एक पर्व के रूप अनेक

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विविधता में एकता की हमारी संस्कृति को दर्शाने वाला बहुरंगी पर्व है मकर संक्रांति। इस पर्व का रूप देश के सभी भागों में अलग-अलग है, पर सभी जगह इसका उद्देश्य सूर्य की उपासना ही है। सूर्य हमारे ऋतुचक्र की धुरी हैं, जो हर माह एक से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं। इस क्रम में जब वह धनु से मकर राशि में जाते हैं, तब उनकी दिशा भी बदलती है और वह दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं। संक्रमण की इस वेला को अत्यंत पावन माना जाता है, जो हर वर्ष 14 जनवरी को आती है तथा इसे मकर संक्रांति कहा जाता है। मकर संक्रांति पर सूर्य ऐसे कोण पर होते हैं कि उनकी रश्मियां पृथ्वी, जल व प्राणियों पर दिव्य प्रभाव डालती हैं। इसीलिए इस दिन देश के सभी प्रांतों में अलग-अलग ढंग से सूर्य पूजा की जाती है।

संगम पर मेले

लगभग पूरे उत्तर भारत में मकर संक्रांति के दिन किसी पवित्र सरोवर, नदी या नदियों के संगम पर स्नान का विशेष महत्व है। जल में खड़े होकर सूर्य को अ‌र्घ्य दिया जाता है। इसके बाद खिचड़ी, गुड़ एवं तिल आदि का दान किया जाता है। भोजन में खिचड़ी एवं गुड़ व तिल की बनी चीजें खाई जाती हैं। इस दिन से शुभ कार्य शुरू करने की परंपरा काफी पुरानी है। नदियों व तीर्थो पर मेले लगते हैं। गंगा-यमुना के संगम पर प्रयाग का माघ मेला इनमें सबसे प्रसिद्ध है। इन्हीं दिनों पंजाब के मुक्तसर में भी माघी मेला लगता है।

लोहड़ी की धूम

पंजाब व हरियाणा में इस समय लोहड़ी की धूम होती है। यह पर्व 13 जनवरी की रात सामूहिक रूप से मनाया जाता है। बच्चे कई दिन पूर्व ही मोहल्ले में लोहड़ी मांगने पहुंच जाते हैं। रात को सभी परिवारों से एकत्र की गई लकड़ी व कंडे से अलाव जलाया जाता है। उसके चारों ओर घूमकर लोग मूंगफली, रेवड़ी, मक्के के दाने आदि अग्नि को समर्पित करते हैं तथा बाद में आपस में बांटते हैं। अलाव के निकट ही भांगड़ा एवं गिद्दा डालते हैं। जिन परिवारों में किसी नवविवाहित युगल या नवजात शिशु की पहली लोहड़ी होती है, वहां तो यह त्योहार किसी बड़े उत्सव का रूप ले लेता है।

खिचड़ी और घुघुति

उत्तर प्रदेश व उत्तरांचल के अधिकांश भाग में इसे खिचड़ी के नाम से जाना जाता है। मकर संक्रांति पर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में बाबा गोरखनाथ मंदिर में विशाल मेला लगता है। मंदिर में आकर लोग पहले खिचड़ी चढ़ाते हैं। इस मेले में शामिल होने के लिए नेपाल से भी बहुत तीर्थयात्री आते हैं। उत्तरांचल में कुमाऊं के कुछ हिस्सों में घुघुति नामक त्योहार भी इसी दिन मनाया जाता है। यह त्योहार विशेषतया बच्चों से जुड़ा है। उन्हें सूखे मेवों की माला पहनाई जाती है। कौओं को खाने के लिए खासतौर पर बनाई कुछ चीजें दी जाती हैं।

उत्सवी पतंगें

गुजरात व राजस्थान में इस पर्व का जोश आकाश में उड़ती रंग-बिरंगी पतंगों के रूप में नजर आता है। जयपुर में पतंग उत्सव होता है। अहमदाबाद में गुजरात पर्यटन द्वारा अंतरराष्ट्रीय पतंग महोत्सव किया जाता है। वहां इसे उत्तरायण पर्व कहते हैं। पतंग महोत्सव में कई देशों के लोग भाग लेते हैं। अलग-अलग डिजाइन की कई पतंगें एक साथ उड़ाने की स्पर्धा होती है। महाराष्ट्र में इस मौके पर तिल, चावल, चीनी व अन्य पदार्थो को पकाकर गोली बनाने और उनसे आभूषण बनाने का रिवाज है। ये आभूषण आशीर्वाद के रूप में दामाद व बच्चों को दिए जाते हैं।

