मोहब्बत का पैगाम देता पोलैण्ड

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अदम्य जिजीविषा का दूसरा नाम है पोलैंड। इतिहास में दर्ज ध्वस्त पोलैंड के चित्रण की जिन तस्वीरों ने मन को गहराई तक विचलित कर दिया था, उन्हीं से रूबरू होकर ऐसा लगा मानो ‘जिंदगी की राख में से जिंदगी उठी हो’। मध्य यूरोप के इस नन्हें से देश के इतिहास में अनेक भीषण आक्रमण दर्ज हैं। 1795 से 1918 तक विश्व के मानचित्र में पोलैंड का नाम बनता-बिगड़ता ही रहा। फिर 1939 से 1945 के दूसरे विश्व युद्ध के दौरान तो जैसे अभिशाप की काली छाया इस देश के अस्तित्व पर छाई ही रही।

वारसा

शिल्प पोलैंड की जनता को विशेष प्रिय रहा है। अपने चौक-चौराहों को उन्होंने संगीतकारों, चित्रकारों, कलाकारों की विशाल प्रतिमाओं से संवारा है। वारसा के संस्थापक राजा सिगमंड की 22 फुट ऊंची प्रतिमा जर्मन टैंकों का लक्ष्य बन कर लगभग ध्वस्त हो चुकी थी पर एक हाथ में क्रॉस और दूसरे हाथ में तलवार थामे अति अलंकृत प्रतिमा के जीर्णोद्वार के साथ ही पोलिश लोगों ने वारसा के पुनरोद्धार का सूत्रपात किया और समस्त विश्व को अपने अजेय मनोबल का लोहा मानने को विवश कर दिया। उन्होंने बोरोक और गोथिक शैली के अद्भुत स्थापत्य वाले चर्चो का भी व्यापक पैमाने पर पुनर्निर्माण किया। युद्धकाल में ये चर्च पीडि़त जनता के शरण स्थल रहे थे और इस कारण जर्मन सेनाओं का कोपभाजन भी बने। पोप जॉन पॉल द्वितीय की मातृभूमि वारसा में ये चर्च अब दोबारा अपनी पुरानी धज में प्रतिष्ठित हो चुके हैं।

वारसा में सेंट जॉन बेपटिस्ट कैथेड्रल, चर्च ऑफ होली स्पिरिट, चर्च ऑफ सेंट हेकिंथस, चर्च ऑफ वर्जिन मेरी जैसे अनेक गिरजाघर अपने विशाल तांबे के हरे गुंबदों और भव्य आंतरिक सज्जा के कारण श्रद्धालुओं के असल मुकाम हैं। पोलैंडवासी मानते हैं कि किसी भी देश की स्मृतियां ही उसे जिंदा रखती हैं। जीवंत शिल्पों की स्थापना कर पोलिश लोगों ने उन अनाम बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को अमर कर दिया जो जर्मन उत्पीड़न के विरुद्ध जूझते हुए शहीद हुए थे। शहर भर में असंख्य नाम पट्टिकाएं चस्पा की गई हैं जिनमें या तो मृत व्यक्तियों की संख्या दर्ज है या फिर मृत्यु की तारीखें। मृत्यु धर्म निरपेक्ष होती है इसलिए इन स्मारकों पर यहूदियों का सितारा, कैथोलिकों का क्रास और इस्लाम का अर्धचंद्र अंकित है। ये लोग मृत्यु में भी सौंदर्य का संधान करना जानते थे इसके प्रमाण हैं यहां के कब्रिस्तान की अलंकृत कब्रें और उन पर अंकित शोक-संदेशों का साहित्यिक सौष्ठव।

पोलिश संस्कृति की शांतिप्रियता

निराशा और हताशा से बहुत दूर पोलिश संस्कृति की शांतिप्रियता ही उन्हें सृजन और पुनर्निर्माण की राह दिखाती है। अपने इतिहास के प्रति पोलिश जनता की जागरूकता की मिसाल यहां के एक पुनर्निर्मित शाही किले के रूप में मिलती है। युद्ध के दौरान यहां संग्रहीत बहुमूल्य कलाकृतियों को जान की बाजी लगाकर गुपचुप तरीके से अपने संरक्षण में लेने वालों ने जीर्णोद्धार के समय खुद आकर उन्हें प्रस्तुत भी कर दिया। आज यह किला अनमोल कलाकृतियों का अनूठा संग्रहालय है। जनजातीय, ऐतिहासिक, सैन्य, संगीत शिल्प के नायाब संग्रहालयों में वारसा की वह विरासत महफूज है। वारसा की यहूदी बस्ती से गुजरे बगैर वारसा दर्शन अधूरा है। कभी अति समृद्ध, सुसंस्कृत बुद्धिजीवी, उद्यमी यहूदियों का बसेरा रहे आशियानों में आज सन्नाटा पसरा हुआ है। कई घर युद्ध की भीषण यातनाओं का मर्म छिपाये मूक गवाही देते से लगते हैं। ईंटों की दीवारों से घेरकर शेष दुनिया से पृथक कर बनाई गई बस्ती यानी घेट्टो की ओर नजर दौड़ाते ही मर्मस्पर्शी पत्रों, हृदयद्रावक कविताओं की पंक्तियों और उनकी स्मृतियों के शिल्पों की झलक दिखेगी। खंडहरों के अवशेषों और राख से प्रसिद्ध शिल्पी रैपोर्ट ने मृत्यु मुख में समाते हुए जन समुदाय के शिल्प की रचना की है।

