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हिमालय की भव्यता के प्रतीक ऊंचे पर्वतशिखरों पर विजय हर पर्वतारोही चाहता है। नौजवानों को यह शिखर मूक निमंत्रण देते रहते हैं। विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट (8848 मीटर) पर मई 1953 में पहली बार सर एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे ने अपने कदम रखे। इसके बाद दुनिया भर के नौजवानों की रुचि पर्वतारोहण के प्रति तेजी से बढ़ने लगी। इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, स्पेन व जापान के पर्वतारोहियों ने विभिन्न चोटियों पर चढ़ाई की। यह क्रम आज भी जारी है।
प्रशिक्षण की आवश्यकता
यद्यपि उपकरणों व मौसम की पूर्व जानकारी के अभाव के बावजूद मनुष्य ने अत्यंत कठिन बाधाओं को लांघकर कई शिखरों पर विजय पाई है,परंतु इस प्रक्रिया में कई अनुभवी पर्वतारोहियों ने अपने प्राण गंवाए हैं। जोखिम भरे इस काम के दौरान किन उपकरणों व सावधानियों की जरूरत होती है, यह पर्वतारोही को जानना चाहिए। पर्वतारोहण प्रशिक्षण में पहाड़ों पर चलने, रहने हाई आल्टीट्यूड का ज्ञान, मौसम के अनुमान, उपकरणों के प्रयोग, रॉक क्लाइंबिंग, स्नोक्राफ्ट, आइसवाल क्लाइंबिंग, नदी व क्रेवास (बर्फ से ढके या छिपे गढ्डे) जैसी बाधाओं को लांघना, संकट में पड़े साथियों को बचाना, बर्फ का घर बनाकर रहना, ऑक्सीजन सिलेंडर का प्रयोग, चोटी पर चढ़ना आदि सिखाया जाता है। यह प्रशिक्षण हाई आल्टीट्यूड ट्रेकिंग में भी काम आता है।
पर्वतारोहण संस्थान
पर्वतारोहण के महत्व और इसके खतरों को देखते हुए ही देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पर्वतारोहण के प्रशिक्षण के लिए संस्थान स्थापित करने को प्रोत्साहित किया। 1958 में दार्जिलिंग में हिमालय पर्वतारोहण संस्थान की स्थापना हुई। इसके बाद उत्तरकाशी में नेहरू इंस्टीटयूट ऑफ माउंटेनियरिंग, मनाली में माउंटेनियरिंग एंड एलाइड स्पोर्ट्स तथा कश्मीर में जवाहर इंस्टीटयूट ऑफ माउंटेनियरिंग बने। कश्मीर में ही हाई आल्टीच्यूड वारफेयर स्कूल भी है। राजस्थान के माउंट आबू क्षेत्र में भी माउंटेनियरिंग इंस्टीटयूट है। यहां पर्वतारोहण के बेसिक व एडवांस कोर्स कराए जाते हैं। आज पश्चिम बंगाल में ही माउंटेनियरिंग के नौ सौ से अधिक क्लब हैं। महाराष्ट्र के युवाओं में भी पर्वतारोहण के शौक का उफान सा आया हुआ है।
हाई आल्टीट्यूड
समुद्रतल से एवरेस्ट तक की ऊंचाई को तीन भागों में बांटा गया है। दस हजार फुट तक की ऊंचाई, दस से बीस हजार फुट तथा बीस हजार से ऊपर किसी भी सीमा तक। प्रथम श्रेणी में आने वाले क्षेत्रों को जनजीवन का क्षेत्र व दूसरे को ऑक्सीजन क्षेत्र कहते हैं। तीसरी श्रेणी वाला वह क्षेत्र है जहां जनजीवन संभव नहीं है, जिसे जोन ऑफ डेथ कहते हैं। कुछ पर्वतारोहियों ने ऑक्सीजन सिलेंडर का प्रयोग किए बिना एवरेस्ट पर सराहनीय विजय पाई है। पर्वतारोहण या हाई आल्टीट्यूड ट्रेकिंग करते समय ऊपर लिखे विभाजन का ध्यान रखना चाहिए।
दुर्घटनाओं से बचाव
अब आधुनिकतम उपकरणों की सहायता से पर्वतारोहण किया जाता है। आकाशवाणी से मौसम की भविष्यवाणी के विशेष बुलेटिन का प्रसारण पर्वतरोहियों के लिए किया जाता है। फिर भी दो प्रकार के खतरों से हमेशा चौकस रहना होता है। एक तो स्वयं जनित और दूसरी प्राकृतिक आपदाएं। स्वास्थ्य का हमेशा ध्यान रखना, उपकरणों का उचित प्रयोग करने के अतिरिक्त हिमस्खलन वाले क्षेत्र की पहचान करके उससे दूर रहना या बचकर निकलना, सूखे नदी नालों से दूर तथा हवा से जहां बचा जा सके, ऐसे स्थान पर कैम्प लगाना, तुषाराघात से बचाव आदि मूल भूत बातों का ध्यान रखना अतिआवश्यक है।