बर्फ का देश लद्दाख

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लद्दाख में प्राकृतिक सौंदर्य चप्पे-चप्पे में बिखरा हुआ है। वहां से कितना सौंदर्य और आनंद आप अपने हृदय में भरकर ला सकते हैं, यह आपकी क्षमता और दृष्टि पर निर्भर करता है।

लामाओं की भूमि लद्दाख के बारे में बहुत सुना था और जब से उसके बारे में इस तरह के विशेषण सुने थे कि लेह स्वर्ग जैसा है, इसके समान दुनिया भर में कोई जगह नहीं है तब से उसे देखने की हमारी बहुत इच्छा थी। जब एक दिन वहां जाने का इरादा बना तो हमने बड़े उत्साह और जोश के साथ तैयारियां शुरू कर दीं। लेह के बारे में जानकारियां इकट्ठी कीं। टूरिस्ट ऑफिस जाकर होटलों के बारे में पता किया और बुकिंग कराई। वहां जाने के वैकल्पिक रास्तों और साधनों की भी पूछताछ की।

रोमांचक यात्रा

जब से लेह के लिए हवाई मार्ग बना है और लेह से मनाली का सड़क मार्ग खुला है, लद्दाख जाने वाले पर्यटकों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। पहले यह क्षेत्र पर्यटकों के लिए बिलकुल भी सुविधाजनक नहीं था और सिर्फ ट्रेकिंग और रोमांच भरी साहसी यात्रा करने वाले लोग ही अपने साधनों से येन-केन-प्रकारेण वहां पहुंच कर सीमित सुख उठा पाते थे। लेकिन अब सब कुछ आसान हो गया है। ज्यादातर पर्यटक श्रीनगर, चंडीगढ़ या दिल्ली से हवाई यात्रा कर सीधे लेह जा पहुंचते हैं लेकिन जो लोग रोमांचकारी यात्राओं में यकीन रखते हैं और जो प्रकृति के सौंदर्य का दिल खोलकर आनंद उठाना चाहते हैं उनके लिए सड़क मार्ग से उत्तम कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमने भी यही रास्ता चुना और दिल्ली से 24 घंटे की बस यात्रा तय कर मनाली जा पहुंचे जहां से लेह की असली यात्रा शुरू होती है।

जम्मू-कश्मीर रोडवेज की बस को चलाने वाला ड्राइवर एक लद्दाखी था। कद से नाटा, मृदु से दिखने वाले चेहरे पर कठोर और जुझारू भाव। चाय पीने के लिए जब हम केलोंग पर रुके तो वांग्चुक-यही नाम था उस ड्राइवर का, ने बताया कि साल में ज्यादा से ज्यादा पांच महीने वह इस रूट पर बसें चलाता है। जून से सितंबर के बीच लेह-मनाली रूट पर लोगों का काफी आना-जाना रहता है। इसके बाद मांग घटती है तो राज्य सरकार इस रूट से बसें बहुत कम कर देती है तब उसे दूसरे रूट पर भेज दिया जाता है।

sak510पहला पड़ाव

मनाली से रोहतांग पास होते हुए केलोंग पहला महत्वपूर्ण पड़ाव आता है। यहां उजाड़-सा एक बस स्टेशन है। छोटी-छोटी दुकानें हैं। सब्जी, अंडे, बिस्किट, नमकीन सब एक साथ बेचती हुई। रोहतांग और बरालाचा-ला दो दर्रो के बीच में बसा है यह छोटा-सा पहाड़ी कस्बा। चारों तरफ केलोंग की पहाडि़यां नजर आती हैं और लगता है जैसे उन शिखरों के चरणों में बसा है यह छोटा-सा केलोंग।

