अंडमान के नीले समुद्र में मस्ती

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किसी ने कहा है, कहीं भी जाकर हम उतना ही घूमफिर सकते हैं, जितना हम थक सकें। समझा जाए तो थकावट एक मनस्थिति है, मगर घुम्मकडी के लिए पैसा और समय दोनों साथ-साथ चाहिए। लिहाजा दोनों जब मिले तो हम जैसे हिमाचली बाशिंदे अंडमान व निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर के हरे-नीले पनीले प्रांगण में कुछ दिन बिता आएं। यह ठीक वैसा ही मानो केरल के वासी किन्नौर की ऊंची पहाडियों में आवारगी कर लें। चंडीगढ एयरपोर्ट रिनोवेशन ग्रिप में है। सिक्योरिटी चेकिंग के बाद बैठने की जगह खास तौर पर उडान के समय कम पडती दिखी। ट्रैक्टर का उपयोग कम होती खेती में चाहे घट रहा है मगर यहां सामान खींचने के लिए खूब होता है। सिक्योरिटी देखकर लगा सब जगह ऐसी सुरक्षा हो जाए तो जिंदगी साफ पानी की नदी हो जाए। उडान निजी कंपनी की थी मगर लेट थी। आगे कॉमनवेल्थ के लिए सुधर निखर रही दिल्ली के हवाई अड्डे पर फूड स्ट्रीट में एक सौ छप्पन रुपये का वडा-इडली-मसाला डोसा कॉम्बो खाते हुए मुझे कई साल पहले मद्रास रेलवे स्टेशन पर केले के पत्ते के टुकडे पर, पांच रुपये में खाया गरमागरम डोसे का अद्भुत स्वाद याद हो आया।

कहीं भी जाने के कई माध्यम हो सकते हैं मगर पोर्ट ब्लेयर पहुंचने के लिए चेन्नई, विशाखापटनम या कोलकाता से जहाज चाहिए, चाहे हवाई या फिर पानी का। चेन्नई से 1200 किमी की हवाई यात्रा में दो घंटे लगते हैं। पानी के जहाज से सफर 50 से 60 घंटे के बीच हो जाता है। हम रात को वन्नकम यानी वेलकम कहती चेन्नई पहुंचे तो एयरपोर्ट उदास था। उडान सुबह साढे चार बजे की थी सो रात चाय-कॉफी पीकर उंघते काटनी थी- उत्तर भारत से उलट मौसम, ढेर मच्छर और तीस रुपये की बेस्वाद चाय। सुबह साढे तीन बजे ही निजी एयरलाइंस का काउंटर ताजे फूलों के गुलदस्ते से स्वागत कर रहा था।

पोर्ट ब्लेयर के लिए उड़ान

पोर्ट ब्लेयर के लिए उडे तो अंधेरा था, पास पहुंचने लगे तो उजाला होता गया। बादलों की गोद में हवाई जहाज की सीटों पर बैठे ऐसे लगता है मानो उड नहीं रहे, सुहागे की खीलों से गुजर रहे हैं। रास्ते में कालापानी के बारे में जिक्र हुआ। कुल 572 द्वीपों के समूह अंडमान-निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर पर लैंड करते लगता है मानो गोवा की लाल मिट्टी वाली जमीन पर आ गए। पानी, मिट्टी, मकान, सडकें, नारियल व दूसरे पेड काफी कुछ वैसे ही। होटल पहुंचे तो पीतल के गोल बर्तन में पानी में रखे गेंदे के फूलों ने स्वागत कहा। थोडे आराम के बाद खाना जरूरी था। जहां जाओ-वहां का खाओ की शैली में हमने शाकाहारी अन्नपूर्णा में स्वादिष्ट खाना खाया और आवारगी के लिए तैयार हो गए। इस फूड हाउस को एक महिला चलाती है और उन्होंने स्वाद व साख कायम रखी है। लिहाजा हमने लौटने तक खाने की जगह नहीं बदली।

