चलो बुलावा आया है..

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नवरात्र में देवी के स्थानों की यात्रा भारत के धार्मिक पर्यटन का अभिन्न हिस्सा है। शिवपुराण की कथा के अनुसार शिव एक प्रसंग के बाद सती पार्वती के शव को लेकर तीनों लोकों में भ्रमण कर रहे थे, तो भगवान विष्णु ने उनका मोह दूर करने के लिए सुदर्शन चक्र से सती के शव को काट-काट कर गिरा दिया। जिन-जिन स्थानों पर सती के अंग गिरे, वे शक्ति पीठों के रूप में प्रतिष्ठित हुए। कुल 51 शक्तिपीठों में देवी के जिन नौ प्रमुख मंदिरों की खास महत्ता है, उनमें वैष्णो देवी के अलावा नैना देवी, चिंतपूर्णी, ज्वालाजी, बज्रेश्वरी देवी, चामुंडा देवी, मनसा देवी, शाकुम्भरी देवी और कालिका जी शामिल हैं। हम यहां इन नौ शक्तिपीठों का विवरण आपके सामने रख रहे हैं, जो यात्रा में आपको प्रेरणा देंगे।

वैष्णो देवी

भारत में जिन मंदिरों की महत्ता सबसे अधिक है, उन्हीं में से एक है-वैष्णो देवी। माना जाता है कि शक्ति पंथ का यह आदि पीठ आयरें के समय से पूर्व प्रचलन में हैं। वैष्णो देवी का मंदिर वास्तव में एक प्राकृतिक गुफा है। यह स्थान जम्मू से लगभग 65 कि.मी. दूर है। इसका सबसे निकटतम शहर कटरा है। यहां से वैष्णो देवी के दर्शन के लिए लगभग 6 हजार फुट की चढ़ाई करनी पड़ती है, जो पर्वतीय मार्ग के रूप में लगभग 14 किमी है। वैष्णो देवी के मंदिर में कोई चित्र अथवा प्रतिमा नहीं है। यहां दैवीय शक्ति तीन पिंडियों के रूप में हैं। जिनकी प्रतिष्ठा शक्ति के तीन स्वरूपों में हैं- बुद्धि व ज्ञान की अधीश्वरी देवी ‘महासरस्वती’, वैभव व धन-समृद्घि की प्रतीक ‘महालक्ष्मी’ और जन्म व मृत्यु की श्रंृखला की अधीश्वरी शक्ति ‘महाकाली’।

‘जय माता दी’ की स्वर लहरी

जेठ की चिलचिलाती धूप हो या सर्दियों की हाड़ कंप-कपा देने वाली ठिठुरन, या फिर मूसलाधार बारिश की नम रातें- ‘जय माता दी’ की स्वर लहरी अनवरत चलती रहती है। वैष्णो देवी की यात्रा में धार्मिक उत्साह अपने चरम पर होता है। वैष्णो देवी की यात्रा के लिए जम्मू पहुंचना होता है। तवी नदी के किनारे बसा जम्मू शहर नियमित हवाई उड़ानों, रेलगाडि़यों व सड़क मार्ग से समूचे देश से जुड़ा हुआ है। अपने निजी वाहनों और टैक्सियों में आने वाले भी कम नहीं होते। जम्मू से कटरा तक की दूरी लगभग 52 किलोमीटर है। यह यात्रा सड़क मार्ग से तय करनी होती है। वैष्णो देवी की यात्रा में वाहनों के लिए कटरा आखिरी पड़ाव है। यहां के बाद पूरी यात्रा मुख्यतया पैदल की जाती है। वृद्ध या कमजोर व्यक्ति इस चढ़ाई के लिए खच्चर-घोड़े किराये पर ले सकते हैं। छोटे बच्चे जो न तो पैदल चल सकते हैं और न ही घोड़े पर बैठ सकते हैं; उन्हें ‘पिट्ठू’ पर ले जाने की व्यवस्था है। यहां खच्चरों को लेकर चलने वाले सेवकों और पिट्ठू, सभी के किराये निश्चित है। सभी व्यवस्थाओं को संचालित करने की जिम्मेदारी ‘वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड’ की है।

