पहाड़ों के सौंदर्य का रोमांचक सफर

  • SocialTwist Tell-a-Friend

हम लोग लंबे अरसे से काम करते-करते ऊब चुके थे। मानसिक थकान हावी होने लगी थी। गर्मी का मौसम भी हमें उकसा रहा था कि हमें कहीं भ्रमण के लिए जाना चाहिए। अत: हम लोगों ने अपनी मोटरसाइकिलें तैयार कीं और गढ़वाल का रुख किया। इस यात्रा में मेरे तीन और साथी अशोक शर्मा, अजय विसारिया व अजय पटेल थे। हम लोग जब अपने काम से ऊबने लगते हैं और रिचार्ज होने की जररूत महसूस करते हैं तो गढ़वाल, कुमायूं या हिमाचल, जहां भी संभव हो चल देते हैं। इस बार हम कोई विशेष कार्यक्रम या निश्चित गंतव्य तय किए बगैर ही चल पड़े थे। अपनी मोटरसाइकिलों की सर्विस हमने खुद ही की। छोटी-मोटी कमियों को ठीक किया। अपने स्पेयर्स में प्लग, बल्ब, क्लच, केबिल, स्पेयर टयूब, पंचर किट और फुट पंप आदि लिए। जींस जैकेट्स और विंड चीटर्स लिए। स्टिल कैमरा, हैंडी कैम, फिल्म रोल्स, कैसेट्स और बैटरी आदि भी ली और अगले दिन भोर की बेला में रवानगी दर्ज कर दी।

पांडवों ने की स्थापना

सुबह पांच बजे अलीगढ़ से चलकर दोपहर 12 बजे हम आराम से हरिद्वार पहुंच गए। बीच में मेरठ के आगे पुरकायी कस्बे में हमने नाश्ता भी किया। हरिद्वार में हर की पौड़ी पर बैठकर विचार-विमर्श किया कि अब कहां चला जाए। इसके पहले हम लोग बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री आदि स्थानों पर दो-तीन बार हो आए थे। इसलिए तय हुआ कि इस बार तुंगनाथ मंदिर चलें। ऐसा माना जाता है कि पंचकेदार के मंदिरों की स्थापना पांडवों ने कराई थी। केदारनाथ की स्थापना युधिष्ठिर ने कराई थी, तुंगनाथ की अर्जुन ने, मध्यमहेश्वर की भीम, रुद्रनाथ की नकुल तथा कल्पेश्वर की स्थापना सहदेव ने कराई थी।

तुंगनाथ में भगवान शिव के बाहुस्वरूप की पूजा की जाती है। यहां के शिवलिंग का आकार गोलाकार न होकर दोनों ओर भुजाओं का आभास देता है। तुंगनाथ पहुंचने के लिए केदार के मुख्य मार्ग पर पड़ने वाले कुंड से ऊखीमठ होकर चोपता तक सड़क मार्ग है जहां से साढ़े चार किलोमीटर की काफी सीधी चढ़ाई वाला पैदल मार्ग है। यह तय करने के बाद हम लोगों ने गंगा की पावन धारा में स्नान किया और हरिद्वार में ही भोजन कर तुरंत आगे बढ़ चले।

संगम कई धाराओं का

हरिद्वार से ऋषिकेश तक ट्रैफिक अधिक है। मैदानी मार्ग छोड़कर अब पहाड़ों का सुहाना सफर शुरू हो चुका था। पहाड़ी मार्ग शुरू हो जाने से हम सावधानीपूर्वक ड्राइव करने लगे। ऋषिकेश पार करने से पहले हमने गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस से श्रीनगर तथा चोपता के गेस्ट हाउस में फोन से अपने लिए कमरों की बुकिंग करा दी। ऋषिकेश से हम जल्दी ही देवप्रयाग पहुंच गए। फुट हिल्स के हिस्से में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण पहाड़ कई जगह एकदम नंगे लगते हैं। इससे यहां का शानदार दृश्य बिगड़ रहा है। पेड़ कम होने से भूस्खलन की घटनाएं भी बढ़ रही हैं।