यहां के लोग कहते हैं कि मत्स्य सुंदरी सेरेना ने अपने प्राण रक्षक मछुआरे को वारसा वरदान में दिया था। पुराने चौक में स्थापित बायें हाथ में ढाल और दायें हाथ में तलवार लिए सेरेना की प्रतिमा यहां के बाशिंदों के अटूट मनोबल का आधार है। ज्ञान, विज्ञान, कला और साहित्य वारसा की संस्कृति के मेरुदंड हैं। इस बात का अहसास शहर के चप्पे-चप्पे पर होगा। भौतिकी और रसायन के क्षेत्र में दो नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाली मेरी क्यूरी का यह जन्म स्थल है। फ्रेटा स्ट्रीट के मकान न. 16 में 1867 में जन्मी क्यूरी का घर अब संग्रहालय का आकार ले चुका है। यहां के ग्रंथालय की दीवार पर उत्कीर्ण गायत्री मंत्र के दर्शन आपको चौंका देंगे। यह परिचायक है एक साहित्य और श्रेष्ठता को सम्मान देने वाली संस्कृति की आत्मा के। चौराहों पर मंजे हुए कलाकार क्रूरता की बानगियां पेश करते दिख जाते हैं। ये लोग व्यक्ति के सिर को एक ठूंठ पर रखकर कुल्हाड़ी से वार करने का ऐसा अद्भुत प्रदर्शन करते हैं कि एक बारगी आप कांप जाएं। दरअसल ये उन यंत्रणाओं की बानगी भर है जो इन लोगों ने कई बरसों तक भोगी हैं।

क्राको

पोलैंड के अतीत की उजली तस्वीरें हैरिटेज सिटी क्राको में परिलक्षित होती हैं। पोलिश संस्कृति की आत्मा कहे जाने वाला यह शहर वारसा के दक्षिण में 270 किमी दूर है। 11वीं से 16वीं सदी तक पोलैंड की राजधानी रहे इस शहर के गोथिक शैली के महल, अजेय दुर्ग, भव्य आंतरिक सज्जा से परिपूर्ण चर्च यहां के स्वर्णयुग के जीवंत दस्तावेज हैं। अपने अनूठे शिल्प वैभव के चलते क्राको को पोलिश रोम कहा जाने लगा था। यहां दिन के हर घंटे बिगुलवादन की परंपरा रही है। होली मेरी चर्च के बुर्ज से होने वाले इस बिगुलनाद के लिए हर आठ घंटे में पारी बदलने वाले तीन बिगुलवादक तैनात किये जाते हैं जो फायर डिपार्टमेंट के होते हैं। दोपहर 12 बजे यह बिगुल निनाद पूरे देश में गूंज उठता है क्योंकि इसे तब पोलिश रेडियो से प्रसारित किया जाता है। कहते हैं कि तेरहवीं सदी में तातारी हमले के समय बुर्ज पर तैनात प्रहरी शहर को हमले से सावधान कर रहा था तभी उस बिगुल वादक के कंठ पर लगी गोली ने उसके प्राण ले लिए। तभी से इसे अधूरा बजा कर छोड़े जाने का क्रम जारी है। दोपहर 12 बजे का बिगुल वादन उस शहीद प्रहरी को श्रद्धांजलि है।