कटरा में विश्राम

कटरा में रहने-खाने के पर्याप्त इंतजाम हैं। यहां मामूली विश्राम घर से लेकर चार सितारा होटलों की भरमार है। अब तो रेल मंत्रालय द्वारा आईआरसीटीसी के जरिये वैष्णो देवी यात्रा के लिए एक विशेष पैकेज भी बनाया गया है। इसमें लगभग 3700 रुपये प्रति व्यक्ति के खर्च के आधार पर तीन रातें-चार दिन का पैकेज लिया जा सकता है। आईआरसीटीसी की वेबसाइट पर जाकर इसकी बुकिंग कराई जा सकती है। नवविवाहित जोड़ों और प्रथम बार यात्रा कर रहे व्यक्तियों के लिए यह एक आदर्श विकल्प है।

वैसे अब कटरा से सांझी छत [गुफा के निकट का स्थान] के लिए हैलीकॉप्टर सेवा भी शुरू हो चुकी है। लगभग 2450 रुपये प्रति व्यक्ति किराये पर आप इस सेवा का लाभ ले सकते हैं। कटरा से पांच मिनट में आप सांझी छत पहुंच जाते हैं। हैलीकॉप्टर से जाने वाले यात्रियों के लिए दर्शन पर्ची में भी प्राथमिकता दी जाती है। ये यात्री सीधे वीआईपी गेट न. 5 से प्रवेश पाते हैं। इसे आर्मी व विशिष्ट जनों के लिए रिजर्व गेट भी कहा जाता है। इस द्वार से प्रवेश के लिए आर्मी कैंप कटरा से विशिष्ट लोगों के लिए वीआईपी पर्ची भी बनती हैं।

हर यात्री के लिए आवश्यक है कि वह कटरा में बस टर्मिनल पर मिलने वाली यात्रा पर्ची जरूर हासिल कर ले। पैदल चलने के लिए कैनवस के जूते और सीधी चढ़ाई में घुमावदार संकरे रास्ते के लिए एक छड़ी अथवा लाठी उपयोगी रहते हैं। ये सभी चीजें कटरा में अनेक दुकानों पर किराये पर मिल जाती हैं। कटरा के बाद बाणगंगा से वैष्णो देवी जाने के लिए दो रास्ते हैं। इनमें से एक सीढि़यों का रास्ता है और दूसरा पैदल चलते हुए भवन की ओर चढ़ते जाने का।

आदिकुमारी

वैष्णो देवी के भवन के रास्ते में ‘आदिकुमारी’ [अर्ध कुवांरी] पड़ता है। इस स्थान को माता का जन्मस्थान कहा जाता है। यहां दर्शन के बाद हाथी मत्था की खड़ी चढ़ाई है। कटरा से भवन तक की यात्रा में यात्रियों की सुख-सुविधाओं के पर्याप्त प्रबंध हैं। वैष्णो देवी के भवन से दो-तीन किलोमीटर की चढ़ाई पर भैरों मंदिर है। मां के दर्शनों के उपरांत भैरों के दर्शन की भी महत्ता है। कहा जाता है भैरों के दर्शन के बिना यात्रा अधूरी है।

वैसे इस यात्रा की शुरुआत जम्मू में स्थित कौल-कंधोली मंदिर से होती है। वही मां वैष्णो का प्रथम दर्शन स्थल है। यह मंदिर जम्मू से 8 कि.मी. दूर नगरोटा नामक स्थान पर है। यहां के बारे में मान्यता है कि यहां मां वैष्णो का बचपन बीता था। कहा जाता है कि यहां मंदिर का निर्माण पांडवों ने किया था।

नैना देवी

पंजाब प्रांत की सीमा से सटे हिमाचल प्रदेश के शिवालिक पर्वत पर नैना देवी की शक्ति पीठ है। इस स्थान पर सती के दोनों नयन गिरे थे। नैना शब्द वहीं से आया। पंजाब में भाखड़ा नांगल लाइन पर आनंदपुर साहिब प्रसिद्ध स्टेशन है। नैना देवी के लिए नांगल से बस सेवा उपलब्ध रहती है। लगभग तीन घंटे के सफर के बाद सड़क मार्ग से नैना देवी पहुंचा जा सकता है।