देवप्रयाग वह स्थान है जहां एक ओर से भागीरथी की विशाल धारा आ रही है तथा दूसरी ओर से मंदाकिनी और अलकनंदा की संयुक्त धारा आकर वहां संगम करती है। मंदाकिनी और अलकनंदा इससे और ऊपर कर्णप्रयाग पर संगम करती हैं। इस संगम के बाद ही देवप्रयाग से आगे इसे गंगा के नाम से जाना जाता है। संगम का दृश्य अत्यंत मनोहारी है। बीच में घाट और दोनों ओर से आती विपुल जलराशि समुद्र के किनारे होने का भ्रम पैदा करती है। कुछ छायांकन कर हम कर्णप्रयाग की ओर चल पड़े। अब रास्ता ऊंचाई पकड़ने लगा और हम धीरे-धीरे पहाड़ों के भीतरी भाग की ओर बढ़ रहे थे। सूर्य अपनी पूरी आभा बिखेर कर अब अस्ताचल की ओर अग्रसर होने लगे थे। इससे दृश्य और मनोहारी हो चला था। कर्णप्रयाग पर संगम का दृश्य बेहद सुंदर है। एक ओर से मंदाकिनी की चंचल धारा और दूसरी ओर से अलकनंदा का जल, काफी दूर तक दोनों धाराओं का रंग अलग-अलग दिखता है और फिर एकाकार हो जाता है।

पहले पड़ाव पर

आगे यह रास्ता पहले तो बड़ी तेजी से ऊंचाई पकड़ता है। फिर जल्दी ही घाटी का फैलाव बढ़ने लगता है। नदी की धारा भी धीरे-धीरे हमसे दूर हो गई। हम लोग 380 किलोमीटर का सफर तय कर चुके थे और अब श्रीनगर निकट आने वाला था। सड़कें  काफी चौड़ी हैं। मोड़ दूर-दूर हैं। हम लोग रफ्तार बढ़ाकर शाम के करीब साढ़े छह बजे श्रीनगर पहुंच गए। अब हमारा पहला पड़ाव आ चुका था।

श्रीनगर गढ़वाल का बड़ा और महत्वपूर्ण शहर है मात्र 600 मीटर की ऊंचाई पर बसे इस शहर का मौसम काफी गर्म है। गढ़वाल विश्वविद्यालय यहीं है। यहीं के वनस्पति विज्ञान विभाग में हमारे मित्र जगत प्रकाश मेहता पारिस्थितिकी के व्याख्याता हैं। हम लोग पहले तो गेस्ट हाउस पहुंचे। वहां सामान खोलकर रखा और फ्रेश हुए, फिर विश्वविद्यालय जाकर अपने मित्र से मिले। साथ-साथ रात्रिभोज के बाद शीघ्र ही विश्राम हेतु अपने कमरों में जा पहुंचे। अगले दिन जब सभी लोग तैयार हो रहे थे, मैंने मोटरसाइकिलों की जांच की। पहाड़ों के हिसाब से सेटिंग में कुछ फेरबदल की। पेट्रोल आदि भरवा लिया और नाश्ता करके आगे की यात्रा शुरू की।

संकरी होने लगी सड़क

थोड़ा आगे चलते ही मार्ग अधिक सर्पिल मोड़ अधिक गहरे और सड़क संकरी होने लगी। नदी की धारा कहीं तो बेहद तेज दिखती और कहीं चौड़ाई मिलते ही फैलाव लेकर किनारों से टक्कर मारती शोर करती नीचे की ओर जाती दिखाई देती है। कई जगह बीच धारा में पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानें नदी के साथ क्रीड़ा करती हुई सी लगती हैं। जैसे-जैसे मार्ग कठिन होता जा रहा था हमारा आनंद भी बढ़ता जा रहा था। हम लोग बिना किसी कठिनाई के रुद्रप्रयाग पहुंचे। वहां से थोड़ी ही देर में आगे चल पड़े। रास्ता एक बार फिर ढलान लेने लगता है। वहां से जल्दी ही हम कुंड पहुंच गए।

