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महानगरों की आपाधापी से दूर और इतना दूर भी नहीं हैं- दादरा व नागर हवेली। एक नाम जो सामान्य ज्ञान की किताबों से ही जाना-समझा। सिलवासा वहां की ही राजधानी है। विशाल कतारबद्ध पेडों के बीच गुजरती सडकें, क्षितिज तक फैली छोटी-छोटी पहाडियां, खिलखिलाती नदियां, श्वेत चादर सरीखे जल-प्रपात, मखमली घास के मैदान.. छोटे से सिलवासा में बहुत कुछ समाया हुआ है। प्रकृति यहां सुकून का गीत गाती है। हर कदम पर कुछ नया, कुछ रोमांचक और थोडी ताजगी।
यहां के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का चालीस फीसदी आरक्षित वनक्षेत्र है। ये जंगल जबरदस्त जैवविविधता से भरपूर हैं और कई किस्म के पक्षियों व जानवरों का बसेरा हैं। जंगलों में ट्रैक कीजिए, कठफोडवे की ठक-ठक के बीच दुर्लभ वनस्पतियों व औषधियों की महक सांसों में भरिए और तितलियों के साथ रेस लगाइए.. यकीन मानिए कि प्रकृति की गोद से उतरने का मन आपका न करेगा। आप सतमलिया वन्यजीव अभयारण्य में जाएंगे तो सांभर, नीलगाय व चीतल मानो फैशन परेड करते मिलेंगे। वासोना में जंगल के राजा शेर (एशियाटिक लॉयन) के दीदार करने के लिए सफारी की जा सकती है। सुरक्षित वाहनों में बैठकर आप 20 हेक्टेयर में फैली इस सफारी में शेर से आंख मिलाने की जुर्रत भी कर पाएंगे। यहां जूनागढ से शेर लेकर आए गए थे ताकि यहां के जंगल शेरों की आबादी बढाने में सहायक हो सकें।
सिलवासा का सफर तभी पूरा होगा जब आप ग्रामीण इलाकों में जाकर वहां के मूल निवासियों के रंगारंग लोकनृत्य, अनजाने रीति-रिवाज और अनूठे खान-पान का अनुभव लेंगे। यह अनुभव आपको सैकडों साल पहले के समय में ले जाएगा। वहां का जनजातीय संग्रहालय उस दौर की बढिया कहानी कहता है। कई स्मारकों की लकडियां व पत्थर दरअसल वहां के सांस्कृतिक इतिहास का दस्तावेज हैं। सिलवासा को वार्ली संस्कृति का घर भी माना जाता है। वार्ली भाषा दरअसल मराठी व गुजराती भाषाओं का एक मिश्रण है जो स्थानीय शैली में बोली जाती है। एक समय में सिलवासा कई सदियों तक गोवा, दमन व दीव के साथ मिलकर पुर्तगालियों का उपनिवेश था। इसीलिए यहां भारतीय-पुर्तगाली संस्कृति की एक खास छाप दिखाई देती है। इसी वजह से यहां बडी संख्या में रोमन कैथोलिक ईसाई भी हैं।
कहां और कैसे
सिलवासा पहुंचने के लिए पहले गुजरात में वापी आना होगा। वापी वडोदरा-मुंबई के मुख्य ट्रेन मार्ग पर स्थित है। वापी मुंबई जाते हुए वडोदरा से 200 और सूरज से 90 किलोमीटर दूर है। जबकि मुंबई से उत्तर की ओर आते हुए वापी 170 किलोमीटर दूर है। वापी से सिलवासा महज 10 किलोमीटर दूर है और वहां टैक्सी या बस इत्यादि किसी भी साधन से पहुंचा जा सकता है। सिलवासा में कई रेंज के होटल मिल जाएंगे। बस स्टैंड के आसपास कई बजट होटल हैं। जो लोग गहरी जेब वाले हैं, उनके लिए दमनगंगा के किनारे व दादरा पार्क इलाके में कई आरामदेय रिजॉर्ट भी हैं। दरअसल दमनगंगा नदी ही दमन व सिलवासा को अलग करती है। दुधनी में कौंछा गांव में बेहद शानदार हिमईवन हेल्थ रिजॉर्ट भी है। पश्चिमी घाट के ठीक कदमों में स्थित यह जगह ट्रैकर्स की भी खास पसंद है।
द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक त्रयंबकेश्वर यहां से 90 किलोमीटर दूर है। इसके अलावा राम के वनवास से जुडे कुछ स्थानों को 140 किलोमीटर दूर नासिक में देखा जा सकता है। आप चाहें तो दिनभर में शिरडी (90 किलोमीटर) जाकर साईं बाबा के दर्शन करके शाम को वापस सिलवासा लौट सकते हैं। सैर-सपाटे के शौकीन हैं तो नासिक के कई वाइनयार्ड और वाइनरीज आपको बेहद आकर्षक लगेंगे। वे भी सिलवासा से बेहद नजदीक हैं। सिलवासा से पांच किलोमीटर दूर दादरा पार्क और 35 किलोमीटर दूर दुधनी झील है।
दादरा पार्क दरअसल वनगंगा कहलाता है। साढे सात हेक्टेयर से ज्यादा इलाके में फैले इस पार्क में एक द्वीप है जो जापानी शैली के पुलों से जुडा है। पेड, झरने, नावें, रेस्तरां व जॉगिंग ट्रैक पार्क को इतना खूबसूरत बना देती हैं कि हर साल चार लाख से ज्यादा सैलानी इसे देखने आते हैं। इसकी लोकप्रियता का ही आलम है कि बीसियों फिल्मी गाने यहां शूट किए जा चुके हैं। दुधनी झील में कई तरह के वाटर स्पोर्ट्स का इंतजाम है। सिलवासा जाने वाले वहां जाना नहीं चूकते। दुधनी के रास्ते में ही बिंद्राबिन नाम से ऐतिहासिक शिव मंदिर भी है। यहां भी टूरिस्ट कांप्लेक्स तैयार कर दिया गया है। सिलवासा में प्रवेश से ठीक पहले ही पिपरिया में हिरवावन गार्डन है। यह बगीचा आदिवासियों की हरियाली की देवी हिरवा के नाम पर है। वाकई बगीचा उसी अनुरूप है भी। सिलवासा शहर में चर्च ऑफ आवर लेडी ऑफ पाइटी पुर्तगाली शिल्प का बढिया नमूना है। सिलवासा को लैंड ऑफ ऑल सीजंस भी कहा जाता है। जून से मानसून शुरू हो जाता है। वहां की हरियाली में मानसून का भी अलग मजा है, लेकिन आप चाहें तो गरमियां तेज होने से पहले भी वहां की सैर कर सकते हैं। हालांकि गरमियों में भी यहां का तापमान बाकी उत्तर भारत जैसा असहनीय नहीं होता।