साधना की पुण्यभूमि रिवालसर झील

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हिमाचल प्रदेश का गौरव बढ़ाने वाली अनेक सुंदर झीलों में रिवालसर झील अपना विशेष स्थान रखती है। घने वृक्षों तथा ऊंचे पहाड़ों से घिरी यह झील प्राकृतिक सौंदर्य के आकर्षण का केंद्र है। मण्डी से 24 किमी दूर तथा समुद्रतल से 1350 मीटर की ऊंचाई पर स्थित रिवालसर झील के किनारे विभिन्न धर्मो के कुछ पूजनीय स्थल हैं। मुख्य रूप से यहां बौद्ध धर्म के अनुयायी रहते हैं।

मानते हैं चमत्कार

इस झील पर अकसर मिट्टी के टीले तैरते हुए देखे जा सकते हैं, जिन पर सरकण्डों वाली ऊंची घास लगी होती है। टीलों के तैरने की अद्भुत प्राकृतिक प्रक्रिया ने रिवालसर झील को सदियों से एक पवित्र झील का दर्जा दिला रखा है। वैज्ञानिक तर्क चाहे कुछ भी हो, परंतु टीलों का चलना दैविक चमत्कार माना जाता है। स्थानीय लोग कहते हैं कि प्रकृति की यह लीला केवल पुण्य कर्म करने वाले लोगों को ही दिखाई देती है।

रिवालसर बौद्ध गुरु एवं तांत्रिक पद्मसंभाव की साधना स्थली माना जाता है। यह ईर्श्यालु धार्मिक गुरु अपनी आध्यात्मिक शक्तियों की सहायता से रिवालसर से उड़कर तिब्बत गए और वहां पर महायान बौद्धधर्म का प्रचार तथा स्थापना की। तिब्बत में पद्मसंभव को गुरु रिमबोद्दे के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि रिवालसर झील में एक किनारे से दूसरे किनारे तक समय-समय पर चलने वाले टीलों में गुरु पद्मसंभाव की आत्मा का निवास है। विश्व भर से तिब्बत के लोग गुरु रिमबोद्दे की पूजा-अर्चना करने और श्रद्धांजलि देने रिवालसर आते हैं। वर्ष भर बौद्ध बच्चे यहां मोनास्टि्रयों में शिक्षा प्राप्त करते हुए तथा पूजा करते हुए भिक्षु देखे जा सकते हैं।

मंदिर कई हैं

रिवालसर झील के किनारे तीन बौद्ध मठ (मोनास्टि्रयां) हैं जो निग्मया पंथ से संबंधित हैं। इन मठों में से एक भूटान के लोगों का है। इसके अतिरिक्त भगवान कृष्ण, शिव जी तथा लोमश ऋषि के मंदिर हैं। प्रायश्चित के तौर पर लोमश ऋषि ने शिव जी के निमित्त रिवालसर में तपस्या की थी।

यहां एक गुरुद्वारा भी है। कहते हैं गुरु गोविंद सिंह ने मुगल साम्राज्य से लड़ते समय सन् 1738 में रिवालसर झील के शांत वातावरण में कुछ समय बिताया था।

गुरुद्वारे को मण्डी के राजा जोगेन्द्र सेन ने बनवाया था। हिमाचल में जोगेन्द्र नगर इसी राजा के नाम से प्रसिद्ध है।

शिकार की है वर्जना

सुंदर हरे रंग की इस झील के एक ओर बौद्ध अनुयायियों ने रंग-बिरंगी झंडियां लगाई हुई हैं। इस झील में बड़ी-बड़ी और बहुत अधिक संख्या में मछलियां है। इनका शिकार वर्जित है। तीर्थयात्री इन्हें आटे की गोलियां खिलाते हैं मगर स्वच्छता की दृष्टि से प्रशासन ने ऐसा करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। सरकारी वन विभाग ने एक छोटा-सा चिडि़याघर भी यहां बनाया हुआ है जिसमें हिरण, भालू और रंग-बिरंगे पंखों वाले पक्षी देखे जा सकते हैं। शिमला में जाखू तथा अन्य कई धार्मिक स्थानों पर उछलते-कूदते बंदरों की तरह यहां भी बंदरों की कमी नहीं है। छोटा सा बा़जार भी है।

शाम होते ही बिजली की रोशनी के प्रतिबिंबों से झील जगमगाने लगती है जिससे उसका ऩजारा ही बदल जाता है। यहां नौका भ्रमण नहीं होता। हलके अंधेरे में दिखाई देते समीप के पर्वतों के आकार भयावह दृश्य प्रस्तुत करते हैं। झील के सान्निध्य में रहने वाले अनेक लोग कहते हैं कि यहां स्वत: ही भगवत भजन करने को मन करता है।

और भी हैं झीलें यहां

शीतकाल में रिवालसर का तापमान शून्य के आस-पास पहुंच जाता है, परंतु ग्रीष्मकाल में प्राय: मौसम सुहावना या कुछ गर्म रहता है। मंद-मंद शीतल पवन मन को आनंदित करती है। रिवालसर के समीप कुछ अन्य झीलें भी हैं। जैसे कुण्ठभ्योग, सुखसर तथा कालासर, जहां पैदल जाया जा सकता है। मानसून के दौरान ये झीलें अपने पूरे यौवन पर होती हैं।

ट्रेकिंग का शौक रखने वाले रिवालसर से घने जंगलों में से होते हुए 2850 मीटर की ऊंचाई पर स्थित शिकारी देवी मंदिर तथा कामरू नाग झील (3600 मीटर की ऊंचाई) तक जाकर अपनी यात्रा में रोमांच भर सकते हैं।

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