बस स्टैंड से नैना देवी मंदिर पहुंचने के लिए लगभग दो किमी पहाड़ी मार्ग की पैदल चढ़ाई है जिसे सामान्यतया सभी यात्री लगभग आधा घंटे में पूरी कर लेते हैं। इस मंदिर में भगवती के दर्शन पिंडी स्वरूप में होते हैं। श्रावण मास की अष्टमी और नवरात्रों में श्रद्धालुओं की संख्या काफी बढ़ जाती है। मंदिर के निकट ही एक गुफा भी है, बहुत से यात्री वहां भी जाते हैं। इसे नैना देवी की गुफा के नाम से जाना जाता है।

सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह मुगलों के विरुद्ध संघर्ष के दिनों में नैना देवी के दरबार में नित्य उपस्थित होते थे। उन्होंने यहां तपस्या भी की थी। भगवती से संबंधित शाक्त संप्रदाय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति ‘दुर्गा सप्तशती’ के अध्ययन से प्रभावित होकर उन्होंने ‘चंडी चरित्र’ नाम से इसका दो बार काव्यानुवाद भी किया। गुरमुखी भाषा में इसे ‘चंडी दी वार’ के नाम से जाना जाता है। पचपन छंदों की इस रचना में गुरु गोविंद सिंह ने शक्ति की महत्ता का वर्णन किया है। नैना देवी स्थित हवनकुंड का भी अत्यंत महत्व है। यहां अनेक बार गुरु गोविंद सिंह ने यज्ञ करके भगवती को प्रसन्न किया था। नैना देवी मंदिर में हवनकुंड के अतिरिक्त ‘ब्रह्मकपाली कुंड’ भी दर्शनीय स्थान है। वस्तुत: यह एक सुंदर सरोवर है। कपाली भगवान शिव का एक नाम है। संभवत: इस सरोवर का संबंध भगवान शिव के साथ है। नैना देवी तीर्थ हिंदू व सिख धर्मावलंबियों के लिए साझी विरासत बन गया है।

चिंतपूर्णी

‘चिंतपूर्णी’ का शाब्दिक अर्थ है-’चिंताओं से मुक्त करने वाली देवी’। यह देवी छिन्न मस्तिका का स्थान है। कहा जाता है कि सती के चरणों के कुछ अंश यहां गिरे थे। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के जिला ऊना में भरवाई नामक स्थान के समीप है। भरवाई बस स्टैंड से लगभग तीन किमी की दूरी पर चिंतपूर्णी का मंदिर है। इस स्थान का प्राचीन नाम छपरोह था, वर्तमान में उसी वट वृक्ष के नीचे चिंतपूर्णी मंदिर में देवी पिंड स्वरूप में विद्यमान हैं। प्राचीन धर्मग्रंथों व पुराणों में छिन्न मस्तिका देवी के निवास के लिए मुख्य लक्षण यह माना गया है कि वह स्थान चार शिव मंदिरों से घिरा होगा। यह लक्षण ‘चिंतपूर्णी’ में स्पष्ट दृष्टिगोचर है।

चिंतपूर्णी मंदिर के समीप ही प्राचीन सरोवर भी दर्शनीय स्थल है। मान्यता है कि इस दिव्य बावड़ी के पवित्र जल से स्नान करने पर व्याधियों का नाश होता है। इसी जल से पिंडी का भी अभिषेक किया जाता है। जिस वट वृक्ष के नीचे देवी विराजमान हैं, उस वृक्ष की शाखाओं पर मौली [लाल धागे) बांधने की परंपरा है। यात्री अपनी मनौती के साथ यहां धागा बांधते हैं और उसके पूर्ण होने पर स्वयं आकर उसे खोलते हैं।