लगभग पौने घंटे के नाश्ते-पानी के पड़ाव के बाद बस पूरी रफ्तार से दौड़ चलती है। ड्राइवर को दुगना जोश आ गया है और लोगों के पेट में ईधन पहुंचते ही जैसे उनके चेहरे पर उल्लास छा गया है। यह रोहतांग पास के दुर्गम रास्ते को पार करने का उल्लास है या पेट की ज्वाला शांत होने का परिणाम शायद दोनों का मिला-जुला प्रभाव। बस में अब सभी लोग ज्यादा बतियाने लगे हैं। हमें अभी रोहतांग दर्रे से कहीं ऊंचे बरालाचा-ला दर्रे (16000 फीट) को पार करना है और उसके बाद नीचे 2000 फीट की ढलाई के बाद शाम ढलने तक सरचू पहुंचना है। हमें बताया गया है कि सरचू में हमारा रात का पड़ाव है। उसके बाद दूसरी सुबह शुरू होगी-बस यात्रा की एक और नौ-दस घंटे लंबी दुर्गम यात्रा। तब हम पहुंचेंगे लेह। और उससे पहले हमें पार करना है दुनिया का सबसे ऊंचा-तांगलांग ला दर्रा-18000 फीट की ऊंचाई वाला। लेह तो सिर्फ 13,200 फीट की ऊंचाई पर ही है।

दुर्गम रास्ता

शायद लेह जैसा दुर्गम रास्ता दुनिया भर में नहीं है। मनाली से लेह तक किसी व्यूह जैसे पांच दर्रे हैं जिसमें एक दर्रे को दुनिया का सबसे ऊंचा दर्रा होने का गौरव प्राप्त है और इसी पर स्थित सड़क को दुनिया की सबसे ऊंची सड़क भी कहा जाता है इन रास्तों पर गुजरते हुए कभी ऐसे लगता है जैसे हम किसी सांप-सीढ़ी के खेल का हिस्सा हों। सीढ़ी से कुछ पायदानें- चंद हजार फीट हम ऊंचे चढ़े और ऊपर पहुंचते ही जैसे हमें किसी सांप ने डस लिया और हम कई हजार फीट नीचे आ गिरे। फिर सीढ़ी-फिर सांप और हजारों फीट की ये चढ़ाई-उतराई। पर इस चढ़ाई-उतराई के बीच का नैसर्गिक सौंदर्य अप्रतिम है। पहाड़, हरियाली, बर्फ, पेड़, चट्टानें, पर्वत शिखर, घाटियां, बस में यात्रा करते हुए ऐसे लगता है कि जैसे अनगिनत पेंटिंग्स खिड़की में से पीछे की तरफ भाग रही हों।

कौन सा रास्ता बेहतर

लेह जाने के लिए सड़क मार्ग से दो रास्ते हैं- एक मनाली से और दूसरा श्रीनगर से। अगर इन दोनों मार्गो की तुलना की जाए तो यह निर्णय करना असंभव होगा कि कौन सा रास्ता मन और दिल को ज्यादा आह्लादित करेगा।

मनाली और श्रीनगर के मार्गो में एक मूलभूत अंतर है। जहां एक तरफ श्रीनगर-लेह मार्ग में आधे रास्ते जितनी चढ़ाई है और फिर उतना ही उतार, वहीं मनाली-लेह रास्ता पूरी जिगजैक आकृति का है और दुर्गम तथा रोमांच से भरा। मनाली-लेह का यही पहलू रोमांच-पसंद यात्रियों और पर्यटकों को काफी आकर्षित करता है। खासतौर से यह मार्ग विदेशियों के बीच काफी लोकप्रिय है। रोमांच पसंद करने वाले पर्यटक पूरा आनंद उठाने के लिए अपने वाहन से यह मार्ग तय करना ज्यादा पसंद करते हैं। विशेष रूप से सायंकाल यात्रा के लिए दुनिया में कई जगह इसके लिए कुछ क्लब भी बना रखे हैं जो आपको इस बाबत पूरी सहायता देंगे। इन क्लबों के पास इस रास्ते के इतने विस्तृत नक्शे मौजूद हैं जो दर्शनीय पॉइंट्स के अलावा ढाबों, टी स्टॉल और पानी मिलने के पॉइंट्स का भी पता आपको ठीक-ठीक बताएंगे।

