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सेममुखेम की यात्रा श्रद्धालुओं के लिए अविस्मरणीय होती है। इस नागतीर्थ की जानकारी मुझे लखनऊ प्रवास के दौरान अपने बडे भाई विजय गैरोला से मिली। उनके विस्तार से सुनाए इस तीर्थ यात्रा के संस्मरण ने मुझे यहां जाने के लिए प्रेरित किया और मैं भी निकला सेमनाग राजा के दर्शनों के लिए।
दिल्ली से पहले पौडी और फिर श्रीनगर होते हुए हम पहुंचे गडोलिया नाम के छोटे से कस्बे में। यहां से एक रास्ता नई टिहरी के लिए जाता है तो दूसरा लंबगांव। हमने लंबगांव वाला रास्ता पकडा क्योंकि सेम नागराजा के दर्शनों के लिए लंबगांव होते हुए ही जाया जाता है। घुमावदार सडकों पर टिहरी झील का विस्तृत फलक साफ दिखाई दे रहा था। पुरानी टिहरी नगरी इसी झील के नीचे दफन हो चुकी है। हल्की धुंधली यादें पुरानी टिहरी की ताजा हो उठी, और मैं चारों और पसरी झील के पानी में पुराने टिहरी को देखने की कोशिश करने लगा। रास्ता जैसे-जैसे आगे बढता जा रहा था, मैं इस झील के पानी में पुरानी टिहरी की संस्कृति को ढूंढने की कोशिश कर रहा था। अतीत में खोए हुए मुझे पता नहीं चला कि कब में टिहरी झील को पीछे छोड आया और लंबगांव पहुंच गया। खैर मेरे ड्राइवर ने मेरी तंद्रा तोडी।
लंबगांव सेम जाने वाले यात्रियों का मुख्य पडाव है। पहले जब सेम मुखेम तक सडक नहीं थी तो यात्री एक रात यहां विश्राम करने के बाद दूसरे दिन अपना सफर शुरू करते थे। यहां से 15 किलोमीटर की खडी चढाई चढने के बाद ही सेम नागराजा के दर्शन किए जाते थे। अब भी मंदिर से मात्र ढाई किलोमीटर नीचे तलबला सेम तक ही सडक है। फिर भी यात्रा काफी सुगम हो गई है। लंबगांव से आप 33 किलोमीटर का सफर बस या टैक्सी द्वारा तय करने के बाद तबला सेम पहुंच सकते हैं। जैसे-जैसे आप इस रास्ते पर बढते हैं, प्रकृति और सम्मोहन के द्वार खुद-ब-खुद खुलते जाते हैं। लंबगांव से 10 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद हम पहुंचे कोडार जो लंबगांव से उत्तरकाशी जाते हुए एक छोटा सा कस्बा है। यहां हम बांई तरफ मुड गए। अब गाडी घुमावदार और संकरी सडकों पर चलने लगी थी। हम प्रकृति का आनंद उठाते चल रहे थे। यहां की मनभावन हरियाली आंखों को काफी सुकून पहुंचा रही थी। पहाडों के सीढीनुमा खेतों को हम अपने कैमरे में कैद करते जा रहे थे। कब 18 किलोमीटर का सफर कट गया पता ही नहीं चला। हम पहुंच गए मुखेम गांव- सेम मंदिर के पुजारियों का गांव। गंगू रमोला जो रमोली पट्टी का गढपति का था उसी का ये गांव है। गंगू रमोला ने ही सेम मंदिर का निर्माण करवाया था।
मुखेम से आगे बढते हुए रास्ते में प्राकृतिक भव्यता और पहाड की चोटियां मन को रोमांचित करती रहती हैं। रास्ते में ही श्रीफल के आकार की चट्टान की खूबसूरती देखने लायक है। मुखेम से 5 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद हम पहुंचे तलबला सेम। एक लंबा चौडा हरा भरा घास का मैदान, जहां पहुंचकर यात्री अपनी थकान मिटाते हैं। किनारे पर नागराज का एक छोटा सा मंदिर है। पहले यहां के दर्शन करने होते है। यहां पर स्थानीय लोग थके-हारे यात्रियों के लिए खान-पान की व्यवस्था