नृत्य-गीत का पर्व बिहू

असम में संक्रांति के समय माघ बिहू की धूम होती है। पारंपरिक परिधानों में लिपटे स्त्री-पुरुषों का उत्साह देखते ही बनता है। उत्सव का पहला दिन उरूका कहलाता है। रात में सामूहिक भोज होता है। इसमें नए अन्न का प्रयोग होता है। इस दिन तिलपीठा एवं तिल लड्डू भी बनते हैं। मुर्गो एवं भैंसे की लड़ाई के आयोजन होते हैं। पर्व का वास्तविक आनंद लोक नृत्यों तथा लोकगीतों के रूप में सामने आता है।    बंगाल एवं उड़ीसा के लोगों के लिए संक्रांति के समय लगने वाला गंगा सागर मेला महत्वपूर्ण होता है। गंगा को धरा पर उतारकर कपिलमुनि के आश्रम तक लाकर भागीरथ ने जहां सगर पुत्रों को संक्रांति मुक्ति दिलाई थी। मेला उसी जगह लगता है। गंगा सागर मेले में पूरे देश से लोग आते हैं। तीर्थयात्री पहले वहां स्नान करते हैं, जहां गंगा का सागर से संगम होता है, फिर तीर्थ दर्शन करते हैं।

तीन दिन मनाते हैं पोंगल

दक्षिण में मकर संक्रांति का अलग ही रूप होता है। तमिलनाडु में इसे पोंगल के रूप में मनाया जाता है। अच्छी उपज में सहायक सूर्य, प्रकृति तथा पशु को समर्पित पोंगल तीन दिन तक मनाया जाता है। त्योहार का पहला दिन बोगी कहलाता है। घर के द्वारों पर आम की पत्तियों की बंदनवार सजाई जाती है तथा आंगन को रंगोली से सजाते हैं। दूसरा दिन पोंगल कहलाता है। इस दिन सूर्य की आराधना की जाती है तथा नई फसल के चावल व गन्ने के रस से पोंगल तैयार किया जाता है। पोंगल व ताजे फल-सब्जी पहले अग्नि को समर्पित किए जाते हैं। तीसरा दिन मट्टू पोंगल होता है। इस दिन लोग अपने पशुओं को सजाते हैं। कहीं-कहीं पशु मेले भी लगते हैं। तमिलनाडु का लोकप्रिय ग्रामीण खेल जल्लिकटु भी इस दिन आयोजित होता है। इस खेल में बैल के सींगों के साथ इनाम की राशि बांधी जाती है। जो साहसी आक्रामक बैल को साधता है, वही इनाम जीतता है। इस मौके पर तरह-तरह के नृत्य और सांस्कृतिक आयोजन होते हैं।

आंध्रप्रदेश में भी इस दिन घर की साफ-सफाई कर उसे सजाया जाता है। आंगन में चावल के आटे से मग्गु की रचना करते हैं, जिसके आसपास बैठ कन्याएं गीत गाती हैं। अगले दिन मोहल्ले में अलाव जलाकर लोग वहां जुटते हैं। कई जगह लोकनृत्य आदि के कार्यक्रम होते हैं। तेलंगाना जिले में इस मौके पर पतंगें उड़ाने का भी चलन है। केरल राज्य में यह घरेलू त्योहार के रूप में मनाया जाता है। इसके अलावा वहां के सबरीमाला मंदिर तथा त्रिशूर के कोडुंगलूर भगवती मंदिर में संक्रांति पर भक्तों की बहुत भीड़ होती है। सूर्योपासना के इस महान पर्व पर चाहे जिस रूप में सूर्य की पूजा की जाए, मानव को उससे बड़े पुण्य तथा पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है। मानव शरीर को एक नई ऊर्जा एवं ओज प्राप्त होता है।

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