कुंड से आगे का रास्ता दो भागों में बंटा है। यहां से एक मार्ग केदार की ओर जाता है और दूसरा ऊठीमठ, चोपता, मंडल गोपेश्वर चमोली होकर फिर बद्रीनाथ के मुख्य मार्ग से जा मिलता है। हम लोग ऊखीमठ मार्ग पर चल पड़े। कुंड मात्र 670 मीटर पर है और आगे मार्ग बड़ी तेजी से ऊंचाई पकड़ता है। पेड़-पौधे भी उसी गति से बदल जाते हैं। पहले तो बड़े-बड़े पाइन वृक्ष सड़क के दोनों ओर दिखते हैं। फिर देवदार, जूनीपर्स, साल और बुरांस के वृक्ष दिखाई देने लगते हैं। बुरांस के फूलों से यह जंगल लाल बैगनी हो जाता है। धीरे-धीरे पाइन का स्थान देवदार लेने लगते हैं। हम समझ गए कि हम करीब 2000 मीटर की ऊंचाई पर हैं। दृश्य बेहद खूबसूरत हो गया था। हम लोग ऊखीमठ पहुंच चुके थे।

कुछ दृश्य मायावी से

ऊखीमठ पंचकेदारों के प्रतीक चिह्नों वाले मंदिर का स्थान है। सभी केदारों के प्रतीक यहां एक ही मंदिर में पूजे जाते हैं। केदारनाथ का मूल मठ यही है, जिसमें शीतकाल में जब केदार के पट बंद होते हैं पूजा-अर्चना जारी रहती है। यहां गढ़वाल मंडल ने एक उपयुक्त जगह पर अपना गेस्ट हाउस बनाया है, जिसमें हट्स बनी हैं। इनमें रहना बहुत अच्छा लगता है। यहां से सीढ़ीदार खेतों से लेकर हिममंडित चोटियों तक का दृश्य दिखाई देता है। यहां के लोग सीढ़ीदार खेतों में सरसों, गेहूं और धान उगाते हैं। ऊखी मठ पर पीडब्ल्यूडी का मुख्यालय भी है। वहां थोड़ा आगे चलते ही जंगल बेहद घना हो जाता है। दुगलबिट्टा के पीडब्ल्यूडी गेस्टहाउस के आसपास से चोपता तक का सात-आठ किमी का रास्ता इस क्षेत्र का सबसे सुंदर रास्ता है। बेहद खूबसूरत ढलानों पर मखमली मोटी घास देवदार के लंबे शानदार वृक्षों पर बल्लरी, लताओं का जाल, धूप के बावजूद ठंड का एहसास, स्त्रोतों से बहता पानी यहां के दृश्य को मायावी बना देता है। यह दृश्य हमारे 600 किलोमीटर के सफर को सार्थक कर देता है। घुमावदार सड़कें इतनी तेजी से ऊंचाई पकड़ती हैं कि सात-आठ किलोमीटर बाद हम 400 मीटर ऊपर चढ़ जाते हैं। बुरांस के पेड़ हर कहीं छाए हुए हैं। सड़क किनारे सूखी पत्तियां, भांति-भांति की फर्न, विविध वनस्पतियां, महकी हुई हवा ऐसी दृश्य रचना करते हैं कि हम उसमें खो गए और कब चोपता के निकट पहुंच गए, पता ही नहीं चला। चोपता से पहले के अंतिम मोड़ पर पहुंचते ही लगा कि हम स्वप्नलोक में पहुंच गए हैं। सड़क के एक ओर शानदार ढलान है। जिस पर दूर तक हरियाली का साम्राज्य है। ऐसे ही सुरम्य वातावरण में एक ढलान के ऊपर गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस है। गेस्ट हाउस से हनुमान चोटी, बंदर पूंछ, यमुनोत्री, गंगोत्री, ग्लेशियर, बद्रीनाथ, चौखंबा आदि के अनुपम दृश्य दिखते हैं। अब हमारा मुख्य पड़ाव आ गया था।

ढलान पर हरी घास

हम लोग सामान खोलकर तुरंत कमरों से बाहर आ गए और खाने का ऑर्डर देकर वहीं ढलान पर लेटकर दृश्य का आनंद लेने लगे। खाना खाकर हम सभी मंडल की ओर सड़क पर तीन-चार किलोमीटर पैदल टहलते निकल गए। सड़क बेहद संकरी है। एक ओर सीधा पहाड़ है और दूसरी ओर कम से कम 200 मीटर गहरी खाई है जो पेड़ों से भरी हुई है। हम लोग लौटकर गेस्ट हाउस के आगे कुर्सियां लेकर बैठ गए और सूर्यास्त तक वहीं जमे रहे। अंधेरा होने पर खाना खाकर कमरों में चले गए। चोपता 2900 मीटर की ऊंचाई पर है। अत: रात बेहद ठंडी थी।

