शिल्प और आस्था का संगम है उड़ीसा

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ऐतिहासिक स्थापत्य, अद्भुत मूर्तिशिल्प व सुनहरे सागरतट की भूमि उड़ीसा में पुरी, कोणार्क और भुवनेश्वर का पर्यटनत्रय प्रकृति, धर्म व सूर्य के समन्वय का अनूठा मिसाल है। हमारी यात्रा का पहला पड़ाव था पुरी। देश के चार पवित्र धामों में एक पुरी को जगन्नाथ पुरी, पुरुषोतम नगरी व शंखक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। पुरी पहुंच कर हमने उड़ीसा पर्यटन के होटल में कमरा लिया। कुछ ही घंटे बाद सागर की चंचल लहरों का कर्णप्रिय शोर हमें लुभाने लगा। बाहर आए तो हमने स्वयं को अनंत जलराशि के सामने पाया। मीलों तक फैले पुरी के स्वच्छ व शांत सागरतट पर दिनभर सैलानियों की भीड़ होती है। समुद्री हवाओं, रेत की तपन व सूर्यस्नान के शौकीन लोगों को यह तट बहुत भाता है। यहां सूर्योदय व सूर्यास्त दोनों का सुंदर नजारा देख सकते हैं। सूर्यास्त के बाद भी यह बीच जीवंत बना रहता है। इसका कारण है यहां लगने वाला जगमगाता बाजार, जहां शंख व सीपी के साथ ही हर तरह की हस्तशिल्प वस्तुओं की दुकानें सजी होती हैं।

मंदिर जगन्नाथ का

अगले दिन हम जगन्नाथ मंदिर पहुंचे। भगवान कृष्ण, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा को समर्पित यह मंदिर राजा अनंतवर्मन ने 12वीं सदी में बनवाया था। कलिंग शैली के इस मंदिर के शिखर की ऊंचाई है 58 मीटर। यहां एक बहुत बड़ी रसोई है जहां प्रभु  का महाप्रसाद बनता है। यह एशिया की सबसे बड़ी रसोई है। बाद में हम गुंडीचा मंदिर, बेड़ी हनुमान,गंभीरामठ, गोवर्धनपीठ, नानकमठ, नरसिंह व इस्कॉन मंदिर देखने गए। पुरी से लोग भगवान की प्रतिमाएं जरूर ले जाते हैं। कोणार्क चक्र व पौराणिक प्रसंगों वाले पटचित्र यहां की खास पहचान हैं।

कला का महाकाव्य

सुबह की स्वर्णिम अरुणिमा के बीच झूमते नारियल वृक्षों से भरे मार्ग से होते हम कोणार्क पहुंचे। यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल कोणार्क मंदिर सूर्य के प्रति आस्था का प्रतीक है। चंद्रभागा नदी के समुद्र संगम के पास स्थित इस मंदिर का निर्माण 13वीं सदी में गंगवंश के राजा नरसिंह देव ने करवाया था। मंदिर इस तरह बनाया गया है कि दिन भर सूर्य की किरणें सूर्य प्रतिमा को स्पर्श करती रहें। दिन के विविध प्रहरों में इसे  देखना अपने आपमें अलग अनुभव है। विशाल रथ के आकार में बने सूर्य मंदिर की दीवारें देखकर लगता है जैसे पत्थरों पर कला का महाकाव्य रचा गया है। देवी-देवताओं की सौम्य प्रतिमाओं, प्रकृति के सुंदर रूपों व जनजीवन के अलावा तमाम रतिदृश्य भी कलात्मक ढंग से बनाए गए हैं। इसका यही वैभव यूरोपीय नाविकों को लुभाता था। उन्होंने इसे ब्लैक पगोडा नाम दिया था। आज भी हजारों विदेशी यहां आते हैं। अगले दिन पिपली गांव जाकर हमने एप्लीक आर्ट के नमूने खरीदे।

