लाहौल जहां पर्वतों पर झुकता है आसमान

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लाहौल को चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ‘लू यू लो’ और महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘देवताओं का देश’ कहकर पुकारा था। तिब्बती भाषा में लाहौल को ‘दक्षिण देश’ कहा जाता है। वैसे गरझा और ल्हो-युल भी लाहौल के नाम हैं। 2,225 वर्ग मील में फैली लाहौल घाटी देश के पश्चिमोत्तर भाग में कुल्लू, चंबा और लद्दाख की सीमाओं का संगम  है। इसकी आबादी करीब 35 हजार है। जहां हिमाचल प्रदेश की औसत आबादी पचास व्यक्ति प्रति किमी. है, वहीं लाहौल घाटी की दो व्यक्ति प्रति किमी. है। चारों तरफ से दर्रा, हिमखंडों और आसमान छूते शैल शिखरों से घिरी यह घाटी हरियाली से भरपूर है। पर्वतों पर अठखेलियां करते वृक्षों से लिपटते और देखते ही देखते धरती पर बिछ जाते बादल अलौकिक नजारा प्रस्तुत करते हैं। कहीं-कहीं जड़ी-बूटियों की सोंधी-सोंधी महक और बर्फ के बादलों के सौंदर्य की रंगत देखते ही बनती है, तो कहीं पहाड़ों पर बने बौद्ध विहार और मंदिरों में धार्मिक गीतों की सुरलहरियां जादुई अनुभूति से भर देती हैं।

रोचक है इतिहास

इस घाटी का सौंदर्य जितना नयनाभिराम है, उतना ही रोचक है यहां का इतिहास। 17वीं शताब्दी के उत्तरा‌र्द्ध में लद्दाख साम्राज्य से अलग होने के बाद लाहौल कुल्लू के मुखिया के हाथों में चला गया। सन् 1840 में महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौल और कुल्लू को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया तथा सन् 1846 तक शासन किया। सन् 1846 से 1940 तक यह क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा। सन 1941 में लाहौल स्पीति को एक उप तहसील बनाकर कुल्लू उपमंडल से जोड़ दिया गया। 1960 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने लाहौल स्पीति को पूरे जिले का दर्जा दिया और 1966 में पंजाब राज्य के पुनर्गठन के बाद लाहौल स्पीति जिले का हिमाचल प्रदेश में विलय हो गया।

लाहौल के लिए रास्ता कुल्लू जिले के रोहतांग दर्रे से होकर जाता है। सफर सेबों की घाटी कुल्लू से शुरू होता है। कुल्लू कई विशेषताओं का संगम है। चाहे दशहरे का जिक्र चले, या शालों-टोपियों का या फिर बढि़या सेबों का, कुल्लू का नाम सहज ही जुबान पर आता है। लोकगीतों और नृत्य के लिए भी यह घाटी मशहूर है। कुल्लू में एक रात पड़ाव डालकर अगली सुबह हमने रोहतांग के लिए कूच किया। मिनी बस में हम बीस पत्रकार साथी थे। मुझे छोड़कर बाकी सभी पत्रकार मध्य प्रदेश विधान सभा की प्रेस गैलरी के सदस्य थे। सभी इस रोमांचक स्थल की कल्पनाओं में डूबे थे। पहले हम मनाली पहुंचे जो कुल्लू से 40 किमी दूर है और पर्यटन के लिहाज से शिमला के बाद हिमाचल का दूसरा लोकप्रिय स्थल है। मनाली से रोहतांग का सफर प्राकृतिक दृश्यावलियों से भरपूर है और सर्पीली बल खाती सड़कों से गुजरते हुए सैलानी रोमांच से भर उठता है। ब्यास नदी हमारे साथ-साथ चलती है, हमारा पथ प्रदर्शन करती हुई। कभी इस नदी की धारा संकरी हो जाती है और कभी यह चौड़ी घाटी में फैल जाती है।

पहाड़ों पर फिसलती खूबसूरती

सड़क से गुजरते हुए अचानक आगे आता है राहला जल प्रपात। 3078 फीट की ऊंचाई से उतरते इस जल प्रपात को देखकर लगता है जैसे पहाड़ों पर खूबसूरती फिसलती जा रही हो। इस खूबसूरती को कैमरे में कैद करके हम आगे बढ़े। झरनों और हिमाच्छादित पर्वतमालाओं को लांघते हुए हमने कोठी नामक जगह पर पड़ाव डाला। यहां की सुंदरता अवर्णनीय है। जहां दृष्टि डालें चांदी की तरह चमकते पहाड़ नजर आते हैं। बर्फ से भरा सोलंग नाला भी यहीं है। गर्मियों में बर्फ के खेलों का आयोजन भी यहीं होता है। यहां बौद्ध धर्म का प्रभाव भी रहा है। कई चट्टानों पर बौद्ध मंत्र ‘ओम मणि पद्मे हुम’ खुदे हुए देखे जा सकते हैं। कोठी के आगे गुलाबा एक खूबसूरत पड़ाव है। उसके आगे करीब साढ़े तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित मढ़ी बर्फीली पर्वतमालाओं से घिरी सुंदर चरागाह है। हर साल बड़ी संख्या में पर्यटक यहां पहुंचते हैं। लेकिन ज्यों ही शीत ऋतु आरंभ होती है मढ़ी वीरान होने लगती है। कहा जाता है कि जब पांडव अपनी मां कुंती के साथ यहां विशाल पर्वतों को लांघ रहे थे तो कुंती थककर चूर हो गई। उन्होंने भीम से कहा कि वह उन्हें किसी समतल जगह पर ले जाकर बैठा दें। भीम ने चारों और दृष्टि दौड़ाई। ऊंचे पर्वतशिखरों के बीच कोई समतल जगह नहीं दिखी तो भीम ने एक पर्वत पर घूंसा दे मारा और उसे एक समतल मैदान में तब्दील कर दिया। रोहतांग जाने वाले घुम्मकड़ों के लिए मढ़ी से बढ़कर कोई आरामदायक पड़ाव नहीं है।

