प्राकृतिक सौंदर्य का शहर पांडिचेरी

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दक्षिण भारत में चेन्नई के आसपास के इलाके में नवंबर से फरवरी माह के बीच गरमी बहुत अधिक नहीं होती। इसलिए यह समय इस इलाके में घुमक्कड़ी के लिए बिल्कुल सही होता है। जब मैंने पांडिचेरी जाना तय किया वह फरवरी महीने का दूसरा सप्ताह था। यह माह बारिश का भी नहीं होता, पर उस दिन अचानक आसमान में कहीं से कुछ बादल उमड़ आए थे और हलकी-हलकी बारिश होने लगी थी। हमारी बस चेन्नई पांडिचेरी एक्सप्रेस हाइवे पर दौड़ी जा रही थी। बारिश के कारण ड्राइवर ने बस की गति 70 किलोमीटर की जगह 50 किलोमीटर पर ही सीमित कर रखी थी।

चेन्नई से पांडिचेरी की दूरी 160 किलोमीटर है और बस यह सफर आसानी से ढाई से तीन घंटे के बीच तय कर लेती है। इतना समय इस बात के लिए काफी है कि आप शहर की भीड़भाड़ से दूर हरी-भरी जमीन और खुले आकाश के नीचे प्राकृतिक सौंदर्य का भरपूर लुत्फ उठा सकें।

संघर्ष का केंद्र रहा शहर

चेन्नई से पांडिचेरी के बीच चेन्नई से एक घंटे की दूरी पर पहला पड़ाव महाबलीपुरम है। भित्तिचित्रों और मूर्तिकला के लिए दुनिया भर में विख्यात महाबलीपुरम में बस सिर्फ पांच मिनट के लिए ही रुकी। महाबलीपुरम से बस निकली ही थी कि हलकी-हलकी फुहारों ने वातावरण को नम और ठंडा बना दिया। भीगने से बचने के लिए लोगों ने अपनी-अपनी सीट के बगल में खिड़कियों पर लगे शीशे सरका लिए। शीशे के ऊपर बहते पानी के बीच से बाहर की दृश्यावली ऐसी लग रही थी मानो फ्रांसीसी चित्रकार मोने के बनाए हुए लैंडस्केप्स एक के बाद एक आंखों के सामने से गुजर रहे हों।

पिछली सदी की शुरुआत में विश्वविख्यात हुआ मोने क्या कभी भारत आया था? शायद नहीं। पर फ्रांसीसी अवश्य भारत आए थे। सत्रहवीं सदी में जब अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य के पंख पसारने शुरू किए थे उस वक्त फ्रांसीसी भी अपने साम्राज्य के विस्तार की कोशिशों में उनसे पीछे नहीं रहे। सन् 1637 में फ्रांसीसियों ने पूर्वी घाट पर मद्रास के दक्षिण में पांडिचेरी को चुना और वहां एक बस्ती बसाई। इसके बाद अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच जो झगड़ा हुआ और पांडिचेरी को लेकर जिस तरह की खींच-तान हुई वह एक अलग रोचक अध्याय है और वैसी मिसाल शायद और कहीं मौजूद भी नहीं है।

अठारहवीं सदी की शुरुआत में जब फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में आर्थिक कठिनाइयों से गुजरने लगी तो उनको पश्चिम में सूरत, बंटम, और मसूलीपट्टनम में अपना व्यापार छोड़कर पूर्वी घाट की तरफ मुंह करना पड़ा। मारीशस पर कब्जा जमाने के बाद फ्रांसीसियों के हौसले बढ़ गए। उन्होंने फटाफट पांडिचेरी के आसपास माही, यनम और कारैक्कल पर अधिकार जमा लिया। अंग्रेज जो भारत को अपनी बपौती मान चुके थे, फ्रांसीसियों की इस बढ़ोत्तरी से चिढ़ गए। जब अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों के कुछ जहाज पकड़ लिए तब फ्रांसीसियों ने प्रतिद्वंद्विता में मद्रास पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की इस लड़ाई में पांडिचेरी कभी अंग्रेजों के हाथ में रही तो कभी फ्रांसीसियों के। 1761 में अंग्रेजों ने पांडिचेरी को फ्रांसीसियों से छीन लिया लेकिन चार साल बाद उसे लौटा भी दिया। 1778 में अंग्रेजों ने दुबारा पांडिचेरी पर कब्जा जमाया और दो साल बाद फिर फ्रांसीसियों को लौटा दिया। 1793 में तीसरी बार छीना और अंत में 1814 में फिर फ्रांसीसियों को सौंप दिया। उसके बाद लगभग 150 साल तक पांडिचेरी पर लगातार फ्रांस का हीआधिपत्य बना रहा। इसके बाद अंतत: 1954 में भारत को सौंप दिया गया।