ज्वाला जी

ज्वाला देवी का मंदिर धूमावती की पवित्र स्थली है। इसकी मान्यता 51 शक्तिपीठों में सर्वोपरि है। मान्यता है कि इस स्थान पर सती की महाजिह्वा गिरी थी। यहां भगवान शिव उन्मत्त-भैरव रूप में स्थित हैं। इस मंदिर में देवी के दर्शन 'पवित्र ज्योति' के रूप में किए जाते हैं। पर्वत की चट्टान से नौ अलग-अलग स्थानों पर प्राकृतिक अग्निशिखाएं प्रस्फुटित हो रही है। यह ज्योतियां सैकड़ों वषरें से अनवरत प्रज्ज्वलित हैं। इसी से इस स्थान का नाम 'ज्वाला जी' पड़ा। यह स्थान भी हिमाचल प्रदेश में ही है। जिला कांगड़ा में गोंरीपुरा डेरा नामक स्थान होते हुए बसें ज्वाला जी पहुंचती हैं। डेरा से लगभग 20 किमी की दूरी पर ज्वालाजी का मंदिर है। पठानकोट से कांगड़ा होते हुए भी यात्री ज्वाला जी पहुंच सकते हैं।

पांचों पांडवों द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्वार कराए जाने के प्रसंग पढ़ने को मिलते हैं। मुगल बादशाह अकबर द्वारा अर्पित सवा मन सोने का छत्र आज भी मंदिर परिसर में रखा है। चांदी के जाला में सुशोभित मुख्य ज्योति का पवित्र नाम 'महाकाली' है। ज्वालाजी तीर्थ के निकट दर्शनीय स्थल 'गोरख डिब्बी' है। यहां पर एक छोटे से कुंड में जल निरंतर खौलता रहता है। देखने में यह गर्म प्रतीत होता है, हाथ में लेकर देखने पर यह ठंडा लगता है। इसी स्थान पर छोटे कुंड के ऊपर धूप की जलती बत्ती दिखाने से जल के ऊपर बड़ी ज्योति प्रकट होती है। इसे रुद्र कुंड भी कहा जाता है। यह स्थान मंदिर की परिक्रमा में लगभग दस सीढि़यां ऊपर चढ़कर दाई ओर को है। कहा जाता है कि यहीं पर गुरु गोरखनाथ ने तपस्या की थी। ज्वालाजी तीर्थ के अन्य दर्शनीय स्थलों में सेजा भवन, राधा कृष्ण मंदिर, लाल शिवालय, सिद्ध नागार्जुन, अंबिकेश्वर महादेव, टेढ़ा मंदिर आदि प्रमुख हैं।

वज्रेश्वरी देवी

यह स्थान जन साधारण में नगरकोट कांगड़े वाली देवी के नाम से प्रसिद्ध है। यवनों के असंख्य आक्रमणों को सहकर भी यह स्थान अक्षत रहा। इस स्थान पर सती के वक्ष [स्तन] गिरे थे। यह तारा देवी का स्थान है। श्रद्धालु बज्रेश्वरी देवी की यात्रा का कार्यक्रम मां ज्वाला जी की यात्रा के साथ बना सकते हैं। यह स्थान ज्वाला जी से लगभग 30 कि.मी. की दूरी पर है। हिमाचल प्रदेश के समस्त स्थानों से यहां के लिए बसें मिलती हैं। यात्री अपने वाहनों द्वारा भी यहां पहुंच सकते हैं। पठानकोट से यहां तीन घंटे में पहुंचा जा सकता है। रेल की छोटी लाइन भी यहां जाती है।

