प्रकृति की गोद में रोमांच का सफर

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खुली जीप या हाथी पर सवार होकर घने जंगलों में पशु-पक्षियों के बीच विचरना, ऊंट की पीठ पर बैठकर रेगिस्तानी गांवों की घुमक्कड़ी करना या फिर घुड़सवारी के साथ-साथ पहाड़ पर चढ़ाई का आनंद लेना..अब से तीन दशक पहले तक आम आदमी के लिए यह सब सिर्फ कल्पना में ही संभव था, पर अब कल्पना का यह आनंद यथार्थ के सुख में बदल चुका है। पहले केवल राजाओं-नवाबों तक सीमित रहे इस आनंद को जनसामान्य के लिए सुलभ बनाया है पर्यटन उद्योग के तेज विकास ने।

सफारी पर्यटन

बीसवीं शताब्दी के उत्तरा‌र्द्ध में पर्यटन के जो नए आयाम सामने आए उनमें सफारी पर्यटन का स्थान बेहद महत्वपूर्ण है। वैसे अपने-आपमें सफारी पर्यटन के भी कई आयाम हैं, लेकिन भारत में इसके तीन रूप सबसे ज्यादा प्रचलित हैं। इनमें पहला है जीप सफारी यानी खुली जीप पर सवार होकर घुमक्कड़ी, दूसरा कैमल सफारी यानी ऊंट की पीठ पर बैठकर घूमना और तीसरा एलीफैंट सफारी यानी सवारी हाथी की। इनके अलावा हॉर्स सफारी यानी घुड़सवारी वाला सफर और बोट सफारी यानी नाव के जरिये पर्यटन का आनंद लेने का तरीका भी धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रहा है। नए दौर में प्रकृतिप्रेमियों के बीच विशेष रूप से लोकप्रिय हो रही पर्यटन की इस विधा की प्रेरणा के स्त्रोत पर गौर किया जाए तो वह शायद भारत के धार्मिक पर्यटन यानी तीर्थयात्राओं में मिले। हालांकि आज यह जिस व्यावसायिक रूप में सामने है, वह  इसे पश्चिम ने दिया है और पश्चिम के लोगों को इसकी प्रेरणा उन खोजी घुमक्कड़ों से मिली होगी जिन्होंने शताब्दियों पहले साधनों की कमी के बावजूद दुनिया देखने के इरादे से लंबी साहसिक यात्राएं कीं।

प्रकृतिप्रेमी घुमक्कड़

धार्मिक दृष्टि से अभी भी हमारे देश में इस तरह की लंबी पदयात्राएं कांवड़ उठाने या विभिन्न परिक्रमाओं के रूप में की जाती हैं, पर उनमें आस्था ही प्रमुख होती है। जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न आज के सफारी घुमक्कड़ों का लक्ष्य इस तरह दुनिया को बेहद निकट से देखना और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करना होता है। इसीलिए दो तरह के घुमक्कड़ सफारी पर्यटन को खास तौर से पसंद करते हैं। इनमें पहले नंबर पर आते हैं। प्रकृतिप्रेमी घुमक्कड़, जो विभिन्न वन्य जीव अभ्यारण्यों में खुली जीप पर सवार होकर या हाथी या घोड़े की पीठ पर बैठकर पशु-पक्षियों के जीवन और वनस्पतियों की खूबियों को करीब से देखते और जानते हैं। दूसरे संस्कृति के वह अध्येता हैं जो लोकजीवन, खास तौर से ग्रामीण क्षेत्रों की कलाओं, परंपराओं और रीति-रिवाजों को निकट से जानना चाहते हैं। हालांकि सांस्कृतिक उद्देश्य से पर्यटन की प्रक्रिया हमारे देश के सिर्फ एक प्रांत राजस्थान में ही अभी व्यावसायिक रूप प्राप्त कर सकी है। इस दिशा में छत्तीसगढ़ सरकार भी प्रयास कर रही है और संभव है कि आने वाले वर्षो में वहां की जनजातीय सभ्यता और संस्कृति पर्यटन के जरिये विदेशी मुद्रा कमाने का एक बड़ा माध्यम बने।

