कन्याकुमारी सागरतट पर एक शहर

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भारत के मस्तक पर मुकुट के समान सजे हिमालय के धवल शिखरों को निकट से देखने के बाद हर सैलानी के मन में भारतभूमि के अंतिम छोर को देखने की इच्छा भी उभरने लगती है। शायद इसीलिए हम भी कश्मीर की यात्रा के बाद से ही बिलकुल दक्षिण में स्थित कन्याकुमारी की यात्रा के लिए उत्सुक थे। लेकिन कन्याकुमारी घूमने का मौका हमें कुछ वर्ष बाद मिला। यात्रा का कार्यक्रम तय करते समय हमारा ध्यान रेलवे टाइमटेबल में हिमसागर एक्सप्रेस पर गया। जम्मू-तवी से कन्याकुमारी तक ले जाने वाली यह ट्रेन हमारे देश की सबसे लंबी दूरी की ट्रेन है। हिम प्रदेश से सागर पर्यत इस रेलगाड़ी में सफर करना हमें एक गौरव का विषय लगा। हालांकि हमें नई दिल्ली से हिमसागर एक्सप्रेस पकड़नी थी, फिर भी हमें इस ट्रेन में 56 घंटे से अधिक यात्रा करनी थी। यात्रा आरंभ करने पर हमें महसूस हुआ कि यह सफर लंबा जरूर है लेकिन उबाऊ नहीं।

अद्वितीय शहर

भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिणी छोर पर स्थित कन्याकुमारी अद्वितीय शहर है। यह स्थान एक खाड़ी, एक सागर और एक महासागर का मिलन बिंदु है। अपार जलराशि से घिरे इस स्थल के पूर्व में बंगाल की खाड़ी, पश्चिम में अरब सागर एवं दक्षिण में हिंद महासागर है। यहां आकर हर व्यक्ति को प्रकृति के अनंत स्वरूप के दर्शन होते हैं। कन्याकुमारी देशाटन के साथ ही तीर्थाटन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थल है। सागर-त्रय के संगम की इस दिव्यभूमि पर मां भगवती देवी कुमारी के रूप में विद्यमान हैं। इस पवित्र स्थान को एलेक्जेंड्रिया ऑफ ईस्ट की उपमा से विदेशी सैलानियों ने नवाजा है। यहां पहुंच कर लगता है मानो पूर्व में सभ्यता की शुरुआत यहीं से हुई होगी। अंग्रेजों ने इस स्थल को केप कोमोरिन कहा था। तिरुअनंतपुरम के बेहद निकट होने के कारण सामान्यत: समझा जाता है कि यह शहर केरल राज्य में स्थित है, लेकिन कन्याकुमारी वास्तव में तमिलनाडु राज्य का एक खास पर्यटन स्थल है।

मंदिर कुमारी अम्मन का

उस दिन हिमसागर एक्सप्रेस कुछ घंटे विलंब से कन्याकुमारी पहुंची। निर्धारित समय के अनुसार तो हमें रात्रि पौने ग्यारह बजे पहुंचना था, लेकिन आधी रात के बाद हम कन्याकुमारी पहुंचे। यह छोटा-सा शहर है, इसलिए स्टेशन से ऑटो लेकर हम 15 मिनट से कम समय में होटल पहुंच गए। कन्याकुमारी की समशीतोष्ण जलवायु और शीतल हवाओं ने हमारा स्वागत किया। करीब 6 घंटे के सफर की थकान के कारण हम उस रात गहरी नींद में सोए। सुबह जब उठे तो दस बजने को थे।

हमने सुना था कि सैलानी यहां दो उद्देश्यों से आते हैं। पहला उद्देश्य कुमारी अम्मन मंदिर में पराशक्ति के दर्शन करने का तो दूसरा सूर्य के उदय और अस्त की अद्भुत बेला को देखने का होता है। उस दिन हम पहले उद्देश्य के लिए होटल से निकल पड़े। कन्याकुमारी के सभी दर्शनीय स्थल मात्र दो किलोमीटर के दायरे में स्थित हैं। इसलिए हम पैदल ही कुमारी अम्मन मंदिर की ओर चल दिए।

