रुद्रगेरा: हिमालय की गोद में जाने का रोमांच

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मध्य हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में गंगोत्री से यदि दक्षिण की ओर चलें तो बेहद सुंदर रूद्रगेरा, जोगिन और गंगोत्री पर्वत श्रृंखलाओं के अलौकिक दर्शन होते है। यहां की सभी पर्वत चोटियों पर चढ़ने के लिए आधार शिविर रुद्रगेरा पर्वत के नीचे खुले स्थान पर लगाया जाता है। शिविर के मैदान के दूसरी ओर जोगिन पर्वत और सामने तीनों गंगोत्री शिखर नंबर 1, 2 और 3 हैं। रोमांच भरी इस यात्रा पर जाने के लिए मैं और ट्रेकिंग करने वाले मेरे कुछ मित्र काफी समय से लालायित थे। कुछ दिन पहले हमारा छह सदस्यों का दल ऋषिकेश होते हुए गंगोत्री के लिए रवाना हुआ। रास्ते में एक रात हम उत्तरकाशी रुके।

मनमोहक दृश्य

अगले दिन हम गंगोत्री की ओर बढ़े। उत्तरकाशी से गंगोत्री का सफर 99 किलोमीटर का है। रास्ते में पहाड़ों पर और कभी सड़क पर भेड़-बकरियों के झुंड मनमोहक दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे। गंगोत्री पहुंचने पर शाम हो चुकी थी। समुद्रतल से अब हम लगभग 10,200 फुट की ऊंचाई पर पहुंच गए थे। बस से उतरे तो कड़ाके की ठंड ने हमारा स्वागत किया। हमें दो दिन गंगोत्री में रुकना था क्योंकि सभी साथी दो वर्ष बाद इतनी ऊंचाई पर ट्रेकिंग के लिए निकले थे। कम आक्सीजन वाले स्थान में वातावरण के अनुकूल (एक्लीमेटाइज) होना हमारे लिए आवश्यक था।

हम गंगोत्री में दो दिन ठहरे। हमने बचन सिंह नामक एक कुली-कम गाइड और भोजन सामग्री का प्रबंध कर लिया था। किचन का सामान और गैस चूल्हा हमारे पास था। दो दिन बाद सुबह 6 बजे हमने रूद्रगेरा घाटी की ओर प्रस्थान किया। देवदार के वृक्षों के उपरांत अब हम भोजपत्र के वृक्षों के बीच से गुजर रहे थे। इन वृक्षों की छाल को आज के कागज की तरह प्रयोग करके हमारे ऋषियों ने शाश्वत ग्रंथों की रचना की थी।

चढ़ाई

हल्की-हल्की चढ़ाई चढ़ते हुए हम रुद्रगंगा के समीप आ पहुंचे। यह नदी आगे चलकर भागीरथी में समा जाती है। लगभग 12 हजार फुट की ऊंचाई थी। भूख लग आई थी। यह सोचकर कि बैठने से शरीर ठंडा हो जाएगा, हमने धीरे-धीरे चलते हुए ही कुछ खान-पान किया। गंगोत्री की ओर मुड़कर देखने से विशाल चट्टानों वाले हिमरहित पहाड़ों का भयावह नजारा दिखाई दे रहा था। सुबह से दो बार हल्की बारिश हो चुकी थी। दिन के तीसरे पहर तक हमने अपना डेरा डाल दिया। गंतव्य स्थान तक का आधा रास्ता तय हो चुका था। शाम को तेज हवाएं चलने लगीं। ठंड बढ़ गई। एक्लीमेटाइजेशन के विचार से हम खुली हवा में समय बिता रहे थे। टेंट लगाने के लिए हमने ठीक स्थान का चयन किया था इसलिए हवाओं का विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।

प्रदूषण रहित आकाश में घने तारों की अद्भुत रोशनी देख-देख कर हम थक नहीं रहे थे। पक्षियों की चहचाहट ने हमें सुबह जगा दिया। बचा-खुचा खाना, सब्जी के छिलके आदि एक जगह डालने के लिए हमने पास ही एक गड्डा खोदा था। ये पक्षी वहां बैठे थे। वास्तव में हिमालय को गंदगी से बचाने के लिए विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी स्तरों पर एक जागरूकता अभिमान ‘कीप द हिमालया क्लीन’ कुछ वर्षो से चल रहा है। इसी के अंतर्गत राज्य सरकार ने कुछ प्रबंध किए हैं। गंगोत्री से आगे किसी भी ओर प्लास्टिक, पोलीथीन, बोतलें आदि ले जाने पर रोक है। यदि ले जाएं तो वापिस लाना आवश्यक है।

सात बजे हम गंतव्य स्थान की ओर बढ़ चले। ऊंचाई बढ़ने के साथ-साथ हमारी चाल भी धीमी हो रही थी। कुछ किलोमीटर और चलने के पश्चात हम नाश्ते के लिए रुके। ट्रेकिंग के दौरान हमारी खाने-पीने की नीति यही थी कि सुबह चाय के साथ हल्का आहार लेकर जल्दी चल पड़े। ज्यादा से ज्यादा रास्ता तय करके जहां भी नाश्ता तैयार करने और खाने के लिए रुके वहीं विश्राम भी करें।

