उज्जैन: महाकाल की महिमा अपार

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मध्य प्रदेश में स्तिथ महाकाल की नगरी उज्जैन में कई महत्वपूर्ण मंदिरों के अलावा नगर से थोड़ी दूर एक गुफा है। यह अपने भीतर रहस्यों की एक पूरी दुनिया ही समेटे हुए है। दूसरी तरफ बौद्ध स्तूपों के लिए प्रसिद्ध सांची है, जहां कलिंग युद्ध के बाद मर्माहत सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।

एक कथा है पुराणों में कि जब देवताओं और राक्षसों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया तब उसमें से कई अमूल्य चीजें प्राप्त हुई। इनमें एक अमृत कलश भी था। देवता बिलकुल नहीं चाहते थे कि इस अमृत का थोड़ा सा भी हिस्सा वे राक्षसों के साथ बांटें। देवराज इंद्र के संकेत देने पर उनका पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर भाग निकला। राक्षस उसके पीछे-पीछे भागे। कलश पर कब्जे के लिए बारह दिनों तक हुए संघर्ष के दौरान अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी के चार स्थानों पर छलक पड़ीं। ये स्थान हैं- हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन । कलश से छलकी अमृत बूंदों को इन स्थानों पर स्थित पवित्र नदियों ने अंगीकार कर लिया। उज्जैन के किनारे बहने वाली शिप्रा भी इन नदियों में से एक थी।

इस उज्जैन की पहचान सिर्फ सिंहस्थ पर्व नहीं है। अवंतिका, विशाला, अमरावती, सुवर्णश्रृंगा, कुशस्थली और कनकश्रृंगा ग्रंथों और इतिहास के पन्नों में चमकती यह प्राचीन नगरी वही है जहां राजा हरिश्चंद्र ने मोक्ष की सिद्धि की थी। जहां सप्तर्षियों ने मुक्ति प्राप्त की थी। जो भगवान कृष्ण की पाठशाला थी। भर्तृहरि की योग भूमि थी। जहां कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ और मेघदूत जैसे महाकाव्य रचे। विक्रमादित्य ने अपना न्याय क्षेत्र बनाया। बाणभट्ट, संदीपन, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य जैसे संत विद्वानों ने साधना की और न जाने कितनी महान आत्माओं की यह कर्म और तपस्थली बनी। ऐसी भूमि पर कदम रखते ही कौन खुद को धन्य महसूस नहीं करेगा। मैंने जब इस धरा पर पहले-पहल कदम रखा तो एक साथ न जाने कितने भावों से एकाएक सराबोर हो गया।

मध्य प्रदेश में बसे उज्जैन के लिए निकटतम हवाई अड्डा इंदौर है, जो उज्जैन से पचपन किलोमीटर की दूरी पर है। इंदौर में रेलवे स्टेशन भी है जो दिल्ली, मुंबई, बनारस, भोपाल, अहमदाबाद, बिलासपुर और जयपुर जैसे महत्वपूर्ण स्थानों से सीधा जुड़ा है। इंदौर से उज्जैन बस या ट्रेन के जरिये आसानी से 45 मिनट में पहुंचा जा सकता है।

महाकाल के रहस्यलोक में

उज्जैन के दक्षिण में शिप्रा नदी से थोड़ा दूर उज्जैन का खास आकर्षण यहां का महाकाल मंदिर है। यहां का ज्योतिर्लिग पुराणों में वर्णित द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक है। उज्जैन के प्रसिद्ध महाकाल वन में स्थित महाकाल की महिमा प्राचीन काल से ही दूर-दूर तक फैली हुई है। महाकाल का यह मंदिर न जाने कितनी बार बना और टूटा। आज का महाकाल का यह मंदिर आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व राणोजी सिंधिया के मुनीम रामचंद्र बाबा शेण बी ने बनवाया था। इसके निर्माण में मंदिर के पुराने अवशेषों का भी उपयोग हुआ। रामचंद्र बाबा से भी कुछ वर्ष पहले जयपुर के महाराजा जयसिंह ने द्वारकाधीश यानी गोपाल मंदिर यहां बनवाया था। यहां श्रीकृष्ण की चांदी की प्रतिमा है। यहां तक कि मंदिर के दरवाजे भी चांदी के बने हुए हैं। कहा जाता है कि मंदिर का मुख्य द्वार वही है जिसे सिंधिया ने गजनी से लूट में हासिल किया था। इसके पहले यह द्वार सोमनाथ की लूट के दौरान यहां से गजनी पहुंचा था।