जब पहुंचे सरचू

सरचू में बस से उतरने के बाद एक लद्दाखी पोस्टमैन मिल गए जिन्होंने हमें न केवल सरचू के सबसे सस्ते और अच्छे गेस्टहाउस का मार्गदर्शन किया बल्कि उससे पहले वे बड़े आग्रह के साथ अपने घर भी ले गए। चूंकि गेस्टहाउस के रास्ते में ही उनका घर था इसलिए हमने उनके आग्रह को टाला नहीं। सड़क के रास्ते से दस सीढि़यां उतर कर उनका छोटा-सा दो कमरों वाला घर था जहां पर उन्होंने हमारा चाय और बिस्किटों के साथ सत्कार किया। यहां पर पहली बार हमने स्वादिष्ट लद्दाखी चाय को पहली बार चखा जो बाद में हमारे लेह-प्रवास का प्रिय पेय बनी। लद्दाखी चाय बिलकुल अलग स्वाद वाली होती है। जिसमें खट्टा-मीठा और कुछ कड़वापन इस अनुपात में होता है कि पसंद आने पर इसको बड़े लुत्फ के साथ पिया जा सकता है। लद्दाख की स्थानीय मदिरा को छांग कहते हैं और इसे पूरे क्षेत्र में बड़े शौक से पीया जाता है और स्ति्रयां भी इसका भरपूर लुत्फ उठाती हैं।

लद्दाखी लोग बहुत अच्छे मेजबान होते हैं। कद में थोड़े नाटे लेकिन मजबूत। भरे गुलाबी गालों वाले बच्चे और मुस्कराते युवा हर तरफ दिखाई पड़ जाते हैं। सड़क पर खेलते बच्चों का झुंड आपको देख कर ‘जुले’ कहना नहीं भूलता। अभिवादन के लिए ‘जुले’ यहां का सबसे ज्यादा प्रयोग में लाया जाने वाला शब्द है। जो वास्तव में नमस्ते, हैलो या राम-राम का लद्दाखी पर्याय है। राह में चलते और मिलते लोग एक-दूसरे को ‘जुले’ कहते हुए हर जगह दिखाई पड़ जाएंगे।

सरचू से आगे

सरचू में रैन-बसेरे के बाद, सुबह चाय-नाश्ता के बाद हम फिर से बस में सवार हो लिए। नकीला पास और लाचा लांग-ला दर्रा (16500 फीट) पार करने में हमें ज्यादा वक्त नहीं लगा। भूरे खाकी पहाड़ों के बीच यह रास्ता कल ही की तरह दुर्गम था पर शायद हम ऐसे रास्ते के अभ्यस्त हो चुके थे। कल से अब तक लगभग 300 किलोमीटर का रास्ता तय कर हम लाचा लांग-ला से उतर कर पेंग पहुंचते हैं यहां फिर चाय-पानी के लिए बस रुकती है। शायद बस अब यात्रियों समेत दुनिया के सबसे ऊंचे दर्रे तांगलांग पर चढ़ने से पहले खुद को तैयार कर रही है। यह हमारी आखिरी ऊंचाई है इसके बाद लेह तक हमें 5000 फीट उतरते ही जाना है।

दो घंटे की निरंतर चढ़ाई के बाद बस तांगलांग ला पर आ जाती है। हमें यकीन नहीं होता कि हम दुनिया की छत पर आ गए हैं। चारों तरफ खाकी पथरीले पहाड़ और उनके पीछे दूर-दूर तक बर्फीले पहाड़ और सिर के ऊपर भूरे श्वेत बादलों से झांकता नीला आकाश। लगता है जैसे किसी स्वप्नलोक में आ गए हों पर बस को यह सब देखने का धीरज नहीं है। वह तेज गति से अपने गंतव्य की तरफ भागी चली जा रही है।

अनेक छोटे-मोटे गांवों को पीछे छोड़ती हुई बस अंतत: हमको शाम होने तक एक वीरान से बस स्टैंड पर उतार देती है। यही लेह है। एक सौ रुपये में पहले से तय होटल तक का रास्ता एक सूमो-कम-टैक्सी में पूरा किया जाता है।