कुमारी अम्मन मंदिर समुद्र तट पर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस मंदिर का मुख्य द्वार केवल विशेष अवसरों पर ही खुलता है, इसलिए श्रद्धालुओं को उत्तरी द्वार से प्रवेश करना होता है। इस द्वार का एक छोटा-सा गोपुरम है। करीब 10 फुट ऊंचे परकोटे से घिरे वर्तमान मंदिर का निर्माण पांड्य राजाओं के काल में हुआ था। देवी कुमारी पांड्य राजाओं की अधिष्ठात्री देवी थीं। पौराणिक आख्यानों के अनुसार शक्ति की देवी वाणासुर का अंत करने के लिए अवतरित हुई थी। वाणासुर के अत्याचारों से जब धर्म का नाश होने लगा तो देवगण भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। उन्होंने देवताओं को बताया कि उस असुर का अंत केवल देवी पराशक्ति कर सकती हैं। भगवान विष्णु को यह बात विदित थी कि वाणासुर ने इतने वरदान पा लिए हैं कि उसे कोई नहीं मार सकता। लेकिन उसने यह वरदान नहीं मांगा कि एक कुंवारी कन्या उसका अंत नहीं कर सकती। देवताओं ने अपने तप से पराशक्ति को प्रसन्न किया और वाणासुर से मुक्ति दिलाने का वचन भी ले लिया। तब देवी ने एक कन्या के रूप में अवतार लिया। कन्या युवावस्था को प्राप्त हुई तो सुचिन्द्रम में उपस्थित शिव से उनका विवाह होना निश्चित हुआ क्योंकि देवी तो पार्वती का ही रूप थीं। लेकिन नारद जी के गुप्त प्रयासों से उनका विवाह संपन्न न हो सका तथा उन्होंने आजीवन कुंवारी रहने का व्रत ले लिया। नारद जी को ज्ञात था कि देवी के अवतार का उद्देश्य वाणासुर को समाप्त करना है। यह उद्देश्य वे एक कुंवारी कन्या के रूप में ही पूरा कर सकेंगी। फिर वह समय भी आ गया। वाणासुर ने जब देवी कुंवारी के सौंदर्य के विषय में सुना तो वह उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव ले कर पहुंचा। देवी क्रोधित हो गई तो वाणासुर ने उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। उस समय उन्होंने कन्या कुंवारी के रूप में अपने चक्र आयुध से वाणासुर का अंत किया। तब देवताओं ने समुद्र तट पर पराशक्ति के कन्याकुमारी स्वरूप का मंदिर स्थापित किया। इसी आधार पर यह स्थान भी कन्याकुमारी कहलाया तथा मंदिर को कुमारी अम्मन यानी कुमारी देवी का मंदिर कहा जाने लगा।

यहां आए थे चैतन्य महाप्रभु

मंदिर से कुछ दूरी पर सावित्री घाट, गायत्री घाट, स्याणु घाट एवं तीर्थघाट बने हैं। इनमें विशेष स्नान तीर्थघाट माना जाता है। तीर्थघाट के स्नान के उपरांत भक्त मंदिर में दर्शन करने पहुंचते हैं। घाट पर सोलह स्तंभ का एक मंडप बना है। मंदिर के गर्भगृह में देवी की अत्यंत सौम्य प्रतिमा विराजमान है। विभिन्न अलंकरणों से सुशोभित प्रतिमा केवल दीपक के प्रकाश में ही मनोहारी प्रतीत होती है। देवी की नथ में जड़ा हीरा एक अनोखी जगमगाहट बिखेरता है। कहते हैं बहुत पहले की बात है, मंदिर का पूर्वी द्वार खुला होता था तो हीरे की चमक दूर समुद्र में जाते जहाजों पर से भी नजर आती थी, जिससे नाविकों को किसी दूरस्थ प्रकाश स्तंभ का भ्रम होता था। इस भ्रम में दुर्घटना की आशंका रहती थी। इसी कारण पूर्वी द्वार बंद रखा जाने लगा। अब यह द्वार बैशाख ध्वजारोहण, उत्सव, रथोत्सव, जलयात्रा उत्सव जैसे विशेष अवसरों पर ही खोला जाता है। माना जाता है कि चैतन्य महाप्रभु इस मंदिर में जलयात्रा पर्व पर आए थे। जब हम देवी दर्शन हेतु पहुंचे तो पता चला कि मंदिर में पुरुषों को ऊपरी वस्त्र यानी शर्ट एवं बनियान उतार कर जाना होता है। इस परंपरा का कारण हमें ज्ञात न हो सका। देवी का महाभिषेक एवं श्रृंगार हमारे पहुंचने से पूर्व हो चुका था। तब हम दोपहर की पूजा एवं आरती देखने के लिए रुक गए। परिसर में हमने महादेव मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर और चक्रतीर्थ के दर्शन भी किए।

