धर्म-संस्कृति व त्योहार , से जुड़े परिणाम

सांची: बौद्ध कला की बेमिसाल कृतियां

सांची: बौद्ध कला की बेमिसाल कृतियां

सांची के स्तूप दूर से देखने में भले मामूली अर्ध गोलाकार संरचनाएं लगें लेकिन इसकी भव्यता, विशिष्टता व बारीकियों का पता सांची आकर देखने पर ही लगता है। इसीलिए देश-दुनिया से बड़ी संख्या में बौद्ध मतावलंबी, पर्यटक, शोधार्थी, अध्येता इस बेमिसाल संरचना को देखने चले आते हैं। सांची के स्तूपों का निर्माण कई कालखंडों में हुआ जिसे ईसा पूर्व तीसरी सदी से बारहवीं सदी के मध्य में माना गया है। ईसा पूर्व 483 में जब गौतम बुद्ध ने देह त्याग किया तो उनके शरीर के अवशेषों पर अधिकार के लिए उनके अनुयायी राजा आपस में... आगे पड़ें

बुंदेलखंड की अयोध्या है ओरछा

बुंदेलखंड की अयोध्या है ओरछा

ओरछा को दूसरी अयोध्या के रूप में मान्यता प्राप्त है। यहां पर रामराजा अपने बाल रूप में विराजमान हैं। यह जनश्रुति है कि श्रीराम दिन में यहां तो रात्रि में अयोध्या विश्राम करते हैं। शयन आरती के पश्चात उनकी ज्योति हनुमानजी को सौंपी जाती है, जो रात्रि विश्राम के लिए उन्हें अयोध्या ले जाते हैं- सर्व व्यापक राम के दो निवास हैं खास, दिवस ओरछा रहत हैं, शयन अयोध्या वास। शास्त्रों में वर्णित है कि आदि मनु-सतरूपा ने हजारों वर्षों तक शेषशायी विष्णु को बालरूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की। विष्णु ने... आगे पड़ें

देखने चलें अतीत के जनजीवन को

देखने चलें अतीत के  जनजीवन को

संग्रहालय कहीं न कही हमारी संस्कृति का प्रतिबिंब होते हैं इसलिए उनका पर्यटन महत्व कम नहीं होता। कभी संग्रहालय इतिहास, पुरातत्व, मानव विज्ञान विषयों तक ही सीमित थे लेकिन बीसवीं सदी में जब नए-नए विषयों को लेकर व्यवस्थित रूप से संग्रहालय बनाए जाने लगे तो संग्रहालयों की परिभाषा कई बार गढ़ी गई। विश्व की सारी जातियां व समाज कभी विकास के उसी क्रम से होकर गुजरे हैं जहां आज आदिवासी समाज है। प्रकृति के साथ तालमेल के साथ सदियों से रह रहे आदिवासियों का आज भी अपना आत्मनिर्भर संसार है जहां मानव जनजीवन... आगे पड़ें

किब्बर: चलें हिमाचल के सबसे ऊंचे गांव

किब्बर: चलें हिमाचल के सबसे ऊंचे गांव

हिमाचल में स्तिथ किब्बर की धरती पर बारिश का होना किसी अजूबे से कम नही होता। बादल यहां आते तो हैं लेकिन शायद इन्हें बरसना नहीं आता और ये अपनी झलक दिखाकर लौट जाते हैं। एक तरह से बादलों को सैलानियों का खिताब दिया जा सकता है जो घूमते, टहलते इधर घाटियों में निकल आते हैं और कुछ देर विश्राम कर पर्वतों के दूसरी ओर रुख कर लेते हैं। यही वजह है कि किब्बर में बारिश हुए महीनों बीत जाते हैं। यहां के बाशिंदे सिर्फ बर्फ से साक्षात्कार करते हैं और बर्फ भी इतनी कि कई-कई फुट मोटी तहें जम जाती हैं। जब बर्फ पड़ती है... आगे पड़ें