हजार मंदिरों का शहर

पिपली गांव से हम सीधे भुवनेश्वर पहुंचे। यहां कभी 7000 मंदिर थे। आज कहने को लगभग 500 मंदिर हैं, लेकिन देखने लायक सिर्फ 30 ही रह गए हैं। नगर भ्रमण हमने लिंगराज मंदिर से शुरू किया। यहां हरिहर नामक लिंग की पूजा होती है, जो आधा विष्णु व आधा शिव है। 11वीं सदी में बने इस मंदिर का 54 मीटर ऊंचा सुंदर  शिखर दूर से ही लुभाता है। दीवारों पर देवी-देवता, नर-नारी व पशु-पक्षी की सुंदर आकृतियां हैं। दसवीं सदी के मुक्तेश्वर मंदिर का धनुषाकार तोरण बेहद सुंदर है। दीवारों पर पंचतंत्र की कहानियों के प्रसंग उकेरे गए हैं। राजरानी मंदिर की वास्तुकला में बौद्ध शैली की झलक दिखती है। दीवारों पर कई सुंदर मूर्तियां बनी हैं। इनमें सबसे प्राचीन है परशुरामेश्वर मंदिर। ब्रह्मेश्वर मंदिर की दीवारों पर नर्तकियों व संगीतज्ञों के साथ स्त्री-पुरुष प्रेम के दृश्य भी तराशे गए हैं।

स्तूप विश्वशांति का

भुवनेश्वर के आसपास बौद्ध व जैन धर्म से जुड़े कई दर्शनीय स्थल हैं। नारियल के वृक्षों से घिरे सुंदर मार्ग से होते हुए पहले हम धौली पहुंचे। धौली अशोक स्तंभ के लिए प्रसिद्ध है। धौलगिरी पहाड़ी पर बना धौली स्तूप विश्वशांति स्तूप के नाम से जाना जाता है। यहीं पहाड़ी से हमने वह घाटी भी देखी जहां कलिंग युद्ध हुआ था। उदयगिरि व खंडगिरि गुफाएं बौद्ध भिक्षुओं व जैन मुनियों की साधना का केंद्र रही हैं। राजा खारवेल के समय बनी इन गुफाओं की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियां बोलती सी लगती हैं। रानी गुंफ की दीवारों पर उड़ीसी नृत्य की छवियां हैं और हाथी गुंफा में राजा खारवेल के शिलालेख। उदयगिरि में 18 और खंडगिरि में 11 गुफाएं हैं। यहां से विष्णु, वराह देव, गंगा व यमुना की गुप्तकालीन प्रतिमाएं भी पाई गई थीं।

नंदन कानन की सैर

गुफाओं के बाद हम भुवनेश्वर से 25 किमी दूर चंडक वन में नंदन कानन देखने पहुंचे। यहां एक प्राणी और वनस्पति उद्यान है। सफेद बाघों के लिए प्रसिद्ध नंदन कानन में हमने लॉयन सफारी का आनंद लिया। बच्चों को उड़ीसा का यह चिडि़याघर बहुत पसंद आता है। शहर में वापस आकर हमने हस्तशिल्प संग्रहालय, उड़ीसा राजकीय संग्रहालय व ट्राइबल रिसर्च संग्रहालय भी देखे। उसी शाम हमें सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने का मौका मिला। जिसमें यहां का उड़ीसी नृत्य हमें विशेष पसंद आया। इस नृत्य में नृत्यांगना की भावभंगिमा और हाथों की लय में प्रेम, विरह और श्रृंगार के भाव प्रदर्शन ने हमारे दिल को छू लिया। यहां के छऊ और कोया लोकनृत्य भी आज देशभर में प्रसिद्ध हैं। कई धर्मो के प्रभाव, वास्तुशिल्प का वैभव और शताब्दियों पुराने गौरवशाली इतिहास ने इस धरती को ऐसे आयाम दिए हैं कि जो पर्यटक यहां एक बार आता है, वह बार-बार आना चाहता है। वास्तव में परिवार सहित भ्रमण के लिए पुरी भुवनेश्वर कोणाक एक आदर्श पर्यटन त्रिकोण है।

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