यात्रा का विराट वैभव जगन्नाथ रथयात्रा

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सागरतट पर बसे पुरी शहर में होने वाले जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव के दौरान आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है, वह और कहीं भी दुर्लभ है। देश-विदेश से लाखों लोग इस पर्व के साक्षी बनने हर वर्ष यहां आते हैं। देश के चार पवित्र धामों में एक पुरी के 800 वर्ष पुराने मुख्य मंदिर में योगेश्वर श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। साथ ही यहां बलभद्र एवं सुभद्रा भी हैं। सुभद्रा के आग्रह पर एक बार दोनों भाई बड़े स्नेह से उन्हें द्वारका भ्रमण के लिए ले गए थे। उसी की याद में हर साल आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया को यह पर्व मनाया जाता है। इस दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र तथा देवी सुभद्रा की पवित्र प्रतिमाओं को रथों में बैठा कर श्रद्धापूर्वक यहां से 3 किमी दूर गुंडीचा मंदिर तक ले जाया जाता है। यात्रा के लिए लगभग दो माह पूर्व अक्षय तृतीया के दिन से ही रथों के निर्माण का कार्य शुरू हो जाता है। इनके लिए विशेष प्रकार की लकड़ी लाई जाती है। ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा के दिन स्नान यात्रा का आयोजन होता है। स्नान और श्रृंगार के बाद प्रतिमाओं को फिर गर्भगृह में ले जाया जाता है। इसके बाद आषाढ़ की अमावस्या तक मंदिर के पट भक्तों के लिए बंद हो जाते हैं।

अधूरी हैं प्रतिमाएं

जगन्नाथ मंदिर में प्रतिष्ठित प्रतिमाएं अन्य मंदिरों की प्रतिमाओं से बिलकुल अलग हैं। काष्ठनिर्मित ये प्रतिमाएं सदा से अपूर्ण हैं। कहा जाता है कि एक बार राजा इंद्रद्युम्न को भगवान ने स्वप्न में कहा कि शीघ्र ही काष्ठ के रूप में तुम्हें मेरे दर्शन होंगे। कुछ दिन बाद राजा को सागर की लहरों पर तैरता लकड़ी का एक विशाल टुकड़ा दिखा। उसे भगवान का रूप मानकर राजा ने उससे भगवान की मूर्तियां बनवाने का निर्णय लिया। भगवान की काष्ठ प्रतिमा बनाने के लिए स्वयं विश्वकर्मा एक वृद्ध शिल्पी के रूप में वहां पहुंचे। उन्होंने शर्त रखी कि जब तक मूर्तियां बन न जाएं, कोई मेरे कक्ष को नहीं खोलेगा। राजा ने यह शर्त मान ली, किंतु जब काफी समय बीत गया तो वह अपनी व्यग्रता पर नियंत्रण न रख पाए। उन्होंने कक्ष का द्वार खोल दिया और फिर विश्वकर्मा अंतर्ध्यान हो गए। तब तक मूर्तियां अपूर्ण थीं। इसे भगवान की इच्छा मान उन्होंने मूर्तियों को अपूर्ण रूप में ही मंदिर में स्थापित कर दिया। तब से आज तक उसी रूप में भगवान की पूजा होती है। आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा को गर्भगृह के पट श्रद्धालुओं के लिए खुलते हैं। अगले दिन सुबह रथयात्रा आरंभ होती है। मंदिर के सिंहद्वार के सामने तीनों रथ कतार में खड़े होते हैं। सुबह की पूजा अर्चना के बाद प्रतिमाओं को रथ में लाने का क्रम शुरू होता है।

नंदीघोष

भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष कहलाता है। इसकी ऊंचाई 45 फुट होती है। कृष्ण के रथ पर पीले कपड़े की सजावट अधिक होती है। बलभद्र के रथ को तालध्वज और देवी सुभद्रा के रथ को दर्पदलन या पद्म ध्वज कहते हैं। हर रथ पर लकड़ी के चार घोड़े व सारथी होते हैं। साथ ही अन्य देवी-देवताओं की छोटी-छोटी प्रतिमाएं भी होती हैं।

