केदारताल: अलौकिक सौंदर्य का अहसास

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हिमालय के सुंदरतम स्थलों में से एक है केदारताल। मध्य हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में स्थित यह ताल न केवल प्रकृति की एक विशिष्ट रचना है बल्कि अनूठे नैसर्गिक सौंदर्य का चरम है। जोगिन शिखर पर्वत श्रृंखला के कुछ ग्लेशियरों ने अपने जल से पवित्र केदारताल को निर्मित किया है। यह समुद्र तल से 15 हजार फुट से अधिक ऊंचाई पर स्थित है।

पास ही हैं प्रसिद्ध मृगुपंथ और थलयसागर पर्वत जो अपनी चोटियों के प्रतिबिंब से ताल की शोभा में चार चांद लगाते हैं। केदारताल से केदारगंगा निकलती है जो भागीरथी की एक सहायक नदी है। कहीं शांत और कहीं कलकल करती यह नदी विशाल पत्थरों और चट्टानों के बीच से अपना रास्ता बनाती है। अपने आप को पूर्ण रूपेण गंगा कहलाने के लिए गंगोत्री के समीप यह भागीरथी में मिल जाती है।

यात्रा का आरंभ

केदार ताल को देखने की चाहत में कुछ समय पहले हमारा एक तीन सदस्यीय दल दिल्ली से ऋषिकेश और उत्तरकाशी होते हुए गंगोत्री पहुंचा। गंगोत्री में शाम होने वाली थी। गौरीकुंड के पास बने पुल से भागीरथी के दूसरी और जाकर हमने एक बड़ी कुटिया में प्रवेश किया। ठहरने की व्यवस्था महज पचास रुपये प्रति व्यक्ति में हो गई। गंगोत्री लगभग दस हजार दो सौ फुट की ऊंचाई पर है। एक छोटे से होटल में रात का खाना खाकर हम कुटिया में चले गए। अगले दिन सुबह साढ़े छ: बजे आंखें खुली। निवृत्त हो हम पिछली रात वाले होटल पहुंचे। चाय पीते-पीते होटल वाले रामप्रकाश ने एक कुली-कम-गाइड की हमसे बात करवा दी। ढाई सौ रुपये और भोजन प्रतिदिन देना तय करके हमने अपना टेंट और राशन आदि कमल सिंह कुली के हवाले कर दिया।

एक्लीमेटाइजेशन

पहाड़ में किसी भी ऊंचाई वाले इलाके में जाने के लिए एक्लीमेटाइजेशन यानी शरीर को आबोहवा के अनुकूल बनाने की कवायद बहुत जरूरी है। आगे के मुश्किल सफर से पहले अपने शरीर को वातावरण का अभ्यस्त बनाने के लिहाज से भी हमारा गंगोत्री में रुकना जरूरी था। इसके लिए हम आस-पास के ऊंचे क्षेत्रों में लगभग चार घंटे चढ़ते-उतरते और विश्राम करते रहे। दोपहर एक बजे हमने गंगा स्नान किया और भोजन के उपरांत विश्राम और फिर वही एक्लीमेटाइजेशन की क्रिया।

केदारताल के लिए ट्रेकिंग

गंगोत्री में दूसरी रात बिताकर सवेरे हम जल्दी उठे। पांच बजे कमलसिंह हमारे पास पहुंच गया। हल्का नाश्ता लेकर साढ़े पांच बजे हमने यात्रा प्रारंभ कर दी। अक्सर ट्रेकिंग करने वालों के लिए भी प्रारंभ में केदारताल का रास्ता कठिन है। परंतु 8-10 किमी चलने के उपरांत व्यक्ति रास्ते की कठिनाइयों का अभ्यस्त होने लगता है और मार्ग भी सुगम होने लगता है। हालांकि ऊंचाई वाले इलाकों में आक्सीजन की कमी जैसी समस्याओं को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। ऐसे क्षेत्रों में चलने का मूलमंत्र है धीरे चलना, आक्सीजन की कमी को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक पानी पीना, ग्लूकोज लेना और कभी भूखे नहीं रहना। आप कितने भी होशियार हों, सुरक्षित चलने में ही समझदारी है। ऊंचाई पर अज्ञानतावश लोग संकट में पड़ जाते हैं।

