डेजर्ट ट्रेकिंग: रेत पर बंजारा सफर

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यूं तो रेगिस्तान के नाम से ही खुष्की का आभास होता है परंतु थार में अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य का खजाना छिपा है। इसका आनंद वे बिरले लोग ही उठा पाते हैं, जिनकी आम तौर पर साहसिक गतिविधियों में रुचि होती है। सर्दियों में जब पहाड़ों में आवागमन रुक जाता है तो मरुस्थल मानो ऐसे लोगों को आमंत्रित करता है। ऐसी ही एक ख्वाहिश ने हमें भी कुछ समय पहले जैसलमेर पहुंचा दिया। आठ सदस्यों का हमारा दल दिल्ली माउंटेनियरिंग एसोसिएशन की ओर से थार डेजर्ट अभियान के तहत वहां गया था। सरदियों में जैसलमेर तमाम गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन जाता है।

रेगिस्तान में ट्रेकिंग के यहां कई रास्ते हैं। जैसलमेर से 45 किलोमीटर की दूरी पर सम नामक जगह है। यहां दूर-दूर तक फैले रेत के टीलों के विहंगम और मनोहारी दृश्य दिल-दिमाग पर हमेशा के लिए छाप छोड़ते हैं। रेगिस्तान में यूं तो कई जहरीले सांप, बिच्छु और अन्य कीड़े होते हैं लेकिन सरदियों में ये धरती की गहराइयों में चले जाते है। तब रेत पर निश्चिंत विचरण का अवसर मिलता है। बालू पर बिखरी चांदनी सुंदरता की नई-नई परिभाषाएं लिखती नजर आती हैं। ट्रेकिंग तथा चांदनी रात में ऊंट सवारी जैसी यात्राएं जैसलमेर और सम से शुरू होती हैं क्योंकि ऊंट इन्हीं स्थानों पर उपलब्ध होते हैं।

अधिकतर ट्रेकर्स जैसलमेर को बेस कैंप बनाते हैं। सभी आवश्यक सामग्री भी यहां से मिल जाती है। आम तौर पर ट्रेकर्स यहां से आठ-दस दिन रेत पर चलकर गडरा रोड नामक स्थान तक जाना पसंद करते है। भारत-पाक विभाजन के समय गडरा शहर पाकिस्तान में चला गया और गडरा रोड रेलवे स्टेशन भारत में ही रह गया।

तैयारी

जैसलमेर पहुंचकर हम किले के समीप एक सस्ते होटल में दो दिन ठहरे थे। पहले दिन हमने दो ऊंटों का प्रबंध किया,भोजन सामग्री, ईंधन और आवश्यक दवाइयां आदि खरीदी। पानी के लिए दो जरीकेन भी खरीदे। रेगिस्तान में यही चीज सबसे दुर्लभ है। हमने जैसलमेर के पुलिस अधीक्षक से मिलकर अपने कार्यक्रम की जानकारी दी। वैसे तो हमने स्थानीय पुलिस को दिल्ली से भी अग्रिम सूचना भेज दी थी। लेकिन जैसलमेर से आगे जाने के लिए कलेक्टर से इजाजत लेनी पड़ती है। पाकिस्तान सीमा यहां समीप है अत: इस क्षेत्र में विशेष चौकसी रखी जाती है। इजाजत के साथ हमें कई सुझाव भी मिले, जैसे रात को मत चलना, खुले में मत सोना, चोर-डाकुओं से सावधान रहना, चप्पल पहन कर मत चलना क्योंकि रेगिस्तान में सांप होते है, अपने साथ पर्याप्त मात्रा में पानी लेकर चलना, आदि-आदि।

अगले दिन हमने सम तक का सफर जीप से तय किया। सम से कुछ पहले ही रेत के विशाल टीले (स्थानीय भाषा में टीबे) दिखाई देने लगे। ड्राइवर ने जीप रोक दी। कई पर्यटक वहां रेत में आनंद ले रहे थे। हम भी टीलों पर चढ़ने-उतरने का भरपूर आनंद लेकर कुछ समय वहां बैठ गए। बलखाती किसी सुंदरी से लगते इन टीलों का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत था। जैसे बारिश में आकाश में विचरते बादलों की आकृतियां बनती बिगड़ती रहती है, कुछ उसी तरह से गरमियों में रेगिस्तान की तेज हवाएं रेत के टीलों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती हैं और टीलों को नई आकृतियां प्रदान करती हैं। जब तक तेज हवाएं चलती हैं,यह क्रम चलता रहता है लेकिन सरदियों में यह थम जाता है। प्रकृति का यह रूप विचित्र अनुभूति दे रहा था।

