कि टॉर्च, बरसाती, बैग वगैरह। इनके रेनकोट पीले थे। हरी पहाड़ी के बीचोबीच इनकी पीली कतार दूर से दिखाई दे जाती थी। गुंजी तक केएमवीएन का इंतजाम होता है, फिर इसके आगे चीनी सीमा तक इंडो-तिब्बती बॉर्डर पुलिस का। गुंजी में रिहाइश तो बहुत साधारण थी मगर कम से कम बाथरूम में चलता हुआ पानी तो था। वरना चीनी इलाके में नल नाम की चीज ही नहीं थी।

वैली ऑफ फ्लावर्स

बुद्धी से गुंजी जाते हुए एक जगह वैली ऑफ फ्लावर्स आती है, जो कि अत्यंत सुंदर है। तरह-तरह के रंग-बिरंगे फूलों की बहार। देखते ही मन में उमंग-सी पैदा हुई। काश! उस वक्त पिकनिक बास्केट होती। हम अपनी चॉकलेट और नमकीन खाकर ही खुश हो गए। उसके आगे आया गर्भियान गांव, जो कि एक वक्त में उस इलाके का महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था। गुंजी कैम्प पहुंचने के लिए हमें गुंजी गांव से गुजरना पड़ता है। यह एक छोटा-सा गांव है जिसकी गलियां तो टूटी-फूटी हैं लेकिन घर नक्काशीदार पत्थरों के बने हैं। एकदम खुली जगह। गुंजी कैम्प देखकर दिल खुश हो गया।

सबने अपना सामान रखा और नहाने और कपड़े धोने में लग गए। बस, मन में एक ही दुविधा थी। यहां आखिरी चेकअप होना था। इसके बाद ही आगे जाने की अनुमति मिल सकती थी। खैर, छह बजे तक चारों ओर मुस्कराते हुए चेहरे एक-दूसरे को बधाई दे रहे थे। ‘हर-हर महादेव’ से कैम्प गूंज उठा, चेकअप के बाद जाने के लिए सब फिट पाए गए। कुछ और कैम्पों की तरह, यहां भी सेटेलाइट फोन से लोगों ने अपने घरवालों से बात की।

गुंजी से प्रस्थान

अब आगे की यात्रा थी गुंजी से कालापानी, कालापानी से नवीधांग। सुबह गुंजी से प्रस्थान करना था। यहां से लेकर लिपु लेह पास तक जाने के लिए हमारे साथ आईटीबीपी के अफसर थे। दलिया, चने और बोर्नविटा का नाश्ता करने के बाद हम आईटीबीपी के कैम्प में एकत्र हुए। चाय और चिप्स सर्व किए गए, फिर हम एक लाइन में खड़े हो गए ताकि उपस्थिति दर्ज हो जाए। हमें बताया गया कि हम पंक्ति में सबसे आगे और सबसे पीछे चल रहे ऑफिसर्स के बीच में ही चल सकते हैं और बढ़ती हुई ऊंचाई के कारण सांस लेने में तकलीफ हो सकती है। अटेंडेंस लेने का सिलसिला कुछ मिनटों के लिए रुक गया, क्योंकि हम केवल 39 तक की ही गिनती कर पाए। बाकी बचा एक व्यक्ति पांच मिनट बाद आया और गिनती पूरी हो गई। वायरलेस से युक्त  कुछ शस्त्रधारी लोगों के बीच में चलते हुए हम स्वयं को बहुत महत्वपूर्ण समझ रहे थे। कालापानी तक का ट्रैक सिर्फ नौ किलोमीटर था लेकिन हम तीन बार रुके। एक जगह चाय भी मिली। जहां कहीं भी रुकते थे, वहीं सब अपना-अपना खाने का सामान निकाल लेते थे। गुजरातियों के पास फर्सान (तली हुई नमकीन) थी और उन्होंने हम सबको खिलाया। यह एक मजाक बन गया कि हमेशा ऐसे ग्रुप में यात्रा करनी चाहिए, जिसमें बहुत सारे गुजराती हों ताकि स्वयं अपने साथ खाना ले जाने की जरूरत न पड़े। हमारी मित्र आशा, उíमला और हमने दो बार भेलपूरी भी खाई। जब भी खाने को कम पड़ता, वे और सामान निकाल लातीं। चूंकि चढ़ाई ज्यादा नहीं थी इसलिए सब बहुत खुश थे। वस्तुत: हमें इस तरह ज्यादा ऊंचाई पर चढ़ने के लिए तैयार किया जा रहा था। गुजराती टोली गरबा नृत्य करती चल रही थी और हमारे ग्रुप के नारायण स्वामी भजन गाते और नृत्य करते थे। नारायण स्वामी के हाथ में हमेशा एक डफली रहती थी जिसकी वजह से भजन सुनने में बहुत मधुर लगते थे। इस संगीतमय माहौल से प्रेरित होकर घोड़ेवाले और कुली भी उनके साथ सुर मिलाकर फिल्मी गीत गाने लगे। तुरंत स्वामी जी ने उन लोगों को डांटकर चुप करा दिया।