मौत का घर

मढ़ी के बाद आता है रोहतांग। यह एक ऐसा स्थान है जिसके साथ सदियों का इतिहास जुड़ा है। कश्मीर के राजा ललितादित्य ने रोहतांग की गोद में कश्मीर-कन्नौज शैली के कई मंदिर बनाए थे। वक्त के थपेड़ों से मंदिर तो ध्वस्त हो गए, पर इतिहास में इनका विवरण आज भी दर्ज है। ह्वेनसांग ने भी रोहतांग से होते हुए कुलूत प्रदेश यानी कुल्लू घाटी में प्रवेश किया था। कुल्लू और चंबा के राजाओं के बीच एक भीषण लड़ाई रोहतांग पर लड़ी गई थी जो करीब दस वर्ष तक चलती रही। समुद्रतल से 13050 फुट की ऊंचाई पर स्थित रोहतांग एक ऐसा स्थल है जहां पूरे साल बर्फ जमी रहती है। रोहतांग शब्द का अर्थ लाहौली भाषा में ‘लाश का घर’ या ‘मौत का मैदान’ होता है। रोहतांग दर्रे को दुनिया का सबसे खतरनाक दर्रा माना जाता है। हालांकि ऋषि-मुनियों की नजर में यह दुनिया का सबसे शांत स्थल रहा है। महर्षि वेदव्यास ने यहीं तपस्या की थी। महाभारत काल में अर्जुन ने भी यहीं इंद्रकील पर्वत पर तप किया था। रोहतांग पांडवों के स्वर्गारोहण का पथ भी रहा है। पौराणिक कथाओं में जिन विशाल पर्वतों भृग तुंग, इंद्रासन और देऊ का टिब्बा का उल्लेख आया है, वे सभी यहीं स्थित हैं। कई विशाल हिमनदों को समेटे यह स्थल बर्फीला रेगिस्तान नजर आता है। जिधर नजर डालें बर्फ ही बर्फ, हरियाली के कहीं दर्शन तक नहीं। इस दर्रे पर हमेशा बर्फीली हवाएं चलती रहती हैं और वह भी इतनी तेज कि राह चलते आदमी को उड़ा दें। दोपहर बाद तो इस दर्रे को पार करना अत्यंत जोखिम का कार्य है। न जाने आज तक कितने व्यक्ति इन बर्फीले तूफानों का निशाना बन चुके हैं। सर्दियों में तो यहां का तापमान बीस डिग्री तक नीचे गिर जाता है।

नजरें सहसा सड़क किनारे बने स्मारक पर जा टिकती हैं जिस पर ये पंक्तियां खुदी हैं, ‘जब आप घर वापस जाएं तो लोगों को यह अवश्य बताएं कि आपके भविष्य के लिए हमने अपने वर्तमान की बलि चढ़ा दी।’ ये पंक्तियां उन मजदूरों की याद में लिखी हैं, जिन्होंने 1962 में चीनी हमले के बाद दुनिया के इस सबसे ऊंचे मनाली-लेह सड़क मार्ग के निर्माण में अपने प्राणों की आहुति दी थी। उनकी कुर्बानी की बदौलत ही कुल्लू घाटी को लाहौल घाटी से सड़क द्वारा जोड़ा जा सका है। इससे पहले लेह लद्दाख को शेष भारत से जोड़ने वाले केवल एक सड़क मार्ग श्रीनगर कारगिल लेह मार्ग में अत्यधिक भूस्खलन के कारण सड़क पर वाहनों की कतारें लग जाती थीं जबकि मनाली लेह मार्ग पर वर्षा नाम मात्र होती है। अत: भूस्खलन का खतरा नहीं है।