घूमने का सही समय

यूं तो लेह की तरफ दुनिया भर के सैलानी मार्च से जाना शुरू कर देते हैं पर यहां घूमने का सही समय जून से सितंबर के बीच है। लद्दाख में साल के आधे समय लोग शून्य से भी नीचे के तापमान में रहते हैं पर जुलाई-अगस्त में लेह में इतना तापमान ऊपर चला जाता है कि लोग सनबर्न की शिकायत लेकर डॉक्टर के पास पहुंच जाते हैं। इन दिनों तापमान में इतनी विषमता देखी जाती है कि इस बारे में एक कहावत-सी बन गई है कि अगर कोई व्यक्ति लेह में खुले में पैर फैलाकर बैठा हो तो यह बात बिलकुल संभव है कि एक ही वक्त में उस व्यक्ति का पैर ओस से भीगा हो और पीठ सूर्य से झुलस जाए।

लेह भ्रमण

जिस होटल में पहुंचे वह लगभग खाली-सा था। इस होटल में हमने पहले से बुकिंग करा रखी थी। रात भर हमको जमकर नींद आई। सुबह जरा देर से नींद खुली। हवा में ठंडक। हमारे होटल की खिड़की के एक तरफ से विशाल विस्तृत भूरे पहाड़ों की एक श्रृंखला झांक रही थी। उसके पीछे गहरे रंग के श्वेत नीरदों के बीच से सेम्पो गोम्पा की पहाड़ी और शंकर गोम्पा का गुंबद हलके बादलों के बीच से झांक रहा था। लेह में बहुत सारे मठ हैं और मठ के लिए लद्दाखी भाषा में शब्द है- गोम्पा।

पूरे जम्मू व कश्मीर राज्य में कुल 14 जिले हैं। जिनमें 6 जम्मू में, 6 कश्मीर में और 2 लद्दाख (कारगिल व लद्दाख) क्षेत्र में हैं। लद्दाख, जम्मू-कश्मीर का एक जिला भर मात्र है पर यह अकेला ही पूरे राज्य के एक तिहाई से भी ज्यादा हिस्से (क्षेत्रफल 82265 वर्ग किलोमीटर) को घेर लेता है। पूरे जिले की आबादी लगभग 80 हजार है जिनमें से 30 हजार के लगभग इसके मुख्यालय लेह में बसे हुए हैं। लेह ज्यादा बड़ा नहीं है और यहां स्थानीय दूरियां तय करने के लिए बसें, टैक्सियां सब कुछ हैं। लेह में सभी दरों के होटल (250 से लेकर 2500 रुपये प्रतिदिन तक), रेस्तरां और गेस्ट हाउस बहुतायत में हैं और काफी लोगों ने इसको अपने मुख्य व्यवसाय के रूप में अपना रखा है। हालांकि टूरिस्टों का सीजन यहां तीन-चार महीने से ज्यादा नहीं है पर इस उद्योग से जुड़े लोगों ने पूरे वर्ष के लिए अपने विकल्प ढूंढ रखे हैं। मसलन हम जिस होटल में ठहरे हैं उसका व्यवस्थापक जून से सितंबर तक लेह के इस होटल को संभालता है। साल के बाकी 8 महीने वह हिमाचल प्रदेश प्रस्थान कर जाता है जहां इसी होटल के मालिक ने लकड़ी का व्यवसाय खोल रखा है, वहां जाकर यह सह-व्यवस्थापक का पद संभाल लेता है।