अगले दिन सुबह जल्दी उठकर हम लोग तैयार होकर साढ़े पांच-छह बजे तक तंुगनाथ मंदिर पैदल मार्ग पर पहंुचे। कुछ लोग घोड़ों की मदद ले रहे थे। परंतु हम लोग पैदल ही आगे बढ़ गए। पत्थरों से 8-10 फुट चौड़ी पगडंडी बनाई गई है। एकदम खड़ी चढ़ाई वाला यह मार्ग बेहद खूबसूरत है। हरे-भरे ढलानों पर घास उगी है। पेड़ जल्दी ही छोटे होने लगते हैं। एक-ढेड़ किलोमीटर पार करते-करते हमें थकान के कारण कई बार रुकना पड़ा। परंतु अब हमारे फेफड़े नई परिस्थिति के अनुकूल हो चले थे। यहां चरागाह बुग्याल कहलाते हैं, जिनके संरक्षण के प्रति यहां के लोग विशेष संवेदनशील हैं और आगे पेड़ झाडि़यों में बदलने लगते हैं। कुछ और ऊंचाई पर पेड़ समाप्त हो जाते हैं, केवल झाडि़यां और क्रीपर ही रह जाते हैं। यह 3300 मीटर की ऊंचाई का परिचायक है। इसे टिंबर लाइन भी कहते हैं।

कई स्तर पहाड़ों के

इसके आगे जमीन पर कई तरह के फूल दिखने लगे। कहीं-कहीं तो ये छोटे-छोटे फूल इतने अधिक हैं कि ढलान हरे कम और पीले-नीले अधिक नजर आते हैं। हम लोग ढलानों पर शॉर्टकट लगाते, रुकते-चलते आगे बढ़ते गए। 3500 मीटर की ऊंचाई पर मौसम विभाग की एक प्रयोगशाला रास्ते से थोड़ा हटकर बनी है। यह लोग वर्ष में केवल दो माह यहां कार्य करते हैं। यहां तक कि चार-पांच माह जब यह स्थान बर्फ से ढका रहता है तब यह लोग चार-पांच माह का जरूरी सामान लेकर यहीं जमे रहते हैं। यहां से पहाड़ों के सात-आठ स्तर दिखाई देते हैं, जो बर्फ  से ढकीचोटियों पर खत्म होते हैं। ढलानों का गहरा हरा रंग, चट्टानी पहाड़ों का गहरा सलेटी रंग और हिम से ढकी चोटियों का सफेद रंग बेहद शानदार दृश्य रचते हैं। इसे देखकर एहसास होता है कि स्वर्ग की कल्पना शायद ऐसे ही दृश्यों से प्रभावित है।

रावण ने किया जहां तप

शीघ्र ही हम मंदिर पर पहुंच गए। मंदिर का प्रांगण काफी बड़ा है। मुख्य मंदिर काफी ऊंचा है और विशिष्ट पहाड़ी शैली में बना है। जिसमें पत्थरों को एक के ऊपर एक बिना मसाले के जोड़ा जाता है। एक पत्थर का कुछ भाग दूसरे पत्थर में फंसाया जाता है। इस मंदिर का निर्माण महाभारतकालीन है। परंतु वर्तमान स्वरूप आठवीं सदी में जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा पुनरुद्धार के बाद का है। मुख्य मंदिर में बाहुस्वरूप शिवलिंग हैं तथा अनेक सहायक मंदिर भी हैं। पीछे भैरों बाबा का मंदिर और श्राद्धकर्म के लिए बड़ी शिला है। चारधाम यात्रा जब पैदल की जाती थी तब यह मंदिर उस मार्ग का मुख्य पड़ाव था। अब सड़क मार्ग बन जाने से यहां वही लोग आते हैं जो यहीं के लिए आते हैं। इसका मूल मठ मक्कूमठ है। यहां रावण द्वारा तप करने का भी उल्लेख मिलता है। 3750 मीटर पर स्थित इस मंदिर के दाई ओर एक मार्ग क्षेत्र की सबसे ऊंची चोटी चंद्रशिला (4000 मीटर) तक जाता है। हम उसी ओर बढ़ चले। यह रास्ता एकदम खड़ी चढ़ाई वाला है। मात्र एक से डेढ़ किलोमीटर के इस रास्ते पर हमें 45 मिनट लगे। यहां से हिमालय की अधिकांश हिमाच्छादित चोटियां दिख रही थीं। क्योंकि दिन एकदम साफ था। यह दृश्य देखकर एक बार तो हम सभी ठगे से रह गए। दृश्य वास्तव में कल्पनातीत था। दुर्भाग्यवश कैमरे में कुछ कमी के कारण हम चित्र नहीं ले सके। ऊपर हमें देहरादून से आए कुछ छात्र मिले। काफी देर तक हम इनसे बातें करते हुए दृश्य का आनंद लेते रहे। दोपहर बाद नीचे उतरे। मंदिर में अपने पुरोहित श्री महेशानंद मैथाणी जी की मदद से पूजा-अर्चना की और शाम से पहले वापस चोपता आ गए। पूरी शाम ढलान पर लेटे-लेटे खाते-पीते शाम की धूप को पहाड़ों की चोटियों को अलग-अलग रंगों में रंगते देखते, अंतिम क्षण तक सूर्यास्त के शानदार दृश्य का आनंद लेते रहे।