रूद्रगेरा पर्वत चोटी और गंगोत्री पर्वत

दो बजे हम उस स्थान पर पहुंच चुके थे जहां 19 हजार फुट ऊंची रूद्रगेरा पर्वत चोटी और गंगोत्री पर्वत श्रृंखला पर चढ़ने के लिए आधार शिविर लगाया जाता है। यहां का प्राकृतिक वैभव देखकर हम स्तब्ध थे। सब ओर पर्वत शिखर और हमारे सिवा वहां कोई भी नहीं। आधार शिविर स्थल पर रहकर हमें अगले दिन ग्लेशियर के मुख (स्नाउट) तक जाना था। यह स्थान हिमालय से निकलने वाली किसी भी नदी का उद्गम स्थल होता है। नींबू का रस ग्लूकोज में मिलाकर हमने पेट भर पानी पीया। कुछ देर बाद हमने सामान खोला, टेंट लगाए और शाम का भोजन पकाने की तैयारी शुरू कर दी। रोटी सब्जी न बनाकर हमने दाल और चावल बनाए। वास्तव में पहाड़ों में पसीना निकालने से शरीर में डीहाइड्रेशन (पानी की कमी) होने लगती है। चावलों में पानी अधिक होने से क्षतिपूर्ति होती है।

रात हो चुकी थी। आसमान बेहद पास लग रहा था मानो कुछ नीचे उतर आया है। आकाश में टिमटिमाते तारों की सुंदरता का बखान करना उनकी खूबसूरती को घटाना होगा। असंख्य तारों में कभी ना दिखाई देने वाले तारे भी थे। ऐसे मनोहारी दृश्य को देखते रहने की लालसा कहां से कम हो सकती थी मगर थकान और भरपेट भोजन ने हमें 8 बजे ही सुला दिया। रात को अचानक नींद खुली। साढ़े तीन बजे थे। मैं टेंट से बाहर निकला तो कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध रह गया। रात्रि को मैने उसकी इस सुंदरतम अवस्था में पहले कभी नहीं देखा था। जोगिन पर्वत शिखर के समीप अत्यंत घने सितारों के बीच चमकता आधा चंद्रमा सुंदरता की चरम सीमा का आभास करा रहा था। जोगिन शिखर का आकार भी उसके नाम के अनुरूप ही है। वह अद्वितीय दृश्य ऐसा लग रहा था मानो शिव भगवान तपस्या कर रहे हों, आधा चंद्रमा उनकी जटाओं पर सुशोभित हो रहा हो। चारों ओर एक रहस्यमयी रात्रि की अलौकिक छटा! एक अद्वितीय अनुभव! तड़के के सवा चार बजे थे। पर्वत शिखरों पर सूर्य देवता की प्रथम किरणों का बर्फीली चोटियों पर स्पर्श होने वाला था। मैने कैमरा तैयार किया और बैठ गया उस घड़ी की प्रतीक्षा करने जब पृथ्वी के हजारों फुट ऊंचे शिखरों को सूर्य की किरणें स्वर्णिम रूप देती है। ऐसा रूप कि मानो सब ओर सोना ही सोना बिखरा पड़ा हो। वो घड़ी आ गई। लगभग 20 मिनट तक मैने चोटियों को उनके स्वर्णिम आभा में देखकर कैमरे में कैद किया। यह मेरा सौभाग्य ही था कि बादल नहीं थे।

सवेरे लगभग दो घंटे बाद हम गंगोत्री पर्वत श्रृंखला की ओर ग्लेशियर तक पहुंचे। लेकिन सब कुछ इतना सरल नहीं था। मीलों तक सब ओर फैले कल्पना से बड़े विशालकाय पत्थर और टूटी चट्टानें (ग्लेशियल डिपॉजिट्स) थीं मानो शिव तांडव से विनाश हुआ हो। हमारे रास्ते में सारी धरती पत्थरों के छोटे-बड़े टुकड़ों से मीलों तक ढकी पड़ी थी। पर्वतारोहण की भाषा में इन्हें मोरैन्स कहते है। आगे चलकर हमने पाया कि इन पत्थरों के नीचे सैकड़ों फुट बर्फ ही बर्फ है जो हिमालय की संरचना के समय से मौजूद है। प्रकृति के अनोखे रूप को देखते-देखते तीन घंटे और बीत गए। 17 हजार फुट की ऊंचाई से अब हम कैंप की ओर लौट चले थे। हिमालय के रहस्यों को देखते हुए हमारे साथ और कोई नहीं था। यदि कुछ था तो हमारा दृढ़ संकल्प। हम सुरक्षित लौट आए थे एक चिरस्मरणीय अनुभव के साथ। हिमालय के विकराल रूप के समक्ष मानव के नगण्य अस्तित्व का हमें बोध हो रहा था। ज्ञान और विज्ञान की हर शाखा का अनुभव हमें हिमालय मौन रहकर करा रहा था। लगभग दो बजे कैंप में पहुंचकर हमने विश्राम किया।

