अलग-अलग रंग हैं दशहरे के

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शरद ऋतु के आगमन के साथ ही समूचे भारत   में दशहरे की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। उत्तर भारत में दशहरा सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसके सबसे लोकप्रिय तत्व रामलीला का उदय बनारस से माना जाता है।

बनारस के निकट रामनगर की रामलीला अपनी अलग शैली के लिए विख्यात है। दशहरे से एक माह पूर्व शुरू होने वाली इस लीला का मंचन एक जगह न होकर नगर के विभिन्न स्थानों पर होता है। इसे घटित लीला कहते हैं। चित्रकूट की लीला शैली झांकी लीला कहलाती है। बड़े शहरों में यह तड़क-भड़क वाले आयोजन में बदल गई है। दिल्ली में तो कई संगठन अपने आयोजन को आलीशान बनाने पर बेहिसाब खर्च करते हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, हरियाणा, पंजाब व राजस्थान में भी ऐसे ही आयोजन होते हंै। अल्मोड़ा का दशहरा थोड़ा भिन्न है। वहां विजयदशमी पर राम दरबार की डोली निकालती है। उसके पीछे रावण व उसके परिवार के राक्षसों के पुतले भी घुमाए जाते हैं।

इनमें रावण, कुंभकर्ण व मेघनाद के अलावा ताड़का, खर-दूषण व सुबाहु के भी होते हैं। बाद में इनका दहन कर दिया जाता है। हिमाचल में कुल्लू का दशहरा अपने आपमें अनोखा है। सत्रहवीं सदी में राजा जगतसिंह के काल में आरंभ हुए यहां के दशहरा उत्सव को देखने देश-विदेश से हजारों पर्यटक आते हैं। ढालपुर के मैदान में विजयादशमी से आरंभ होकर यह सप्ताह भर तक चलता है। रघुनाथ मंदिर से सुंदर झांकी निकाली जाती है। दूर-दूर के गांवों से लोग अपने देवता का डोला लेकर यहां आते हैं।

ढालपुर मैदान में उपस्थित होकर सारे देवता रघुनाथ जी के दरबार में सम्मान प्रकट करते हैं। कई विदेशी कलाकार भी यहां अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करने आते हैं। राजस्थान में रामलीला के अलावा शमीवृक्ष की पूजा भी की जाती है। हरियाणा, पंजाब व उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में देवी की पूजा सांझी के रूप में की जाती है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में मां दंतेश्वरी की पूजा की जाती है। तेरह दिन के इस उत्सव में दो रथयात्राएं निकाली जाती हैं। इनमें भारिया और ध्रुवा जनजाति के लोग शामिल होते हैं। गुजरात और महाराष्ट्र में यह उत्सव डांडिया व गरबा की धूम के लिए प्रसिद्ध है। दक्षिण भारत में मैसूर का दशहरा अंतरराष्ट्रीय ख्याति पा चुका है। उत्सव का केंद्र मैसूर पैलेस होता है। विजयादशमी को विशाल जुलूस निकलता है। एक हाथी पर सुनहरी हौदे में मां चामुंडेकूवरी की स्वर्णप्रतिमा विराजती है। तमिलनाडु व आंध्रप्रदेश के लोग घर में ही सुंदर झांकी सजाते हैं। आंध्र के तेलंगाना क्षेत्र में इन्हीं दिनों बतुकम्मा पर्व मनाया जाता है। बांस की खपच्चियों से शंकु की आकृति बनाकर उसे फूलों से सजाया जाता है और समीप ही किसी मंदिर में रखकर देवी के रूप में उसका पूजन करते हैं। बंगाल, असम व बिहार के भी बहुत बड़े भूभाग पर महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की पूजा की परंपरा चार सदी पुरानी है। बड़े-बड़े पंडालों में भव्य सज्जा के बीच मां दुर्गा की विशाल प्रतिमा स्थापित की जाती है। महालय की बेला पर आगमन गीत गाए जाते हैं तथा घट स्थापित किया जाता है। विजयदशमी के दिन गाजे-बाजे के साथ प्रतिमाओं को जल में विसर्जित कर दिया जाता है। आज यह उत्सव वाराणसी, इलाहाबाद, गोरखपुर, भुवनेश्वर व दिल्ली के साथ-साथ जहां कहीं भी बंगाली समाज बसा है, उसी धूमधाम व परंपरागत तरीके से मनाया जाता है। दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों में रामकथा का मंचन सांस्कृतिक विशिष्टताओं के तहत होता है।

इंडोनेशिया के शास्त्रीय नृत्य नाटकों, रंगमंच व छाया नाटकों में रामकथा पूरी तरह छाई है। वहां रामलीला कविवर योगेश्वर द्वारा रचित रामायण काकाविन पर आधारित है। जावा व बाली द्वीप में वायांग, कुमिन, रामायण बैले, वेरांग केत्जक विधाओं में रामकथा प्रस्तुत की जाती है। थाईलैंड में रामकथा का मंचन रामक्येन अर्थात रामकीर्ति नाम से किया जाता है। मलेशिया में चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं सदी में रचित एक रचना के आधार पर रामायण की छायालीला की जाती है। कंबोडिया में रामायण पर आधारित नाटक होते हैं। म्यांमार में रामलीला थाईलैंड से पहंुची। यहां जाटग्यी वा पाया प्वे के जरिये रामकथा मंचन होता है। मॉरीशस, फिजी, त्रिनिडाड, सूरीनाम आदि देशों में भी रामकथा का मंचन होता है। हालांकि इन देशों में रामलीला का प्रस्तुतीकरण भारत से काफी भिन्न है। इसका कारण हर देश की अपनी संस्कृति कला व परिवेश है, परंतु सबका मूल भाव एक ही है और वह है भगवान राम के आदर्श गुणों की प्रस्तुति।

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