सांस्कृतिक व अकादमिक घुमक्कड़ी

वैसे भारतीय संस्कृति को निकट से जानने की ललक दुनिया भर के अकादमिक लोगों में देखी जाती है और देश के सभी प्रांतों में सांस्कृतिक घुमक्कड़ी के लिए खोजी लोग आते रहते हैं, लेकिन उनकी संख्या न के बराबर होती है। साथ ही वह कम से कम खर्च पर अधिकतम कार्य करने वाले लोग होते हैं, इसलिए अकादमिक घुमक्कड़ी को व्यावसायिक रूप राजस्थान के अलावा अन्य प्रांतों में अभी नहीं दिया जा सका है। राजस्थान में सांस्कृतिक उद्देश्यों से ही कैमल सफारी व्यावसायिक रूप ले चुका है। वैसे वहां जीप सफारी भी होती है और कई बड़े होटल व ट्रेवल कंपनी समूह वहां के लिए टूर आयोजित करते हैं। पर्यटन में सफारी की जो विधा यहां खास तौर से विकसित होने की ओर बढ़ रही है वह ईको टूरिज्म से जुड़ी हुई है। देश के कई बड़े राष्ट्रीय अभ्यारण्यों में तरह-तरह के सफारी टूर आयोजित किए जाते हैं।

नेशनल पार्क

जिन अभ्यारण्यों में सफारी टूर होते हैं उनमें उत्तर प्रदेश का दुधवा नेशनल पार्क, उत्तरांचल के जिम कॉर्बेट व राजाजी नेशनल पार्क, राजस्थान के रणथम्भौर व भरतपुर नेशनल पार्क, मध्य प्रदेश में बांधवगढ़ व कान्हा नेशनल पार्क, गुजरात का गीर नेशनल पार्क, उड़ीसा का नंदन कानन, आंध्र प्रदेश के कोलेरू, मंजीरा और नेलापट्टू बर्ड सैंक्चुरी तथा असम में काजीरंगा नेशनल पार्क प्रमुख हैं। हाथी की पीठ पर बैठकर जंगल की सैर के लिए दुधवा, जिम कॉर्बेट और काजीरंगा खास तौर से जाने जाते हैं। केरल के पेरियार वन्य जीव अभ्यारण्य में एलीफैंट सफारी का अलग ही मजा है। दुधवा में जीप और ऊंट सफारी भी उपलब्ध है। सरकार वहां सफारी को बढ़ावा देने के प्रति गंभीर है और इसके लिए दुधवा में सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं।

एडवेंचर टूरिज्म

केंद्र अभी एडवेंचर टूरिज्म को बढ़ावा दे रहा है और परोक्ष रूप से इसका भी लाभ सफारी को मिलेगा। दूसरी तरफ, जिम कॉर्बेट पार्क में जीप व हाथी के अलावा हॉर्स सफारी भी की जा सकती है। हॉर्स सफारी की सुविधा हिमाचल प्रदेश में भी है। कुछ वर्ष पूर्व ही केरल में बोट सफारी की शुरुआत हुई है और अब इसी तर्ज पर उड़ीसा की चिल्का झील में होने वाला नौकाविहार भी धीरे-धीरे बोट सफारी का रूप लेने लगा है। जाहिर है अगर यह प्रयोग सफल हुए तो अन्य पक्षी विहारों में भी इनकी शुरुआत हो जाएगी। इसी तरह भरतपुर के पक्षी अभ्यारण्य में साइकिल और रिक्शे भी किराये पर मिल जाते हैं। हालांकि यह अभी सफारी का रूप नहीं ले सके हैं, लेकिन आगे साइकिल व रिक्शा सफारी शुरू होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। वस्तुत: सफारी पर्यटन की बढ़ती लोकप्रियता ने कई बड़ी कंपनियों का ध्यान अपनी ओर खींचा है।

