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भारत की शास्त्रीय नृत्य परंपरा में कुचीपुड़ी का अपना अलग महत्व रहा है। इसकी प्रस्तुति वस्तुत: नृत्य नाटिका के रूप में की जाती है, जिसकी कथा तेलुगु भाषा में कही जाती है। धार्मिक आस्था से जुड़ा यह नृत्य पहले आंध्र प्रदेश के मंदिरों में उत्सवों के दौरान प्रस्तुत किया जाता था। नृत्य की इस विधा का आरंभ दूसरी शताब्दी ई.पू. में सातवाहन साम्राज्य के समय हुआ माना जाता है। पहले इस विधा में केवल पुरुष ही भाग लेते थे, परंतु बाद में स्ति्रयों को भी शामिल किया गया और अब स्त्रियां भी बतौर मुख्य पात्र इसमें भूमिका निभाती हैं। खास तौर से ब्राह्मण जाति के लोग इसे प्रस्तुत करते थे, जिन्हें भगवथलू कहा जाता था। इन्हीं लोगों ने मंदिरों में देवताओं की आराधना के लिए 1502 ई. में पहली बार एक मंडली बनाई और इसमें stस्त्रियों को भी शामिल किया।
कुचीपुड़ी गांव
नृत्य की इस अद्वितीय विधा का उद्गम स्थल आंध्र का दिल कहे जाने वाले विजयवाड़ा शहर से करीब 65 किलोमीटर दूर स्थित कुचीपुड़ी गांव है। आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में स्थित इस गांव का मूल नाम कुचेलापुरी या कुचेलापुरम है, जो बाद में बदलकर कुचीपुड़ी हो गया। यह गांव नृत्यकला में रुचि रखने वाले सैलानियों के लिए तीर्थ जैसा है। नृत्य की इस शैली के जनक सिद्धेन्द्र योगी माने जाते हैं।
उन्होंने ही इस गांव में एक गुरुकुल की स्थापना की और कुछ ब्राह्मण बालकों को साथ लेकर अभ्यास कराना शुरू किया। गुरुकुल में रहने वाले बालकों के लिए कड़े नियम बनाए और प्रत्येक बालक के लिए वेदों व शास्त्रों के अलावा नाटयशास्त्र का गहन ज्ञान और संध्या वंदन अनिवार्य कर दिया। उन दिनों इस गुरुकुल को विजयनगर साम्राज्य का संरक्षण प्राप्त था, पर विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद कई लोग अच्युतापुरम चले गए।
उस समय के आर्थिक संकट के बावजूद कुछ लोग यह गांव छोड़कर नहीं गए। सिद्धेन्द्र योगी उन्हें साथ लेकर गोलकुंडा के नवाब अब्दुल हसन तनिशा से मिले। नवाब उनकी प्रस्तुति देखकर ऐसे भावविभोर हुए कि कुचीपुड़ी गांव ही कलाकारों को बतौर इनाम दे दिया। फि र सिद्धेन्द्र योगी ने नए सिरे से इस कला के विकास के लिए कार्य शुरू किया। उन्होंने श्रृंगारिक रूप में पारिजात हरणम और कालव्य की रचना की। वैष्णव आंदोलन से प्रभावित होने के कारण वे मानते थे कि मानव का अंतिम लक्ष्य ईश्वर में विलीन होना ही है। इसीलिए बाद के दिनों में भी नृत्य की इस विधा के लिए जो गीत रचनाएं की गई, उन पर भक्ति आंदोलन का प्रभाव बना रहा।
कथानकों पर बौद्ध मत का प्रभाव
कुचीपुड़ी गांव को अपनी भौगोलिक स्थिति का भी पर्याप्त लाभ मिला। बौद्ध धर्म में महायान संप्रदाय के महान आचार्य नागार्जुन भी कुछ दिनों तक यहां आकर रहे थे। दूसरी से 14वीं शताब्दी ई. तक बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र रहा घंटशाल भी यहां से मात्र पांच मील दूर है। यही कारण है कि कुचीपुड़ी के कुछ कथानकों पर बौद्ध मत का भी पर्याप्त प्रभाव दिखता है। जैन आचार्यो ने भी इस विधा को प्रभावित किया। समय-समय पर हुए कई बदलावों के बाद भी आंध्र संस्कृति का यह अविभाज्य अंग यहां अपने मूल रूप में आज भी विद्यमान है।