यहां से हम तीन कि.मी. चलकर सम पहुंच गए और गांव के बाहर एक कामचलाऊ कमरे में ठहर गए। शाम ढलते-ढलते रेत पर बिखरी शीतल चांदनी टीलों पर फिर आने का आमंत्रण सा देने लगी। उस दिन चंद्र ग्रहण था। पूर्णिमा के चांद को कुछ देर बाद राहू-केतु ग्रसने लगे लेकिन हमारे उत्साह के पास वे दोनों फटके तक नहीं। ठंड तेज हो गई मगर हम चांद के मुक्त होने का इंतजार करते रहे। दो घंटे बाद आंख-मिचौली खेलते वहीं टीले दिखाई देने लगे। जो साथी रेत पर नहीं गए उन्होंने पीछे रुककर ग्रहण के दौरान ग्रामीणों के  लोकगीतों का आनंद उठाया।

सफर की शुरुआत

सुबह हुई तो देखा ऊंट वालों ने जरीकेन में पानी भर लिया है और चाय भी बना दी है। हमने चाय पी और सामान ऊंटों पर लाद दिया। हमारा पैदल अभियान शुरू होने वाला था। हमें 8-9 दिन में लगभग 200 कि.मी. पैदल चलना था। जल्दी तैयार होकर हम पहले पड़ाव ‘गंगा की बस्ती’ की ओर चल पड़े। आठ कि.मी. के बाद हम वहां पहुंच गए और एक कच्चे मकान में जा ठहरे। गांव के लोगों ने हमें आ घेरा।

सिंध से जुड़े इस क्षेत्र के लोगों की मूल बोली तो हमें समझ में नहीं आती थी परंतु कामचलाऊ हिंदी वे सभी बोल लेते थे। उत्सुकतावश उन्होंने हमारे वहां आने का कारण पूछा। थोड़ी ही देर बार हम लोग आपस में सहज हो गए। दोपहर 1 बजे हमने भोजन बनाया। खाकर कुछ विश्राम किया। शाम पांच बजे हम अगले ठिकाने खुड़ी गांव की ओर बढ़ चले। गांव 26 कि.मी. दूर था। चांदनी में चलने की इच्छा तो थी परंतु तारों की सहायता से चलने का ज्ञान किसी को न था। 10-12 कि.मी. आगे सुधाश्री नाम की जगह हम पहुंचे जहां पानी उपलब्ध था। भयावह रेगिस्तान में लगता था कि ‘क्या हम खुड़ी पहुंच पाएंगे!’ ऊंट वाले और पांच साथी आगे जा चुके थे। घोर सन्नाटे को हमारे शब्द चीर रहे थे। हमने भी अपने हौसले को और मजबूत किया। आधी रात में हमें एक छोटा सा मकान दिखाई दिया और वहां बैठे हुए अपने साथी। यह सोचकर कि यही स्थान खड़ी है, हम वहीं सो गए। परंतु वह स्थान बरना था। खुड़ी तो अभी और 6 कि.मी. दूर था। नींद में पसरा गांव मानो चादनी ओढ़े हुए था। सुबह उठे तो रात का मंजर एक सपना बन चुका था।

अगले दिन दोपहर बाद हम 22-23 कि.मी. दूर बरसियाला गांव को चल पड़े और आधी रात को वहां पहुंचे। हमने गांव के बाहर एक किलोमीटर दूर एक टीले पर खुले आसमान के नीचे सोने का निर्णय लिया। परंतु सांप वाली बात याद आई। ‘पेना’ नामक सांप की कहानी हमने सुन रखी थी कि वह सोते हुए मनुष्य की छाती पर बैठकर उसकी सांस से सांस मिलाता है और अपना विष मनुष्य के अंदर पहुंचा देता है। इधर-उधर आखड़े के पेड़ और छोटी-छोटी झाडि़यां थी लगता। डर तो था ही। हमें पता था कि प्याज की गंध से सांप दूर भागता है। मैंने कुछ प्याज काट कर दल के चारों ओर उसके टुकड़े डाल दिये और सब सो गए।