सन् 1016 ई में अफगानिस्तान के शासक महमूद गजनबी ने कांगड़ा पर आक्रमण कर मंदिर के भीतर से अरबों रुपये मूल्य के हीरे जवाहरात लूट लिए थे। वह अपने साथ लूट के सामान में इस मंदिर के चांदी से मढ़े हुए दरवाजे भी ले गया था। इन दरवाजों को सन् 1642 में पुन: यहां भिजवाया गया। वही दरवाजे आज भी मंदिर के भीतर अलमारियों में लगाए गए हैं। इस मंदिर में एक प्राचीन शिलालेख भी हैं, जो शारदा लिपि में है। इसमें सम्राट प्रताप सिंह का वर्णन है। कांगड़ा में प्रवेश करते ही मंदिर, के भव्य कलश दूर से ही दिखते हैं। देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यहां आते हैं। भव्य मंदिर के मुख्यद्वार तक जाने के लिए लंबी सीढि़यों की कतार है। इसके दोनों ओर बाजार सजता है। मंदिर के सिंह द्वार से प्रवेश करके यात्री प्रांगण में पहुंचते हैं। यहां से भव्य मंदिर की ऊंचाई आकाश को स्पर्श करती प्रतीत होती है। देवी के दर्शन पिंडी के रूप में होते हैं। मंदिर के निकटवर्ती दर्शनीय स्थलों में भैरों की मूर्ति तारा देवी का मंदिर, कृपालेश्वर महादेव मंदिर, कुरुक्षेत्र कुण्ड, बाबा वीरभद्र का मंदिर, गुप्त गंगा, अच्छरा माता [सहस्त्रधारा] छरुदण्डा, चक्र कुंड आदि प्रमुख हैं। परिसर में ही एक अन्य सरोवर ‘श्री सरोवर’ के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि यह तीनों देवियों [ब्रह्माणी, रुद्राणी व लक्ष्मी] का स्नान केंद्र था। जलंधर दैत्य के वध के पश्चात तीनों देवियों ने यहां स्नान किया था।

चामुंडा देवी

यह शिव और शक्ति की सम्मिलित पूजा का स्थान है। इसे चामुंडा नंदिकेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। पठानकोट से रेल की छोटी लाइन जो पपरोला जाती है, उसमें सफर करके यात्री चामुंडा रेलवे स्टेशन पर उतर सकते हैं। चामुंडा रेलवे स्टेशन मलां में है। यहां से मंदिर की दूरी लगभग चार किमी है। मलां से बस अथवा निजी वाहनों द्वारा चामुंडा मंदिर जाया जा सकता है। ज्वालाजी से कांगड़ा दो घंटे में और कांगड़ा से मलां डेढ़ घंटे में पहुंचा जा सकता है।

चामुंडा देवी का मंदिर बाणगंगा के तट पर स्थित है। यह उग्र-सिद्घपीठ प्राचीन काल से ही योगियों, साधकों व तांत्रिकों के लिए एकांत, शांत और प्राकृतिक ऊर्जा से लबरेज क्षेत्र रहा है। यहां आने वाले श्रद्धालु शिव और शक्ति के मंत्रों से पूजन, दान और पिंडदान आदि करते हैं। चामुंडा का पौराणिक कथानक व इतिहास ‘दुर्गा सप्तशती’ के  सातवें अध्याय में स्पष्ट किया गया है। मंदिर की प्राचीन परंपरा व भौगोलिक स्थिति से स्पष्ट होता है कि यही वह स्थान है जहां चंड-मुंड राक्षस देवी से युद्ध करने आए और काली रूप धारण कर देवी ने उन्हें मौत की नींद सुला दिया। तीर्थयात्रियों के स्नान के लिए यहां बाणगंगा पर बना सीढ़ीदार ’संजय घाट’ भी है।

मनसा देवी

मानसा देवी का प्रसिद्ध मंदिर चंडीगढ़ के समीप मनी माजरा नामक स्थान पर है। चंडीगढ़ से बसों अथवा निजी वाहनों के जरिये मनीमाजरा तक पहुंचा जा सकता है। मनसा देवी का यह प्राचीन मंदिर प्रमुख शक्ति पीठों में गिना जाता है। मान्यता है कि यहां पर सती का मस्तक गिरा था। चैत्र पक्ष के नवरात्रों में यहां विशाल मेला लगता है। इस अवसर पर यहां लाखों श्रद्धालु आते हैं। यह मंदिर राजा गोपाल जी द्वारा सन् 1872 में निर्मित किया गया था। यह मंदिर सांप्रदायिक सद्भावना का प्रतीक है। इस मंदिर को बनाने वाले सभी कारीगर मुसलमान थे। मंदिर में उत्कीर्णित चित्रकारी देखने योग्य है जिसमें दुर्गा सप्तशती, रामायण और कृष्ण लीला के प्रसंगों को अत्यंत मनोहारी ढंग से चित्रित किया है।

