बर्फ का देश लद्दाख

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लामाओं की भूमि लद्दाख के बारे में बहुत सुना था, इसलिए उसे देखने की हमारी बहुत इच्छा थी। पहले यह क्षेत्र पर्यटकों के लिए सुविधाजनक नहीं था। सिर्फ ट्रेकिंग और रोमांच भरी साहसी यात्रा करने वाले लोग ही अपने साधनों से वहां पहुंच पाते थे, लेकिन अब सब कुछ आसान हो गया है।

ज्यादातर पर्यटक श्रीनगर, चंडीगढ़ या दिल्ली से हवाई यात्रा कर सीधे लेह जा पहुंचते हैं लेकिन जो लोग रोमांचक यात्राओं में यकीन रखते हैं और प्रकृति के सौंदर्य का आनंद उठाना चाहते हैं उनके लिए सड़क मार्ग से उत्तम कोई विकल्प नहीं है। हमने भी यही रास्ता चुना और दिल्ली से 24 घंटे की बस यात्रा तय कर मनाली जा पहुंचे जहां से लेह की असली यात्रा शुरू होती है। जम्मू-कश्मीर रोडवेज की उस बस का ड्राइवर लद्दाखी था। उसने बताया कि साल में पांच महीने वह इस रूट पर बसें चलाता है। जून से सितंबर के बीच लेह-मनाली रूट पर लोगों का काफी आना-जाना रहता है।

मनाली से रोहतांग पास होते हुए केलोंग पहला महत्वपूर्ण पड़ाव आता है। रोहतांग और बरालाचा-ला दो दर्रो के बीच में बसा है यह छोटा-सा पहाड़ी कस्बा। चारों तरफ पहाडि़यां नजर आती हैं। लगभग पौने घंटे के पड़ाव के बाद बस पूरी रफ्तार से दौड़ चलती है। हमें अभी रोहतांग दर्रे से कहीं ऊंचे बरालाचा-ला दर्रे को पार करना है और उसके बाद नीचे 2000 फीट की ढलाई के बाद शाम ढलने तक सरचू पहुंचना है।

दुर्गम रास्ता

मनाली से लेह तक किसी व्यूह जैसे पांच दर्रे हैं जिसमें एक दर्रे को दुनिया का सबसे ऊंचा दर्रा होने का गौरव प्राप्त है। इन रास्तों पर गुजरते हुए ऐसा लगता है जैसे हम किसी सांप-सीढ़ी के खेल के हिस्से हों। सीढ़ी से कुछ हजार फीट ऊंचे चढ़े और ऊपर पहुंचते ही जैसे किसी सांप ने डस लिया और हम कई हजार फीट नीचे आ गिरे। फिर सीढ़ी-फिर सांप, पर इस चढ़ाई-उतराई के बीच का नैसर्गिक सौंदर्य अप्रतिम है।

लेह जाने के लिए सड़क मार्ग से दो रास्ते हैं- एक मनाली से और दूसरा श्रीनगर से। जहां एक तरफ श्रीनगर-लेह मार्ग में आधे रास्ते जितनी चढ़ाई है और फिर उतना ही उतार, वहीं मनाली-लेह रास्ता पूरी जिगजैग आकृति का है और दुर्गम तथा रोमांच से भरा। मनाली-लेह का यही पहलू रोमांच-पसंद यात्रियों और पर्यटकों को काफी आकर्षित करता है।

सरचू से आगे

सरचू में बस से उतरने के बाद एक लद्दाखी पोस्टमैन मिल गए, जो बड़े आग्रह के साथ हमें अपने घर भी ले गए। वहां उन्होंने हमारा सत्कार चाय और बिस्किटों के साथ किया। यहां हमने स्वादिष्ट लद्दाखी चाय को पहली बार चखा। लद्दाखी चाय बिलकुल अलग स्वाद वाली होती है। जिसमें खट्टा-मीठा और कुछ कड़वापन इस अनुपात में होता है कि पसंद आने पर इसको बड़े लुत्फ के साथ पिया जा सकता है।

सरचू में रैन-बसेरे के बाद, सुबह हम फिर से बस में सवार हो लिए। नकीला पास और लाचा लांग-ला दर्रा पार करने में हमें ज्यादा वक्त नहीं लगा। भूरे खाकी पहाड़ों के बीच यह रास्ता भी पहले जैसा ही दुर्गम था। कल से अब तक लगभग 300 किमी का रास्ता तय कर हम लाचा लांग-ला से उतर कर पेंग पहुंचते हैं। इसके बाद दो घंटे की निरंतर चढ़ाई के बाद बस तांगलांग ला पर आ जाती है। हमें यकीन नहीं होता कि हम दुनिया की छत पर आ गए हैं। चारों तरफ पथरीले पहाड़ और उनके पीछे दूर-दूर तक बर्फीले पहाड़ और सिर के ऊपर भूरे श्वेत बादलों से झांकता नीला आकाश।

कई गांवों को पीछे छोड़ती हुई बस अंतत: हमको शाम होने तक एक वीरान से बस स्टैंड पर उतार देती है। यही लेह है। एक सौ रुपये में पहले से तय होटल तक का रास्ता एक सूमो में पूरा किया जाता है।