यहां द्वारकाधीश की प्रतिमा होने से इसे द्वारकाधीश मंदिर भी कहा जाता है। मंदिर की रचना और परिक्रमा परिसर अत्यंत रमणीय है। यहां दर्शनार्थियों की हमेशा भीड़ लगी रहती है, लेकिन जितनी भीड़ महाकालेश्वर मंदिर में होती है उतनी यहां और किसी मंदिर में नहीं होती। घंटों तक लोग कतारबद्ध खड़े रहते हैं। सिंहस्थ पर्व और महाशिवरात्रि के दौरान तो पूरा-पूरा दिन इंतजार करना पड़ता है।

चिता भस्म से पूजन

महाकालेश्वर का वर्तमान मंदिर तीन भागों में बंटा है। सबसे नीचे तलघर में महाकालेश्वर (मुख्य ज्योतिर्लिग), उसके ऊपर ओंकारेश्वर और सबसे ऊपर नाग चंदेश्वर मंदिर है। नाग चंदेश्वर मंदिर साल में सिर्फ एक बार खुलता है, नागपंचमी के अवसर पर। महाकालेश्वर की यह स्वयंभू मूर्ति विशाल और नागवेष्टित है। शिवजी के समक्ष नंदीगण की पाषाण प्रतिमा है। शिवजी की मूर्ति के गर्भगृह के द्वार का मुख दक्षिण की ओर है। तंत्र में दक्षिण मूर्ति की आराधना का विशेष महत्व है। पश्चिम की ओर गणेश और उत्तर की ओर पार्वती की मूर्ति है। शंकर जी का पूरा परिवार यहीं है।

महाकालेश्वर की दिन में तीन बार पूजा, श्रृंगार तथा भोग आदि से अर्चना होती है। ब्रह्म मुहू‌र्र्त में चार बजे महाकालेश्वर का पूजन चिता भस्म से किया जाता है। यह भस्म किसी मृतक की चिता से लाया जाता है। पूजन का यह कार्य स्वयं महंत करते हैं। इसके बाद पहली सरकारी पूजा सुबह आठ बजे होती है। फिर मध्याह्न और संध्या को पूजा की जाती है। प्रात: और संध्या वाली पूजा में कहीं ज्यादा भीड़ होती है। मंदिर के परिसर में बैठने वाले पुजारी कुछ अधिक पैसे लेकर विशेष पूजा करा देते हैं। उस पूजा के रेट यहां फिक्स किए हुए हैं।

महाकालेश्वर मंदिर के बगल में ही बड़े गणेश का मंदिर है। गणेश की विशाल प्रतिमा होने के कारण इसको बड़े गणेश का सीधा नाम दे दिया गया है। मंदिर के मध्य में सप्तधातु से बनी पंचमुखी हनुमानजी की मूर्ति है। मंदिर के प्रांगण में कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं। गणेश जी के ठीक सामने पंडित सूर्यनारायण जी व्यास ज्योतिषाचार्य के पिता की प्रतिमा है।

726 दीपों का स्तंभ

बड़े गणेश के मंदिर से शिप्रा नदी की तरफ जाने के रास्ते में मंदिर से बीस कदम दूर हरसिद्धि देवी का मंदिर है। हरसिद्धि देवी सम्राट विक्रमादित्य की आराध्य थीं। किंवदंती है कि सम्राट विक्रमादित्य ने हरसिद्धि को ग्यारह बार अपना मस्तक काटकर चढ़ाया और हर बार फिर मस्तक जुड़ गया। मंदिर के चारों तरफ चार द्वार हैं। मंदिर के दक्षिण में एक बावड़ी है। मंदिर में अन्नपूर्णा देवी की मूर्ति भी है। मंदिर के बीच में एक गुफा में साधक साधना करते हैं। मंदिर के समक्ष दो ऊंचे विशाल दीप स्तंभ हैं, जिन पर 726 दीपों के स्थान बनाए हुए हैं। नवरात्रि के समय यहां दीप जलाए जाते हैं, जिनका भव्य दृश्य इस मंदिर को आलोकित करता है।

