उड़ीसा में पर्यटन का सुनहरा त्रिकोण

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उड़ीसा में पर्यटन की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण स्थल हैं भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क। इन्हीं जगहों के लिए यहां सबसे अधिक पर्यटक आते हैं और ये तीनों जगहें एक-दूसरे से बमुश्किल 65 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। इसे उड़ीसा में पर्यटन का सुनहला त्रिकोण कहा जा सकता है। यहां स्थित पवित्र मंदिरों और सागर की हलचलों की एक झलक पाने के लिए ही दूर-दूर से लोग  आते हैं। उड़ीसा की राजधानी होने से भुवनेश्वर देश के सभी प्रमुख शहरों से हवाई, सड़क व रेल तीनों मार्गो से जुड़ा है और हर मार्ग पर नियमित सेवाएं भी हैं। ठहरने के लिए यहां अच्छे होटल तो हैं ही, चाहें तो आप उड़ीसा पर्यटन विकास निगम के पंथ निवास में भी ठहर सकते हैं। यहां आप भव्य मंदिर, पहाड़ काटकर बनाई गई गुफाएं, प्राणि उद्यान व प्लांट रिसोर्स सेंटर देख सकते हैं। उड़ीसा के अतीत को करीब से देखना चाहें तो पुरी या कोणार्क भी जा सकते हैं।

भुवनेश्वर : साक्षी इतिहास का

उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर इतिहास की कई निर्णायक घटनाओं की साक्षी रही है। 261 ई.पू. में कलिंग युद्ध व ईस्वी सदी के शुरू में चेदि शासक खारावेला के आने तक कई ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा है यह। ऐतिहासिक स्मारक तो यहां बेशुमार हैं ही, मंदिर भी खूब हैं और इसीलिए इसे मंदिरों का शहर भी कहा जाता है। कुछ खास मंदिर ऐसे हैं जहां प्राय: यहां आने वाले सभी पर्यटक और श्रद्धालु जाते ही हैं।

लिंगराज मंदिर : यह यहां के सबसे महत्वपूर्ण मदिरों में एक है। 180 फुट ऊंचे शिखर वाला यह मंदिर पूरब में पुरातत्व व वास्तुशिल्प के सर्वोत्तम उदाहरणों में एक है। 520 फुट लंबाई व 465 फुट चौड़ाई वाले विस्तृत क्षेत्रफल में स्थित कई छोटे-छोटे मंदिरों के बीच इसकी गरिमामयी उपस्थिति अलग तरह का बोध देती है। 11वीं सदी में बने इन मंदिरों का निर्माण ययाति केसरी और उनके उत्तराधिकारियों ने करवाया था।

मुक्तेश्वर मंदिर : 34 फुट ऊंचाई वाले इस मंदिर की गिनती भारत के सर्वाधिक सुंदर मंदिरों में की जाती है। 10वीं-11वीं सदी में बने इस मंदिर का तोरण बहुत सुंदर है। इसमें आकर्षण के बड़े कारण आठ व दस भुजाओं वाले नटराज हैं।

राजारानी मंदिर : 11वीं सदी में बना राजारानी मंदिर कलात्मक वैभव के लिए प्रसिद्ध है। इसमें किसी देवता की प्रतिष्ठा नहीं है, पर स्थापत्य की दुर्लभ खासियतें देखी जा सकती हैं। यह इसलिए भी अनूठा है कि यहां नटराज के स्त्री स्वरूप को दर्शाया गया है। यहां कई और दर्शनीय मंदिर भी हैं। इनमें छठवीं से 15वीं सदी के बीच बने शिशिरेश्वर, शत्रुघ्नेश्वर, वैताल, परशुरामेश्वर, स्वर्णजलेश्वर, ब्रह्मेश्वर, अनंत वासुदेव, केदारेश्वर, भास्करेश्वर व मेघेश्वर प्रमुख हैं।

