पिंजौर गार्डन: जहां सिमटी हैं मनोरम वादियां

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पिंजौर का जिक्र आते ही हमारी आंखों के आगे एक स्थल का नक्शा तैरने लगता है जो इतिहास के आईने से तो झांकता ही है, प्रकृति भी जहां झूमती, गाती, खिलखिलाती मालूम पड़ती है। दिल्ली-शिमला राजमार्ग पर चंडीगढ़ से 22 किलोमीटर दूर शिवालिक पर्वतमालाओं से घिरा ‘पिंजौर’ मुगल बादशाहों का भी पसंदीदा स्थल रहा है और कई धार्मिक व ऐतिहासिक मान्यताएं भी इस स्थल से जुड़ी हैं। यहां एक बार आकर बार-बार आने को मन करता है।

कडि़यां इतिहास की

महाभारत काल में इसे पंचपुरा के नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि पांडवों ने अपने बारह साल के वनवास के बाद अज्ञातवास का तेरहवां वर्ष यहीं शिवालिक पर्वतमालाओं के अंचल में गुजारा था। पंचपुरा उन दिनों मत्स्य देश के अंतर्गत था, जहां राजा विराट का शासन था। महाभारत काल का यही पंचपुरा कालान्तर में पंजपुरा बना और फिर अपभ्रंश होकर पिंजौर बन गया। इस तरह पिंजौर के उद्भव की कहानी महाभारत काल से शुरू होती है और फिर इसमें इतिहास की कई कडि़यां जुड़ती जाती हैं। पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान यहां 365 बावडि़यों का निर्माण करवाया था, जिनमें से कई अब भी मौजूद हैं। जनश्रुतियों के अनुसार पांडव बंधु प्रतिदिन एक बावड़ी का निर्माण करते थे। यहां स्थित शिवमंदिर जिसके साथ की बावड़ी को सात पवित्र नदियों गंगा, यमुना, व्यास, सतलुज, रावी, अटक व चेनाब से भी पवित्र समझा जाता है, में हजारों की तादाद में श्रद्धालु स्नान करके अपने पापों से मुक्ति पाते हैं। कहा जाता है कि इस बावड़ी को अर्जुन ने द्रौपदी की प्यास बुझाने के लिए तीर मारकर बनाया था। मंदिर के बंगल में मस्जिद और सामने गुरुद्वारा है। इन दोनों धर्मस्थलों में भी बावडि़यां मौजूद हैं। गुरुद्वारे का निर्माण महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया था। 1574 विक्रमी में सिखों के पहले गुरु श्रीगुरुनानक देव जी भी पिंजौर आए थे।

ऐसे बना पर्यटन स्थल

17वीं शताब्दी के उत्तरा‌र्द्ध में जब पिंजौर में मुगलों के कदम पड़े तो उन्होंने इसे एक मनोरम पर्यटन स्थल का रूप दे दिया। पर्यटन मानचित्र पर इसे लाने का श्रेय नवाब फिदई खां को जाता है जो शाहजहां के दत्तक पुत्र थे और औरंगजेब भी उनकी बहुत कद्र करता था। फिदई खां प्रकृति प्रेमी होने के साथ-साथ एक अच्छे वास्तुकार भी थे। यहां की नैसर्गिक छटा ने उसके दिमाग में एक सपना बनाया, जिसकी परिणति फिर एक सुंदर उद्यान के रूप में हुई। मुगल शैली का बाग और उद्यान आज पिंजौर की शान है। फिदई खां ने यहां अपनी बेगमों के लिए महलों का निर्माण भी करवाया था और उनकी बेगमें भी इस स्थल की खूबसूरती की दीवानी थीं। 1675 ई. में यह क्षेत्र सिरमौर नरेश के कब्जे में चला गया। यहां की खूबसूरती को बरकरार रखने में उनकी कोई रुचि नहीं थी, लेकिन उनके पास भी यह स्थल ज्यादा दिनों तक नहीं रहा। गोरखा सेना ने यहां डेरा जमा लिया। महाराजा पटियाला की निगाह भी इस क्षेत्र पर काफी अरसे से थी। गोरखों को खदेड़ने में उन्हें कोई ज्यादा दिक्कत नहीं हुई और पिंजौर पटियाला रियासत का अंग बन गया। महाराजा पटियाला ने यहां की शान-ओ-शौकत बरकरार रखने के लिए कई कदम उठाए। 1966 में एक अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद हरियाणा सरकार ने इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया और अगले ही वर्ष इसे देश-विदेश के सैलानियों के लिए खोल दिया गया। इससे पूर्व पिंजौर उद्यान का नाम यादविंद्र उद्यान भी पड़ा जब भूतपूर्व महाराजा पटियाला यादविंद्र सिंह ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था।