हरसिद्धि देवी के मंदिर के पास एक पतली सी गली है, जिसमें कई छोटे-छोटे मंदिर हैं। इनमें एक मंदिर विक्रमादित्य का है। यहां विक्रमादित्य को समर्पित यह एकमात्र मंदिर है। हालांकि अब हरसिद्धि देवी के सामने वाली बावड़ी के बीच में विक्रमादित्य के एक और मंदिर का निर्माण चल रहा है। इसमें काल भैरव का एक मंदिर भी बनाने का यत्न किया जा रहा है। विक्रमादित्य मंदिर के साथ ही पाटीदार समाज द्वारा बनाया गया श्रीराम मंदिर है। यहां राम, लक्ष्मण, जानकी और हनुमानजी के साथ नवदुर्गा तथा शिव जी की मूर्तियां स्थापित हैं।

जीवनदायिनी शिप्रा

हरसिद्धि देवी और श्रीराम मंदिर के पीछे उज्जैन नगर के पूर्वी छोर पर शिप्रा नदी बहती है। महाकवि कालिदास और बाणभट्ट ने शिप्रा के गौरव और गरिमा का गुणगान अपने काव्य में किया है, पर आज की शिप्रा दयनीय हालत में है। भक्तगण इसकी स्वच्छता का बहुत कम ध्यान रखते हैं। उज्जैनवासियों के लिए शिप्रा जीवनदायिनी है। उन्हें दैनिक उपयोग के लिए जल की आपूर्ति शिप्रा से ही की जाती है। शिप्रा तट पर विशाल घाट, कई मंदिर और छतरियां बनी हुई हैं। यहां जगह-जगह पुजारी भक्तों को पूजा कराते नजर आते हैं। दूर-दूर तक कई घाट बने हुए हैं जिनमें रामघाट, नृसिंह घाट, छत्री घाट, सिद्धनाथ घाट, गंगा घाट और मंगलनाथ घाट प्रसिद्ध और पौराणिक महत्व वाले हैं। नदी के दूसरी ओर कुछ अखाड़े हैं जहां साधु रहते हैं। सिंहस्थ का पर्व दोनों तटों पर लगता है।

यह अंधेरी बंद गुफा

नगर के बाहर छह किलोमीटर की दूरी पर चिंतामणि गणेशजी का मंदिर है। शहर में टैम्पो की बहुत सस्ती और अच्छी सुविधा है, जो दो से तीन रुपये में शहर के किसी कोने में पहुंचा देती है। शहर से बाहर होने के कारण चिंतामणि मंदिर के लिए टैम्पो वाले चार रुपये किराया लेते हैं। चिंतामणि का यह मंदिर बहुत प्राचीन है और दर्शनार्थियों से भरा रहता है। इच्छापूर्ण और चिंताहरण गणेश जी के इस मंदिर में चैत्र मास में एक विशाल मेला लगता है। इस अवसर पर यहां विशेष पूजा होती है। विवाह का पहला निमंत्रण चिंतामणि को देने की प्रथा काफी लंबे समय से चली आ रही है।

चिंतामणि से और आगे शिप्रा तट के ऊपरी भाग में भर्तृहरि की गुफा है। एक संकरे रास्ते से गुफा के अंदर जाना पड़ता है। कहते हैं गुफा से चारों धाम जाने के लिए मार्ग है, जो अब बंद है। यह नाथ संप्रदाय के साधुओं का प्रिय स्थान है और योग साधना के लिए उत्तम माना जाता है। कई साधु यहां बरसों से साधना करते हुए देखे जा सकते हैं।

लीला भैरोनाथ की

गोपाल मंदिर से तीन किलोमीटर दूर शिप्रा के तट के किनारे भैरवगढ़ नाम की बस्ती है। यहां एक टीले पर काल भैरव का मंदिर है। यह मंदिर चार सौ वर्ष पुराना बताया जाता है। इसे राजा भद्रसेन ने बनवाया था। पुराणों में अष्टभैरव का वर्णन मिलता है। इनमें कालभैरव प्रमुख हैं। मंदिर में कालभैरव की करीब चार फुट ऊंची प्रतिमा है और जैसे भगवान शिव के मंदिर के सामने नंदी होते हैं, वैसे ही कालभैरव के सामने श्वान की प्रतिमा प्रतिष्ठित है।