कालापानी कैम्प से थोड़े ही पहले काली मंदिर है। हम पूरे दिन कालापानी में रहे। अधिकतर यात्री अपना सामान ठीक करते रहे क्योंकि फालतू सामान यहीं छोड़कर जाना था। हमने जल्दी से काम पूरा किया और मंदिर की ओर चल पड़े।

ओम पर्वत

अगली सुबह हम भारतीय सीमा के आखिरी पड़ाव, नवीधांग की ओर जा रहे थे। यह एक ऐसा छोटा ट्रैक है जिसे तय करने में चार घंटे लगते हैं। नवीधांग पहुंचने पर ओम पर्वत दिखाई देता है। इसके शिखर पर प्राकृतिक आकार में ú बना हुआ है। मानो किसी ने पहाड़ी पर चढ़कर उसे तराशा हो। जब वहां बर्फ  जम जाती है तो ú साफ दिखाई देता है। जब हम पहुंचने वाले ही थे कि देखा बादल छा गए हैं। लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी क्योंकि हमारे पास नवीधांग में बिताने के लिए पूरा दिन था। वहां पहुंचकर हमने रसना पिया और इस इंतजार में कि ‘ॐ’ दिखाई देगा, हम ओम पर्वत की ओर मुंह करके बैठ गए। हम बादलों के छंटने का इंतजार कर रहे थे और हमारी किस्मत, कि वे छंट भी गए। चारों तरफ प्रसन्नता की लहर दौड़ गई और लोग ओम पर्वत को देखने के लिए एक-दूसरे को बुलाने लगे। सब तसवीरें उतारने लगे। लेकिन एक ही कमी थी-पर्वत पर बर्फ नहीं थी। फिर भी ध्यान से देखने पर हम ‘ॐ’ बना हुआ देख सकते थे। यह सोचकर हमने अपने मन को तसल्ली दी कि वापसी पर शायद बर्फ देख सकें।

दुर्गम चढ़ाई

अब हमें अपने कैमरे की फिल्में देकर रात यहां से दो बजे प्रस्थान करना था। यह थोड़ा कठिन काम था। अंधेरे में टॉर्च हाथ में लेकर निकलना, ठंड भी बहुत ज्यादा थी। यह हमारी यात्रा का सबसे रोंगटे खड़े कर देने वाला समय था। हममें से अधिकतर  लोग घोड़ेवाले के भरोसे थे या जो लोग पैदल चल रहे थे वे रामभरोसे थे या शिवभरोसे। मैं तो हरिराम घोड़ेवाले के भरोसे थी। इस पूरे हिस्से में रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा था और ठीक होगा भी तो हमें दिखाई नहीं दे रहा था। यहां हम पूरी तरह से कुलियों और घोड़ेवालों पर निर्भर थे। एक बार फिर मैंने सोचा कि क्यों यहां आने का प्रोग्राम बनाया। रास्ते में आराम करने का निश्चय किया, जो और भी बुरा था। हम बुरी तरह से भीग गए थे और ठंड से कांप रहे थे। आसपास सिर छिपाने की कोई जगह भी नहीं थी। हम खुले में ही खड़े रहे और ठंड में सिकुड़ते रहे। यह ऐसी बात थी, जो आईटीबीपी को बतानी चाहिए थी। आखिर हर बैच को इस स्थिति से गुजरना पड़ता होगा । साथ ही यह बात भी कि लिपु लेह पास पर शेल्टर क्यों नहीं है, जहां पर कई घंटे इंतजार करना पड़ता है। बीच रास्ते में एक छोटा-सा टेंट अवश्य था लेकिन उसमें इतनी घुटन थी कि जो भी उसमें जाता था तुरंत बाहर निकल आता था। पूरे ट्रैक का यह सबसे दुर्गम रास्ता था। आराम करने का कोई फायदा नहीं था क्योंकि ठंड में अकड़ने से बचने के लिए चलना जरूरी था। बार-बार घोड़े पर चढ़ना और उतरना भी बहुत मुश्किल लग रहा था। ऊंचाई के कारण लोगों को नींद भी आ रही थी। मैं भी घोड़े पर बैठकर ऊंघने लगी थी।

लिपु लेह पास

आखिरकार हम लिपु लेह पास पहुंच ही गए जो समुद्री तल से सत्रह हजार फीट की ऊंचाई पर है। यहां चीन से लौटते हुए बैच से हमारी मुलाकात हुई। दोनों बैचों को चीनवासियों द्वारा निर्धारित समय के अनुसार इस जगह मिलना होता है। दुर्भाग्यवश हम वहां बहुत जल्दी पहुंच गए। हम दूसरी तरफ से सिगनल आने का इंतजार करते रहे, पर कोई सिगनल नहीं मिला। चालीस कांपते हुए यात्री और उतने ही कुली और घोड़ वाले ठंड से सिकुड़ते हुए यही सोच रहे थे कि किस्मत में क्या लिखा है। फिर एक घंटे के बाद आईटीबीपी के डॉक्टर जो हमारे साथ ही थे, ने सोचा कि अगर कुछ देर और हम वहां ठहरे तो दो-चार व्यक्ति तो अवश्य ही बीमार पड़ जाएंगे। तब सबको पीछे लौटने का आदेश मिला। बहुत बुझे मन से हम लोग नीचे उतरने लगे।