यूनेस्को हैरिटेज साइट

यूनेस्को हैरिटेज साइट्स की फेहरिस्त में आने के कारण शहर के केंद्र में स्थित प्राचीन बुर्ज, भव्य मीनारें और क्लाथ मार्केट सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं। तंग गलियों वाला यह क्षेत्र पर्यटकों से खचाखच भरा रहता है। भवन निर्माण कला के जिकजैक पैटर्न पर आधारित प्रतिष्ठित उद्यमियों द्वारा निर्मित मीनारें कला का बेजोड़ नमूना हैं। किसी समय यहां ऐसी 48 मीनारें हुआ करती थी लेकिन अब मात्र 4 मीनारें ही सुरक्षित रह गई हैं। क्राको में उत्कृष्ट कलाओं और साहित्य में निपुणता हासिल करने के लिए 17 ‘इंस्टीट्यूट ऑफ हायर एजूकेशन’ है। पुरातात्विक महत्ता वाली इन इमारतों में विद्यार्जन की ऐसी व्यवस्था बिरले ही देखने को मिलती है। इन्हीं में कभी महान पोलिश दार्शनिक विद्वान और वैज्ञानिक निकोलस कोपरनिकस ने चार वर्ष तक अध्ययन किया था। क्राको के क्लॉथ हॉल और सेंट मेरी बासिलिका के मध्य फूलवालियों का साम्राज्य है। पुरुषों के लिए यहां फूल विक्रय प्रतिबंधित है। 16वीं सदी से चली आ रही इस परंपरा के तहत फूल बेचने का अधिकार मां से बेटी को मिलता रहता है।

नमक लोक की यात्रा

क्राको से 14 किमी दूर यूनेस्को की घोषित प्राकृतिक सांस्कृतिक धरोहर स्थली वीलेज्का है। साल्टलैंड के नाम से दुनिया भर में चर्चित इस ‘नमक लोक’ की यात्रा बेहद यादगार रहेगी। आपने सोने, चांदी, हीरे जवाहरातों वाले परीलोक की कल्पना तो की होगी पर नमक लोक की यात्रा आपको चमत्कृत कर देगी। 1493 में प्रसिद्ध खगोलविद् कोपरनिकस यहां आये थे। वे तब क्राको अकादमी के छात्र थे दरअसल इस युग में नमक के व्यवसाय से प्राप्त राशि क्राको के कुल राजस्व की एक तिहाई थी और इसी राशि से क्राको अकादमी के विद्वानों का वेतन दिया जाता था। 13वीं सदी से संचालित नमक खदानें 10 कि.मी. के विस्तार में फैली हैं और 5 मीटर चौड़ी हैं। 400 मीटर की गहराई और 320 किलोमीटर लंबे गलियारे में स्थित 22 कक्ष फिलहाल पर्यटकों के लिए खोले गए हैं। यहां नमक से निर्मित चर्च हैं, नमक बनाने की प्रक्रिया की लंबी गाथा है और है वीलेज्का के नमक व्यवसाय का समृद्ध इतिहास। दरअसल नमक के खनिकों की जान खदान के खतरों के कारण ज्यादातर सांसत में रहती थी इसीलिए भूगर्भ में चर्च बनाये गए। खास बात इन चर्चो का पूर्णत: नमक का बना होना है। नमक की चट्टानें खोदकर बनाये गए इन चर्चो में सीढि़यां, रेलिंग, वेदिका, मूर्तियां, झाड़फानूस- सभी कुछ नमक से ही तराशे गए हैं।

कलाकारी का बेहतरीन नमूना

नमक की यह कलाकारी कोई एक कालखंड की रचना नहीं है। सेंट ऐंथनी चर्च बराक शैली में 17वीं सदी में बना तो सेंट जॉन चैपल 1859 में अस्तित्व में आया। खदानों का सबसे महत्वपूर्ण चर्च सेंट किंगाज चैपल 1896 में बनकर तैयार हुआ। 54 मीटर लंबे 18 मीटर चौड़े और 12 मीटर ऊंचे इस चर्च को तैयार होने में 70 साल लगे। यहां की दीवार पर लिआनार्दो विंची की कलाकृति द लास्ट सपर की हूबहू अनुकृति भी नमक में ढली है। अन्य कक्षों में नमक ढोने वाली गाडि़यां, घोड़े, सईस सभी कुछ नमक के हैं। नमक कूटने, ढोने, वाष्पित करने की तमाम प्रक्रियाओं को भी नमक लोक में ऐसे तराशा गया है कि आप स्तब्ध रह जाएंगे। कंप्यूटर जनित ध्वनियों और प्रकाश के संयोजन से इन कथाओं में परीकथाओं सा मायालोक प्रस्तुत किया गया है। सोडियम, मैग्नीशियम क्लोराइड युक्त हवा स्वास्थ्य कक्ष में दमा और एलर्जी के रोगियों को सुकून देती है। वाकई नन्हें से देश पोलैंड के व्यक्तित्व में ही ऐसी मिठास है कि आप झीलों के इस देश की रमणीयता को निहारने यहां बारंबार आना चाहेंगे और नफरत और अवसाद की धुंध को हटा कर जिजीविषा से भर उठेंगे।

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