सागर तट से कुछ दूरी पर मध्य में दो चट्टानें नजर आती हैं। दक्षिण पूर्व में स्थित इन चट्टानों में से एक चट्टान पर विशाल प्रतिमा पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करती है। वह प्रतिमा प्रसिद्ध तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर की है। वह आधुनिक मूर्तिशिल्प 5000 शिल्पकारों की मेहनत से बन कर तैयार हुआ था। इसकी ऊंचाई 133 फुट है, जो कि तिरुवल्लुवर द्वारा रचित काव्य ग्रंथ तिरुवकुरल के 133 अध्यायों का प्रतीक है।

स्वामी विवेकानंद का स्मृतिशेष

समुद्र में उभरी दूसरी चट्टान पर दूर से ही एक मंडप नजर आता है। यह मंडप दरअसल विवेकानंद रॉक मेमोरियल है। 1892 में स्वामी विवेकानंद कन्याकुमारी आए थे। एक दिन वे तैर कर इस विशाल शिला पर पहुंच गए। इस निर्जन स्थान पर साधना के बाद उन्हें जीवन का लक्ष्य एवं लक्ष्य प्राप्ति हेतु मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ। विवेकानंद के उस अनुभव का लाभ पूरे विश्व को हुआ, क्योंकि इसके कुछ समय बाद ही वे शिकागो सम्मेलन में भाग लेने गए थे। इस सम्मेलन में भाग लेकर उन्होंने भारत का नाम ऊंचा किया था। उनके अमर संदेशों को साकार रूप देने के लिए 1970 में उस विशाल शिला पर एक भव्य स्मृति भवन का निर्माण किया गया।

बाजार के निकट ही बोट जेटी से पर्यटक विवेकानंद रॉक मेमोरियल तक पहुंचते हैं। हम लोग जब बोट जेटी तक पहुंचे तो वहां काफी भीड़ थी। लेकिन हमें अधिक देर प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। थोड़ी देर में ही हमारा नंबर आ गया और बोट द्वारा 15 मिनट में हम विवेकानंद रॉक पहुंच गए। समुद्र की लहरों से घिरी इस शिला तक पहुंचना भी एक अलग अनुभव है। स्मारक भवन का मुख्य द्वार अत्यंत सुंदर है। इसका वास्तुशिल्प अजंता-एलोरा की गुफाओं के प्रस्तर शिल्पों से लिया गया लगता है। लाल पत्थर से निर्मित स्मारक पर 70 फुट ऊंचा गुंबद है। भवन के अंदर चार फुट से ऊंचे प्लेटफॉर्म पर परिव्राजक संत स्वामी विवेकानंद की प्रभावशाली मूर्ति है। यह मूर्ति कांसे की बनी है जिसकी ऊंचाई साढ़े आठ फुट है। यह मूर्ति इतनी प्रभावशाली है कि इसमें स्वामी जी का व्यक्तित्व एकदम सजीव प्रतीत होता है। विवेकानंद रॉक से हमें कन्याकुमारी अंतरीप का मनभावन दृश्य भी देखने को मिला। हमने देखा कैसे सागर की उत्ताल तरंगें बार-बार तट को छू कर आती है। मानों तीनों सागरों में भारतमाता के पांव पखारने की होड़ लगी हो। शिला पर स्थित पाद मंडप में हमने देवी के पदचिह्न के दर्शन भी किए। करीब एक घंटे में हम वहां से वापस आ गए। हम काफी थक चुके थे, इसलिए सीधे होटल की शरण में पहुंच गए। अब हमें शाम होने का इंतजार था।

सागरतट पर शाम

कुछ घंटों के विश्राम के बाद शाम होने से पूर्व हम पुन: सागर तट पर आ गए। हम भारत भूमि के अंतिम भू-बिंदु पर खड़े थे। सामने लहराता सागर, दूर क्षितिज तक फैली अनंत जलराशि, प्रकृति की यह अगाध संपदा हमें मनुष्य की लघुता का एहसास करा रही थी। ऐसे स्थान पर खड़े होकर मानव मन में ईश्वर के प्रति समर्पण का पवित्र भाव जन्म लेता है। तब हमें याद आता है कि हिमालय की विशालता भी तो ऐसे ही भाव को जन्म देती है। दोनों ही स्थानों पर प्रकृति अपने अलग-अलग रूप से एक ही सीख देती है। प्रकृति की समीपता में ही प्रभु की समीपता महसूस होती है और हृदय से सारी मलिनता धुल जाती है। तभी विचार आता है कि यहां से जाने के बाद पुन: जीवन की आपाधापी में भी क्या हम इन भावों को हृदय में संजोए रख पाएंगे? मन को मजबूत कर निर्णय लेते हैं कि इसके लिए ईमानदारी से प्रयास करेंगे। यदि कुछ भाव भी स्थायी रूप से हृदय में बस गए तो वह हमारे लिए एक उपलब्धि होगी। क्षितिज की ओर देखते हुए हम विचार मग्न थे। हमें एहसास ही नहीं हुआ कि उस स्थान पर काफी भीड़ जुट गई है। सबकी नजरें पश्चिम दिशा में थी। जिधर सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था।