खंडगिरि व उदयगिरि : खंडगिरि व उदयगिरि के जुड़वां पहाड़ों को काटकर बनाई गई गुफाएं भी यहां की आकर्षक चीजों में हैं। दूसरी सदी ई.पू. में बनी ये गुफाएं जैन मठ रही हैं। इनमें दुमंजिली रानी गुंफा खास तौर से दर्शनीय है। इसमें बहुत सुंदर आकृतियां उकेरी गई हैं। हाथीगुंफा में मौजूद शिलालेख चेदि शासक खारावेला के शासनकाल पर प्रकाश डालती है।

नंदन कानन : करीब 50 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैला यह प्राणि उद्यान वन्य पशुओं और पक्षियों के लिए उपयुक्त अभयारण्य के रूप में बनाया गया है। शहर से सिर्फ  आठ किलोमीटर दूर स्थित नंदन कानन में कई तरह के वन्य पशु, पक्षियां व सरीसृप हैं। यहां एक वानस्पतिक उद्यान और झील भी है। दुर्लभ सफेद बाघ यहां देखे जा सकते हैं। यहां झील में बोटिंग करने या रोपवे कार में बैठकर पशुओं को विचरते देखने का लुत्फ लेने के लिए प्रतिदिन हजारों लोग आते हैं।

रीजनल प्लांट रिसोर्स सेंटर : पौध संरक्षण के इस केंद्र में गुलाब की कई प्रजातियां हैं। भारत में गुलाब की अधिकतम किस्मों के संरक्षण का यह सबसे बड़ा केंद्र है। एशिया में कैक्टस का सबसे बड़ा संग्रह भी यहीं है। पौधों व पर्यावरण में रुचि रखने वालों के लिए यह अनिवार्य जगह है।

धौली: भुवनेश्वर से पुरी के मार्ग पर मात्र दस किलोमीटर दूर धौली भारतीय इतिहास की धारा को ही बदल देने वाले कलिंग युद्ध का साक्षी रहा है। यह युद्ध यहां 261 ई.पू. में हुआ था। इसके बाद ही सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। बौद्ध धर्म को विदेशों में ले जाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। इस पहाड़ी पर जापान के सहयोग से एक शांति स्तूप भी बनाया गया है।

पुरी : बंगाल की खाड़ी के पूर्वी तट पर बसे इस शहर के हिस्से में दुनिया के सबसे सुंदर समुद्रतटों में से एक है। लाखों लोग हर साल यहां समुद्रतट का आनंद लेने ही आते हैं। भुवनेश्वर से मात्र 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पुरी हिंदुओं के चार पवित्रतम तीर्थो में से एक है। भगवान जगन्नाथ का मंदिर यहीं है। बारहवीं सदी में निर्मित 192 फुट ऊंचे शिखर वाला यह मंदिर उडि़या वास्तु शिल्प के सर्वोत्तम नमूनों में एक है। जुलाई के महीने में इस मंदिर से शुरू होने वाले रथयात्रा उत्सव में हर साल लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। लाखों लोग मिलकर पारंपरिक रूप से सुसज्जित तीन रथों को खींचते हैं। इनमें एक रथ पर भगवान जगन्नाथ स्वयं सवार होते हैं, दूसरे पर उनके बड़े भाई बलभद्र और तीसरे पर बहन सुभद्रा बैठी होती हैं। रथों को जगन्नाथ मंदिर से खींच कर तीन किलोमीटर दूर गंुडीचा मंदिर ले जाते हैं, जिसे उनकी मौसी का घर माना जाता है। दस दिन बाद उनकी वापसी यात्रा होती है।

जगन्नाथ मंदिर के अलावा यहां आकर्षण का बड़ा कारण समुद्रतट भी है। समुद्री रेत की कला में रुचि रखने वालों की भारी भीड़ यहां प्राय: देखी जाती है। समुद्र की लहर को देखने का भी अलग आनंद है। खरीदारी के शौकीनों के लिए भी यहां बहुत कुछ है। रघुराजपुर व पिपिली गांवों के लोकशिल्पकारों की बनाई कलाकृतियां और एप्लीक आर्ट के नमूने प्राय: सभी पर्यटक यादगार के तौर पर अपने साथ ले जाते हैं।