विविधता वनस्पतियों की

अगली सुबह थोड़ा सामान लिया और मोटरसाइकिल लेकर मंडल की ओर आ गए। वहां स्थित ग्रामीण बैंक के स्टाफ से मुलाकात की। मोटरसाइकिल वहीं छोड़ी और अत्रिमुनि आश्रम तथा सती अनुसुइया मंदिर के पैदल मार्ग पर बढ़ चले। मंडल लगभग 1800-1900 मीटर पर है और चोपता से तीखी ढलान लगभग पूरे मार्ग पर है। मंदिर की दूरी सात-आठ किलोमीटर है। थोड़ा आगे चलते ही वनस्पतियों की विविधता देखने को मिलने लगती है। जंगल इतना घना है कि 11-12 बजे की धूप भी भूमि पर मुश्किल से पहुंचती है। हम लोग 5-6 किलोमीटर आसानी से चलते हुए पहंुच गए। वहां कभी ऋषि अत्रि का प्रसिद्ध आश्रम था। अब यहां प्रतीक स्वरूप केवल एक गुफा है। पास में ही एक झरना है। उसके पीछे से गंगा की एक धारा की परिक्रमा की जा सकती है। परंतु पत्थरों पर काई के कारण काफी चिकनाहट थी। परिक्रमा करके हम लोग आगे चल पड़े। जल्दी ही हम लोग मंदिर पर जा पहंुचे। यह मंदिर सती अनुसुइया के यहां तपस्या करने के कारण बनाया गया है। मंदिर निर्माण की दृष्टि से बहुत पुराना नहीं लगता, परंतु यहां स्थापित मूर्तियां काफी पुरानी हैं। स्थानीय लोग इसकी देखभाल करते हैं। इससे आगे का मार्ग रुद्रनाथ की ओर जाता है, पर रास्ता लंबा है और एक दिन में पहुंच कर वापसी संभव नहीं है। अत: हमने यहीं से वापस लौटने का निर्णय किया। इस रास्ते पर जोंकें बहुत हैं। अभी बरसात शुरू नहीं हुई थी, इसके बावजूद जोकों को अपने पैरों से हटाने के लिए हमें नमक और माचिस का उपयोग करना पड़ रहा था। हम लगातार चलते हुए 5 बजे तक वापस मंडल आ गए। यहां कुछ देर रुककर वापस चोपता आ गए।