प्रकृति का मायावी संसार

पिछले कुछ वर्षो से रोहतांग एक पर्यटनस्थल के रूप में विकसित हो रहा है, लेकिन यहां अभी तक विश्रामगृह की सुविधा भी नहीं है। गर्मियों में तो सैलानियों की खूब भीड़ रहती है, लेकिन सíदयों में सन्नाटा छा जाता है। जून से सितंबर तक चार महीने रोहतांग आबाद रहता है। गाडि़यों की चिल्लपों से पहाडि़यां गूंजने लगती हैं। कुछ साहसी लोग तो स्कूटर-मोटर साइकिलों पर यहां आ पहुंचते हैं। यही नहीं, गर्म कपड़े किराये पर देने वाले भी आगे-पीछे घूमते नजर आते हैं। अब तो नवविवाहित जोड़े भी यहां आने लगे हैं। गर्मियों में टैंट कालोनी भी लग जाती है। सैलानियों की खिदमत के लिए नेपाली मजदूर भी यहां डेरे लगा लेते हैं। रोहतांग दर्रे पर टहलने का निराला ही लुत्फ है। यहां अकेलापन नहीं सताता। प्रकृति ने एक ऐसा मायावी संसार यहां रचा है कि पहाड़ों की भूलभुलैया में खो जाने को जी चाहता है। इन पहाड़ों के पीछे क्या है? पत्रकार बंधु जिज्ञासा से भरे थे। हमारी गाड़ी का चालक, जो इसी इलाके का रहने वाला था और गाइड की भूमिका भी निभा रहा था, ने रोहतांग दर्रे के बारे में एक रोचक लोककथा सुनाई। कथा के अनुसार वर्षो पहले यहां एक विशाल पर्वतमाला थी, जो हमेशा बर्फ की सफेद चादर में सिमटी रहती थी। कोई नहीं जानता था कि उस पार क्या है? कुछ साहसी व्यक्ति जिन्होंने यह पता लगाने की कोशिश की थी या तो ठंड से मर गए या फिर निराश वापस लौट आए। इस पर्वतमाला के उस पार लाहौल में रहने वाले निवासियों को हवाओं और पक्षियों ने बताया कि पर्वतमाला के उस पार बड़ा सुहाना संसार है। लोगों ने उस पार जाने के लिए राह तलाशने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे। हार कर उन्होंने भगवान शिव का स्मरण किया। लेकिन भगवान को प्रसन्न न होते देख एक कुंवारी कन्या की बलि दी गई। उसका शरीर व आत्मा लेकर एक पुरोहित भगवान शिव के पास पहुंचा और पूछा कि क्या सचमुच लाहौल के लोगों को यह पर्वतमाला लांघने की अनुमति नहीं दी जाएगी? आखिर भक्तों की अभ्यर्थना के समक्ष भगवान ने अपनी छड़ी उठाई और पर्वत पर प्रहार करने लगे। एक भयानक झंझावत उमड़ा। तेज हवाएं चलने लगीं और पर्वतमालाएं डोलने लगीं। कई विशालकाय चोटियां धूसरित हो उठीं। चारों ओर अंधकार व खामोशी छा गई। सुबह जब लोग उठे तो यह देखकर दंग रह गए कि विशालकाय पर्वतमाला का स्थान मीलों फैले दर्रे ने ले लिया था। यही दर्रा लाहौल घाटी का प्रवेश द्वार बन गया।

लाहौल घाटी में रोहतांग दर्रे के बारे में एक और लोककथा है। तिब्बत का राजा ग्योयो ग्यासर जादुई शक्तियों का स्वामी था और नित नये देश जीतने की सनक उस पर सवार रहती थी। एक बार अपने उड़ने वाले घोड़े पर सवार होकर ग्योयो ग्यासर लाहौल घाटी में रवोकसर के पास आ पहुंचा। तब रोहतांग दर्रे का अस्तित्व नहीं था। एक लंबी व बहुत ऊंची पर्वत श्रृंखला कुल्लू और लाहौल के बीच थी। इसके पीछे क्या है, यह जानने की इच्छा एक सनक का रूप धारण कर गई और ग्योयो ने जादुई छड़ी से इस श्रृंखला को तहस-नहस कर दिया। इन श्रृंखलाओं के धूल धूसरित होते ही एक दर्रा अस्तित्व में आ गया जिसे बाद में रोहतांग के नाम से जाना गया। इस दर्रे को कुलांत पीठ का अंत भी माना जाता है।

गगन चूमते शिखर पर्वत के

रोहतांग दर्रे को पार करते ही लाहौल घाटी शुरू हो जाती है। रोहतांग से सात किमी. नीचे उतर कर कई घुमावदार मोड़ों को तय करते हुए ग्राम्फू नामक स्थल आता है। यहां से स्पीति घाटी के लिए दायीं ओर से और लाहौल घाटी के लिए बायीं ओर से रास्ता जाता है। ग्राम्फू में हमारा अगला पड़ाव था। यहां लाहौल का ही एक व्यक्ति अपना होटल चलाता था। उसने लाहौल घाटी का पूरा नक्शा हमारे सामने खींच दिया। लाहौल घाटी की झीलों, मंदिरों, मठों और रीति-रिवाजों के बारे में उसने बड़ी महत्वपूर्ण और हैरतअंगेज जानकारियां हमें दीं। इन जानकारियों की तफसील इतनी रोचक थी कि भोजन के तुरंत बाद ही हम आगे चल पड़े।  रवोकसर वैसे तो लाहौल घाटी का छोटा सा गांव है लेकिन पहाड़ी के बीच धंसे इस गांव की खूबसूरती बेमिसाल है। दूर-दूर तक जहां भी निगाह दौड़ाएं गगनचुंबी पर्वत दिखते हैं। लगता है जैसे आसमान पर्वतों से गुफ्तगू कर रहा हो। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई 10,500 फुट है। रवोकसर में हमने इंद्रधनुष का अद्भुत नजारा देखा। यहां तेज ठंडी हवाएं चलती रहती हैं और इन हवाओं ने हमें ठिठुरने पर मजबूर कर दिया। रवोकसर से करीब बीस किमी. आगे गोंदला गांव है। गोंदला के ठाकुर शासकों का किलानुमा मंदिर दूर से दिखने लगता है। गोंदला के पर्वतों की सुंदरता भी नयनाभिराम है। यहां सरकारी विश्राम गृह भी है। गोंदला से दस किमी. के फासले पर तांदी है। यहां चंद्रा व भागा नदियों का संगम होता है। लोकगाथा के अनुसार चंद्रा और भागा दोनों प्रेम करते थे। चंद्रा चंद्र देवता की पुत्री थी और भागा सूर्य देवता का पुत्र। उनका प्रेम जब प्रगाढ़ हो चला तो उन्होंने विवाह का निर्णय लिया। देवताओं ने आपत्ति जताई तो दोनों ने धरती पर आकर विवाह करने की ठानी और स्वर्ग से जलधाराओं के रूप में बह चले। बारालाचा दर्रे पर उतरी इन धाराओं ने विपरीत दिशाओं से होते हुए लाहौल घाटी के किसी विस्तृत स्थल पर संधि का निश्चय किया। तांदी नामक स्थल पर पहंुच कर दोनों जलधाराएं एक-दूसरे में समा गई और इस तरह चंद्रा व भागा का अलौकिक विवाह संपन्न हुआ। यहीं से दोनों नदियां मिलकर चंद्रभागा कहलाने लगीं। लंबे सफर के बाद जब यह नदी कश्मीर पहंुचती है तो इसका नाम चिनाब हो जाता है। फिर यह अखनूर से होती हुई पाकिस्तान जाकर दरिया-ए-सिंध में मिल जाती है। तांदी में चंद्रभागा के संगम का दृश्य इतना मनोहारी है कि निगाहें हटाए नहीं हटतीं। बिना कोलाहल किए पन्ने सा पारदर्शी जल हमारे सामने फिसलता चला जाता है। लाहौलवासियों के लिए यह नदी श्रद्धा व आस्था की प्रतीक है और कई मान्यताएं इससे जुड़ी हैं। तांदी में ही बौद्धों के प्रसिद्ध गुरु घंटाल का गोंपा भी बना है। पास ही एक चट्टान पर बौद्ध मंत्र ‘ओम मणि पदमे हुम’ खुदा था।