सवेरे सब सकुशल उठे। गांव के कुछ बच्चे अपनी बकरियों के साथ हमारे पास आ पहुंचे। बिस्कुट के स्वाद और हमारे कहने पर कुछ बच्चों ने लोकगीत की कुछ पक्तियां गाकर सुनाई जो आज भी कानों में गूंजती है: इतल पितलो म्हारो बेड़लो बेड़लो, झांझरिया म्हारा सेण…

जहां कहीं भी बच्चे दिखाई देते थे, उनकी पीठ पर पानी से भरी छोटी मसक बंधी दिखाई देती थी। हमें अब फुलिया जाना था। दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता था। केवल बच्चों के बताए रास्ते पर हम फुलिया चल पड़े थे। एक गड़रिया भेड़-बकरियां छोड़कर हमारे बुलाने पर पास आया और हमें रास्ता बताया। हमें रेगिस्तान की लोमड़ी (डेजर्ट फॉक्स) दिखाई दी। हम दोपहर बाद फुलिया पहुंच चुके थे। गांव के बाहर डेजर्ट नेशनल पार्क के झौंपे (बड़ी-बड़ी झोपडि़यां) बने हुए थे। उन्हीं में हम ठहरे। यहां पानी उपलब्ध था और वन विभाग के सुरक्षा कर्मी भी। तीन दिन बाद हमें नहाने का मौका मिला। पता चलते ही गांव के लोग हम अजनबियों को देखने आने लगे। हमारे जैसे लोग वर्षो में कभी उन्हें देखने को मिले थे। गांव में बहुत थोड़ी आबादी थी। वास्तव में जन-जीवन के नाम पर रेगिस्तान में मीलों दूर कोई-कोई गांव मिलता है। पशुपालन (ऊंट, भेड़, बकरी, गाय, बैल) यहां का मुख्य व्यवसाय है। दो-चार साल में यहां कभी बारिश हो जाती है। (हालांकि 2006 में आई बारिश व बाढ़ ने कुछ पुराने प्रतिमान बदल दिए हैं।) कीकर, टींट और खेचड़ी के वृक्ष कहीं-कहीं दिखाई देते हैं। इंदिरा नहर के माध्यम से कई क्षेत्रों में जल पहुंचाने का प्रयास आज भी जारी है परंतु यहां के लोगों के लिए अब भी यह एक सपना है।

फिर नया सवेरा

हमें जलार जाना था जो दूर नहीं था मगर उसे एक तरफ छोड़ते हुए 35 कि.मी. दूर बंदेड़ा गांव चल पड़े। सौभाग्य से एक स्थानीय आदमी हमें रास्ता बताने को राजी हो गया। 17 कि.मी. दूर सत्तो गांव तक वह हमारे साथ गया। सत्तो में खाना बनाकर और उस मेहरबान इंसान के साथ भोजन कर 3-4 घंटे विश्राम किया। सत्तो से सीमा सड़क उपलब्ध थी लिहाजा रास्ता पूछने की जरूरत नहीं रह गई थी। शाम 5 बजे फिर बंदेड़ा के लिए हम चल पड़े और रात ढाई बजे वहां पहुंचे। झौंपे ढूंढने में कठिनाई हुई क्योंकि वे सड़क से काफी दूर थे। आराम की घडि़यां शुरू हुई और बेसुध पड़े सभी साथी अगले दिन ग्यारह बजे ही जगे। रात में कहीं कोई खो न गया हो, यह सोचकर हर स्थान पर पहुंचकर हम अपने साथियों की गिनती कर लेते थे। मगर पिछली रात थकान के कारण ऐसा न हो सका। लिहाजा यह रस्म सवेरे हुई।