एक ताल देवताओं का

अगले दिन मोटरसाइकिल लेकर हम लोग ऊखी मठ की ओर चले। 10-12 किलोमीटर पर एक संपर्क मार्ग सारी ग्राम की ओर जाता है। आज हमारा लक्ष्य इस क्षेत्र की बेहद खूबसूरत और अपेक्षाकृत कम ऊंचाई पर स्थित देवरिया झील थी। इसके बारे में हमें पहले भी बताया गया था। सारी ग्राम संपर्क मार्ग पर 7-8 किलोमीटर है, जहां एक बस निकलने जितनी चौड़ाई की सड़क निर्माणाधीन है। मार्ग असमतल, कम चौड़ा और दुर्गम है। हम लोग सारी ग्राम जल्दी ही पहुंच गए। गांव की एक दुकान पर गेस्ट हाउस के एक व्यक्ति का परिचय देकर मोटरसाइकिलें खड़ी कीं और पैदल मार्ग पर बढ़ चले। सारी गांव 2400-2500 मीटर पर स्थित है। देवरिया ताल का मार्ग लगभग दो-ढाई किलोमीटर है, पर चढ़ाई इतनी खड़ी है कि कई जगह रुकना पड़ा। हम एक-सवा घंटे में ताल के नजदीक पहंुच गए। अंतिम ऊंचाई से ताल तक ढलान मोटी घास से ढका है। ताल का दृश्य अनुपम है। सामने हिमाच्छादित चोटियां इतनी पास हैं कि लगता है कि हाथ बढ़ाकर हम उन्हें छू सकते हैं। विशेषकर चौखंबा इतना खूबसूरत लगता है कि हम लोग ठगे से रह जाते हैं। ताल में हिमशिखरों की छाया इतनी सजीव है कि ऐसा लगता है कि एक पर्वत श्रृंखला पानी में भी है। इसका नाम देवरिया ताल एकदम ठीक रखा गया है। कहते हैं यहां देवता वास करते हैं और चौखंबा उनका मंत्रणास्थल है। हम लोग देवरिया ताल के सौंदर्य में खो गए।

ताल के चारों ओर एक परिक्रमा मार्ग है, जिस पर चलते हुए हम ताल के दूसरी ओर पहंुचे। वहां जंगल विभाग का एक पुराना गेस्ट हाउस जीर्ण अवस्था में है। इधर-उधर घूमकर हम ताल के एक किनारे ढलान पर लेट गए और संगीत का आनंद लेते खाते-पीते रहे। दोपहर बीतने का एहसास हमें तब हुआ जब हवा में ठंड बढ़ने लगी। हम लोगों ने वापसी की तैयारी की। उस समय ताल के आसपास कुछ पहाड़ी पौधों के फूल अपने विशेष आकार के कारण हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे थे। इसके बाद हमने नीचे की राह पकड़ी। ऊपर चढ़ते समय फेफड़ों में सबसे अधिक कष्ट हो रहा था, वहीं नीचे जाते समय घुटनों में।

वापस लौटते हुए

हम लोगों ने गांव पहुंचकर उसी दुकान पर दाल-चावल खाये जहां मोटरसाइकिलें खड़ी की थीं। थोड़ी देर आराम के बाद वापस चोपता आ गए। गेस्ट हाउस पहंुचकर सामान व्यवस्थित किया। फिर बाहर कुर्सियां डालकर देर तक अन्य यात्रियों से बातें करते रहे। घर से निकले पांच दिन हो चुके थे, अब हम वापसी पर विचार कर रहे थे। 30-35 किलोमीटर की ट्रेकिंग के बाद फेफड़े खुल गए थे। हम मानसिक रूप से रिचार्ज हो चुके थे। क्योंकि हम दैनिक रुटीन से तो दूर थे ही, अखबार टीवी आदि से भी दूर थे। बस खा रहे थे, घूम रहे थे और आराम कर रहे थे। हरियाली का सकारात्मक असर हम पर खूब पड़ा था।

अगले दिन सुबह ही हमने चोपता को अलविदा कहा और वापसी की राह पकड़ी। दिन भर चलकर बिना किसी व्यवधान के हरिद्वार आ गए। शाम को भी यहां की गर्मी देखकर तय हुआ कि हम लोग रात में ही यात्रा करेंगे। हरिद्वार से आगे एक ढाबे पर खाना खाकर 9 बजे तक झपकी लेते रहे। फिर वहां से चल पड़े और रात भर चलकर चार बजे सुबह वापस अलीगढ़ पहुंच गए। इस तरह एक बेहद रोमांचक यात्रा का समापन हुआ।

VN:F [1.9.1_1087]
Rating: 9.0/10 (1 vote cast)
पहाड़ों के सौंदर्य का रोमांचक सफर, 9.0 out of 10 based on 1 rating



Leave a Reply

    * Following fields are required

    उत्तर दर्ज करें

     (To type in english, unckeck the checkbox.)

आपके आस-पास

Jagran Yatra