ब्रज की होली: लट्ठ कोड़े पड़ें दनादन

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रंगों का त्योहार होली यों तो पूरे देश में उत्साह से मनाया जाता है लेकिन कान्हा की नगरी मथुरा में इसका अंदाज ही कुछ अलग है। होली के हुरियारों पर कहीं डंडों की मार पड़ती है तो कहीं कोड़ों से पीटा जाता है। गुलाल और रंगों के साथ ही कीचड़ के थपेड़े हुरियारों को झेलने पड़ते हैं। लेकिन इस मार में ही अजब सा प्यार है। यही कारण है कि बृज की होली का खुमार पूरे देश में चढ़ता है और हर साल लाखों लोग इस त्योहार को मनाने यहां आते हैं।

होली के त्योहार की शुरुआत मंदिरों में बसंत पंचमी से हो जाती है। मंदिरों में भगवान कृष्ण को गुलाल लगाने के बाद रोजाना भक्त होली खेलते हैं। यह क्रम लगातार चलता है। यह जोश फाल्गुन की नवमी तक पूरे चरम पर पहुंच जाता है। इसी दिन विश्व प्रसिद्ध बरसाने की होली मनाई जाती है। इस बार बरसाने की होली आठ मार्च को मनाई जाएगी। यहां बरसाने की हुरियारिनों से होली खेलने नंदगांव के हुरियारे आते हैं। हुरियारिन जहां डंडे हाथों में लेकर तैयार रहती हैं वहीं हुरियारे हाथ में ढाल लिए रहते हैं। गुलाल की बौछार के बीच जब लाठियों की मार पड़ती है तो अच्छे-अच्छे खिलाड़ी भी दुम दबाकर भागते नजर आते हैं। ढाल से बचते-बचाते तमाम हुरियारे लाठी खा भी जाते हैं। शाम को ये हुरियारे श्रीजी मंदिर पहुंचते हैं और यहां राधारानी के दर्शन के बाद मार खाने को तैयार हो जाते हैं। मंदिर से रंगीली गली तक लट्ठामार होली का दृश्य देखने के लिए दूर-दूर से पर्यटक हर साल बरसाने पहुंचते हैं। यहां लट्ठ- मार होली पर ही ढोल नगाड़ों के साथ समाज गायन भी चलता है। इसके साथ ही समाज गायन ब्रज के लगभग सभी मंदिरों में शुरू हो जाता है।

नंदगांव के हुरियारे जब बरसाने होली खेलने आ सकते हैं तो बरसाने के हुरियारे क्यों नहीं! बरसाने की होली से ठीक एक दिन बाद नंदगांव में लट्ठामार होली होती है। इस बार बरसाने से हुरियारे जाते हैं तो हुरियारिन होती हैं नंदगांव की। मंदिर के पास नंद चौक में होली का नजारा ही कुछ और होता है।

फाल्गुन की नवमी से शुरू होने वाला यह जश्न फिर थमने का नाम नहीं लेता। मंदिरों में गुलाल और रंग बिखेरा जाता है तो सड़कों पर गुजरने वाले भी इस रंग में मस्त हो जाते हैं। वृंदावन का बांके बिहारी मंदिर हो या कोई और, होली के रंग सभी जगह बिखरते हैं। एकादशी को ही कृष्ण जन्मभूमि पर मथुरा में भी होली होती है। दोपहर दो बजे से यहां पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं फिर लट्ठ मार होली। यहां कार्यक्रम के दौरान ही फूलों की होली भी लोगों को महका देती है। मथुरा में विश्राम घाट के नजदीक द्वारिकाधीश मंदिर पर यों तो रोजाना होली खेली जा रही है पर यहां का असली आकर्षण एकादशी की कंुज होली है। इस दिन मंदिर में पेड़ों की डंडियों से कुंज बनाकर बीच में पानी के फव्वारे लगाए जाते हैं। इन कुंज और फव्वारों के साथ ही होली के रंग समूचे मंदिर में बिखर जाते हैं। इसके साथ ही शुरू हो जाता है पूरे मथुरा में हुरंगा। हुरंगे की बात चले और बल्देव का जिक्र न आए- यह मुमकिन नहीं।

जब समूचा देश होली का रंग खेलकर खुमारी उतार रहा होता है तो बल्देव के युवक कोड़ों की मार झेलते हैं। अरे, इन्हें कोई सजा नहीं मिलती यह तो मस्ती है। होली के अगले दिन दौज पर होता है बल्देव का हुरंगा। यह हुरंगा होता है दाऊजी मंदिर परिसर में। इस बार यह हुरंगा होगा सोलह मार्च को। यहां महिलाएं होली खेलने वाले युवकों के कपड़े फाड़कर उन्हीं से कोड़े बनाती हैं। इन कोड़ों से फिर युवकों की पिटाई की जाती है। युवक अपने बचाव के लिए टेसू के रंग महिलाओं पर फेंकते चलते हैं। हुरंगा गोकुल, गोवर्धन, महावन में भी होता है। हालांकि इन स्थानों पर पर्यटक अभी ज्यादा नहीं आते हैं लेकिन इनका अंदाज भी अलग है। गोकुल के हुरंगे में हुरियारों को डंडी की मार पड़ती है तो लोहवन और बरारी में तीज पर हुरंगा होता है। इन सभी स्थानों पर कीचड़ की होरी गांवों में खेली जाती है।

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