अनोखा कला संसार मंदिर में

तांदी से एक सड़क पट्टन घाटी होकर उदयपुर तक जाती है। उदयपुर से एक सड़क पांगी घाटी की तरफ मुड़ जाती है। उदयपुर खूबसूरत कस्बा है। यहां स्थित मृकुला देवी मंदिर खास तौर से दर्शनीय है। मंदिर बाहर से देखने पर साधारण घर जैसा लगता है, लेकिन इसके भीतर एक ऐसा अनोखा कला संसार है जिसे देख कर कलाप्रेमी अभिभूत हो उठते हैं। कश्मीरी कन्नौज शैली में बने इस मंदिर के भीतर देवदार के शहतीरों और तख्तों पर खुदी मूर्तियां बिल्कुल सजीव लगती हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सातवीं शताब्दी में चंबा के राजा मेरूवर्मन ने करवाया था। कुछ विद्वान इसे कश्मीर के राजा अजय वर्मन और राजा ललितादित्य द्वारा निर्मित बताते हैं। मंदिर में लकड़ी की दीवारों पर एक ओर महाभारत के दृश्य हैं और दूसरी तरफ रामायण के प्रसंग। शहतीरों पर बौद्ध इतिहास के प्रसंग भी चित्रित हैं। राजा बलि द्वारा वामन को धरती दान और सागर मंथन आदि पौराणिक गाथाओं का भी प्रभावशाली चित्रण किया गया है। कुछ चित्रों में गंधर्वो को योग मुद्राओं व अप्सराओं को नृत्य मुद्रा में दर्शाया गया है।

उदयपुर गांव के आसपास कई प्राकृतिक झरने हैं, जिन्हें देखकर सैलानी आनंदित हो उठते हैं। सर्दियों में तो बर्फबारी के कारण यहां कोई सैलानी नहीं आता, पर रोहतांग दर्रे के खुलते ही यहां मृकुला देवी मंदिर की अद्भुत कलाकृतियां देखने के लिए देश भर के कलाप्रेमी सैलानियों का तांता लग जाता है। यहां के लोग खुले दिल से सैलानियों का स्वागत करते हैं। हिमाचल के जनजातीय क्षेत्रों में जबसे सरकार ने पर्यटन को प्रोत्साहन देना शुरू किया है और ये सीमांत क्षेत्र विदेशियों के लिए भी खोल दिए हैं, तब से यहां घुम्मकड़ों की चहलकदमी बढ़ गई है।