हर सैलानी का ध्यान सूर्य की ओर था। हिलोरें लेती सागर की लहरें, चट्टानों से टकराकर गर्जन कर रही थीं, मानो सैलानियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही हों। सूर्य अपनी संपूर्ण ऊष्मा समेट चुका था। आकाश में नारंगी आभा फैलने लगी थी। लाल वृत्त का प्रतिबिंब समुद्र में झिलमिला कर अनोखे दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। यहां तो दिनमान अपना वैभव समेट सागर में समाने को बढ़ रहा था। सबकी दृष्टि उसी दिशा में स्थिर थी। फिर वह पल भी आ गया, जब ऐसा लगा जैसे सूर्य ने सागर को स्पर्श कर लिया हो। यह क्या। जी भर कर इस दृश्य को निहारने का अवसर भी नहीं मिला। धीरे-धीरे दिवाकर सागर में समाने लगा और कुछ पलों में ही अस्त हो गया। फिर भी सबकी दृष्टि अभी भी क्षितिज पर थी, जहां अब थोड़ी-थोड़ी लोहित आभा के अलावा कुछ न था। अंधकार को तो जैसे इसी पल की प्रतीक्षा थी। उसने चारों ओर अपना प्रभाव फैलाना आरंभ कर दिया। कितनी अनुपम दृश्यावली थी। वास्तव में ऐसे दृश्य और कहां देखने को मिलेंगे? बताते हैं चैत्र माह की पूर्णिमा पर तो इस दृश्य में एक और आयाम जुड़ जाता है। उस दिन पश्चिम में सूर्यास्त होते ही पूर्व में चंद्रोदय भी देखने को मिलता है। ऐसे दृश्य की कल्पना से ही एक रोमांच महसूस हुआ। हम सोचने लगे, ऐसे दुर्लभ दृश्य को देखने का सौभाग्य क्या हमें इस जीवन में मिल सकेगा। तट से वापस होटल की ओर चले तो हमें एक लैटिन कहावत याद आई-सूर्य पुन: उदय होने के लिए अस्त होता है। इस कहावत का भावार्थ तो हमें समझ नहीं आया। लेकिन यहां आकर लगा कि कन्याकुमारी में तो वास्तव में सूर्य अपने अस्त होने के क्रम में खूबसूरती प्रदान कर अगली सुबह उदय होने के नियम को भी उतनी ही भव्यता प्रदान करने आता है। एक ही स्थान से सूर्यास्त और सूर्योदय का अपूर्व मंजर बस कन्याकुमारी में ही देखने को मिल सकता है।