नेशनल मेमोरियल एंड आर्ट गैलरी

नेशनल मेमोरियल एंड आर्ट गैलरी सुभाष चंद्र बोस की अंडमान यात्रा व लाहौर कांस्पीरेसी जैसी अनेक घटनाओं की याद दिलाती है। गैलरी में कई प्रसिद्ध चित्रकारों की पेंटिंग्स हैं जिनका मुख्य विषय अंग्रेजी अत्याचार, आजादी व संघर्ष है। यहां से हम कालापानी की ऐतिहासिक जेल में प्रवेश करते हैं जहां अब पर्यटकों की रेलमपेल है। सुविधाओं के गुलाम हो चुकी हमारी पीढी सेल्यूलर जेल में टहलते हुए समझ नहीं सकती कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के कैसे-कैसे अमानवीय जुल्म बरसों सहे लेकिन आजादी की तमन्ना को कम न होने दिया। जेल परिसर देखते हुए इसके निर्माण में लगे अंगे्रजों के प्रशासनिक व शातिर दिमाग की छाप स्पष्ट दिखती है। साढे तेरह गुना सात फुट की सैकडों कोठरियां अब खामोश हैं। यहां घूमते हुए आजादी की कीमत का अंदाजा सहज होने लगता है। यहां एक फोटो गैलरी भी है जिसमें भुलाई जा चुकी ऐतिहासिक घटनाओं के बोलते चित्र हैं।

जेल के प्रांगण में नारियल व सुपारी के पेड हैं तो तीन तरफ फैला समुद्र भी है जो पर्यटकों की जेलयात्रा को सहज बनाने में मदद करता है। संध्या समय जेल प्रांगण में ध्वनि व प्रकाश शो आयोजित होता है।

प्रस्तुति में अभी समय था तो हम सागर किनारे हो आते हैं। यहां चारों तरफ, हर गली-मोहल्ले में सागर घूमता है। हजारों दिलकश जगहें ऐसी हैं जहां इंद्रधनुषी रंगों के कितने ही शेड्स लिए रेत बिखरी है जिसे कितनी ही गहराइयों, रंगों व ऊंचाइयों वाला पानी अपनी लहरों के होठों से जीवन भर चूमता रहता है। नारियल के सीधे, झुकते या गिरे पडे वृक्ष भी अनूठे दृश्यों की रचना करते हैं। असमतल धरती की गोद में फैले इन सागर तटों पर अभी पर्यटकों की उतनी भीड नही उमडती। स्थानीय लोगों के लिए यह तट नारियल पानी बेचने के लिए उपयुक्त जगह है। हमने झालमुरी का मजा भी लिया।

लाईट एंड साउंड शो का समय हो रहा है। पर्यटक प्रवेश कर रहे हैं। शो पहले हिंदी में, फिर अंगे्रजी में होता है। मनोहर सिंह, ओमपुरी, टॉम आल्टर जैसी सिद्धहस्त रंगमंचीय आवाजों ने क्रांतिसमय की क्रूर घटनाओं को मर्मस्पर्शी बना दिया। ध्वनि व प्रकाश का यह संयोजन किसी को भी देशभक्त बनने को पे्ररित करने में सक्षम है। लेकिन लोग रिकार्डिग की मनाही के बावजूद रिकार्ड करते रहे, मोबाइल बजते रहे, खुसरपुसर होती रही- जब तक मना न किया गया। लगा देशप्रेम अब मनोरंजन हो गया है। अगली सुबह नील द्वीप जाने की टिकटें बुक थी। सुबह जहाज लेना था। समंदर देखकर लगता नहीं कि पृथ्वी पर पहाड भी होते होंगे। द्वीपों पर जाने के लिए सरकारी जहाज के अलावा स्पीड बोट और छोटी यात्राओं के लिए नौकाएं भी है। जहाज की सवारी सुरक्षित लगी। सीट पर बैठने के बाद लाइफ जैकेट सामने देखकर सुरक्षा का अहसास जागता है। मगर सीट पर वे ही टिकते हैं जो रोज आना-जाना करते हैं, पर्यटक तो डैक पर जाते हैं और उससे भी ऊपर, जहां जा सकते। समंदर की इठलाती लहरों को ईमानदारी से आत्मसात करते हैं या तस्वीरों में कैद करते हैं।

