करें अरावली की पहाडि़यों में ट्रेकिंग

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सर्दियों में आम तौर पर पहाड़ों में ट्रैकिंग की गतिविधियां मंद पड़ जाती हैं। लगभग अप्रैल मास तक यही स्थिति बनी रहती हैं। लेकिन पहाड़ों पर जाने का समय व साम‌र्थ्य सबके पास न होने के चलते आजकल ट्रैकिंग को पहाड़ों से हटकर देखा जाने लगा है। रॉक क्लाइंबिंग करना और कैंप लगाने जैसे कार्यक्रम पहले से अधिक होने लगे हैं। ट्रैकिंग के ऐसे कार्यक्रमों को स्थानीय ट्रेक (लोकल ट्रेक) भी कह देते हैं। अनेक छोटे-बड़े शहरों से कुछ दूर हटकर मीलों तक बीहड़ स्थान, छोटे पहाड़ और जंगल मिल जाते हैं जहां ट्रैकिंग का अनूठा आनंद मिलता है। फिर ट्रैकिंग कार्यक्रम चाहे एक या दो दिन अथवा कुछ दिनों का क्यों न हो।

अरावली पर्वत श्रृंखला

ऐसे कार्यक्रमों की दृष्टि से दिल्ली से सटी अरावली पर्वत श्रृखलाएं बांहें फैलाए प्रकृति प्रेमियों की बाट जोहती हैं। ये सुंदर पहाडि़यां हरियाणा के गुड़गांव शहर से आगे दिखाई देने लगती हैं। कुछ मील चलने के उपरांत हम इन पहाडि़यों में पहुंच जाते हैं। राजस्थान की सीमाएं यहां से समीप हैं मुगल काल में यहां का मार्ग दिल्ली आने के लिए शाही रास्ता (रॉयल रूट) कहलाता था। अधिकतर क्षेत्र मेवात कहलाता है। अरावली की इन पहाडि़यों की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अनेक स्कूल और कॉलेज के छात्र- छात्राएं इन पहाड़ों में छुट्टियों के दिनों में कैंप लगाने, रॉक क्लाइंबिंग और ट्रैकिंग करने जैसी गतिविधियां करते हैं। रॉक क्लाइंबिंग के लिए तो यहां बड़े सुंदर-सुंदर स्थान हैं। दिल्ली पर्वतारोहण संघ और अन्य ऐसे क्लब प्रतिवर्ष यहां अपने कार्यक्रम आयोजित करते हैं। अरावली श्रृखलाओं में मौसम ज्यादातर खुशनुमा बना रहता है।

टूरिस्ट कॉम्पलेक्स

ट्रैकिंग के लिए गुड़गांव से 25 किमी. की दूरी पर सोहना गांव पहुंचा जा सकता है। पहाड़ के ऊपर एक सुंदर टूरिस्ट कॉम्पलेक्स है। ट्रैकिंग पार्टियों को यद्यपि इस स्थान से कुछ लेना-देना नही होता और वे सोहना से 8-10 किमी. और आगे स्थित तावड़ू नामक स्थान पर पहुंच सकते हैं। जलपान करने की यह अच्छी जगह है। यहां से टैम्पो या जीप द्वारा सीलखो नामक घाटी तक जाना होता है जिसकी दूरी छह किमी. है। भोजन और पानी की व्यवस्था पहले से ही करनी होती है।

घाटी पहुंचकर भ्रमण के लिए एक निश्चित रास्ता तय कर लेना चाहिए। ट्रैकिंग के अंतिम दौर में जो दिशा हमें चाहिए उसका ध्यान शुरुआती दौर में ही रखना आवश्यक होता है, वरना मुश्किलों का सामना करना लगभग तय समझें। एक विशेष बात यह है कि पहाड़ पर चढ़ने के उपरांत कई किलो मीटर तक चारों ओर फैला हुआ क्षेत्र लगभग समतल मिलता है। परंतु दूसरे छोर पर नीचे उतरते समय फिर वही कठिनाइयां आती हैं जो पहाड़ों की विशेषता है।