पहला गंतव्य

सुबह की हलकी ठंडक में हमारा पहला गंतव्य है लेह पैलेस। यह लेह के बाजार के पास ही है और हमारा मकसद पैलेस और बाजार दोनों घूमना था। पहाड़ की चोटी पर बना यह महल ल्हासा के प्रसिद्ध पोटाला महल का लघु-संस्करण माना जाता है। इस पैलेस को यहां के राजा सिंग्मे नामग्याल ने सन 1645 में बनवाया था। आज उचित रख-रखाव के अभाव में यह उजड़ा और जीर्ण दिखाई पड़ता है पर अतीत में यह राजपरिवार का ग्रीष्मावास था लेकिन 1830 में राज परिवार के स्टोक में पलायन करने के बाद यह उजाड़ हो गया। पैलेस के ऊपर नामग्याल पहाड़ी पर विजय स्तूप है जिसका शीर्ष स्वर्ण मंडित है। यह स्तूप 16वीं सदी के अंत में लद्दाखियों द्वारा कश्मीर की बाल्ती सेना पर विजय के जश्न में निर्मित किया गया था। इसी महल के प्रासाद में नामग्याल त्सेमो मठ है जिसका निर्माण इस पैलेस से भी पहले (करीब 200 वर्ष से भी ज्यादा पहले) का है। मठ में साढ़े सत्रह मीटर ऊंची बुद्ध की एक सुंदर प्रतिमा है। बहुमूल्य धातुओं और विभिन्न रत्नों से मंडित मंदिर की नक्काशी अनुपम और अतुलनीय है। नामग्याल पहाड़ी पर बना यह महल जरूर खंडहर-सा है पर इस पहाड़ी के ऊपर से लेह के चारों तरफ का अत्यंत खूबसूरत नजारा अवर्णनीय है। वास्तव में लेह के प्रवास में हमने यही पाया कि यह क्षेत्र इतना खूबसूरत है कि उन्हें शब्दों, पेंटिंग्स और फोटोग्राफों से बयान नहीं किया जा सकता। उसका सौंदर्य इन सबसे ऊपर है।

हमारे होटल से लेह का बाजार ज्यादा दूर नहीं है। लेह के बाजार में सभी कुछ मिलता है। स्वेटर, शॉल, कपड़ों, कैसेटों से लेकर आजकल की सभी उपभोक्ता परक वस्तुएं। बाजार में तीन जर्मन बेकरियां हैं हालांकि उनका अब जर्मनी से कोई लेना-देना नहीं है और इन बेकरियों के मालिक लद्दाखी हैं पर इन बेकरियों के स्वादिष्ट लेमन केक और टोमैटो-कॉटेज सैंडविच दूर-दूर तक मशहूर हैं।

लद्दाखी महोत्सव

बाजार में कई जगहों पर लद्दाखी महोत्सव के पोस्टर लगे हुए हैं। 15 दिनों लंबा यह महोत्सव हर वर्ष सितंबर के पहले पखवाड़े में पूरे लद्दाख में जगह-जगह आयोजित किया जाता है। हमने लेह आने के ये दिन इस कारण से भी चुने थे कि हम लद्दाखी महोत्सव का भी आनंद उठा सकें। इस अवसर पर 15 दिनों तक पूरे जिले में जगह-जगह विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। आज के दिन बाजार के पास में ही यह आयोजन हो रहा था और हमने सोचा कि इसको भी देखते चलें।

तिब्बती बौद्ध महासंघ के प्रांगण में महोत्सव चल रहा है और प्रसिद्ध मास्क डांस हो रहा है। एक लहराती सी पंक्ति में करीब एक द‌र्झ्जन कलाकार बड़े छोटे डरावने से मुखौटे पहने धीरे-धीरे डांस करते हुए एक चक्कर में घूम रहे हैं। पा‌र्श्व में संगीत भी चल रहा है।

लद्दाखी संगीत

लद्दाखी संगीत की अपनी गति है और इसमें द्रुत का स्थान लगभग नहीं के बराबर है। गीत भी धीमी गति के होते हैं और भांगड़ा के विपरीत उसमें उछल-कूद और उल्लास का कोई स्थान नहीं है। इन गीतों में अकसर वीर-गाथाएं और नैतिकता की बातें मिलती हैं। मास्क-डांस मुख्यत: भिक्षुओं का डांस है। लगता है लंबे बर्फीले महीनों की नीरसता में रंग लाने के लिए उन्होंने इस डांस को रचा होगा। मास्क डांस के बाद एक तीरंदाजी प्रतियोगिता का भी आयोजन होता है। तीरंदाजी असल में लद्दाखियों के बीच काफी लोकप्रिय है और यह मनोरंजन के लिए सही चीज मानी जाती है।