नील द्वीप की यात्रा

बेपनाह खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध नील द्वीप पहुंचे। सफेद कागज पर मेरा नाम लिखकर विप्लव वहां प्रतीक्षारत था। इतनी दूरस्थ जगह पर यह सब देख मन खिल उठा। बेटी बोल पडी- क्या वेलकम है? भूख शांत करना सुंदरता निहारने से ज्यादा जरूरी होता है। नारियल के महालंबे व सुपारी के दुबले पतले सीधे खेत हैं यहां। पेड ज्यादा आदमी कम- महज पैंतालीस सौ के करीब। हॉटकेस में लच्छा पराठा, साथ में नारियल की चटनी व सूखे मटर की सब्जी। खाना देखकर भूख बढ गई। मिष्ठी दोई ने मजा दोगुना कर दिया। चटनी में नारियल, चने की दाल, मिर्च, कढी पत्ता, राई अदरक, टमाटर के साथ-साथ बनाने के हाथ शामिल रहे। यहां मट्ठी, मटर, शकरपारा, नमकीन भी मिली और हमने इंडियन, कांटिनेंटल, इस्त्राइली सीफूड का साइनबोर्ड भी देखा। सब हाजिर।

नील के सागर किनारे बहुत कम लोग थे। साफ चमकते रेत के पास अठखेलियां करता पारदर्शी नीला अमृत। शांत जल से चाहे जितनी दोस्ती कर सकते हैं, मस्ती कितनी भी हो सकती है। हमने यहां बुजुर्ग पर्यटकों को आराम से गर्दन तक पानी में देर तक लुत्फ उठाते देखा। सागर की वैभवमयी विराटता का दूर से मजा लेने वाले लोग यहां पेडों की छांव में घंटो लेटे रहते हैं। नील में और बीच भी हैं मगर भरतपुर का सागरतट बेमिसाल है। दूसरे तटों पर भी हम गए। लौटकर यहां के फोटो देखकर लगता है कि क्या लहरें थीं, क्या झागभरी करवटें थीं और किनारे से बेटा-बेटी द्वारा चुने समुद्री उपहार जो बाद में कितने घर गए।

नारियल का लुत्फ

नील द्वीप पर प्लास्टिक नाव में लगे शीशे में से समुद्र में कुछ फुट गहराई में विविध आकार-प्रकार व रंगों के कोरल्स (मूंगों) की नायाब दुनिया से परिचय हुआ। कई तटों पर रोमांचप्रेमी पर्यटकों को अनुभवी गाइड की निगरानी में कोरल्स व जीवजंतुओं को नजदीक से महसूस करने के लिए स्नोर्कलिंग भी करने को मिल जाती है। नारियल इतने कि पानी की जरूरत महसूस न हुई। लालबादामी रंग के नारियल का पानी ज्यादा मिठास भरा होता है। पेड पर लगा हरा नारियल बडे आकार का हो जाए तो स्वाद कोका-कोला जैसा हो जाता है, पीकर ऐसा लगा भी। हरे रंग के आम नारियल में मिठास व स्वाद साधारण होता है। अंदर का गूदा खाना हो तो नारियल से ही बना चम्मच तुरंत हाजिर। सेहत भी और लुत्फ भी, प्यास बुझे सो अलग।

नील में रात को रुक सकते हैं, हमें तो दोपहर बाद लौटना ही था। वापसी का सफर हैवलॉक द्वीप को छूते हुए रहा। यहां भी रात को ठहरने के लिए आरामदेह ठिकाने हैं। हैवलॉक से सवारियां उतार व चिट्ठियां चढाकर जहाज जब पोर्ट ब्लेयर की ओर चला तो शाम के रंग पानी पर उतर रहे थे। बारिश होकर थमी तो चलती हवा ने लहरों की चाल बदल दी। हवा सामने से आ रही थी। लहरें परेशान, जहाज हल्के हिचकोले लेता रहा। ऐसे में कई पर्यटकों को सिर दर्द हो जाता है (सी सिकनेस)। डैक पर खडे हों तो गहरे रंगों में डूबता पानी डर भरा रोमांच रोमरोम में भर देता है।