शिखर शैली का अकेला मंदिर

उदयपुर के विश्रामगृह में हमने रात बिताई। वहां चौकीदार काफी दिलचस्प आदमी था। उदयपुर के जनजीवन के बारे में उससे काफी बातें हुई। सुबह हमने त्रिलोकीनाथ के लिए कूच किया जो उदयपुर से पांच किमी. के फासले पर है। त्रिलोकीनाथ वास्तव में एक मंदिर का नाम है जो तुंदे नामक गांव में स्थित है लेकिन इस मंदिर की मान्यता और ख्याति इतनी है कि लोगों ने इस गांव का नाम ही त्रिलोकीनाथ रख दिया है। इसकी स्थापना सन् 1041 में बसौली राजघराने के राजा त्रिलोकीदेव ने की थी। त्रिलोकीनाथ मंदिर समूची लाहौल घाटी का एकमात्र ऐसा मंदिर है जो शिखर शैली में बना है और हिंदुओं व बौद्धों का सांझा देवस्थल है। यह मंदिर कश्मीर कन्नौज शैली का प्रतिनिधित्व करता है, जो कश्मीर के राजा ललितादित्य (725-746) के शासनकाल में फली-फूली। इस मंदिर में प्रतिष्ठित संगमरमर की अवलोकितेश्वर मूर्ति के ऊपर भगवान बुद्ध ध्यानमग्न बैठे हुए हैं। यह भी मान्यता है कि इस मूर्ति की स्थापना महाराजा हर्षवर्धन ने की थी। हिंदू और बौद्ध मत के अनुयायी भारत के कोने-कोने से आकर यहां पूजा करते हैं। इस मूर्ति के बाएं हाथ की कनिष्ठा अंगुली टूटी हुई है और दाहिनी टांग पर तलवार के वार का चिह्न दिखता है। कहा जाता है कि 1672 में कुल्लू के राजा विधि सिंह ने त्रिलोकीनाथ पर आक्रमण करके इस मूर्ति को उठवा कर अपने राज्य में ले जाने की कोशिश की थी। तब यह मूर्ति इतनी भारी हो गई थी कि आक्रमणकारी सैनिक काफी प्रयास के बाद भी इसे नहीं उठा सके थे। तब एक सैनिक ने क्रोध में अपनी तलवार से इस मूर्ति पर प्रहार किया था जो अब भी दिखता है।

बौद्ध लोग अवलोकितेश्वर को दया और करुणा का देवता मानते हैं। प्रतिमा की छह भुजाएं है, जिनमें क्रमश: अक्षयमाला, त्रिशूल, सर्प और मंगल कलश हैं। एक भुजा अभय मुद्रा में है जबकि दूसरी वरद मुद्रा में। मूर्तिस्थल के द्वार के पास दीवार से कुछ इंच हट कर दो स्तंभ हैं। मान्यता है कि जो व्यक्ति इन स्तभों में से तीन बार बिना स्पर्श किए आसानी से गुजर जाता है, उसके सारे पाप मिट जाते हैं। मंदिर के पीछे एक छोटा शिखर है, जबकि प्रांगण में शिव वाहन नंदी की प्रतिमा है। मंदिर में हर समय अखंड ज्योति जलती रहती है और लामा पुनीत मंत्रों का जप करते रहते हैं।

और जब बैठ गए शिव

शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव पार्वती से विवाह करने के बाद कैलाश पर्वत को छोड़कर घूमते-घूमते यहां आ गए थे। शिव को यह जगह बहुत अच्छी लगी और वह तप करने के लिए वहीं बैठ गए, जहां आज मंदिर है। उधर जब शाम तक भगवान शिव कैलाश पर्वत पर वापस नहीं लौटे तो पार्वती चिंतित हो उठीं। उन्होंने नारद से निवेदन किया कि वह शिव को खोजकर लाएं। एक दिन नारद ने शिव को खोज ही लिया और यह जानकर कि शिव तप में लीन हैं, वह भी वहीं उनके चरणों में बैठ गए। कुछ दिनों के बाद जब शिव ने नेत्र खोले तो नारद ने आग्रह किया कि वह अपने असली रूप में उन्हें दर्शन दें। नारद की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान शिव ने उन्हें अपने तीन रूप दिखाए और नारद ने इस जगह का नाम त्रिलोकीनाथ रखा।

हम काफी देर इस मंदिर में बैठे रहे। एक लामा ने हमें बताया कि अगस्त महीने में यहां पौरी उत्सव मनाया जाता है जो तीन दिन तक चलता है। इस दौरान लाहौल घाटी के विभिन्न गांवों से यहां श्रद्धालु आते हैं और बड़ी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करते हैं। इस दौरान लामाओं द्वारा थालियों में मक्खन के दीप जलाकर भगवान की पूजा की जाती है और इन दीपकों को जलते ही रहने दिया जाता है। लामा ने बताया कि हिंदू इस स्थल को मंदिर कहकर पुकारते हैं और बौद्ध इसे विहार कहते हैं। जबकि लद्दाख और तिब्बत के लोग इसे फगवा कहते हैं। इन सबमें इस देवस्थल के प्रति समान श्रद्धाभाव है। इस तरह यह मंदिर कई संस्कृतियों के बीच आपसी सौहार्द का अनूठा प्रतीक है।

शाम ढल रही थी और हम मंदिर की परिक्रमा में खड़े थे। हम कब मंदिर से नीचे उतर आए थे, पता ही न चला। बौद्ध मंत्रों के स्वर हमारे साथ-साथ थे। रात में तो त्रिलोकीनाथ गांव का नजारा बहुत ही अद्भुत लगता है। घाटी में टिमटिमाती रोशनियां एक विंहगम दृश्य उपस्थित करती हैं। सुबह हमारी नींद कुछ देर से खुली। सूरज की रूपहली किरणें कमरे में जगमगा रही थीं।