मंदिर के दर्शनों के लिए तीन पिंडिया हैं, जो महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती की प्रतीक हैं। मनसा देवी के नाम से ही एक मंदिर हरिद्वार में शिवालिक पर्वत की चोटी पर भी है। इसकी गणना शक्तिपीठों में तो नहीं है, परंतु धीरे-धीरे इसकी मान्यता बढ़ती ही जा रही है। हरिद्वार जाने वाले यात्री अवश्य इस मंदिर के दर्शन करते हैं। मंदिर की चढ़ाई लगभग एक किमी की है। यहां जाने के लिए शहर से रोपवे भी है।

शाकुंभरी देवी

शाकुंभरी देवी का मंदिर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जनपद मुख्यालय से लगभग 40 किमी की दूरी पर स्थित है। मान्यता है कि यहां पर सती का शीश गिरा था। इस मंदिर की प्रतिमा के दाईं ओर भीमा वं भ्रामरी और बाईं ओर शीताक्षी देवी प्रतिष्ठित हैं। शीताक्षी देवी को शीतला देवी के नाम से भी संबोधित किया जाता है। नवरात्र में दुर्गाष्टमी पर यहां भव्य मेले आयोजित किए जाते हैं। सहारनपुर से शाकुंभरी देवी के लिए सीधी बसें मिलती हैं। यह मंदिर शिवालिक की पवित्र पहाडि़यों के बीच बहुत ही रमणीक घाटी में है। यहां कोई बस्ती नहीं है। कुछ दुकानें हैं और अनेक धर्मशालाएं हैं। यात्री आते हैं और देवी के दर्शन करके वापस लौट जाते हैं। मंदिर मार्ग में तख्तों पर मिठाई, प्रसाद, अखरोट, सिंदूर, मालाओं, पुस्तकों आदि की दुकानें हैं। यहां तंबुओं में श्रद्धालुओं के डेरे लगते हैं। मंदिर से लगभग एक किमी पहले भूरे देव का मंदिर है। पहले भूरे देव के दर्शन करने की परंपरा है। मंदिर के प्रांगण में महाकाली, शिव-पार्वती, हनुमान और अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं।

कालिका देवी

कालिका ही देवी काली हैं, इनका सुप्रसिद्ध शक्तिपीठ भारत के प्राचीनतम नगर कोलकाता [कलकत्ता] में स्थित है। काली के नाम पर ही इस नगर का नाम पड़ा। मान्यता है कि यहां पर भगवती के केश [बाल] गिरे थे। यहां देवी के तीन मंदिर ‘रक्तांबरा’, ‘मुंडामालिनी’ और ‘मुक्तकेशी’ नामों से हैं। दुर्गा पूजा कोलकाता का सबसे बड़ा त्यौहार है। इस महापर्व की तैयारियां दो महीने पूर्व प्रारंभ हो जाती हैं। जगह-जगह बड़े-बड़े पंडाल बनाए जाते हैं। दुर्गा, गणेश, लक्ष्मी, कार्तिकेय व सरस्वती की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की जाती हैं।

दुर्गा पूजा का त्यौहार वर्ष में दो बार आता है- एक चैत्र में और दूसरा अश्विन मास में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तिथि तक। अश्विन मास यानि शारदीय नवरात्र में दुर्गापूजा का त्यौहार बड़ा माना गया है। षष्ठी तिथि को बोधन होता है। इस दिन से वंदना प्रारंभ होकर दुर्गापूजा शुरू हो जाती है। दशमी तक दुर्गापूजा चलती है। चार दिन का सार्वजनिक अवकाश होता है।

कालिका देवी का एक भवन चंडीगढ़-शिमला मार्ग पर भी है। ‘कालिका जी’ नामक स्टेशन से छोटी रेल लाइन भी प्रारंभ होती है। इसी मंदिर के कारण इस कस्बे का नाम कालिका जी पड़ा। धार्मिक मान्यता यह है कि कोलकाता के अलावा भगवती के केशों के कुछ अंश यहां भी गिरे थे। यद्यपि इसकी गणना शक्तिपीठों में नहीं होती। यहां काली पिंडी स्वरूप में विद्यमान हैं।

कुल मिलाकर हम इन शारदीय नवरात्रों में देश के इन तीर्थ शक्ति स्थलों के दर्शन करके पर्यटन व तीर्थाटन एक साथ कर सकते हैं।

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