कालभैरव के मंदिर के दर्शन की मेरी अभिलाषा उतनी प्रबल नहीं थी जितना यह देखने की कि भैरोनाथ किस तरह देखते-देखते शराब का सेवन करते हैं। उच्चैन के इन भैरोनाथ के बारे में विख्यात है कि ये भैरोजी अपने भक्तों से चढ़ावे के रूप में अन्य चीजों के अलावा शराब भी लेते हैं। कई मनौती मानने वाले भक्त और तांत्रिक शराब की बोतलें चढ़ावे के लिए लाते हैं। मंदिर से कुछ दूरी पर शराब बिक्री केंद्र है, जहां की ज्यादातर बिक्री भैरोनाथ के इस मंदिर की ही बदौलत होती है। कई भक्त शराब की बोतल लेकर आए थे। पुजारी ने उनसे बोतल ली और सारी शराब कटोरेनुमा एक चौड़े पात्र में उड़ेल दी। शराब से भरे उस पात्र को पुजारी ने भैरोनाथ के मुंह से लगाया और थोड़ा तिरछा कर दिया। इसके बाद मंत्रोच्चार शुरू हुए और देखते-देखते एक मिनट में उस पात्र की आधा लीटर शराब उड़न छू हो गई। चमत्कार हो गया। जो लोग यह कमाल पहले देख चुके थे वे विह्वल थे और जो पहली बार देख रहे थे वे चकित। पिछली सदी में अंग्रेज भी चकित हुए थे, पर विश्वास न कर सके। उन्होंने इसकी कड़ी छानबीन भी कराई थी, पर हाथ कुछ न लगा।

यह घर है मंदिरों का

उज्जैन में राजा जय सिंह द्वारा बनाई गई वेधशाला भी है। जंतर-मंतर यंत्र महल नाम से जानी जाने वाली यह वेधशाला शहर की आधुनिक बस्ती माधव नगर के किनारे पर है। राजा जय सिंह की ज्योतिष और ग्रह विज्ञान में काफी रुचि थी और वे चाहते थे कि भारतीय ज्योतिष में ग्रहों का गणित यथार्थ हुआ करे। इसी खयाल से उन्होंने उज्जैन के अलावा जयपुर, काशी, दिल्ली और मथुरा में भी वेधशालाएं बनवाई। समय के साथ मथुरा और काशी की वेधशालाएं ध्वस्त हो गई। अब सिर्फ उच्चैन, जयपुर और दिल्ली की वेधशालाएं ही बची हैं। उच्चैन की वेधशाला में बड़े आकार के पत्थर और ईट से बने चार यंत्र हैं। इनसे काल, नवांश, दिशा, दिगंश और ग्रहों का सूक्ष्म ज्ञान किया जा सकता है। आज भी कई लोग इसका उपयोग करते हैं।

मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में कितने मंदिर हैं और कितने भगवान इसका कोई हिसाब नहीं है। शहर के हर कोने, गली-कूचे में मंदिर और मूर्तियां स्थापित हैं। हजारों की तादाद में बने इन मंदिरों को कोई देखने लगे तो महीनों तक पार न पा सके। शहर में उद्योग और मनोरंजन के साधन न के बराबर हैं। शहर की खूबसूरती अगर कहीं है तो वह यहां के मंदिरों और पत्थरों की मूर्तियों में। शहर में उद्योग न होने के कारण यहां काम के सीमित अवसर हैं और यही कारण है कि यहां अमीर लोग भी गिने-चुने हैं। उज्जैन उन लोगों के लिए खासतौर से भ्रमण के अनुकूल है जो धर्मपरायण हैं या भारत की सांस्कृतिक परंपरा को खोजने में दिलचस्पी रखते हैं।