लेडी ऑफ केलंग

लाहौल घाटी का मुख्यालय केलंग है। यहां भरपूर हरियाली है। केलंग में घुसते ही सारी थकान छू मंतर हो जाती है। हमारे पास समय कम था और अभी लंबा सफर तय करना था, लिहाजा डेढ़-दो घंटे केलंग में बिताने का मौका मिला। केलंग की सड़क पर खड़े होकर अगर उत्तर दिशा की ओर देखें तो सामने लेडी ऑफ केलंग दिखाई देती है। लेडी ऑफ केलंग कोई स्त्री नहीं, बल्कि एक प्रत्यय है। एक बर्फीली पहाड़ी को देख कर ऐसा लगता है जैसे कोई रूपसी अपने केश फैलाए लेटी हो। इसलिए लोगों ने इस हिमप्रपात का ही नाम ‘लेडी ऑफ केलंग’ रख दिया है। यहां से महज दो किमी. के फासले पर शिशुर गोंपा है। यहां लामा लोग जप-तप करते हैं। जीवन की आधारभूत सुविधाएं होते हुए भी यहां जिंदगी बहुत मुश्किल है। साल में करीब छह महीने केलंग शेष दुनिया से अलग पड़ा रहता है। बर्फबारी के कारण रोहतांग दर्रा यातायात के लिए बंद हो जाता है और केलंग के लोग अपनी ही दुनिया में सिमट कर रह जाते हैं। मौसम का मिजाज देखकर हेलीकॉप्टर से डाक और अखबार वगैरह महीने में एकाध बार यहां पहुंचा दिए जाते हैं और बासी खबरें पढ़ने के लिए भी लोगों में होड़ लग जाती है। ब्रिटिश सरकार ने इस क्षेत्र को लावारिस ही छोड़ रखा था। आजादी के बाद ही इसके विकास का क्रम शुरू हुआ। अब लाहौल घाटी के कई गांव सड़क मार्ग से जुड़ गए हैं।

तीन दर्रो से घिरी है घाटी

लाहौल घाटी तीन बड़े दर्रो से घिरी है। ये हैं – रोहतांग दर्रा, बारालाचा दर्रा और कुंजम दर्रा। आठ किमी. लंबा बारालाचा दर्रा मध्य हिमालय श्रृंखला से जुड़ता है। इसके शीर्ष पर जांस्कार, लद्दाख, स्पीति और लाहौल से आने वाले मार्ग आकर मिलते हैं। दक्षिण-पूर्व किनारे से चंद्रा, दक्षिण-पश्चिम किनारे से भागा और उत्तरी किनारे से चुन्नान नदियां निकलती हैं। पंद्रह हजार फुट ऊंचा कुंजम दर्रा लाहौल व स्पीति घाटियों को जोड़ता है। सर्दियों में बर्फबारी के कारण जब यह दर्रा बंद हो जाता है तो दोनों घाटियों का संपर्क कट जाता है। लाहौल घाटी को तीन भागों में बांट सकते हैं- चंद्रा, भागा और पट्टन घाटी। ये सभी घाटियां खतरनाक ग्लेशियरों से घिरी हैं, जिनमें बड़ा शिगरी, छोटा शिगरी, समुद्री टापू, मोलंग, डिंगकारमों, बोलंग शिपटिंग, सहीती, पाचा, शिला, डोक्सा, नीलकंठ, मुलकिला, कुक्टी, मलेंग, डोक्सा, गंगस्टंग व केलंग प्रमुख हैं। बड़ा शिगरी इस घाटी का सबसे विशाल हिमखंड हैं और पर्वतारोहियों के आकर्षण का केंद्र भी। गेपंग दूसरा प्रमुख हिमखंड है। इस हिमखंड का नाम गेपंग देवता के नाम पर पड़ा है। गेंपग सांपों के देवता माने जाते हैं। हालांकि यहां सांपों का नामोनिशान तक नहीं है। इस घाटी में जब किसी की मृत्यु हो जाती है, तो लोग लामाओं या भाटों की अनुमति के बिना शव के पास नहीं जाते। शव पर सफेद चादर डाल कर उसके सिरहाने दीप रख दिया जाता है। लामा या भाट मृतक के सिर के पास बैठकर तीन बार जोर-जोर से कहता है, ‘क्या तुम सचमुच मर गए हो या तुम्हारी आत्मा अभी शरीर में है?’ उत्तर न मिलने पर वह उसे मृत करार देते हैं। फिर शव को तीन दिन घर में रखा जाता है। उसे प्रतिदिन स्नान कराया जाता है और पूजा की जाती है। अंतिम दिन शव को एक कुर्सी पर बिठाकर बांध दिया जाता है और शवयात्रा शुरू होती है। यहां शव को नग्न ही जलाने की प्रथा है। स्त्री का शव हो तो पर्दा कर दिया जाता है।

शादी की प्रथाएं अनूठी

लाहौल घाटी में विवाह की भी कुछ अनूठी प्रथाएं हैं। अगर किसी युवती पर किसी गबरू का दिल आ जाए तो वह उसे एकांत में मिल कर पांच-दस रुपये भेंट करता है। इस राशि को अंग्या कहा जाता है। युवती अंग्या स्वीकार कर ले तो समझा जाता है कि शादी के लिए वह रजामंद है लेकिन अगर वह इस भेंट को ठुकरा दे तो इसे उसकी अस्वीकृति माना जाता है। कुछ युवक युवती के राजी न होने पर उसका अपहरण भी कर लेते हैं। अब यहां साक्षरता जत्थों के पहंुचने से सामाजिक जीवन में बदलाव आया है और स्ति्रयां अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रही हैं। एक और प्रथा के तहत किसी मेले में किसी युवक-युवती की आंखें चार हों जाएं तो इस प्रेम को वैवाहिक जामा पहनाने के लिए युवती की रजामंदी से उसका प्रेमी उसे भगा ले जाता है और किसी सुरक्षित ठिकाने पर उसे छिपा देता है। जब युवती के अभिभावकों को इस घटना का पता चलता है तो वह अपना रोष जताने लड़के के यहां जाते हैं। बाद में कुछ मध्यस्थों के प्रयास से बात सिर चढ़ जाती है और इस शादी को दोनों पक्ष स्वीकृति प्रदान कर देते हैं। इस घाटी में कई स्थानों पर अभी भी बहुपति प्रथा प्रचलित है।