कला का जीवंत नमूना

पिंजौर गार्डन मुगलों की उत्कृष्ट उद्यान कला का जीता-जागता नमूना है। इस उद्यान में प्रकृति झूमती, गाती, इठलाती मालूम पड़ती है। उद्यान का खाका चारबाग शैली पर आधारित है जो मुगल उद्यान पद्धति की विशेषता है। उद्यान में प्रवेश करने के लिए चार दरवाजे बने हैं जिनमें तीन बंद रहते हैं। केवल चंडीगढ़-शिमला राष्ट्रीय राजमार्ग के सामने का द्वार ही खुलता है। अर्धचंद्राकार फाटक से घुसते ही तल में प्रवेश किया जाता है जो देवदार और पॉम के विशाल पेड़ों से घिरा है। पिंजौर उद्यान में शीशमहल, रंगमहल और जलमहल जैसे दर्शनीय स्थल हैं।

शीश महल तो अपनी तरह का अनूठा महल है जो उद्यान के शीर्ष पर बना है और इसके भीतरी कक्ष की छत शीशे के टुकड़ों से सज्जित है। संभवत: इसीलिए इसका नाम शीशमहल पड़ा है। महल के झरोखे और छत पर बनी भव्य छत्र देखते ही बनती है। यहां से मुगल शैली में निर्मित लॉन शुरू होता है, जिसके बीच से एक सुंदर नहर गुजरती है। फिर अगली मंजिल पर आता है रंगमहल। स्थापत्य कला का नायाब नमूना। इसके स्तंभों व मेहराबों पर कमाल की नक्काशी हुई है। पर्यटन विभाग ने आजकल यहां अपना भोजनालय खोल रखा है। रंगमहल के मंडप की जाली से सामने दिखता है भव्य जलमहल। परीलोक की गाथा सुनाता यह महल आश्चर्य लोक से कम नहीं है। जलमहल के चारों ओर बने फव्वारे जहां महल को शीतल बयारों से सराबोर कर देते हैं, वहीं सैलानी भी यहां की मोहक छटा से मंत्रमुग्ध हो उठता है। इन फव्वारों के निर्माण में फिदई खां ने विशेष रुचि ली थी।

जलमहल की छत पर जाने के लिए सीढि़यां भी बनी हैं। जलमहल और रंगमहल के बीच का तल एक अनोखा दृश्य प्रस्तुत करता है। हरीतिमा और जल की फुहार इसे स्वर्गवाटिका का रूप दे देती है। इस महल की छत पर बैठकर सैलानी यहां की प्राकृतिक छटा को निहारते दिखते हैं।

मदमस्त कर देती है महक

मुगलों ने उद्यानों में फलदार वृक्षों की फारसी शैली अपनाई थी। भारत के अन्य मुगल बागों की अपेक्षा पिंजौर गार्डन में फलों के बाग अभी भी सुरक्षित हैं और फिदई खां के दौर की दास्तां सुनाते हैं। आम, लीची व जामुन के पेड़ यहां बहुतायत में हैं। आमों की तो यहां इतनी किस्में हैं कि हर वर्ष आम प्रदर्शनी का आयोजन भी किया जाता है। देशी-विदेशी फूलों की महक भी यहां आगंतुक को मदमस्त कर देती है।

पिंजौर का अतीत से वर्तमान तक का सफर हैरतअंगेज तो है ही, जिज्ञासाओं के नए से नए वर्क भी खोलता है। रात को जब पिंजौर रोशनियों से जगमगाता है तो दिव्य नजारा उपस्थित होता है। पिंजौर में एकबारगी की गई सैर की स्मृतियां ताउम्र के लिए मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं और यहां बार-बार आने को मन करता है।

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