फ्रांस के नक्शे कदम पर

हमारी बस ने जब पांडिचेरी में प्रवेश किया तो हमें ऐसी तीन बातें साफ तौर पर दिखीं, जो पांडिचेरी को देश के किसी भी शहर से अलग करती हैं। पांडिचेरी में प्रवेश करते ही सबसे पहले हमारी नजर वहां चौराहों और अन्य स्थानों पर खड़े पुलिसमैनों पर नजर पड़ती है। उनकी वेशभूषा और विशेष तरह की टोपी यह याद दिलाने के लिए काफी है कि यहां कभी फ्रांसीसियों की सत्ता रह चुकी है। पांडिचेरी की दूसरी खूबी हैं यहां की सड़कें। करीब-करीब पूरे शहर की सड़कें बिल्कुल सीधी और एक-दूसरे को नब्बे डिग्री पर काटती हैं। इस तरह की सड़कें फ्रासीसियों की शहर विकास योजना के एक विशेष सोच और पक्ष को उजागर करती हैं। साथ में यह योजना शहर के नक्शे को एक सुंदर स्वरूप देती है। उत्तर भारत में चंडीगढ़ की सड़कें भी सीधी और एक-दूसरे को नब्बे डिग्री पर काटती हैं, पर चंडीगढ़ की सड़कों पर घूमते हुए शहर की प्लानिंग के मूल में कोई सोच नहीं दिखाई देती। जबकि पांडिचेरी में घूमते हुए यह साफ नजर आ जाता है कि चीजों के निर्माण के पीछे एक सोच है जिसका कुछ अर्थ भी है।

पांडिचेरी की तीसरी खूबी है यहां की इमारतों की फ्रांसीसी वास्तुकला। हालांकि पुरानी मूल इमारतें यहां अब ज्यादा नहीं बचीं लेकिन जितना भी कुछ है वह फ्रांसीसी सभ्यता के साथ-साथ यह याद जरूर दिलाता रहता है कि यहां कभी फ्रांसीसियों ने शासन किया था।

उठाना पड़ा नुकसान

जब मैं पांडिचेरी आने से पूर्व यहां के बारे में जानकारी जुटा रहा था तो मुझे बताया गया था कि यहां ठहरने के लिए सबसे अच्छी और सस्ती जगह अरविंद आश्रम द्वारा जगह-जगह स्थापित लॉज हैं। यह भी कि अगर अरविंद आश्रम द्वारा संचालित किसी आश्रम में मुझे रहना है तो काफी एडवांस में कमरे के लिए बुकिंग करानी पड़ती है और यह बुकिंग कभी-कभी छह-आठ महीने पहले से करानी पड़ती है। पर चूंकि मैंने पांडिचेरी भ्रमण का कार्यक्रम जल्दी-जल्दी तय किया था और मेरे पास इतना समय नहीं था कि मैं किसी आश्रम में पहले से ही कमरे की बुकिंग करा सकूं इसलिए मेरे यायावर मन ने खुद को भगवान भरोसे छोड़ पांडिचेरी के लिए प्रस्थान कर दिया। हालांकि इसका खामियाजा मुझे कुछ पैसे गंवाकर भुगतना पड़ा।