त्योहारों और पर्वो की धरती

लाहौल अनूठे त्योहारों और पर्वो की धरती है। हालदा, फागली, खोहल, गोछी, लोसर, खोगल, कुंह, कुहयाग, पुना, दशें, शेचुम, जात्र और छेशु लाहौल घाटी में मनाए जाने वाले प्रमुख त्योहार हैं। हाल्दा पर्व की रोशनियों का त्योहार माना जाता है, लेकिन दीवाली की तरह इसमें पटाखे नहीं छोड़े जाते। बिरजी नाम के पांच सितारों में जब चांद प्रवेश करता है, तब हाल्दा पर्व मनाया जाता है। हाल्दा पर्व की तिथि एक लामा तय करता है। आमतौर पर इसके लिए मंगलवार का दिन ही चुना जाता है, क्योंकि मंगलवार अग्नि का दिन होता है। हल्दा का अर्थ है- मशाल, जिसे देवदार और विलो की लकड़ी के लट्ठे से बनाया जाता है। निश्चित तिथि पर घाटी के हर घर से दो-तीन व्यक्ति जलती हुई मशालें लेकर उत्सवाग्नि के पास पहंुचते हैं तथा बारी-बारी ये अपनी मशालें अग्नि में फेंक देते हैं। इस मौके पर समूहगान होता है। समूहगान के बाद सभी लोग अपने घर लौट आते हैं। लौटते समय वे बर्फ का टुकड़ा घर ले जाते हैं। औरतें घर के किवाड़ खोलने से पहले उन पर सवाल दागती हैं कि क्या लेकर आए हो? जवाब में बर्फ को अच्छी चीज बता कर ही वे घर में घुस पाते हैं। फिर परिजन शिसकर अप्पा यानि धन की देवी की पूजा करते हैं और छांग (स्थानीय शराब) पी जाती है। दिलचस्प बात यह है कि इस उत्सव के दौरान लोग एक-दूसरे के घरों में नहीं जाते और ऐसा करना अपशकुन माना जाता है। उत्सव दो-तीन दिन चलता है। उत्सव की समाप्ति पर लोग एक-दूसरे से मिलकर नये वर्ष शुभकामनाएं देते हैं।

उत्सव भी अनूठे

गोछी लाहौल घाटी का एक ऐसा अनूठा उत्सव है, जिसे पुत्र प्राप्ति के लिए मनाया जाता है। वैसे गोची ओर गोतसी भी इस उत्सव के नाम हैं। उत्सव आमतौर पर चंद्र और भागा घाटियों में मनाया जाता है और बौद्ध मत से जुड़े लोग इसे उल्लास के साथ मनाते हैं। इस उत्सव का आरंभ फरवरी माह में उस घर से होता है जहां नववर्ष पर बेटा पैदा हुआ हो। गांव के सभी लोग उस व्यक्ति के घर इकट्ठे हो जाते हैं तथा सुबह ही मौज-मस्ती के बीच छांग का दौर शुरू हो जाता है। इस उत्सव पर सत्तू का गुंथा हुआ आटा एक बड़ी लकड़ी की थाली से उठाकर गांव के चार लोग देवता की मूर्ति तक जाते हैं। देवता की मूर्ति या तो पत्थर की होती है या फिर लकड़ी की। देवता केलंग की पूजा की जाती है। गांव की एक सुंदर बाला को गांव देवता तक ले जाया जाता है। युवती के हाथ में छांग का बर्तन होता है और दो अंगरक्षक उसके साथ चलते हैं। एक अपने हाथ में देवदार की जलती हुई मशाल थामे रहता है और दूसरे के हाथ में देवदार के पत्ते होते हैं, जिसे उसने भेड़ की खाल में छिपा रखा होता है। कई स्थानों पर वे औरतें भी साथ-साथ चलती हैं जो वर्ष के शुरू में पुत्र की मां बनी होती हैं। गांव का पुजारी देवता की पूजा करता है। बाद में भेड़ की खाल को एक दरख्त से टांग दिया जाता है और गांव के लोग तीरों से उसे निशाना बनाकर भेदते हैं। फिर चलता है छांग का दौर और इसके बाद उत्सव में शामिल लोग उसी व्यक्ति के घर आ पहुंचते हैं जो बेटे को बाप बना होता है। उत्सव में शामिल लोग मेजबान के घर में जाते हुए इस बात का विशेष खयाल रखते हैं कि उनके सिर से टोपी खिसकने न पाए। ऐसा होने पर यह समझा जाता है कि वह बच्चा बहुत दिन जीवित नहीं रहेगा। रात वहीं गुजार कर अगले दिन जुलूस की शक्ल में केलंग देवता के स्थल पर लोग जाते हैं और वहां पूजा के बाद एक अनोखी परंपरा निभाई जाती है। इसके तहत यह अनुमान लगाने के लिए कि अगले वर्ष गांव में कितने लोगों के यहां पुत्र होंगे, निशाना लगाने की रस्म अदा की जाती है। निशाने सही लगे तो लोग उछल-कूद कर हर्षोल्लास व्यक्त करते हैं लेकिन अगर निशाने न लगें तो समझा जाता है कि अगले वर्ष गांव में कोई पुत्र पैदा नहीं होगा।