हिमालय से एकाकार कराता है चोपता तुंगनाथ

हिमालय से एकाकार  कराता है चोपता तुंगनाथ

उत्तराखंड की हसीन वादियां किसी भी पर्यटक को अपने मोहपाश में बांध लेने के लिए काफी है। कलकल बहते झरने, पशु-पक्षी ,तरह-तरह के फूल, कुहरे की चादर में लिपटी ऊंची पहाडि़या और मीलों तक फैले घास के मैदान, ये नजारे किसी भी पर्यटक को स्वप्निल दुनिया का एहसास कराते हैं..चमोली की शांत फिजाओं में ऐसा ही एक स्थान है-चोपता तुगंनाथ। बारह से चौदह हजार फुट की ऊंचाई पर बसा ये इलाका गढ़वाल हिमालय की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है। जनवरी-फरवरी के महीनों में आमतौर पर बर्फ की चादर ओढ़े इस स्थान की सुंदरता जुलाई-अगस्त... आगे पड़ें

शबरिमला: ब्रह्मचारी अय्यप्पन का वास

शबरिमला: ब्रह्मचारी अय्यप्पन  का वास

केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से 175 किमी. की दूरी पर पंपा है, और वहीं से चार-पांच किमी. की दूरी पर पश्चिम घाट से सह्यपर्वत श्रृंखलाओं के घने जंगलों के बीच, समुद्र की सतह से लगभग 1000 मीटर की ऊंचाई पर शबरिमला मंदिर है। ‘मला’ मलयालम में पहाड़ को कहते हैं। उत्तर दिशा से आनेवाले यात्री एरणाकुलम से होकर कोट्टयम या चेंगन्नूर रेलवे स्टेशन से उतरकर वहां से क्रमश: 116 किमी. और 93 किमी तक किसी न किसी जरिये से पंपा पहुंच सकते है। पंपा से पैदल चार-पांच किमी. वन मार्ग से पहाडि़यां चढ़कर ही शबरिमला मंदिर में अय्यप्पन... आगे पड़ें

नई रोशनी का उदय

नई रोशनी का उदय

कैमल फेस्टिवल, बीकानेर, राजस्थान थार के रेगिस्तान की सैर का उपयुक्त माहौल बनाता एक रंगारंग आयोजन। जूनागढ़ फोर्ट के लाल पत्थरों की पृष्ठभूमि में सजे-धजे ऊंटों की सवारी से शुरू होता है यह जलसा। जब ऊंट फेस्टिवल तो ज्यादातर आयोजन ऊंटों से जुड़े ही होते हैं। चाहे वह रस्साकसी हो, ऊंटों का नृत्य हो या उनकी कलाबाजियां। थाप से थाप मिलाते ऊंटों को देखकर लोग दांतो तले उंगली दबा लेते हैं। यह जानवरों और उनके ट्रेनरों के बीच बेहतरीन समझ का प्रदर्शन होता है। सबसे बेहतर नस्ल के ऊंट को भी इनाम दिया जाता... आगे पड़ें

नृत्य-संगीत की परंपराओं को सहेजने का वक्त

नृत्य-संगीत की परंपराओं को सहेजने का वक्त

कोणार्क फेस्टिवल, कोणार्क (उड़ीसा) कोणार्क के सूर्य मंदिर भारतीय शिल्प के इतिहास की एक बेजोड़ दास्तान हैं। यह फेस्टिवल इस विरासत को महसूस करने और सहेजने का एक शानदार जरिया है। इन अद्भुत मंदिरों की पृष्ठभूमि में समुद्र की लहरों की गर्जना के बीच खुले मंच में होने वाला यह महोत्सव भारत के शास्त्रीय व पारंपरिक नृत्य-संगीत की जादुई छवि पेश करता है। इस मौके पर एक आर्टिस्ट कैंप भी लगाया जाता है जो उड़ीसा के मंदिरों के वास्तुशिल्प का शानदार नमूना पेश करता है। अगर रेत पर चहलकदमी करते हुए, सूर्य मंदिर... आगे पड़ें

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