कोणार्क : सुप्रसिद्ध कला इतिहासकार चा‌र्ल्स फैब्री की टिप्पणी है, ‘अगर यूरोप के लोगों ने पहले कोणार्क के बारे में जाना होता और आगरा के ताजमहल के बारे में वे बाद में जानते तो निश्चित रूप से उनके मन में पहला स्थान कोणार्क का ही होता और ताजमहल का स्थान दूसरा होता।’ तेरहवीं सदी में बनाए गए इस मंदिर को पत्थरों पर उकेरी गई कविता कहना गलत नहीं होगा। कोणार्क भारतीय स्थापत्य की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों में एक है। इसके मुख्य मंदिर का निर्माण भगवान सूर्य के रथ के रूप में किया गया है, जिसमें 12 पहिए हैं। दस फुट ऊंचे इस रथ को सात घोड़े खींचते हैं। वस्तुत: यह ऋग्वेद की एक ऋचा का मूर्त रूप है। इसके पुराने मुख्य मंदिर का एक भाग मुखशाला अभी भी अपने पुराने रूप में मौजूद है। विश्व सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्य इस मंदिर का निर्माण 13वीं सदी में नरसिंह देव ने करवाया था। बाद में लंबे अरसे तक यह उपेक्षा का शिकार रहा। ब्रिटिश शासन के दौरान यहां घूमने आई एक गवर्नर की पत्नी ने गवर्नर से इसके संरक्षण का अनुरोध किया। इसके बाद मंदिर के संरक्षण का कार्य शुरू हुआ। वैज्ञानिक रूप से इसके संरक्षण का कार्य सन 1901 में शुरू हुआ। कोणार्क का सूर्यमंदिर इस अर्थ में भी अनूठा है कि शिलाओं पर कल्पना को मूर्त रूप देने का उत्कर्ष यहीं देखा जा सकता है। इससे अलग एक निर्माण है नटमंदिर। इस वर्गाकार भवन की छत पिरामिड जैसी है, जिस पर तमाम अनूठी कलाकृतियां बनी हैं। 865 फुट लंबे और 540 फुट चौड़े क्षेत्रफल में बने इस भवन के साथ कुछ छोटे-छोटे और भी भवन हैं। इसके तीन तरफ गेट हैं और यह कुल मिलाकर ओडिसी नृत्य का विहंगम दृश्य प्रस्तुत करता है। इसकी दीवारों पर ओडिसी नृत्य की मुद्राओं का गरिमापूर्ण अंकन किया गया है। नर्तकों के साथ संगीतज्ञ भी वाद्ययंत्रों के साथ दर्शाए गए हैं।

मंदिर से जुड़ा एक संग्रहालय भी है, जिसमें तमाम मंदिरों के अवशेषों को अच्छी तरह संभाल कर रखा गया है। चंद्रभागा बीच के नाम से मशहूर कोणार्क का समुद्रतट भी बहुत सुंदर है। शाम के समय यहां से मंदिर को देखना एक अलग ही अनुभव होता है। पर्यटन विभाग की ओर से हर साल 1 से 5 दिसंबर तक कोणार्क उत्सव का आयोजन किया जाता है। सूर्य मंदिर के पृष्ठभाग में होने वाले शास्त्रीय नृत्य देख कर ऐसा लगता है जैसे मंदिर की दीवारों पर उकेरी गई छवियां मुक्ताकाशी मंच पर नृत्य करने लगी हों। मंदिर से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर मौजूद चंद्रभागा समुद्रतट देश के सुंदरतम समुद्रतटों में से एक है। समुद्र के किनारे-किनारे बनी सड़क पर यहां से पुरी तक जाना भी अपने-आपमें एक अनूठा अनुभव हो सकता है।

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