हुआ यूं कि पांडिचेरी में उतरने के बाद मैंने जिन-जिन होटलों को चेक किया वे सभी फुल थे। करीब छह होटलों के बाद मैं कुछ निराश सा हो गया तो छठे होटल के बाहर खड़े एक रिक्शे वाले ने मेरी परेशानी ताड़ ली और उसने मुझे एक अच्छे होटल में जगह दिलाने का ऑफर दिया। बीस रुपये में उसने मुझे एक ऐसे होटल के सामने ला खड़ा किया जो कम से कम बाहर से देखने में अच्छा-खासा नजर आ रहा था। नौ सौ रुपये में कमरा पाने पर मैंने खुद को भाग्यशाली माना कि चलो ठिकाना तो मिला। कमरा साफ-सुथरा और दो बिस्तर वाला था। कमरे में गीजर, एयरकंडीशनर आदि सभी जरूरी चीजें थीं। किराया ज्यादा था, पर चुभा ज्यादा इसलिए नहीं कि मुझे ऐसे वक्त मिला था जब मैं कमरा मिलने की उम्मीद खो चुका था। नहा-धो कर तरोताजा होने और साथ के एक रेस्तरां से इडली-सांभर तथा अनन्नास रस के नाश्ते के बाद जब मैंने कुछ अन्य होटलों के चक्कर लगाए तो मुझे यह जानकर काफी धक्का लगा कि पांडिचेरी में होटल और लॉजिंग काफी सस्ती है। जो कमरा मैंने नौ सौ रुपये में बड़े धन्य-भाव से लिया था, वैसा ही कमरा मुझे 400 से 500 रुपये में बड़े आराम से मिल सकता था। फिर जब मैंने आश्रम संचालित निवास स्थान देखा तो दंग रह गया। मात्र छह सौ रुपये में ठीक समुद्र किनारे बड़ा, खुला और सभी सुविधाओं से संपन्न कमरा था। यह जरूर था कि आश्रम संचालित यह कमरा एंडवास बुकिंग के बाद ही उपलब्ध हो सकता था। जो कम से कम इस बार के लिए मेरे भाग्य में मौजूद नहीं था। मैंने इतना जरूर किया कि दूसरे दिन होटल बदलकर मात्र चार सौ रुपये में उतने ही अच्छे एक दूसरे कमरे में शिफ्ट कर गया।

नमूना सादगी और सुरुचि का

असल में आश्रम संचालित गेस्ट हाउसों की सफाई, शुद्धता और शांत वातावरण से मैं इतना प्रभावित हुआ कि आशा बांधे मैंने तीन-चार गेस्ट हाउसों में चक्कर लगाया। एक गेस्ट हाउस के बाहर कोई नाम या नेम प्लेट नहीं थी। बस मकान नंबर के रूप में एक पत्थर के ऊपर कलात्मक तरीके से एक नंबर गढ़ा हुआ था। गेट में घुसने के बाद सैकड़ों तरह के फूल-पौधों के गमलों के बीच से एक रास्ता सीधा एक छोटे से सुंदर हाल में जा रहा था। वहां आश्रम कार्यकर्ताओं के लिए बने एक छोटे से कमरे की बगल से अन्य कमरों के लिए रास्ता जा रहा था। आश्रम संचालित एक दूसरा गेस्ट हाउस भी पूरी तरह सफेद डिस्टेंपर से पुता हुआ था। गेट से घुसते ही बायें हाथ पर एक कलादीर्घा थी। वहां उस वक्त एक फोटोग्राफ प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। इसमें आश्रम में ही रहने वाले एक कार्यकर्ता ने अपने खींचे हुए छायाचित्रों की प्रदर्शनी लगाई थी। कालांतर में भारत की कई प्रसिद्ध नृत्यांगनाओं ने पांडिचेरी और अरविंद आश्रम में अपनी नृत्य कला के प्रदर्शन किए थे। उन्हीं क्षणों को उस फोटोग्राफर ने अपने कैमरे के माध्यम से अपने तरीके से अभिव्यक्त करने की कोशिश की थी। उमा शर्मा, रमा वैद्यनाथन, सोनल मानसिंह, स्वप्न सुंदरी, राजा राधा रेड्डी, पंडित बिरजू महाराज, हेमा मालिनी सभी की विभिन्न भाव मुद्राओं को उस फोटोग्राफर ने अपने इस 35 मिलीमीटर के लेंस से साकार कर रखा था। प्रदर्शनी हॉल के ही एक छोटे से हिस्से में श्री अरविंद और मदर के फोटोग्राफ को ब्लोअप कर लगा रखा था। इस प्रदर्शनी के दाहिनी तरफ संकरा सा लेकिन चारों तरफ फूलों वाले गमलों से घिरा एक रास्ता सीधा जा रहा था। जिसके दोनों तरफ ठहरने के लिए सुंदर व्यवस्थित कमरे बने हुए थे। इन कमरों की बाहरी दीवारों पर बोगनबेलिया की बेलें कमरों की सुंदरता को और ज्यादा बढ़ा रही थीं। भ्रमण प्रेमियों के लिए पांडिचेरी में मैंने एक और अच्छी सुविधा पाई, जो इससे पहले गोवा में ही देखी थी कि यहां उचित कीमत पर पूरे दिन भर के लिए मोटरसाइकिल और स्कूटर किराये पर मिल जाते हैं। अपने ड्राइविंग लाइसेंस की कॉपी आप उनको सौंपिए। इसके एवज में आपको एक रसीद मिलेगी, जो चेकिंग की अवस्था में ड्राइविंग लाइसेंस का काम करेगी और आपको पांच सौ रुपये की डिपॉजिट पर एक सौ रुपये प्रतिदिन की दर से तुरंत एक मोटर साइकिल मिल जाएगी। मोटरसाइकिल शहर में घूमने-फिरने के लिए उपयोगी तो है ही, यह खास तौर से उस वक्त सबसे ज्यादा सुविधाजनक साबित होती है जब आपको पांच किलोमीटर दूर समुद्र तट या आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित ऑरोबिल का भ्रमण करना हो।

