- Round Trip
- One Way
Select Your Theme
Number of Guest
Specify ages of children at time of travel:
मुख पृष्ठ » दक्षिण भारत » केरल » तिरुवनन्तपुरम »
केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से 175 किमी. की दूरी पर पंपा है, और वहीं से चार-पांच किमी. की दूरी पर पश्चिम घाट से सह्यपर्वत श्रृंखलाओं के घने जंगलों के बीच, समुद्र की सतह से लगभग 1000 मीटर की ऊंचाई पर शबरिमला मंदिर है। ‘मला’ मलयालम में पहाड़ को कहते हैं। उत्तर दिशा से आनेवाले यात्री एरणाकुलम से होकर कोट्टयम या चेंगन्नूर रेलवे स्टेशन से उतरकर वहां से क्रमश: 116 किमी. और 93 किमी तक किसी न किसी जरिये से पंपा पहुंच सकते है। पंपा से पैदल चार-पांच किमी. वन मार्ग से पहाडि़यां चढ़कर ही शबरिमला मंदिर में अय्यप्पन के दर्शन का लाभ उठाया जा सकता है। दूसरे मंदिरों की अपेक्षा शबरिमला मंदिर के रस्म-रिवाज बिलकुल ही अलग होते हैं। यहां जाति, धर्म, वर्ण या भाषा के आधार पर किसी भी भक्त पर कोई रोक नहीं है। यहां कोई भी भक्त अय्यप्पा-मुद्रा में अर्थात तुलसी या रुद्राक्ष की माला पहन कर, व्रत रखकर, सिर पर इरुमुटि अर्थात दो गठरियां धारण कर मंदिर में प्रवेश कर सकता है। माला धारण करने पर भक्त ‘स्वामी’ कहा जाता है, और यहां भक्त व भगवान का भेद मिट जाता है। भक्त भी आपस में ‘स्वामी’ कहकर ही संबोधित करते है। शबरिमला मंदिर का संदेश ही ‘तत्वमसि’ है। ‘तत्’ माने ‘वह’, जिसका मतलब ईश्वर है,और ‘त्वं’ माने ‘तू’ जिसका मतलब जीव से है। ‘असि’ दोनो के मेल या दोनो के अभेद को व्यक्त करता है। ‘तत्वमसि’ से तात्पर्य है कि वह तू ही है। जीवात्मा और परमात्मा से कोई भेद नहीं, दोनो अभेद हैं। यही शबरिमला मंदिर का सार-तत्व है, संदेश भी है। पुराने समय में शबरिमला जाने वाले भक्त समूह में तीन-चार दिनों की पैदल यात्रा करके ही मंदिर पहुंचते थे। रास्ते में भोजन वे खुद पकाते थे और इसके लिए जरूरी बर्तन, चावल वगैरह इरुमुटि में बांध लेते थे। दो गठरियों में, पहली गठरी में भगवान की पूजा की सामग्री, नैवेद्य चढ़ाने का सामान और दूसरी गठरी में अपने पाथेय के लिए सामग्री रखी जाती थी। विशेष तैयारियों और रस्म-रिवाज के साथ, अपने ही घर पर या मंदिर में, गुरुस्वामी के नेतृत्व में इरुमुटि बांधकर ‘स्वामिये अय्यपो’ ,’स्वामी शरणं,’ के शरण मंत्रों का जोर-जोर से रट लगाकर भक्त शबरिमला तीर्थाटन के लिए रवाना होते हैं।
श्री धर्मशास्ता और श्री अय्यप्पन
क्षीर सागर मंथन के अवसर पर मोहिनी वेषधारी विष्णु पर मोहित शिव के दांपत्य से जन्मे शिशु ‘शास्ता’ का उल्लेख कंपरामायण के बालकांड, महाभागवत के अष्टम स्कंध और स्कंधपुराण के असुर कांड में मिलता है। श्री अय्यप्पन को धर्म की रक्षा करने वाले इसी धर्मशास्ता का अवतार माना जाता है। अय्यप्पन के संबंध में केरल में प्रचलित कथा यही है कि संतानहीन पंतलम राजा को शिकार के दौरान, पंपा नदी के किनारे एक दिव्य, तेजस्वी, कंठ में मणिधारी शिशु मिला जिसे उन्होंने पाला-पोसा और बड़ा किया। मणिधारी वही शिशु मणिकंठन या अय्यप्पन कहलाए जो अपने जीवन का दौत्य पूरा करके पंतलम राजा द्वारा निर्मित शबरिमला मंदिर में अय्यप्पन के रूप में विराजते हैं ।