गंगोत्री लौटते हुए हम एक रात के लिए आधे रास्ते में वहां ठहर गए जहां पहला कैंप लगाया था। अगले दिन हम गंगोत्री पहुंचे। उस दिन हम वहीं रुके। घर लौटने के लिए अगली सुबह पहली बस हमें मिल गई थी।

रुद्रगेरा घाटी में जाने का उपयुक्त समय

अगस्त से लेकर बर्फ गिरने से पहले। दिल्ली अंतरराज्यीय बस अड्डे से ऋषिकेश पहुंचे। बसें 24 घंटे उपलब्ध है। 225 किलोमीटर की दूरी तय करने में बस से लगभग 6 घंटे का समय लगता है। साधारण बस का किराया 213/-, डीलक्स बस 230/- है। इनके अलावा प्राइवेट कार, टैक्सी अथवा रेलगाड़ी से भी जा सकते हैं।

ऋषिकेश से उत्तरकाशी तक बस से 7-8 घंटे में पहुंचा जाता है। पहाड़ी रास्ता है। इच्छानुसार प्राइवेट कार से जा सकते है। टैक्सियां भी उपलब्ध। दूरी 148 कि.मी.। साधारण बस का किराया 143 रु.।

उत्तरकाशी से गंगोत्री की दूरी 99 किलोमीटर है। पहाड़ी मार्ग है। बस द्वारा 5-6 घंटे में पहुंचते हैं। साधारण बस का किराया लगभग 100 रु. है। यहां भी टैक्सियां उपलब्ध होती हैं। ऋषिकेश, उत्तरकाशी और गंगोत्री में ठहरने के लिए सस्ते और महंगे होटल और धर्मशालाएं उपलब्ध हैं।

ऋषिकेश: गढ़वाल मण्डल विकास निगम (जीएमवीएन) मुनि की रेती स्थित होटल का किराया 1400/-एसी कमरा, 800/-डीलक्स, 750/ फैमिली सुवीट, 600/-इकॉनोमी, 250/- साधारण और डोरमिटरी 100/-अन्य कई अच्छे व सस्ते होटल और धर्मशालाएं भी उपलब्ध हैं। उत्तरकाशी में जीएमवीएन होटल का किराया 990/-में सुपर डीलक्स, 850/-डीलक्स, 990/ फैमिली सुवीट, 700/ इकॉनोमी और 150/-रु. में डोरमिटरी। अन्य कई अच्छे और सस्ते होटल भी उपलब्ध है। गंगोत्री में जीएमवीएन होटल का किराया 900/ डीलक्स रूम, 1800/ फैमिली सूट 400/ साधारण और 150/-रु. में डारेमिटरी है। अन्य कई अच्छे व सस्ते होटल, साधुओं की धर्मशालाएं और तीन तीर्थ पर रहने वाले पण्डितों के डेरे भी उपलब्ध हैं। कुली कम गाइड भोजन आदि के साथ 250/- प्रतिदिन या कुछ कम ज्यादा पर उपलब्ध हो जाता है। सभी आवश्यक राशन सामग्री कार्यक्रम की अवधि के अनुसार पानी भरने के लिए जरीकेन या प्लास्टिक की बड़ी बोतल ले। चूल्हा, मिट्टी का तेल, बर्तन आदि जो अपने पास न हों उनका प्रबंध कुलियों के माध्यम से हो जाता है। वैसे ट्रैवल एजेंसियां कुली गाइड, रसोइया, सामान आदि सभी चीजों का प्रबंध कर देती है। अपने टेंट, गर्म कपड़े, स्लीपिंग बैग, रकसैक, पानी की बोतल, टॉर्च, चश्मा, कैमरा मजबूत और चलने में आरामदायक जूते, विंडचीटर, वर्षा से बचने के लिए प्लास्टिक शीट, आवश्यक दवाएं आदि लेकर चले। ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में होने वाली कठिनाइयों और बीमारियों का ज्ञान रखना लाभप्रद रहता है। हाई एल्टीट्यूड सिकनेस में सिर में दर्द होता है। उबकाई महसूस होती है लेकिन उल्टी अक्सर होती नहीं और खाने-पीने को मन नहीं करता। अधिक से अधिक पानी और कभी-कभी ग्लूकोज मिलाकर लें। कभी भूखे न रहे। धीरे-धीरे चलें फिर भी कुछ समय बाद आराम न आए तो नीचे चले आए वरना पलमोनरी एडिमा (फेफड़ों में पानी आ जाना) और ब्रेन एडिमा जैसी तकलीफें हो सकती है। केवल स्वस्थ और साधारण अवस्था में यात्रा करना आनंददायक रहता है। सीमित खर्चा करते हुए एक दल के एक सदस्य का खर्च दो से तीन हजार रुपये के बीच आता है।

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