सौंदर्य समुद्र का

यूं तो पांडिचेरी के पश्चिम में लंबा समुद्र तट और सुबह-शाम वहां हजारों स्थानीय लोग और पर्यटक सैर करने तथा समुद्र का सौंदर्य निहारने आते हैं। हालांकि जलक्रीड़ा के लिए यह हिस्सा उपयुक्त नहीं है। गहरा होने और सामान्यतया तेज लहरों के कारण यहां पानी में अंदर उतरने की सलाह नहीं दी जाती। यहां पहले दुर्घटनाएं भी हुई हैं, इसलिए समय-समय पर इस समुद्रतट पर गार्ड आकर लोगों को पानी में उतरने से रोकते हैं। अगर पांडिचेरी में समुद्र तट के स्नान का आनंद लेना हो तो करीब पांच किलोमीटर दूरी पर ऑरो बीच है। पांडिचेरी से चेन्नई जाने वाले मार्ग पर हाइवे से दाहिने हाथ को करीब 200 से 300 मीटर की दूरी पर साफ और कम गहराई वाला सुंदर ऑरो बीच है। मैंने ऑरो बीच तक का सफर मोटर साइकिल से 10 से 15 मिनट के बीच में तय कर लिया। समुद्र तट के आसपास का इलाका ज्यादा रेतीला होने के कारण मोटर साइकिल तट तक नहीं जा सकती। ऑरो बीच से लगे गांव के आसपास का इलाका ज्यादा रेतीला होने से मोटर साइकिल तट तक नहीं जा सकती। ऑरो बीच से लगे गांव के स्थानीय लोग इस मामले में पर्यटकों की सहायता करते हैं। वे अपने घरों के प्रांगण में मोटर साइकिल पार्क करा लेते हैं और उसके एवज में चार-पांच रुपये लेते हैं। कुछ लोगों ने अपने-अपने घरों में छोटे-छोटे रेस्तरां भी खोल रखे हैं और पर्यटकों को चाय-कॉफी उपलब्ध कराते हैं। पांडिचेरी का यह सुंदर समुद्र तट विदेशियों के बीच भी काफी लोकप्रिय है। यहां अक्सर विदेशी सैलानी भी रेत, जल और धूप का आनंद लेते नजर आ जाएंगे। इन विदेशियों में उन स्थानीय लोगों की भी अच्छी संख्या है जो कई साल से यहीं रह रहे हैं।

ऑरोबिल का क्षेत्र ऑरो बीच से ज्यादा दूर नहीं है और दो-तीन किलोमीटर के बाद उसका दायरा शुरू हो जाता है। ऑरोबिल और उसके आसपास फरवरी माह में कुछ ज्यादा ही चहल-पहल शुरू हो जाती है। 21 फरवरी को मदर का जन्म दिन पड़ता है जिसको मनाने के लिए मदर और श्री अरविंद के अनुयायी दुनिया भर से ऑरोबिल में जुटते हैं। यह दिन वर्ष भर के उन विरले दिनों में से है जब लोग उन कमरों का दर्शन कर सकते हैं जहां मदर और श्री अरविंद निवास करते थे।