रथयात्रा आरंभ होने से पूर्व पुराने राजाओं के वंशज पारंपरिक ढंग से सोने के हत्थे वाली झाडू से ठाकुरजी के प्रस्थानमार्ग को बुहारते हैं। इसके बाद मंत्रोच्चार एवं जयघोष के साथ रथयात्रा शुरू होती है। कई वाद्ययंत्रों की ध्वनि के मध्य विशाल रथों को हजारों लोग मोटे-मोटे रस्सों से खींचते हैं। सबसे पहले बलभद्र का रथ तालध्वज प्रस्थान करता है। थोड़ी देर बाद सुभद्रा की यात्रा शुरू होती है। अंत में लोग जगन्नाथ जी के रथ को बड़े ही श्रद्धापूर्वक खींचते हैं। लोग मानते हैं कि रथयात्रा में सहयोग से मोक्ष मिलता है, अत: सभी कुछ पल के लिए रथ खींचने को आतुर रहते हैं। जगन्नाथ जी की यह रथयात्रा गुंडीचा मंदिर पहुंचकर संपन्न होती है। गुंडीचा मंदिर वहीं है, जहां विश्वकर्मा ने तीनों देव प्रतिमाओं का निर्माण किया था। इसे गुंडीचा बाड़ी भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। सूर्यास्त तक यदि कोई रथ गुंडीचा मंदिर नहीं पहुंच पाता तो वह अगले दिन यात्रा पूरी करता है।    गुंडीचा मंदिर में भगवान एक सप्ताह प्रवास करते हैं। इस बीच इनकी पूजा अर्चना यहीं होती है।

बाहुड़ा यात्रा

आषाढ़ शुक्ल दशमी को जगन्नाथ जी की वापसी यात्रा शुरू होती है। इसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। शाम से पूर्व ही रथ जगन्नाथ मंदिर तक पहुंच जाते हैं। जहां एक दिन प्रतिमाएं भक्तों के दर्शन के लिए रथ में ही रखी रहती हैं। अगले दिन प्रतिमाओं को मंत्रोच्चार के साथ मंदिर के गर्भगृह में पुन: स्थापित कर दिया जाता है।    मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की सौम्य प्रतिमाओं को श्रद्धालु एकदम निकट से देख सकते है। भक्त एवं भगवान के बीच यहां कोई दूरी नहीं रखी जाती। काष्ठ की बनी इन प्रतिमाओं को भी कुछ वर्ष बाद बदलने की परंपरा है। जिस वर्ष अधिमास रूप में आषाढ़ माह अतिरिक्त होता है उस वर्ष भगवान की नई मूर्तियां बनाई जाती हैं। यह अवसर भी उत्सव के रूप में मनाया जाता है। पुरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में ही समाधि दी जाती है।

ठहरने का इंतजाम पहले

रथयात्रा महोत्सव इतना लोकप्रिय है कि देश के कई अन्य शहरों में लघु रथयात्राएं भी निकाली जाती हैं। इन रथयात्राओं में भी हजारों लोग शामिल होते हैं। पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा देखने विदेशों से भी हजारों पर्यटक आते हैं। इस मौके पर पर्यटकों को ठहरने की व्यवस्था पहले ही करनी पड़ती है। पुरी में हर बजट के होटल उपलब्ध हैं। यह शहर देश के कई प्रमुख शहरों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा है। कटक और भुवनेश्वर से यहां बस या टैक्सी द्वारा पहुंचा जा सकता है। यह महोत्सव हर वर्ष जून-जुलाई में होता है। इसकी वास्तविक तिथियां जानकर होटल एवं ट्रेन में पूर्व आरक्षण कराने से असुविधा से बचा जा सकता है।

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