और यह है सांची

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 75 किलोमीटर की दूरी पर है एक छोटा सा कस्बा सांची। भोपाल के बस स्टैंड से हर आधा घंटे पर विदिशा के लिए स्थानीय बसें चलती हैं। यह वही विदिशा है जो बौद्ध काल में ईसा से छह सौ वर्ष पहले एक व्यापारिक नगर के रूप में विख्यात था। यह तमाम लोककथाओं के भी केंद्र में रहा है। विदिशा से नौ किलोमीटर पहले ही है सांची। आज विदिशा व्यापारिक शहर बिलकुल नहीं रह गया है, पर बेतवा और बेस नदी के संगम पर स्थित यह स्थान भोपाल-झांसी की मुख्य रेलवे लाइन पर है और सांची तक पहंुचने का दूसरा सुगम रास्ता है। अगर भोपाल विदिशा के बीच की सड़क अच्छी हो और बस बीच के बीसियों गांवों में यात्रियों को न चढ़ाती-उतारती हो तो भोपाल-सांची का रास्ता आसानी से एक घंटे में तय किया जा सकता है।

उज्जैन से मैं करीब 8 बजे चला था और दोपहर दो बजे सांची पहुंच गया। बस कंडक्टर के ‘उतरो सांची वाले’ की आवाज लगाते ही ड्राइवर ने बस रोकी और मैं उस चौराहे पर उतर पड़ा जहां आसपास नजर डालने से कहीं से भी नजर नहीं आता था कि यह सांची का बस स्टैंड होगा। मेरे अलावा दो और यात्री बस से उतरे और वे एक तरफ बढ़ लिए। सांची के स्टॉप पर उतरने के पहले मैंने सोचा था कि वहां उतरते ही मुझे दो-चार रिक्शे वाले घेर लेंगे और जग प्रसिद्ध स्तूप तक ले जाने के लिए खींचतान करेंगे, पर वहां ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उसका कारण भी तब समझ में आ गया जब मुझे पता लगा कि जहां मैं उतरा, वहां से सिर्फ  कुछ कदम की दूरी पर सांची का संग्रहालय है। वहीं बगल में एक छोटा सा द्वार है, जहां से ऊपर पहाड़ी पर जाने के लिए रास्ता बना है। सीढि़यां चढ़कर ऊपर पहाड़ी पर पहुंचा जा सकता है और इसी पहाड़ी पर स्थित हैं स्तूप।

खोदा पहाड़, निकले स्तूप

करीब दो सौ वर्ष पहले यहां ऐसा कुछ भी नहीं था। न तो यहां कोई कस्बा था और न ही किसी तरह के कच्चे-पक्के रास्ते। सन् 1818 में ब्रिटिश सेना का जनरल टेलर नाम का एक अधिकारी उत्सुकतावश इस पहाड़ी पर चढ़ गया था। वहां कुछ सुंदर गोलाकार आकृतियां दिखीं। उन्हीं आकृतियों को हम आज स्तूप नंबर एक, दो और तीन के नाम से जानते हैं। ब्रिटिश सेना का यह अधिकारी पहला ऐसा विदेशी था जिसने इन स्तूपों को देखा और दुनिया को उनके बारे में बताया। थोड़े ही समय में यह स्थान घुमक्कड़ों और पुराविदों की दिलचस्पी का महत्वपूर्ण क्षेत्र बन गया।

सन् 1822 में कैप्टेन जॉन्सन को लगा कि इन स्तूपों के अंदर जरूर कुछ धन गड़ा हुआ है। इस चक्कर में उसने जगह-जगह खुदाई कर डाली जिसके फलस्वरूप इसके स्तूप नंबर एक का एक द्वार भी गिर गया, पर कैप्टेन को खुदाई में कुछ भी हाथ नहीं लगा। इसके 25 वर्ष बाद एलेक्जेंडर कनिंघम ने भी खजाने के लालच में खुदाई कर डाली, पर यहां कुछ भी नहीं निकला। अंग्रेज यहां से निकली काफी मूर्तियां अपने साथ ले गए। सबसे अनोखी हरकत यहां के एक स्थानीय जमींदार ने की। वह यहां के एक लौह स्तंभ को उखाड़ कर इसलिए ले गया जिससे वह उस लोहे को एक कोल्हू के लिए इस्तेमाल कर सके। कालांतर में कई लोगों के लालच ने इस ऐतिहासिक स्थान का काफी नुकसान किया। इस सबके बावजूद आज यहां जो कुछ भी मौजूद है वह काफी संरक्षित अवस्था में है। पर इतिहासकारों और पुराविदों के लिए आज भी यह अनुमान करना मुश्किल है कि मूल रूप से ईसा पूर्व तीसरी सदी में यह कितना विशाल और समृद्ध था और इसका कितना हिस्सा मुसलिम और अंग्रेज शासकों ने लूट-लूट कर उजाड़ा।

