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रणवीरों की शौर्यगाथाओं के लिए चर्चित राजस्थान पर्यटकों के बीच केवल रेगिस्तान, ऊंट और किलों के लिए ही जाना जाता है। हालांकि यहां रेगिस्तान के अलावा अरावली और विंध्य की पर्वतश्रृंखलाएं तो हैं ही, हरे-भरे खेतों वाले मैदान, नदी घाटी, पत्थरों की खदानें और कई पवित्र तीर्थ भी हैं। अगर इन सबका मजा एक साथ लेना हो तो झालावाड़ चले जाइए। ऐतिहासिक विरासत के लिए प्रसिद्ध झालावाड़ से सटे झालरापाटन धार्मिक महत्ता के लिए जाना जाता है। वैसे झालावाड़ का मुख्य आकर्षण गढ़ पैलेस अब प्रशासनिक कार्यालय में तब्दील हो चुका है, तो भी अपनी गौरवगाथा कहने के लिए यह काफी है।
1854 में बने इस महल के प्रांगण में भवानी नाटयशाला है। पारसी शैली के इस थियेटर में बिना किसी यांत्रिक व्यवस्था के ही ध्वनि को प्रतिध्वनि में बदलते महसूस किया जा सकता है। झालावाड़ से सात किमी दूर रैन बसेरा है। लकड़ी के इस घर को महाराजा राजेंद्र सिंह ने लखनऊ की एक प्रदर्शनी से लाकर किशन सागर तालाब के पास स्थापित किया था। शहर से 35 किमी दूर खानपुर अतिशय जैन मंदिर के लिए विख्यात है। मंदिर के भूगर्भ में 20 फुट नीचे एक विशाल तल प्रकोष्ठ है। इसमें संवत 512 की श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। झालावाड़ से 60 किमी दूर है चंबल नदी की घाटी। इस सुंदर घाटी में आप मगरमच्छ व घडि़यालों को स्वच्छंद विचरते देख सकते हैं।
निकटवर्ती कस्बे झालरापाटन में स्थित सूर्य मंदिर दसवीं शताब्दी में बनाया गया था। इसका शिखर 97 फुट ऊंचा है। यहां शांति नाथ जैन मंदिर भी दर्शनीय है। प्राचीन काल में इस नगर का नाम चंद्रावती था। यहां चंद्रभागा नदी के तट पर चंद्रमौलीश्वर महादेव का मंदिर है। इसके पास ही भगवान विष्णु व दुर्गा जी के मंदिर भी हैं। चंद्रभागा नदी में हर साल कार्तिक पूर्णिमा के दिन दीपदान किया जाता है। इस मौके पर यहां बड़ा मेला लगता है। पशुओं के इस मेले में वैसे तो ऊंट व बैल आदि भी लाए जाते हैं, पर मशहूर यह घोड़ों के लिए है। इसी कस्बे में द्वारकाधीश मंदिर 1796 में झाला जालिम सिंह ने बनवाया था। झालावाड़ शहर से करीब 14 किमी दूर है गागरोन दुर्ग। तीन तरफ से आहू व काली सिंध नदी और विंध्य पर्वत श्रृंखला से घिरे इस दुर्ग का निर्माण आठवीं से 14वीं सदी के बीच हुआ है। इससे थोड़ी ही दूर नवलखा किला भी है, जिसे राजराणा पृथ्वी सिंह ने 1860 में बनवाया था।
कैसे पहुंचें
हमारी टीम तो रामगंज मंडी रेलवे स्टेशन पर उतरी थी और वहां से करीब 40 किमी का रास्ता बस से तय कर हम गागरोन दुर्ग पहुंचे थे। पर्यटन विभाग द्वारा खास तौर से तैयार किया गया हमारा बसेरा वहीं प्रकृति की गोद में था। वैसे झालावाड़ आने के लिए अच्छा होगा कि कोटा उतरें। वहां से झालावाड़ 85 किमी दूर है और टैक्सियां व बसें हमेशा मिलती हैं। कोटा वायुमार्ग से भी देश के प्रमुख शहरों से जुड़ा है।
कहां ठहरें
ठहरने के लिए यहां पर्यटन विकास निगम के होटल चंद्रावती के अलावा होटल द्वारिका व होटल सूर्या अच्छी जगहें हैं। चाहें तो शहर से दूर प्रकृति के सुरम्य वातावरण में मौजूद रैन बसेरे में भी ठहर सकते हैं। रेगिस्तान होने के कारण राजस्थान के बारे में जैसा आम तौर पर लोग सोचते हैं, वैसा है नहीं। शाकाहारी और मुगलई दोनों व्यंजनों की यहां इतनी अनूठी किस्में हैं कि अगर आप यहां साल भर रहें तो भी रोज नया व्यंजन खा सकते हैं। अतिथियों का अनूठे व्यंजनों से स्वागत करना यहां के रजवाड़ों का खास शौक रहा है। पाकशास्त्र की गिनती यहां की महत्वपूर्ण कलाओं में होती रही है और पुराने खानसामे यह खयाल रखते थे कि उनकी कला बाहर न जाने पाए। दिल्ली से चलते समय यह बात हमें यहां राजस्थान सूचना केंद्र के संयुक्त निदेशक गोपेंद्र नाथ भट्ट ने बताई थी। उन्होंने यह भी कहा था कि आप राजस्थान जा रहे हैं तो वहां दाल-बाटी व चूरमा जरूर खाइएगा, वरना आपका जाना अधूरा ही रह जाएगा। खाने के बाद हमें भी लगा कि उन्होंने सच ही कहा था।
राजस्थान में हर इलाके के अपने खास व्यंजन हैं। जैसलमेर, बाड़मेर व बीकानेर जैसे रेगिस्तानी इलाकों में पानी और हरी सब्जियों की कमी का असर वहां के भोजन पर भी दिखता है। इसलिए इस क्षेत्र के भोजन में दूध, मलाई और मक्खन का इस्तेमाल भरपूर होता है। सूखी दालें और सांगरी व केर जैसे पौधों की बीन यहां के भोजन का अनिवार्य हिस्सा है। जबकि झालावाड़ जैसे मैदानी इलाकों में हरी सब्जियों के व्यंजनों की भरमार है। चने के बेसन से बनी गट्टे की सब्जी और पकौडि़यों का जो खास स्वाद यहां आपको मिलेगा, वह कहीं और दुर्लभ है। बाजरे और मक्के की रोटी भी यहां अलग तरह से बनती है। राजस्थानी कढ़ी और खिचड़ी का स्वाद भी अन्य प्रांतों की तुलना में अलग है। मिठाइयों में लड्डू, मालपुआ, जलेबी, रसगुल्ला, दिलजानी, मिशरी मावा, घेवार व सोहन हलवा यहां खास तौर से पसंद की जाती हैं।