जो भी हो धर्मशास्ता या अय्यप्पन की परिकल्पना को इसी पृष्ठभूमि में सार्थक माना जाता है कि सात-आठ सौ साल पहले दक्षिण में शिव और वैष्णवों के बीच घोर मतभेद थे, जिसमे हिंदू धर्म के उत्कर्ष में बाधा पड़ती थी। ऐसे हालात में दोनों में समन्वय जरूरी था। विष्णु और शिव के पुत्र, हरिहर-पुत्र धर्मशास्ता के द्वारा ही यह संभव हो सकता था। शबरिमला में अय्यप्पन की मुख्य मूर्ति के अलावा मालिकापुरत्त् अम्मा, श्री गणेश, नागराजा जैसे उप देवता भी प्रतिष्ठित हैं। मालिकापुरत्त् अम्मा के बारे में कहा जाता है कि देवताओं और मनुष्यों को त्रस्त करने वाली महिषी का अय्यप्पन ने वध करके उसे मोक्ष प्रदान किया। मोक्ष-प्राप्ति पर महिषी ने अपने पूर्व जन्म का रूप (पूर्व जन्म में वह लीला नामक युवती थी) धारण किया और मणिकंठन से विवाह का अनुरोध किया। नित्य ब्रह्मचारी मणिकंठन विवाह नहीं कर सकता था। लेकिन उन्होंने यह शर्त रखी कि जिस साल कोई कन्नि (कन्या) अय्यप्पन (पहली बार दर्शन के लिए आने वाला अय्यप्पन) नहीं आएगा, उस समय वे उनसे शादी करेंगे। हर साल वह प्रतीक्षा करती रहती है, लेकिन प्रतिवर्ष हजारों की तादाद में नए भक्त आते ही रहते हैं और मालिकापुरत्त् अम्मा की मनोकामना अधूरी ही रह जाती है। अय्यप्पन के मंदिर के प्रांगण में ही अय्यप्पन के सहचर मुसलमान फकीर वावर के लिए भी जगह दी गई है।
एरुमेलि
भक्तों का पुराना पारंपरिक रास्ता है एरुमेलि होकर शबरिमला पहुंचना जो अधिक दुर्गम, चढ़ाइयों और ढलानों वाला है। एरुमेलि में अय्यप्पन के घनिष्ठ मित्र वावर के नाम पर एक मस्जिद है। अय्यप्पा भक्त इस मस्जिद में प्रार्थना करके और दक्षिणा वगैरह अर्पित करके ही अय्यप्पा दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं। यह मस्जिद हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक मानी जाती है। एरुमेलि की एक रस्म है ‘पेट्टा तुल्लल’। भक्त यहां कालिख कुंकुम और और कई तरह के रंग आदि पोतकर नाचते हैं।
यह पेट्टा तुल्लल वावर की सहायता से अय्यप्पन द्वारा उदयनन नामक डाकू के मारे जाने पर उनके अनुचरों द्वारा नाच-कूदकर विजय की खुशियां मनाने की याद में किया जाता है। एरुमेलि के परंपरागत मार्ग से जाने वाले भक्तों को 18 दुर्गम पहाड़ों को पैदल ही पार करना पड़ता है, यहां जंगली जानवरों के आतंक का खतरा भी है। मंदिर के परिसर में पहुंचने पर भक्त 18 सीढि़यां चढ़कर प्रांगण में प्रवेश करते हैं। ये अष्टदश सोपान प्रतीकात्मक माने जाते है। ये पावन अष्टदश सोपान पंचभूतों, अष्टरागों त्रिगुणों और विद्या व अविद्या के प्रतीक माने जाते हैं। शबरिमला मंदिर में पूजा महोत्सव के लिए मण्डल 16 नवंबर से 27 दिसंबर तक द्वार खुला रहता है। मंडल पूजा के लिए आने वाले लोगों को 41 दिन तक कड़े नियमों में रहना होता है और मांसाहारी वस्तुओं के सेवन व भोग-विलास से दूर रहना होता है। मकरविलक्क (मकरज्योति)के लिए दिसंबर 30 से जनवरी 20 तक खुला रहता है। (मकरज्योति दर्शन 14 जनवरी को पड़ता है) मार्च महीने की 12 तारीख को ध्वजारोहण के साथ 10 दिनों का उत्सव शुरू होता है जो अवभृथ स्नान (मूर्ति को नदी या सागर में स्नान कराना) के साथ 21 को समाप्त होता है। विषु पूजा के लिए अप्रैल महीने में 10 से 18 तक मंदिर खुला रहता है। इन अवसरों को छोड़कर कर मलयाल के शुरू में 6 दिन ही मासिक पूजा के लिए मंदिर खुला रहता है, अन्य अवसरों पर नहीं। मकर-संक्राति व उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र के संयोग के दिन, पंचमी तिथि और वृश्चिक लग्न के संयोग के समय ही श्री अय्यप्पन का जन्म हुआ और यही कारण है कि मकर संक्रांति के दिन शबरिगिरीशन के दर्शनार्थ हजारों-लाखों की तादाद में भक्त शबरिमला आते हैं और आरति के समय श्री अय्यप्पन के दर्शन-लाभ के साथ ही पूर्व दिशा में कांतिमला की चोटी पर मकर ज्योति का भी दर्शन कर सायूज्य लाभ-करते हैं।
खास बातें
श्री अय्यप्पन को घी का अभिषेक सबसे प्रिय है और ‘अरावणा’ (चावल, गुड़ और घी से तैयार खीर) ही मुख्य प्रसाद माना है। चूंकि अय्यप्पन नित्य ब्रह्मचारी हैं, इसलिए 10 और 60 वर्ष के बीच की आयु की औरतों के लिए मंदिर में प्रवेश मना है। सरकारी आकड़ों के मुताबिक मंदिर की गतवर्ष की आय 100 करोड़ रुपये के करीब है।