शाम होते ही कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हम वापस गांव के रास्ते होटल की तरफ लौट पड़े। राह में स्ति्रयां और पुरुष मिले जो पीठ पर लकडि़यों का बोझ उठाए घर की तरफ जा रहे थे। यह सब आने वाले लंबे बर्फीले दिनों की तैयारी है। घरों में हर घर की छत, सूखी लकडि़यों से पटी पड़ी हैं। लोग-बाग धीरे-धीरे र्ईधन पानी जमा करने में लगे हुए हैं। नवंबर के बाद लेह में कड़ाके की ठंड पड़नी शुरू हो जाती है। धीरे-धीरे पूरा इलाका बर्फ में डूबने लगता है। इन दिनों में पचहत्तर फीसदी लेह खाली हो जाता है। लोग मैदानी इलाकों में काम-धंधे की जुगाड़ में निकल पड़ते हैं। तीन माह जमकर बर्फ पड़ती है और तीन माह उसे पिघलने में निकलते हैं।

उत्सवों की धूम

इस हिमाच्छादित क्षेत्र में जीवन बिलकुल रुक-सा जाता है। पर लद्दाखियों के कई सारे उत्सव और त्योहार इन्हीं दिनों में आयोजित होते हैं। ज्यादातर मठों के वार्षिक आयोजन भी ठंड के दिनों में आयोजित होते हैं। मठ के प्रांगणों में उन अवसरों पर संगीत और नृत्य नाटिकाओं के रात-भर लंबे आयोजन होते हैं। इन आयोजनों में सिर्फ स्थानीय ही नहीं बल्कि दूर-दूर से लोग आकर इस रंगोत्सव का हिस्सा बनते हैं। इन्हीं अवसरों का उपयोग नये-नये दोस्त बनाने और युवक-युवतियों के बीच संबंध बनाने के लिए किया जाता है।

हमारा अगला दिन श्रीनगर वाली सड़क पर स्पिटक मठ से आगे फियांग गोम्पा को समर्पित हुआ। लाल टोपी संप्रदाय द्वारा सोलहवीं शताब्दी में निर्मित फियांग मठ (या गोम्पा) में काफी सारी मूर्तियां और स्क्रोल हैं। सबसे पहले यहां एक भिक्षुक नजर आता है जो एक धर्म चक्र को घुमा रहा है और उसके साथ मंत्र बुदबुदाता घूम रहा है। मठ की दीवारों पर बौद्ध तंत्र से जुड़े हुए चित्र बने हुए हैं। कहीं कालचक्र बना है, कहीं अवलोकितेश्वर हैं, कहीं पंचावतार तो कहीं शून्यता और कहीं वैरोचन। मंदिर में पूर्ण शांति है।

जापानी मंदिर

फियांग से लौटते हुए हम लेह के पूर्वी इलाके में बने एक जापानी मंदिर को भी देखते गए। यह मंदिर बीसवीं सदी में जापानियों ने बनाया था। ऊंचाई पर बने इस मंदिर से लेह के पूर्वी हिस्से का विहंगम दृश्य बहुत सुंदर दिखाई देता है। लेह का यह इलाका कम घना है इसलिए यहां के मकान दूर-दूर फैले हैं और हरियाली का हिस्सा ज्यादा है। असल में हमारे अगले कुछ दिन लेह और उसके आसपास स्थित मठों को देखने में व्यतीत हुए। मठ यहां बहुत हैं और हरेक मठ की अलग खूबी है।

बहुत कुछ है देखने को

लेह किसी भी दृष्टि से नीरस नहीं है। अगर आप आकाश, बादलों और पर्वतों के शिखरों को देखकर थक जाएं तो मठ घूम सकते हैं या भरे-पूरे बाजार की तरफ रुख कर सकते हैं। एक दिन का आना-जाना खर्च कर आप जंस्कार घाटी की पेंगांग झील के अनुपम सौंदर्य को छकने की हद तक अपने अंदर आत्मसात कर सकते हैं। अगर पिघलती बर्फ और चमकती शुभ्र चांदनी के अलौकिक सौंदर्य को निहारना चाहते हैं तो अप्रैल या मई का माह लेह-भ्रमण के लिए सर्वोत्तम रहेगा और अगर चटखती धूप के बीच नीले आकाश को छूना चाहते हैं तो जून से सितंबर के चार माह आपको किसी स्वप्निल चंद्रलोक का आनंद देंगे। लेह प्रवास में आप कितना सौंदर्य और आनंद अपने मन और हृदय में भर कर ला सकते हैं यह आपकी अपनी क्षमता और दृष्टि पर निर्भर है।

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