अध्यात्म जीवन के लिए

1878 में पेरिस में जन्मी मदर को नौ-दस साल की उम्र में ही कुछ अलौकिक अनुभव हुए। इससे उन्हें विश्वास हो गया कि अपनी आत्मा को ईश्वर से जोड़ना संभव है। 1914 में वे पांडिचेरी आई और श्री अरविंद के रूप में उन्हें एक ऐसा गुरु मिल गया जिसके माध्यम से उन्हें लगा कि वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती हैं। वे वापस फ्रांस आई और 1920 में फिर पांडिचेरी पहुंच गई। इसके बाद वे कभी फ्रांस वापस नहीं गई और 1973 में अपने अंतिम समय तक पांडिचेरी में ही रहीं। ऑरोबिल में उन्होंने अपने गुरु के साथ एक ऐसे समुदाय का विकास किया जो पूरी तरह स्वावलंबी है और आध्यात्मिक उत्थान में विश्वास करता है। इस समुदाय का अपना स्कूल, अपनी बेकरी, अस्पताल और अपनी लांड्री सब कुछ है।

इस आश्रम का जो कुछ स्वरूप आज है उसका सारा श्रेय मदर को जाता है। आश्रम बहुत सारे कार्यकलापों और कार्यक्रमों का संचालन करता है। इनमें खेती और हस्तकला से लेकर मशीनों के संचालन और ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग जैसे तकनीकी प्रशिक्षण तक शामिल हैं। आश्रम में नियमित रूप से होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों के संचालन के लिए प्रेक्षागृह और सिनेमा हॉल के अलावा स्विमिंग पूल और खेल का मैदान भी है। आश्रम में रहने वाले लोग सादा जीवन बिताते हैं और आत्मोत्थान के साथ-साथ समाज के विकास में भी पूरा सहयोग देते हैं। पांडिचेरी के लोगों की दैनिक जिंदगी में ऑरोबिल की उपस्थिति एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। दरअसल पांडिचेरी में  हर तरफ जो व्यवस्था, स्वच्छता और शुचिता दिखाई पड़ती है तो उसका श्रेय ऑरोबिल को ही जाता है।

अंतरराष्ट्रीय शहर है ऑरोबिल

ऑरोबिल को एक तरह से अंतरराष्ट्रीय शहर कहा जाता है। इसके 50 किलोमीटर के दायरे में करीब डेढ़ हजार लोग रहते हैं जिसमें ज्यादातर दुनिया भर से आकर बसे हुए विदेशी हैं। करीब चालीस बरस पहले इसकी स्थापना करते हुए मदर ने कहा था, ‘इस धरती पर एक ऐसे स्थान और समाज की आवश्यकता है जहां लोग आपस में सौहार्द के साथ किसी तरह के राग-द्वेष के बिना भाईचारे के साथ रह सकें। हमें ऐसे स्थान की रचना करनी है जो देशों की परस्पर प्रतिस्पर्धा, वैमनस्य से परे हो और जहां परस्पर विरोधी नैतिक मूल्य न हों। जहां भूत का कोई स्थान न हो और जहां व्यक्ति आध्यात्मिक सुख को खोज कर ईश्वर से एकाकार होने का प्रयास करे।’

ऑरोबिल का सबसे भव्य और रोचक स्थान है मातृ मंदिर। एक विशाल गोलाकार बल्ब के समान बनी यह इमारत काफी दूर से चमकती है और ऑरोबिल के लोगों के लिए आध्यात्मिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इसके अंदर हॉल में एक जगह केंद्र में 124 देशों की मिट्टी रखी गई है, जिनके नाम यहां एक स्थान पर खुदे हुए हैं। मातृ मंदिर के बाहर एक तरफ विशालकाय वृक्ष है जिसे यहां का बोधिवृक्ष कहा जाता है। ऑरोबिल में प्रवेश करने से पहले ऑरोबिल शॉप से यहां के बारे में पूरी जानकारी और यहां का मानचित्र लेने से यहां घूमने में काफी सुविधा रहती है। यह शॉप भारत निवास में है, जहां एक हैंडीक्राफ्ट शॉप भी है। शॉप में ऑरोबिल के निवासियों द्वारा हाथ की बनाई गई वस्तुएं बिक्री के लिए उपलब्ध होती हैं।

ऑरोबिल की विशेष बात यह है कि यहां लोग अलग-अलग कम्युनिटी ग्रुप बनाकर रहते हैं। ऐसे यहां लगभग 50 से ऊपर कम्यून हैं और हर कम्यून में एक से लेकर डेढ़ सौ लोग रहते हैं। हर कम्यून का एक कॉमन रसोईघर और निवास स्थान हैं। हर कम्यून ने अपना एक-एक अलग क्षेत्र बांट रखा है और सभी आसपास के तमिल गांवों से मिलकर खास-खास प्रोजेक्टों के लिए काम करते हैं। जैसे एक कम्यून के जिम्मे स्वास्थ्य का काम है तो दूसरे के जिम्मे शिक्षा और तीसरे के जिम्मे हैंडीक्राफ्ट का। ऑरोबिल से लौटते हुए मैंने एक गांव में देखा कि कम्यून के कुछ लोग गांव वालों को अगरबत्ती बनाने की ट्रेनिंग दे रहे थे।