दस मिनट ही चले होंगे कि हमें ‘हर-हर महादेव’ का जयघोष सुनाई दिया। हम बहुत उत्तेजित हो उठे और भागते हुए पास की ओर भागे। भाग्यवश आईटीबीपी और केएमवीएन के लोग इस तरह तैनात थे कि हमें उन्हें ढूंढना नहीं पड़ा। ठंड से बच सकें, इसलिए हम ढलान से तेजी से उतरने लगे। भागते हुए हम अपने केएमवीएन, आईटीबीपी और घोड़ेवालों से विदा लेते हुए लिपु लेह पार करके चीन में प्रवेश कर गए। पीठ पर हमारे बैग टंगे थे। हमें यह नहीं पता था कि चीन के लोगों ने हमारे लिए घोड़ों का इंतजाम किया हुआ है। कुछ लोगों ने पैसे देकर घोड़े ले लिए। चीनी गाइड भी हमारे साथ थे। हम लोग इतनी जल्दी में थे कि हमने इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि ग्यारहवां बैच, जिससे हमें मिलना था, निकल रहा है। इस वक्त तो यही दिमाग में था कि किस तरह स्वयं को ठंड से बचाएं इसलिए भागते ही चले जा रहे थे।

राक्षस ताल

एक पहाड़ के दोनों तरफ के दृश्यों में इतना अंतर होगा, मुश्किल था सोचना। जहां हमारी तरफ थे हरे-भरे पहाड़, जिनके नीचे नदी बह रही थी, वहीं तिब्बत के पहाड़ ऐसे लग रहे थे, मानो मिट्टी के ढेर हों जो अब गिरे कि तब गिरे। हां, इनके पीछे स्थित बर्फीली पहाडि़यां बहुत ही सुंदर लग रही थीं। गुरला मान्धाता एक चोटी थी जो बहुत ही भव्य लग रही थी। ऐसा लगा जैसे बर्फ की चादर ओढ़े वह हम लोगों की रक्षा करने के लिए खड़ी है। मानसरोवर पहुंचने से पहले आता है राक्षस ताल। कहते हैं यहां रावण ने तपस्या करके शिवजी से सिद्धि प्राप्त की थी। राक्षस ताल नाम की वजह से कई लोग इसके पानी को छूना भी अपशगुन समझते हैं। वैसे यह है बेहद शांत और खूबसूरत स्थान, जहां से कैलास पर्वत भी साफ नजर आता है।

मानसरोवर

मानसरोवर की परिक्रमा में तीन दिन और दो रातें लगीं। लक्ष्य पर पहुंचकर एक बात का बहुत अफसोस रहा। वह था हमारे चीनी भाइयों का दृष्टिकोण। असभ्य व अशिष्ट होने के साथ-साथ उनकी रहन-सहन की व्यवस्था भी बिलकुल खराब थी। वहां बाथरूम का कोई प्रबंध नहीं था। रसोई में एक ही स्टोव था, जो बहुत खराब था। कई बार तो जलने में इतनी देर हो जाती थी कि लोग सिर्फ इंस्टेंट सूप या नूडल्स खाकर सो जाते थे। परिक्रमा खत्म होने पर अगले दिन मानसरोवर के शुद्ध, शीतल और ठंडे जल में डुबकियां लगाकर सब हवन के लिए तैयार हुए। लोगों की श्रद्धा देखकर दिल भर आया। कुछ लोगों ने कोरे कपड़े पहने। पूजा की सारी सामग्री हमारे पास थी। मैं काफी भावुक हो उठी। अपनों की याद आई। लगा जैसे कि दुनिया को बहुत दूर छोड़ आए और यह कोई दूसरी दुनिया है। महसूस हुआ कि यहां तक पहुंचना काफी मायने रखता है।

कैलास परिक्रमा

इसके बाद आई कैलास परिक्रमा की बारी। पहले दिन हम 6-8 घंटे चले, लेकिन कैलासजी बादलों में छुपे रहे। पर जैसे ही कैम्प पहुंचे, बादल हटे और हम सब देखते रह गए। जैसे-जैसे धूप ढलती गई भगवान शिव का धाम रंग बदलता गया। वह दृश्य बयान करना मुश्किल है। इस परिक्रमा में तिब्बतवासियों की भी आस्था है। वहां के काफी लोग नजर आते हैं, जबकि मानसरोवर की परिक्रमा में कोई नहीं दिखाई देता। एक दंपती तो साष्टांग दंडवत करते हुए परिक्रमा कर रहे थे।

ऐसी यात्रा के बाद महसूस होता है कि कितनी भी कठिन यात्रा हो, ऊपर वाले का हाथ सिर पर हो तो सारी मुश्किलें दूर हो जाती हैं।

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