पर्यटन आय में सफारी का योगदान

भारतीय पर्यटन के अर्थतंत्र में सफारी की हिस्सेदारी का ठीक-ठीक आंकलन तो अभी तक उपलब्ध नहीं है, लेकिन जानकार सूत्रों का मानना है कि कुल पर्यटन आय में इसका योगदान बड़ा है। भारत की कई बड़ी कंपनियों को इस संदर्भ में केन्या के पर्यटन उद्योग से प्रेरणा मिली है। वहां की पूरी पर्यटन अर्थव्यवस्था ही सफारी पर टिकी हुई है और यांत्रिक रूपों में ही सफारी की अत्यंत विकसित व्यवस्था बन चुकी है। नेपाल, श्रीलंका, सिंगापुर आदि देशों की पर्यटन आय में भी सफारी की महत्वपूर्ण भूमिका है। देश-विदेश में सफारी ट्रिप्स आयोजित करने वाली कंपनी हानयिन टूर्स के निदेशक गौरव कटारिया कहते हैं, ‘दरअसल हमारे देश में इसकी व्यावसायिक शुरुआत ही बहुत देर से हुई और वह भी मूल रूप में ईको टूरिज्म के तौर पर।

ईको टूरिज्म

ईको टूरिज्म के दौरान हाथी, घोड़ों और जीपों के प्रयोग की लोकप्रियता देख इस दिशा में प्रभावी प्रयास शुरू किए गए और कम समय में इसका जितना विकास हुआ उसे कम नहीं जा सकता। फिर भी अभी यहां बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।’ जिम कॉर्बेट और दुधवा जैसे कुछ पार्को में पर्यटक अफसरों से अनुमति लेकर अपनी जीपों से भी सैर कर सकते हैं, पर अभी इसका चलन कम ही है। आम तौर पर लोग अभ्यारण्यों या मान्यता प्राप्त ट्रेवल कंपनियों द्वारा आयोजित ट्रिप्स में ही सफारी पर्यटन का आनंद लेना पसंद करते हैं। दरअसल इन ट्रिप्स में एक तो हर चीज के बारे में जानकारी देने के लिए जानकार गाइड मिल जाते हैं और दूसरे वाहन खराब होने या ईधन भराने जैसी चिंताएं भी नहीं होती हैं। अलग-अलग जगहों पर सीजन, अवधि और सुविधाओं के अनुसार भारत में ऐसी ट्रिप्स का मजा पांच हजार से लेकर एक लाख रुपये तक में ले सकते हैं। जानकार लोगों के अनुसार यहां सफारी पर्यटन की जैसी संभावना है, उस हिसाब से यहां विकास न के बराबर है।

ट्रैक रिप्रेजेंटेशंस के उप महाप्रबंधक राजीव बताते हैं, ‘व्यावसायिक नजरिये से देखा जाए तो अभी भी हमारे यहां इस पर पर्याप्त काम ही नहीं हुआ है। इस क्षेत्र में विश्व स्तर पर जैसी प्रतिस्पद्र्धा चल रही है उसमें टिकने के लिए हमें अपने वन्य जीव अभ्यारण्यों को अपग्रेड करना पड़ेगा। अवैध रूप से हो रहे शिकार को रोकना होगा। जंगलों में ऐसी व्यवस्थाएं बनानी पड़ेंगी कि लोग जिन जंतुओं को देखना चाहते हैं, उन्हें हर हाल में देख सकें। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में लोककलाओं और परंपराओं की सुरक्षा के लिए पर्याप्त इंतजाम बनाने होंगे। इनसे जुड़े लोगों को ऐसी सुविधाएं मुहैया करानी होंगी कि वह खुद को नए दौर में पिछड़ा हुआ महसूस न करें।’

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