लाहौल घाटी में शिखारी अया नाम का एक और त्योहार भी मनाया जाता है। शिखारी को धन की देवी माना जाता है। पट्टन घाटी में कुंह नामक एक अनूठा त्योहार मनाया जाता है। इसे लोग नव वर्ष के रूप में मनाते हैं। कुछ लोग इस त्यौहार को फागली नाम से भी जानते हैं। पट्टन घाटी में एक दशें नाम का त्योहार भी मनाया जाता है। इस त्योहार के दौरान लोग देवता की सामूहिक रूप से पूजा करते हैं। शेंचुम-त्योहार गर्मियों में मनाया जाता है जब जौ और गेंहू की फसलें पककर तैयार हो जाती हैं।

कौन थे मूल निवासी

लाहौल के मूल निवासी कौन थे। इस सवाल का जवाब देना मुश्किल लगता है। आज से 50-60 साल पहले तक लाहौल की दुनिया अपने आप में सिमटी थी। तिब्बत, यारकंद, लद्दाख के व्यापारी, लूटमार करके जीविकोपार्जन करने वाले लोग, घुमंतु गडरिये और पड़ोसी देशों चीन, मंगोलिया और मध्य एशिया के खूंखार कबीलों से ताल्लूक रखने वाले कबायली भी यहां पहुंचते रहे। कुछ विद्वानों का मत है कि करीब दो हजार वर्ष भी लाहौल घाटी में जीवन का स्पंदन था और यहां की चंद्र भागा घाटी में निषाद जाति के लोग रहते थे।

एक तरह से लाहौल में कई संस्कृतियां आकर घुलती-मिलती रहीं। समय-समय पर इनमें उत्तर की ओर से भोट संस्कृति का तथा दक्षिण की ओर से आर्य संस्कृति का समावेश होता रहा। यही वजह है कि यहां के सांस्कृतिक तत्वों, धार्मिक अनुष्ठानों और अचार-विचार में एक अनोखा सम्मिश्रण देखने को मिलता है।

लेकिन अब बौद्ध मत और आर्य मत के प्रभाव के साथ-साथ एक नई संस्कृति व सभ्यता का इनमें समावेश हो रहा है और वह है पाश्चात्य संस्कृति व इसके तौर तरीके। इस सांस्कृतिक हमले का एक असर हुआ है कि अंधविश्वासों और सामाजिक बुराइयों से यहां की पीढ़ी निजात पा रही है और बहुपति प्रथा भी अंतिम सांसे गिनने लगी है। पहले यहां पारिवारिक पुश्तैनी जमीन सिर्फ बड़े भाई की समझी जाती थी लेकिन अब शादियों में पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ-साथ कहीं-कहीं बैंड को भी तरजीह दी जाने लगी है। इसके अलावा पारंपरिक वेशभूषा में भी बदलाव देखने को मिल रहा है। खासकर यह बदलाव उन नौजवानों व युवतियों में देखने को मिल रहा है जो उच्च शिक्षा के लिए अब लाहौल से बाहर जा रहे और जब वे वापिस लौटते हैं तो अपने मार्डन पहरावे से बाकी लोगों को भी ललचाते हैं। पहले यहां शादियां लाहौल घाटी के भीतर ही तय होती थी लेकिन अब पड़ोसी जिलों से भी रिश्तेदारियां चल निकली हैं। अपने अधिकारों के प्रति भी लोग ज्यादा सजग हो गये। अपने आसपास की दुनियां में क्या कुछ हो रहा है, इसकी भी लाहौल वासी पूरी खबर रखते हैं। डिश एंटीना लगने से टेलीविजन कार्यक्रमों में काफी विविधता आ गई है और युवा पीढ़ी पाश्चात्य धुनों पर भी थिरकने लगी हैं। देशी विदेशी सैलानियों के यहां आगमन से लाहौल वासी अब यहां के प्राकृतिक सौंदर्य का  महत्व तो समझने ही लगे है साथ ही साथ उनके संपर्क सूत्र भी बढ़े हैं। लाहौल के लोग अब पूरा वर्ष दुनिया से जुड़े रहना चाहते है और इसके लिए उनकी मांग है कि रोहतांग के नीचे सुरंग का काम शीघ्र पूरा किया जाए। इस सुरंग के बनने से न केवल मनाली और लाहौल घाटी के बीच दूरी घटेगी बल्कि पूरा वर्ष यहां यातायात जारी रहेगा। यह सुरंग कब बनेगी ठीक से कहना मुश्किल है लेकिन जब भी बनेगी यह किसी अजूबे से कम नहीं होगी।

लाहौल घाटी की फिजा बदल रही है यह हमें तीन दिन इस घाटी में घूमते हुए महसूस हुआ। विकास की गति भी यहां बढ़ी है और चट्टानों को काटकर सड़कें यहां निकाली जा रही हैं। बिजली घर पहुंच गई है। लाहौल घाटी की सूरजताल और चंद्रताल झीलों को भी हमने देखा। बर्फीले हिमशिखरों के बीच चमचमाती ये झीलें सहसा मन मोह लेती हैं। यहां की झीलों, घाटियों, दर्रो का सौंदर्य आत्मसात करने हम लाहौल गये और वापिसी पर पूरी लाहौल घाटी हम आपके लिए ला सके यह भी एक सुखद आश्चर्य ही कहा जा सकता है।

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लाहौल जहां पर्वतों पर झुकता है आसमान, 7.0 out of 10 based on 1 rating



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