करते हैं। यहां से सेम मंदिर तक तकरीबन ढाई किलोमीटर की पैदल चढाई है। घने जंगल के बीच मंदिर तक रास्ता बना है। बांज, बुरांश, खर्सू, केदारपती के वृक्षों से निकलने वाली खुशबू आनंदित करती रहती है। घने जंगलों के बीच से गुजरना किसी रोमांच से कम नहीं। पीछे मुडने पर रमोली पट्टी का सौंदर्य देखते ही बनता है। मंदिर का द्वार काफी आकर्षक है। यह 14 फीट चौडा और 27 फीट ऊंचा है जिसमें नागराज फन फैलाए हैं और भगवान कृष्ण नागराज के फन के ऊपर वंशी की धुन में लीन दिखते हैं। मंदिर में प्रवेश करने के बाद यात्री नागराजा के दर्शन करते हैं। मंदिर के गर्भगृह में स्वयं भू-शिला है। ये शिला द्वापर युग की बताई जाती है जिसकी लोग नागराजा के रूप में पूजा-अर्चना करते है। मंदिर के दाईं तरफ गंगू रमोला के परिवार की मूर्तियां स्थापित की गई हैं। सेम नागराजा की पूजा करने से पहले गंगू रमोला की पूजा की जाती है।
आसपास दर्शनीय स्थल
शतरंजू का सौड: मंदिर के पास खडे होकर यदि आप अपनी दाईं तरफ अपनी गर्दन घुमाएं तो आपको घने वृक्षों के बीच एक छोटा सा मैदान दिखाई देगा- खूबसूरत और थोडा समतल। सेम मंदिर से आधा किलोमीटर की चढाई चढने के बाद यहां पहुंचा जा सकता है।
दूर से छोटा सा दिखने वाला ये मैदान नजदीक पहुंचकर अपने असली रूप में दिखाई देता है। यहां से हिमालय का खूबसूरत नजारा दिखाई देता है।
मैदान के चारों तरफ बांज, बुरांश और नैर-थुनैर के वृक्षों के अलावा बहुमूल्य जडी-बूटियां पाई जाती हैं।
अर्कटा सेम: इसकी गिनती उन छह मंदिरों में की जाती है जिन्हें कृष्ण के कहने पर गंगू रमोला ने बनवाया था। सेम मंदिर से तकरीबन एक किलोमीटर की दूरी पर अर्कटा सेम है। कहा जाता है यहां पर हिडंबा रहा करती थी। यहां हिडंबा की हिंडोली थी जिस पर बैठकर वह अपने शत्रुओं को मारती थी। यहां कृष्ण ने हिडंबा को हिंडोली पर बैठाकर उसे जोरदार धक्का दिया था जिसके चलते हिडंबा के पेट का कुछ हिस्सा तलबला सेम में और मुख मुखेम में गिरा था। इसीलिए इसका नाम मुखेम पडा।
डाबरी: मंदिर के दाईं तरफ हरे-भरे जंगलों के बीच में सफेद पत्थरों का विस्तृत फलक देखने को मिलता है। लगता है पशु जंगलों में चर रहे हैं। ये हर किसी के लिए विस्मयकारी है।
नचिकेताताल: लंबगांव से उत्तरकाशी जाते समय कोडार नामक स्थान से 21 किमी आगे चौंरंगीखाल नामक स्थान है। यहां से 3 किलोमीटर जंगली रास्ते से गुजरते हुए करीब 2370 मीटर की ऊंचाई पर घने जंगलों के बीच नचिकेता ताल है। लोककथाओं के अनुसार यहां ऋषि पुत्र नचिकेता ने तप किया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम पडा।
कैसे पहुंचे
आप को बस या टैक्सी द्वारा टिहरी के लंबगांव कस्बे में पहुंचना होता है। यहां से यदि आप मंदिर तक पैदल सफर करना चाहें तो 15 किलोमीटर की चढाई चढनी होती है। लेकिन यदि आप टैक्सी से जाना चाहें तो आपको दस किलोमीटर आगे उत्तरकाशी मार्ग पर कोडार नामक कस्बे में पहुंचना होगा। वहां से बाएं और करीब 23 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद आप तलबला सेम पहुंच सकते हैं और यहां करीब ढाई किलोमीटर की चढाई के बाद सेम नागराजा के दर्शन किए जा सकते हैं।