यहां ली अशोक ने दीक्षा

सांची प्राचीन काल में बौद्ध कला और धर्म का बड़ा केंद्र रहा होगा। इसका अंदाज यहां स्थित स्तूपों को देखकर लगाया जा सकता है। सांची का वर्णन आज सिर्फ श्रीलंका के ‘दीपवामसा’ और ‘महावामसा’ नाम के बौद्ध धर्म के दो क्रोनिकल्स में मिलता है। इसके अनुसार सम्राट अशोक एक बार कुछ समय के लिए विदिशा में रहे थे और वहां उन्होंने देवी नाम की व्यापारी कन्या से विवाह किया था। देवी बौद्ध धर्म की अनुयायी थी और अशोक तथा देवी ने मिलकर वहां सांची की इस पहाड़ी पर कई स्तूप बनवाए। अशोक के बाद देवी से उत्पन्न उनके पुत्र महेंद्र ने भी इन स्तूपों का निर्माण जारी रखा। उसने सांची के अलावा कई अन्य जगहों पर भी स्तूपों का निर्माण कराया। इसी महेंद्र ने बाद में श्रीलंका जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया और वहां भी बुद्ध की मूर्ति और स्तूप बनवाए।

सांची में मिले अभिलेखों से यह भी पता चलता है कि विदिशा के कई व्यापारियों ने भी काफी दान देकर इन स्तूपों के निर्माण में सहायता की। कहा जाता है कि सांची ही वह जगह है जहां कलिंग युद्ध में रक्तपात से विचलित होकर अशोक ने युद्ध विरत हो बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। उसके बाद उसने संपूर्ण भारत में चौरासी हजार स्तूप बनवाए। इनमें आठ सांची में बनवाए गए।

पहाड़ी पर ऊपर पहुंचते ही सामने बहुत बड़ा स्तूप नजर आता है। इस सबसे बड़े स्तूप को स्तूप नंबर एक कहा जाता है। इस स्तूप से पहले बाई और दाई ओर दो मंदिर बने हुए हैं। दाहिनी ओर का मंदिर गर्भगृह और मंडप के समन्वय से चौथे शतक का गुप्त साम्राज्य का मंदिर भी है। कहा जाता है कि इस स्थान पर कई बौद्ध विहार और मठ हुआ करते थे और यह स्थान बौद्ध भिक्षुओं और अनुयायियों से भरा रहता था।

दरवाजों पर खुदी है कथा

सांची का मुख्य आकर्षण यहां का बड़ा स्तूप यानी स्तूप नंबर एक है। लगभग 16 मीटर ऊंचे और 37 मीटर व्यास के इस स्तूप में बुद्ध की कोई मूर्ति नहीं है। कमल, गाछ, पीपल और चक्र के माध्यम से बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और धर्मोपदेश के दृश्य को पत्थरों पर गढ़ा गया है। स्तूप चारों तरफ से पत्थरों से घेरा गया है। स्तूप के चारों तरफ चार द्वार बने हुए हैं और हर द्वार पर गाथाएं और घटनाएं उत्कीर्ण हैं। पश्चिम द्वार पर बुद्ध के सात जन्मों की कहानी गढ़ी हुई है। बुद्ध यहां प्रतीक के रूप में हैं। बुद्ध का यह प्रतीकात्मक रूप कहीं वृक्ष तो कहीं अश्व में दर्शाया गया है। एक दृश्य में दिखाया गया है कि बुद्ध को दैत्यगण मिलकर प्रलोभन दे रहे हैं।