सागर से उगता सूरज

सुबह हमें हर हालत में जल्दी उठना था। हम किसी भी तरह सूर्योदय के अमूल्य पलों से वंचित नहीं रहना चाहते थे। इसलिए मैंने अपने मोबाइल फोन में सुबह पांच बजे का अलार्म लगा दिया। वह दृश्य देखने की इच्छा इतनी प्रबल थी कि सुबह अलार्म बजने के बाद आलस्य को हमने अपने पर हावी न होने दिया। हाथ-मुंह धोकर हम तुरंत सागर तट की ओर चल दिए। यह देखकर हम चकित रह गए कि हमसे पहले वहां सैकड़ों सैलानी आ चुके थे। समुद्र को छूकर आती तेज हवाओं की शीतलता हमें बहुत भा रही थी। हम प्रकृति के एक नए रूप से साक्षात्कार करने को तत्पर थे। पौ फटते ही लोगों ने अपने कैमरे तैयार कर लिए थे। क्षितिज पर सुबह के रंग निखरने लगे थे। तभी उन रंगों के मध्य लाल रंग का एक हलका-सा उभार दिखाई दिया। सबके मुंह से वाह! शब्द निकला। पल प्रतिपल वह उभार बढ़ने लगा और कुछ ही पल में नारंगी अर्धवृत्त के रूप में हमें बाल अरुण के दर्शन हुए। अगले चंद पलों में वह पूर्णाकार हो आहिस्ता-आहिस्ता क्षितिज से ऊपर उठने लगा। वह एक अविस्मरणीय दृश्य था। लोग इसे कैमरे और स्मृतियों दोनों में कैद करने को आतुर थे। भास्कर के उस अद्भुत रूप को देर तक देखने का मन था। लेकिन प्रकृति का क्रम भला रुकता थोड़े ही है। देखते ही देखते नारंगी गोला सुनहरे रंग में बदलने लगा। समुद्र में उसका प्रतिबिंब सोने सा चमक रहा था। उस विलक्षण दृश्य से हर सैलानी प्रभावित ऩजर आ रहा था। सूर्य की रश्मियों ने सुनहरी चमक बिखेरनी शुरू कर दी थी कि फिर भी लोग उस स्थान से अभी वापस नहीं जाना चाहते थे। सुनहरी सुबह के समय समुद्र भी एक अलग ही रूप में नजर आ रहा था। दूर कहीं कुछ मछुआरों की नौकाएं, आकाश में दिखते इक्का-दुक्का पंछी भी उस शानदार दृश्य का हिस्सा बन रहे थे। समुद्रतट से वापस चलते हुए हम कुछ देर एक टी-स्टाल पर रुके। वहां हमें पता चला कि हम बड़े भाग्यशाली थे कि हमें सूर्यास्त और सूर्योदय दोनों के अनुपम दृश्य देखने को मिले। टी-स्टाल के मालिक ने बताया कि पिछले चार दिन सुबह के समय बादल छाए रहते थे, इसलिए रोज सैलानियों को निराश लौटना पड़ रहा था।

शिल्प का संग्रहालय

तीन सागरों का संगम स्थल होने के कारण हमारी धरती का यह छोर एक पवित्र स्थान है। इसलिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अस्थि अवशेषों का एक अंश समुद्र संगम पर भी प्रवाहित किया गया था। समुद्र तट पर जिस जगह उनका अस्थि कलश लोगों के दर्शनार्थ रखा गया था, वहां आज एक सुंदर स्मारक है, जिसे गांधी मंडप कहते हैं। मंडप में गांधी जी के संदेश एवं उनके जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण घटनाओं के चित्र प्रदर्शित हैं। स्मारक के गुंबद के नीचे वह स्थान एक पीठ के रूप में है, जहां कलश रखा गया था। यह शिल्प कौशल का कमाल है कि प्रतिवर्ष गांधी जी के जन्मदिवस दो अक्टूबर को दोपहर के समय छत के छिद्र से सूर्य की किरणें सीधी इस पीठ पर पड़ती हैं। गांधी मंडप के निकट ही मणि मंडप स्थित है। यह तमिलनाडु के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कामराज का स्मारक है। ये दोनों स्मारक देखने के बाद हम राजकीय संग्रहालय देखने गए। बीच रोड पर स्थित इस संग्रहालय में दक्षिण भारत के मंदिरों के कई प्रकार के शिल्प तथा मूर्ति शिल्प आदि का संग्रह देखने को मिलता है।

कन्याकुमारी का सेंट मेरी चर्च भी एक दर्शनीय स्थान है। इसकी ऊंची इमारत विवेकानंद मेमोरियल से आते हुए बोट से भी नजर आती है।

दर्शनीय स्थानों को देखने के बाद हम समुद्र तट पर बने शिल्प बाजार में पहुंच गए। यहां सैलानियों की खासी भीड़ रहती है। यहां से विभिन्न आकारों के शंख एवं सीपी आदि खरीदे जा सकते हैं। इनके अलावा सीपी के बने अनेक सुंदर शो-पीस, नारियल के रेशों से बने हस्तशिल्प आदि भी सैलानियों को बेहद पसंद आते हैं।