घूमने का सही समय

यूं तो लेह की तरफ दुनिया भर के सैलानी मार्च से ही जाने लगते हैं पर यहां घूमने का सही समय जून से सितंबर के बीच है। लद्दाख में साल के आधे समय लोग शून्य से भी कम तापमान में रहते हैं पर जुलाई-अगस्त में तापमान इतना ऊपर चला जाता है कि लोग सनबर्न की शिकायत लेकर डॉक्टर के पास पहुंच जाते हैं। इन दिनों तापमान में इतनी विषमता देखी जाती है कि अगर कोई व्यक्ति लेह में खुले में पैर फैलाकर बैठा हो तो संभव है कि एक ही वक्त में उसका पैर ओस से भीगा हो और पीठ धूप से झुलस जाए।

महल और विजय स्तूप

सुबह की हलकी ठंडक में हमारा पहला गंतव्य है लेह पैलेस। यह लेह के बाजार के पास ही है। इस पैलेस को यहां के राजा सिंग्मे नामग्याल ने सन 1645 में बनवाया था। पैलेस के ऊपर नामग्याल पहाड़ी पर विजय स्तूप है जिसका शीर्ष स्वर्ण मंडित है। यह स्तूप 16वीं सदी के अंत में लद्दाखियों ने कश्मीर की बाल्ती सेना पर विजय के जश्न में बनाया था। इसी महल के प्रासाद में नामग्याल त्सेमो मठ है जिसका निर्माण इस पैलेस से भी दो सौ साल पहले का है। मठ में साढ़े बुद्ध की 17 मीटर ऊंची सुंदर प्रतिमा है। बहुमूल्य धातुओं व रत्नों से मंडित मंदिर की नक्काशी अनुपम है। नामग्याल पहाड़ी पर बना यह महल जरूर खंडहर-सा है पर इस पहाड़ी के ऊपर से लेह के चारों तरफ का अत्यंत खूबसूरत नजारा अवर्णनीय है।

लद्दाखी महोत्सव

बाजार में कई जगह लद्दाखी महोत्सव के पोस्टर लगे थे। 15 दिनों लंबा यह महोत्सव हर वर्ष सितंबर के पहले पखवाड़े में पूरे लद्दाख में जगह-जगह आयोजित किया जाता है। जब हम गए उन दिनों तिब्बती बौद्ध महासंघ के प्रांगण में महोत्सव चल रहा था और प्रसिद्ध मास्क डांस हो रहा था। एक लहराती सी पंक्ति में करीब एक दर्जन कलाकार बड़े-छोटे मुखौटे पहने धीरे-धीरे डांस करते एक चक्कर में घूम रहे थे। पा‌र्श्व में संगीत भी चल रहा था।

उत्सवों की धूम

अगले दिन हम सड़क पर स्पिटक मठ से आगे फियांग गोम्पा देखने गए। लाल टोपी संप्रदाय द्वारा सोलहवीं शताब्दी में निर्मित फियांग मठ गोम्पा में काफी सारी मूर्तियां व स्क्रोल हैं। मठ की दीवारों पर बौद्ध तंत्र से जुड़े हुए चित्र बने हैं। कहीं कालचक्र बना है, कहीं अवलोकितेश्वर हैं, कहीं पंचावतार तो कहीं शून्यता और कहीं वैरोचन। मंदिर में पूर्ण शांति है।

फियांग से लौटते हुए हम लेह के पूर्वी इलाके में बने एक जापानी मंदिर को भी देखते गए। यह मंदिर बीसवीं सदी में जापानियों ने बनाया था। ऊंचाई पर बने इस मंदिर से लेह के पूर्वी हिस्से का विहंगम दृश्य बहुत सुंदर दिखाई देता है। लेह का यह इलाका कम घना है इसलिए यहां के मकान दूर-दूर फैले हैं और हरियाली का हिस्सा ज्यादा है। असल में हमारे अगले कुछ दिन लेह और उसके आसपास स्थित मठों को देखने में व्यतीत हुए। मठ यहां बहुत हैं और हरेक मठ की अलग खूबी है।

मठ

लेह के आसपास कईे मठ हैं। लेह से सटे उत्तर दिशा में शंकर मठ है। इसमें बौद्ध धर्म के उन इष्ट अवलोकितेश्वर पद्माहरि की आकृतियां हैं जिनके हजार सिर दर्शाए गए हैं। लेह से बीस किमी दूर हेमिस मठ जाने के लिए रास्ते में थिकसे मठ पड़ता है। पहाड़ की चोटी पर बने 12 मंजिला इस मठ से लेह घाटी के दृश्य बेहद सुंदर दिखते हैं। थोड़ा आगे स्ताकना मठ है। लेह हवाई अड्डे से सटे पहाड़ पर स्पितक मठ प्राचीन मुखौटों व अस्त्र-शस्त्र के संग्रह के लिए प्रसिद्ध है। लेह से 65 किमी दूर आलची मठ अवलोकितेश्वर की बीस फीट ऊंची मूर्ति के विख्यात है। लद्दाख क्षेत्र का सबसे प्राचीन लामायारू मठ लेह से सवा सौ किलोमीटर दूर है। हजार वर्ष पुराने इस मठ में इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन पुस्तकालय है।

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