कौमी एकता का प्रतीक अजमेरशरीफ

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अजमेर का इतिहास जितना रोचक है, धार्मिक दृष्टि से वह उतना ही महत्वपूर्ण है। अरावली की  पहाडि़यों के मध्य तारागढ़ नामक पहाड़ी के आसपास फैले इस शहर को चौहान राजा अजयपाल ने सातवीं सदी में बसाया था। चौहान राजाओं के बाद यह मेवाड़ के राणाओं, मुगल शासक अकबर और फिर अंग्रेजों के अधिकार में रहा। धार्मिक दृष्टि से यह शहर हिंदू-मुस्लिम दोनों ही समुदायों की श्रद्धा का महत्वपूर्ण उदाहरण है। अजमेर की प्रसिद्धि का सबसे बड़ा कारण सूफी संत ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है, जिन्हें श्रद्धा से लोग ख्वाजा गरीब नवाज भी कहते हैं।

दरगाह शरीफ

दरगाह शरीफ एक ऐसा पवित्र स्थल है जहां हर संप्रदाय के लोग पूरी श्रद्धा के साथ आकर दुआएं मांगते हैं।ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का जन्म 530 हिजरी अर्थात 1136 ई. में ईरान में हुआ था। वे धार्मिक प्रवृत्ति के शख्स थे। फकीरों से मिलना और तीर्थ यात्राएं करना उनके जीवन का हिस्सा था। ख्वाजा उस्मान चिश्ती के शिष्य बनने के बाद वह चिश्तिया परंपरा के महान सूफी संत बन गए। 52 वर्ष की उम्र में वे भारत आए और कई शहर घूमने के बाद यहीं रहने लगे। फिर वे जीवन भर अजमेर में ही रहे। उन्होंने बिना कोई भेदभाव किए हर व्यक्ति को हमेशा प्रेम, एकता और भाईचारे का सबक सिखाया। वे खुदा से सबका दर्द अपने लिए मांग लेते थे। ख्वाजा साहब के पास जो भी आता वे उसकी सहायता करते थे। आज भी जो उनकी दरगाह पर आता है, वह खाली हाथ नहीं लौटता।

शाहजहां ने करवाया था गुंबद का निर्माण

ख्वाजा साहब की दरगाह का प्रवेश द्वार एवं गुंबद अत्यंत भव्य है। दरगाह का निर्माण हुमायूं ने पूरा करवाया था। दरगाह के प्रवेश द्वार के निकट मस्जिद अकबर ने बनवाई थी। मजार के ऊपर गुंबद का निर्माण शाहजहां ने करवाया था। हैदराबाद के निजाम ने यहां महफिलखाने का निर्माण कराया। दरगाह के बीस से अधिक दरवाजे हैं। दरगाह के अंदरूनी भाग में चांदी का कटहरा बना है। जिसमें मेहराबदार द्वार भी बने हैं। कटहरे और द्वारों पर की गई नक्काशी अत्यंत आकर्षक है। यह कारीगरी दरगाह के पवित्र माहौल के अनुरूप है। यहीं फारसी भाषा में कुछ संदेश भी अंकित हैं। यह भव्य कटहरा जयपुर के महाराजा जयसिंह द्वारा बनवाया गया था। इसके चारों ओर घूम कर लोग कब्र की परिक्रमा करते हैं। बाहर बने दालान को बेगामी दालान कहा जाता है। इसमें सुंदर झाड़ फानूस लगे हैं।

दरगाह के परिसर में एक और मस्जिद भी है। प्रांगण में दो विशाल देग रखी है। इनमें गरीबों में वितरित करने के लिए कई मन खिचड़ी बनाई जाती थी। इनमें से बड़ी देग अकबर तथा छोटी देग जहांगीर ने रखवाई थी। बाद में पुरानी देगों की जगह सिंधिया राजाओं के एक सूबेदार ने नई देग बनवाई थी।

मुगल सम्राट ने दरगाह शरीफ पर आकर पुत्र प्राप्ति के लिए मन्नत मांगी थी। बाद में पुत्र प्राप्त होने पर उन्होंने अजमेर तक पैदल यात्रा की थी। तबसे दरगाह का महत्व और बढ़ गया। रोज हजारों लोग मन्नत मांगने आने लगे। मन्नत पूरी होने पर चादर चढ़ाने की परंपरा है। आज भी हर शख्स अपनी हैसियत के अनुसार चादर चढ़ाता है। प्रतिवर्ष उर्स के मौके पर तो चादर चढ़ाने वालों का तांता ही लगा रहता है। यह उर्स प्रतिवर्ष इसलामी कैलेंडर की रजब माह की पहली से छठी तारीख तक चलता है। छठी तारीख ख्वाजा साहब की पुण्यतिथि मानी जाती है।

सालाना उर्स

उर्स में हर संप्रदाय के लोग शामिल होते हैं। उस दौरान दरगाह का जन्नती दरवाजा भी खोला जाता है। रात के समय महफिलखाने में कव्वालियों का कार्यक्रम होता है। यह भी ख्वाजा साहब के प्रति श्रद्धा और इबादत का एक हिस्सा है। इस कार्यक्रम में देश के प्रसिद्ध कव्वाल भाग लेते हैं।

उर्स के अवसर पर लाखों लोग अजमेर पहुंचते हैं। जिसके लिए प्रशासन को जबरदस्त बंदोबस्त करना पड़ता है। उस दौरान विदेशों से आए श्रद्धालुओं की संख्या भी बहुत होती है। अजमेर की जनसंख्या तो जैसे दुगुनी ही हो जाती है। बाजार किसी दुल्हन की तरह सज उठते हैं। दरगाह के सामने का बाजार तो फूलों की सुगंध से हर पल महकता रहता है।

पवित्र दरगाह के अतिरिक्त पर्यटक यहां अढ़ाई दिन का झोंपड़ा, आना सागर झील, फाय सागर, तारागढ़, नसियां मंदिर तथा राजकीय संग्रहालय भी देखते हैं। राजस्थान की राजधानी जयपुर से अजमेर 131 किमी दूर है तथा बस व रेलमार्ग द्वारा कई प्रमुख शहरों से जुड़ा है।

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