एक तीर्थ सुचिंद्रम

कन्याकुमारी के निकट सुचिन्द्रम नामक एक तीर्थ है, जहां धार्मिक आस्था श्रद्धालुओं को खींच लाती है। इस स्थान पर भव्य स्थानुमलयन मंदिर है। यह मंदिर ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की त्रिमूर्ति को समर्पित है। यह त्रिमूर्ति वहां एक लिंग के रूप में विराजमान है। मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। उस काल के कुछ शिलालेख मंदिर में मौजूद हैं। 17वीं शताब्दी में इस मंदिर को नया रूप दिया गया था। इस मंदिर में भगवान विष्णु की एक अष्टधातु की प्रतिमा एवं पवनपुत्र हनुमान की 18 फुट ऊंची प्रतिमा विशेष रूप से दर्शनीय है। मंदिर का सप्तसोपान गोपुरम भी भक्तों को प्रभावित करता है। मंदिर के निकट ही एक सरोवर है। जिसके मध्य एक मंडप है। सुचिन्द्रम कन्याकुमारी से मात्र 13 किमी दूर है। यह रास्ता नारियल के कुंचों से भरा है। वहां से 8 किमी. दूरी पर नागरकोविल शहर है। यह शहर नागराज मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर का वैशिष्ट्य देखते ही बनता है। देखने में यह मंदिर चीन की वास्तुशैली के बौद्ध विहार जैसा प्रतीत होता है। मंदिर में नागराज की मूर्ति आधारतल में अवस्थित है। यहां नाग देवता के साथ भगवान विष्णु एवं भगवान शिव भी उपस्थित हैं। मंदिर के स्तंभों पर जैन तीर्थकरों की प्रतिमा उकेरी नजर आती है। जो थोड़े आश्चर्य की बात है। नागरकोविल एक छोटा-सा व्यवसायिक शहर है। इसलिए यहां हर प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं।

कन्याकुमारी भ्रमण के बाद हमें तिरुअनंतपुरम जाना था। इसलिए मार्ग में हम सुचिन्द्रम एवं नागरकोविल में मंदिरों के दर्शन करने के बाद आगे बढ़े। हम प्रायद्वीप के दक्षिणी छोर पर स्थित शहर से वापस अवश्य जा रहे थे, लेकिन कुमारी अम्मन का आशीर्वाद, सूर्य के उदय और अस्त की स्मृतियां तथा प्रकृति की विशालता से सीखा सबक हमारे साथ था। मन में एक आशा थी कि कन्याकुमारी से नजर आते अपूर्व और अप्रतिम दृश्यों का आकर्षण हमें यहां पुन: खींच कर लाएगा।

कन्याकुमारी-सामान्य जानकारी

कन्याकुमारी एक छोटा सा शहर है। यहां तमिल एवं मलयालम भाषा बोली जाती है। लेकिन पर्यटन स्थल होने के कारण हिंदी एवं इंग्लिश जानने वाले लोग भी मिल जाते हैं। यहां के दर्शनीय स्थल पैदल ही देखे जा सकते हैं। बस स्टैंड एवं रेलवे स्टेशन बाजार और होटलों से अधिक दूर नहीं है।

कब जायें : यह एक समुद्र तटीय शहर है इसलिए मानसून का यहां काफी प्रभाव रहता है। इसलिए जून मध्य से सितंबर मध्य यहां घूमने के लिए उपयुक्त नहीं है। शेष हर मौसम में यहां आ सकते है।

कैसे जायें

रेल मार्ग: कन्याकुमारी रेल मार्ग द्वारा जम्मू, दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, मदुराई, तिरुअनंतपुरम, एरनाकुलम से जुड़ा है। दिल्ली से यह यात्रा 60 घंटे, जम्मूतवी से 74 घंटे, मुंबई से 48 घंटे एवं तिरुअनंतपुरम से ढाई घंटे की है।

बस मार्ग: तिरुअनंतपुरम, चेन्नई, मदुराई, रामेश्वरम आदि शहरों से कन्याकुमारी के लिए नियमित बस सेवा उपलब्ध है।

वायु मार्ग: कन्याकुमारी का निकटतम हवाई अड्डा तिरुअनंतपुरम में है। वहां के लिए दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई से सीधी उड़ाने हैं।

प्रमुख स्थानों से दूरी

दिल्ली से 2850 किमी

मुंबई से 2155 किमी

चेन्नई से 703 किमी

तिरुअनंतपुरम से 87 किमी

जम्मू से 3734 किमी

मदुराई से 260 किमी

रामेश्वरम 302 किमी

नागरकोविल 20 किमी

कहां ठहरे

होटल तमिलनाडु, केरल गेस्ट हाउस, होटल समुद्र, होटल शिंगार इंटरनेशनल, होटल केप रेसीडेंसी, होटल सरवना, शंकर गेस्ट हाउस, विवेकानंद पुरम

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