तीन द्वीपों की सैर

नील से वाया हैवलॉक होते पोर्ट ब्लेयर तक चार घंटे से ज्यादा वक्त लेता है। इस जहाज में स्टाफ कैंटीन भी खुली न थी, यहां समझ में आया चाय कितनी जरूरी है। अब नौसेना के अधीन, कभी अंग्रेजों व जापानियों की राजधानी रहा रौस आईलैंड पोर्ट ब्लेयर का पडोसी है। अगली सुबह की यात्रा तीन द्वीपों की सैर कराने वाली रही मगर हमें सिर्फ रौस जाना था। जाते समय बाएं तरफ जो टापू दिखता है वह नार्थबे है। इसकी फोटो बीस रुपये के भारतीय नोट के पिछले हिस्से में प्रयोग की गई है। पंद्रह मिनट में हम रौस पहुंच गए। लोहे के गोल खूंटे पर रस्सा फेंक नाव को रोका। यहां प्रवेश टिकट है और कैमरा फीस भी। पुरानी इमारतों के खंडहर पर जडों का कब्जा है। रहस्यमय लगती ऐतिहासिक जगह पर ज्वारभाटा वैधशाला थी। वहीं छापाखाना, बिजलीघर, चर्च, बेकरी, बैरकें, आफिसर्स क्लब, वॉटर टैंक भी बने थे। अंग्रेजी जीवन शैली की कहानियों के फटे पन्नों पर अब आम-कटहल के पेड भी हैं। और दिखते छुपते निराश हिरण, मोर व बारहसिंघे भी। वे यहां के वर्तमान में कैद हैं। रौस के फरार नामक बीच तक काफी सीढियां उतरकर जाते हैं। यहां पानी गुस्से में दिखा। नारियल पानी यहां भी एनर्जी स्त्रोत की तरह साथ रहा। बारिश आई, तो भागकर जेट्टी पहुंचे।

दोपहर बाद बडूंर जाना था। टैक्सी वाले ने गीत गाता चल ओ साथी गुनगुनाता चल… जैसे मधुर गीत चला रखे थे। सडक के दोनों ओर बिछे खेतों की हरियाली व यहां-वहां खिले फूलों ने यह सफर खुशनुमा बना दिया। रास्ते में उजडे घरौंदों ने समझा दिया कि सुनामी का कुप्रभाव यहां तक रहा। यहां के सागर तट की रेत मोटी है जिसमें समुद्री पौधे सावला बिखरे पडे हैं। यह नर्म प्लास्टिक के से लगते थे। समंदर यहां गुस्से में रहा। सुनामी में उजडे विशाल पेड अब पर्यटकों के लिए फोटो सेशन का अड्डा हैं।

वापसी का सफर

वापसी में रबड प्लांटेशन व फैक्टरी देखी, साथ में ही लगा मसाला जंगल भी। काली मिर्च, लौंग, जावित्री, दाल चीनी, सुपारी के सुगंधित पौधे से पूरा माहौल महका था। यहां पडोस में दुकान पर मोती व अन्य समुद्री उपहारों से बने आभूषण व अन्य कलात्मक वस्तुएं उपलब्ध हैं जो शहर के शोरूम पर महंगे दामों में बिकती हैं। शाम को बाजार यात्रा में सीप से बने लैंपशेड, सूप वॉल्स, कडे, रिंग्स भी दिखे।

सुबह वापस उडना था। दिल चाहता था कुछ और समय यहां रहते मगर दिमाग काम की तरफ लौटने की बात कर रहा था। एयर होस्टेस बता रही थी कि विमान किन किन सुरक्षा-इंतजामों से लैस है। दिल विमान के आसपास धुएं की तरह तैरते बादलों से नीचे उतरकर अलग-अलग रंगों की लहरों, उनकी करवटों और नमकीन झाग के साथ खेलना चाहता था मगर..।

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