इस घाटी में जब हम ट्रैकिंग प्रारंभ करते हैं तो काफी दूरी पर एक किला दिखाई देता है जो अब खंडहर ही है। एक मंदिर भी है जहां इधर-उधर बिखरी कई खंडित मूर्तियां मिलती हैं और वे पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। स्थानीय निवासी बताते हैं कि पुरातत्व विभाग इस स्थान के महत्व को जानता है। पहाड़ों के नीचे नगण्य संख्या में बसे गांवों के निवासियों का इस बीहड़ क्षेत्र के महत्वपूर्ण तथ्यों से सरकारी तंत्र को समय-समय पर अवगत कराया है परंतु विशेष कुछ नहीं हुआ। उनका कहना है कि कभी-कभी यहां खजाने और दुर्लभ और बेशकीमती मूर्तियां खुदाई में मिलती हैं। उनका फिर जो कुछ भी हो, हमें तो केवल चुप रहना पड़ता है।

सावधानी

ट्रैकिंग के दौरान पहाड़ों के कुछ निचले हिस्सों में पत्थर तोड़कर रोड़ी तैयार करने के लिए क्रशर लगे मिलते हैं। यहां की मानव गतिविधियों को देखकर अपना रास्ता तय नही करना चाहिए। ऐसे में भटकने पर मुश्किलें आ सकती हैं। हमें तय करना होता है कि पहाड़ पर चढ़कर अगले 8-10 किलोमीटर चलने के बाद पहाड़ से नीचे उतरना है और सामने दिखाई देने वाले नूंह शहर पहुंचना है। यदि किले को देखना हो तो लगभग तीन घंटे का अधिक समय लेकर चलना चाहिए। इस पहलू का विशेष ध्यान रखना होता है कि रात न हो जाए वरना न तो रास्ता दिखाई देगा और न वहां ठहरने, खाने पीने आदि को कुछ मिलेगा। किले वाले रास्ते में चरवाहे अपने जानवरों को पथरीली गुफाओं में रात्रि में शरण के लिए बंद कर देते हैं। उनके द्वारा की जाने वाली आहट कभी-कभी डराती और रोमांच पैदा कर देती हैं।

चिरस्मरणीय आनंद

सभ्यता से दूर एकांत और वीरान क्षेत्र में पहुंचकर अनेक कल्पनाएं उजागर होने लगती हैं। ढाक के पेड़ यहां बहुतायत में हैं। उनकी छांव में बैठकर दोपहर के भोजन का आनंद चिरस्मरणीय रहता है। ध्यान रहे यहां पानी नहीं मिलता और न ही रास्ता पूछने के लिए कोई व्यक्ति। नीलगाय देखने को मिलती हैं। इनसे दूर रहना बेहतर होता है। ट्रैकिंग करते हुए जब हम पहाड़ के दूसरे छोर पर पहुंचते हैं तो पंछी की दृष्टि में जिस प्रकार आकाश से धरती दिखाई देती हैं वैसे ही कुछ मील की दूरी पर बसा नूंह शहर दिखाई देता है।

पहाड़ से नीचे उतरने के लिए सतर्कता से हमें रास्ता चुनना होता है। कई बार इस क्षेत्र में धरती पर पगडंडियां बने होने का आभास होता है परंतु वे रास्ते नहीं होते। ट्रैकिंग के दौरान कभी हम राजस्थान की सीमा में होते हैं तो कभी हरियाणा में। राजस्थान क्षेत्र तिजारा तहसील में आता है। पहाड़ से नीचे उतरकर हमें एक डेढ़ घंटा और चलना पड़ता है। नूंह भी तहसील है। नूंह में जलपान, भोजन आदि के लिए अनेक स्थान है जहां कुछ देर रुककर थकान उतारी जा सकती है। दिल्ली लौटने के लिए यहां से बसें मिलती हैं।

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