जरूरत शांतिदूत की

पांडिचेरी के चार दिनों के प्रवास में शायद ही कोई ऐसा दिन गया होगा जब मैंने सुबह या शाम गूबर्ट एवेन्यू पर चक्कर न लगाया हो। समुद्र के किनारे बनी यह सड़क पांडिचेरी की पश्चिमी सीमा है। यहां सुबह-शाम लोगों का मेला सा लगा रहता है। यह पांडिचेरी का मेरीन ड्राइव कहलाता है और यहां के सुंदर स्थानों में से एक है। यहां के तट के सहारे प्रात:कालीन भ्रमण के बाद मन प्रफुल्लित हो उठता है। शाम के समय यहां का रंग कुछ और ही हो उठता है। इस सड़क के केंद्र में बने गांधी मेमोरियल के आसपास संध्या की सुहानी वेला में लोगों का जमघट लगा रहता है। ऐसे वातावरण में गरम-गरम चने और भेलपुरी खाकर तो मन तृप्त हो उठता है।

गांधी मेमोरियल फ्रांसीसियों ने उन शहीदों की याद में बनवाया था जो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान मारे गए थे। गांधी की मूर्ति आठ खंभों के बीच खड़ी है और हर खम्भे पर पाषाण कला के उत्कृष्ट नमूने उत्कीर्ण हैं। इस मेमोरियल को देखकर मुझे जरूर आश्चर्य हुआ था। इस तरह के शहीद स्मारक में शांतिप्रिय गांधी का क्या काम। पर बाद में इसकी असलियत पता लगी तो मुझे फ्रांसीसियों की सोच की दाद देनी पड़ी। असल में यह स्मारक तो विश्वयुद्ध के शहीदों की याद में जरूर बनाया गया लेकिन फ्रांसीसियों ने इस बात को ज्यादा महत्ता दी कि इस स्थान पर इतिहास की कई भयंकर लड़ाइयां लड़ी गई और ऐसे स्थान पर शांति के दूत की ज्यादा जरूरत है।

गांधी मेमोरियल से थोड़ी ही दूरी पर अरविंद आश्रम है। यह आश्रम उस घर को तब्दील कर बनाया गया है जहां श्री अरविंद और मदर का निवास था। अब यह स्थान पर्यटन स्थल में बदल दिया गया है, जहां लोग श्री अरविंद और मदर की समाधि पर श्रद्धासुमन चढ़ाने जाते हैं।

शांत शहर अनोखा रिक्शा

पांडिचेरी एक छोटा सा ऐसा शांत शहर है जहां की हवा में आध्यात्मिक खुशबू और प्रगाढ़ प्रशांतता है। यहां का एक छोटा सा म्यूजियम अपने आप में एक अलग दर्शनीय स्थल है। यहां एक तरफ पुराना सुंदर फर्नीचर संग्रहीत है तो दूसरी ओर लाखों-करोड़ों वर्ष पुराने कुछ प्राकृतिक अवशेष भी हैं। यहां 19वीं सदी का एक रिक्शा भी रखा है जिसे फे्रंच में पोसे पोसे कहा जाता था। इस अनोखे रिक्शे के आगे एक व्यक्ति इसका स्टीयरिंग संभालता था तो दूसरा आदमी पीछे से धक्का लगाया करता था।

छोटे से पांडिचेरी की खूबी यह है कि यहां न ज्यादा भीड़-भाड़ है और न ही लोकल बसों और रेलगाडि़यों का शोर। स्थानीय आवागमन की यहां इतनी सुविधा है कि आराम से साइकिल पर घूमने का लुत्फ उठाया जा सकता है। मैं जब चार दिन के बाद पांडिचेरी से चला तो अंदर से शांत भी था और आध्यात्मिक आनंद से सराबोर भी। पांडिचेरी की यह देन मैं नहीं भूल सकता और यही चीज मुझे यहां आने के लिए बार-बार आकर्षित करती है।

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