हमारे दोनों ऊंट वाले 20 वर्षीय कुम्पा राम और 22 वर्षीय गेम्बरा भी झौंपे के अंदर थे। गिराब गांव हमारा अगला पड़ाव था। इस बार कुछ ऐसा हुआ कि तीन साथी भोजन करके जल्दी चल पड़े। गलत पगडंडी पकड़ने से वे भटक गए और सड़क तक नहीं पहुंचे। चार कि.मी. के बाद उन्हें अपनी गलती का आभास हुआ तो समझदारी से वे लौटकर बंदेड़ा आ गए। बकरियां चराते कुछ बच्चों ने उन्हें सड़क तक पहुंचाया। रात एक बच्चे हम सब गिराब पहुंच चुके थे। अगली सुबह हमें 22 कि.मी. दूर हरसाणी गांव पहुंचना था। रास्ते में तुड़पी नाम की एक जगह आई। यहां छोटे-छोटे बच्चों को गधों पर मटके लाते-ले जाते देखा तो एहसास हुआ कि यहां के लोगों का अधिकांश समय तो पानी ढोने में बीत जाता है। हम चार साथी सड़क से हटकर रेत पर चलते हरसाणी ढाई बजे पहुंचे परंतु अन्य साथी भटक गए और शाम 6 बजे हरसाणी पहुंचे। हमारे पैरों में बड़े-छोटे कई छाले पड़ चुके थे। हरसाणी एक बड़ा गांव है। यहां से तीन अलग-अलग रास्ते गडरा रोड, बाड़मेर और शिव के लिए जाते है।

मंजिल पर कदम

हम अगले दिन राणासर पहुंचे। यहां हमें ठहरने का अच्छा स्थान मिल गया और नहाने के लिए पानी भी। हमारे पैरों के छाले अब घावों में तब्दील हो चुके थे। अभियान की अंतिम सुबह हम सब जोश से भरे थे। 14 कि.मी. का रास्ता हमने कब तय कर डाला इसका आभास ही नहीं हो रहा था। हम गडरा रोड पहुंच गए थे। भारत-पाक सीमा देखने की इच्छा हुई तो सीमा सुरक्षा बल के कमांडेंट से हम लोगों ने बात की। खुशी से अनुमति देते हुए उन्होंने हमारे साथ एक इंस्पेक्टर और हथियारों से लैस एक सुरक्षा गार्ड भेजा जो हमें सीमा दिखा लाए। गडरा रोड में शाम को घूमते हुए पता चला कि यहां के देशी घी के लड्डू बड़े प्रसिद्ध है। एक दुकान पर हमने अपना-अपना आर्डर दिया। अगले दिन हमने गेम्बरा और कुम्पा राम से विदा ली। ये लोग अपने ऊंटों को रस्सियों, रंगीन डोरियां और उनसे बने फूल (इन्हें मोरनी कहते हैं) से सजाते हैं। हम दिल्ली लौट चले। कचनारी चेहरों पर झूमते नथ-बोर, पलकों पर अधखुले इंद्रधनुषी घूंघट और नाचते-गाते लोग अभावों को भूल हंसते रहते हैं। सुनने वाले के कानों में बच्चों के मुख से निकलते लोकगीत के ये बोल- लेता जाइजो, दिलड़ो देतो जाइजो’ लंबे समय तक गूंजते हैं।

कैसे जाएं

दिल्ली से जैसलमेर पहुंचे (रोजाना सीधी ट्रेन व हवाई जहाज उपलब्ध हैं)। आप पहले जोधपुर और फिर वहां से जैसलमेर भी जा सकते हैं।

जैसलमेर में कलेक्टर की अनुमति प्राप्त करें और स्थानीय पुलिस को भी सूचित करें।

ऊंट, भोजन, दवाइयां और पानी के जरीकेन का प्रबंध जैसलमेर में ही करें। पानी की शुद्धता का ध्यान रखें।

मुख्य पड़ाव सम, गंगा की बस्ती, खुड़ी, बरसियाला, फुलिया, म्यिांजलार, बदेड़ा, गिराब, हरसाणी, राणासर व गडरा रोड।

राजस्थान में परदा प्रथा है और स्त्रियां आम तौर पर अजनबी पुरुषों से घुलती-मिलती नहीं।

किसी गांव के आगे से गुजरते समय ऊंट से उतरकर चलना एक प्रथा है। गांव वाले ऐसा करने वाले को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं क्योंकि उसने उनके गांव का सम्मान किया होता है।

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