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दुनिया के इतिहास में अगर ऐसा सम्राट ढूंढा जाए जिसे शौर्य और शांति दोनों के लिए जाना जाता हो तो वह अशोक हैं। जिन लोगों के कारण भारतभूमि स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करती है उनमें अशोक भी एक हैं और इसीलिए दुनिया के महान सम्राटों में उनकी गिनती की जाती है। भारत के गौरव को बढ़ाने के लिए उन्होंने शांति का संदेश तो दूर-दूर तक फैलाया ही, इसे मूर्त रूप भी दिया। यह मूर्तमान स्वरूप हम आज भी देख सकते हैं भोपाल से करीब 46 किमी दूर सांची स्तूप के रूप में।
शांति में आस्था का प्रतीक
ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी यानी अब से करीब 2300 साल पहले इस स्तूप को बनवाया था सम्राट अशोक महान ने। अपने मूल रूप में यह स्तूप भगवान बुद्ध के प्रति अशोक की श्रद्धा का प्रतीक है। कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने वाले सम्राट अशोक ने भगवान बुद्ध के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए इसे बनवाया था। इस स्तूप के चारों तरफ बने चार तोरण क्रमश: प्रेम, शांति, आस्था व साहस के प्रतीक हैं। इन पर बने चक्र पर बौद्ध प्रतीक श्रीवत्स और त्रिरत्न भी उकेरे गए हैं।
दो सहस्त्राब्दियों से भी बड़े कालखंड के भारतीय इतिहास के गवाह इस स्तूप को क्षति पहुंचाने की कोशिश भी एक बार की गई और करीब 800 वर्षो तक तो यह गुमनामी के अंधेरे में भी खोया रहा। बहुत बाद में 19वीं शताब्दी में एक शौकिया पुरावेत्ता ने इसकी ओर फिर से दुनिया का ध्यान खींचा।
बनते रहे मंदिर
ऊंचे वृत्ताकार आधार पर निर्मित इस स्तूप के चारों तरफ प्रदक्षिणा पथ है। शिखर पर इसका गुंबद समतल है और इसके ऊपर अवरोही क्रम में तीन छत्र बने हुए हैं। इसके द्वार और झरोखों का निर्माण 70 ई.पू. शतवाहन काल में हुआ। एक द्वार पर इस आशय का शिलालेख भी है कि यह वसीति के पुत्र आनंद की ओर से भेंट किया गया है। वसीति शतवाहन राजा श्री शतकरणि के वास्तुशिल्पियों के प्रमुख थे। हालांकि स्तूप का निर्माण तो किया गया है पत्थरों से, लेकिन इस पर कलाकृतियों को इस तरह उकेरा गया है जैसे लकड़ी की हों। इसमें जातक कथाओं का सुंदर चित्रण है।
गुमनामी के अंधेरे में
इस परिसर में छिटपुट निर्माण का क्रम 12वीं शताब्दी तक चलता रहा। इसमें जो नवीनतम मंदिर पाया जाता है वह गुप्त काल (पांचवीं-छठीं शताब्दी) का है। बाद में 12वीं शताब्दी तक भी यहां कुछ निर्माण किए गए और यह आकर्षण का केंद्र बना रहा। हालांकि जब बौद्ध धर्म का प्रभाव कम होने लगा तो इस स्तूप और परिसर के प्रति लोगों का आकर्षण भी धीरे-धीरे घटने लगा। बाद के राजाओं ने तो इस पर ध्यान देना ही छोड़ दिया। यहां तक कि इसका रख-रखाव भी बंद हो गया और यह गुमनामी के अंधेरे में खो गया।
जब हुई पहचान
दुनिया के पटल पर यह फिर सामने आया अंग्रेजी शासनकाल में। जनरल टेलर पश्चिम के पहले इतिहासकार हैं जिन्होंने सांची के स्तूप की महत्ता दर्ज की। शौकिया पुरावेत्ताओं और खजाना तलाशने वालों के आकर्षण का केंद्र तो यह सन 1881 तक बना रहा। इसके बाद यहां व्यवस्थित रूप से खुदाई का कार्य शुरू हो गया और इसके साथ ही इसके रख-रखाव का काम भी सही तरी़के से शुरू हो गया। स्तूप का जो मौजूदा स्वरूप है, इसका निर्माण 1912 से 1919 के बीच हुआ और इनको फिर से नए सिरे से सहेजने तथा रख-रखाव का कार्य सर जॉन मार्शल की देखरेख में हुआ।
आज के सांची के पहाड़ों पर पुरातत्व की दृष्टि से करीब 50 महत्वपूर्ण वस्तुएं मौजूद हैं। इनमें तीन स्तूप और कुछ मंदिर भी शामिल हैं। सन 1989 से इन्हें यूनेस्को के विश्व धरोहरों की सूची में भी शामिल कर लिया गया है।