दक्षिण द्वार पर बुद्ध के जन्म को दर्शाया गया है। यहां भग्नावस्था में वह सिंहमूर्ति भी है जिसे हमारे राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में लिया गया है। यह सिंहमूर्ति सारनाथ में भी है। स्तूप के पूरब वाले प्रवेश द्वार पर राजकुमार गौतम के प्रस्थान और बाद में निर्वाण प्राप्ति की घटनाएं उत्कीर्ण हैं। इसमें बुद्ध की मां, माया देवी के स्वप्न के दृश्य भी अंकित हैं। एक तरफ झूलती यक्षिणी की सुंदर मूर्ति है। उत्तर वाले तोरण में आम के वृक्ष के नीचे बुद्ध धर्मोपदेश देते नजर आते हैं। उनके पांवों से प्रकाश पुंज निकल रहा है और मस्तक से जलधारा प्रवाहित हो रही है। बराबर में देवतागण ढोल बजाकर उस अपूर्व दृश्य पर प्रसन्न हो रहे हैं।

उत्तर द्वार पर बना धर्मचक्र भी टूटी-फूटी अवस्था में है। इस पर एक दृश्य में बंदर बुद्ध को मधुर पेय देते हुए दर्शाए गए हैं। इस बड़े स्तूप के पश्चिम में पहाड़ की ढलान पर स्तूप नंबर दो पर भी ऐसी ही विलक्षण कला के दर्शन किए जा सकते हैं। इसमें अंग्रेजी के अक्षर एल आकार के चार प्रवेश द्वार हैं, जिन पर जीव-जंतु और पौराणिक आख्यान उत्कीर्ण हैं।

इसी स्तूप के पास अशोक की पत्नी देवी द्वारा निर्मित बौद्ध विहार भी है। स्तूप नंबर तीन में माटी के नीचे पत्थर के बक्से में बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र और महामेग गल्लाना के पार्थिव शरीर के अवशेष पाए गए थे। यहां पत्थरों से बने एक विराट पात्र के भी अवशेष हैं। कहा जाता है कि इस पात्र में उस समय भिक्षु लोग मांगी हुई भिक्षा इकट्ठी किया करते थे। इस स्तूप के उत्तर में सिर्फ एक तोरण है। स्तूप नंबर तीन के पीछे चार नंबर स्तूप भी है, जो लगभग नष्ट होने की स्थिति में है।

बिखरा पड़ा है इतिहास

सांची की इस पहाड़ी पर चारों तरफ ऐतिहासिक अवशेष बिखरे पड़े हैं। इतिहास और पुरातत्व के प्रति रुचिशील लोगों के लिए यहां काफी सामग्री उपलब्ध है। टूटे-फूटे बौद्ध विहार और अनगिनत अवशेष। इसी संपदा का कुछ हिस्सा सहेज कर पहाड़ी के नीचे स्थित संग्रहालय में रखा गया है। इस आकर्षक संग्रहालय में सांची और इसके आसपास बिखरे अतीत के हिस्से को प्रदर्शन के लिए रखा गया है।

सिर्फ सांची को देखकर ही काफी थकान होने लगी थी। एक छोटे से हॉल और एक छोटे गलियारे में सिमटा सांची का संग्रहालय थकान दूर करने का आदर्श स्थान है। थोड़ा खा-पी लेने के बाद सांची के आसपास बिखरे इतिहास को देखने के लिए अति उत्साही पर्यटक बढ़ सकते हैं। सांची के आसपास बमुश्किल दस किलोमीटर के दायरे में कई स्तूप और ऐतिहासिक स्थल हैं। दक्षिण-पश्चिम में दस किलोमीटर की दूरी पर सोनारी है, जहां आठ स्तूप हैं। विपाशा के तट पर सातधारा में दो और दक्षिण-पूर्व में आठ किलोमीटर दूर आंघेर में तीन स्तूप हैं। यहीं पास ही भीलसा दुर्ग में भी अशोक के  समय के काफी स्मृति चिन्ह हैं। भीलसा से तीन किलोमीटर की दूरी पर उदयगिरि है, जहां बीस बौद्ध विहार हैं। इसके अलावा यहां हिन्दू धर्म के भी 18 विहार हैं। यहां के पांच नंबर विहार में वराह अवतार की सुंदर मूर्ति है। इसमें वराह रूपी विष्णु पृथ्वी को समुद्रतल से बाहर निकालते हुए दिखाए गए हैं और उनके दोनों ओर देव और असुर खड़े हैं।

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