केदार खड़क

गंगोत्री से केदारताल की दूरी तय करते हुए 12 कि.मी. के बाद केदार खड़क में पहला पड़ाव डाला जाता है। बिना टेंट लगाए हमने एक बड़ी चट्टान के नीचे बनी गुफा में रात बिताई। दूसरे दिन हम भोज खड़क पहुंचते हैं। यह स्थान केदार खड़क से लगभग दस कि.मी. दूर है। तीसरे दिन 8 कि.मी. चलने के पश्चात भव्य ताल पर पहुंच जाते हैं। तीसरे दिन ही हमें 6772 मीटर (लगभग 22213 फुट) ऊंचे मृगुपथ शिखर और ऊंचे थलम सागर शिखर के दर्शन हुए। कुछ समय बाद भव्य केदारताल हमारे सामने था। कुछ लोग इस मार्ग को दो दिन में तय करते हैं।

वनस्पति व जड़ी बूटियां

इस यात्रा में गंगोत्री और ऊपर की ओर चलते हुए प्रचुर मात्रा में भोजपत्र के वृक्ष और अन्य कई प्रकार के पेड़ पौधे मिलते हैं। सारे क्षेत्र में शिवजी की धूप’ नामक एक बूटी फैली हुई है। इसकी घासनुमा पत्तियों को जलाने पर गुग्गल धूप जैसी सुगंध से वातावरण महक उठता है। स्थानीय लोग इसे बड़ा पवित्र मानते है। बिच्छू बूटी भी यहां बहुत है। ऊंचाई के साथ-साथ वनस्पति भी लुप्त प्राय: होने लगती है। केवल घास, पहाड़ी फूलों के झुरमुट, झाडि़यां ओर छोटे-छोटे पौधे मिलते है। वन्य प्राणियों में प्राय: भरल हिरण छोटे-बड़े झुंडों में दिखाई दे जाते हैं। एक विशेष प्रजाति का बाज (फाल्कन) यहां पाया जाता है जो बर्फीले क्षेत्रों में रहता है। इसके अतिरिक्त कौए के आकार के पीली चोंच और काले रंग के पक्षी प्राय: दिखाई देते हैं।

ताल पर पहली शाम

केदार ताल के किनारे बैठे-बैठे शाम हो चली थी। हर ओर सन्नाटा ही सन्नाटा था। दिल्ली से चलते समय मां ने जो मेवे युक्त लड्डू बनाकर दिए थे वह पोटली मेरे पास थी हमने एक-एक लड्डू खाया ही था कि पोर्टर कमल काफी दूर लगे कैंप से हमारी ओर आता दिखाई दिया। उसने आवाज लगाई, साहब चाय तैयार है। चाय पीकर हम सब रात्रि भोजन पकाने की तैयारी में लग गये। ऊंचाई के कुप्रभाव से सभी को हल्की सी बेचैनी थी अत: ठंड के होते भी सभी खुली हवा में बैठे। देखते-देखते रात हो गई। दिन में अत्यंत स्वच्छ नीले आकाश में रात्रि को इतने सितारे दिखाई देने लगे कि उनकी शोभा का वर्णन संभव नहीं। उसे खुद ही महसूस किया जा सकता है।

पंद्रह हजार फुट की ऊंचाई पर रात

अगस्त मास था। शुक्ल पक्ष की हल्की चांदनी में हम एक-दूसरे का चेहरा थोड़ा-थोड़ा देख पा रहे थे। कमल ने अपने पर्वतारोहण के अनुभव और गांव की कुछ घटनाएं सुनाई। रात के निर्मल चन्द्रमा की शीतल चांदनी और समस्त तारामण्डल को देखकर एक अलौकिक अनुभूति होती है। दूसरे दिन सूर्योदय से पहले हम जाग गए थे। शून्य से नीचे के तापमान से बर्तनों और बोतलों में रखा पानी जम चुका था। कमल चूल्हा जलाने की तैयारी में लग गया। और मैने ट्राईपोड और कैमरा तैयार किया। अब तक मैं 11 फिल्में खींच चुका था। बारहवीं फिल्म अत्यंत महत्वपूर्ण क्षणों को समेटने में लग गई। भोर की प्रथम किरणों का स्वर्णिम प्रकाश जब पर्वत शिखरों पर पड़ा तो ऐसा लगा कि सब ओर सोना ही सोना बिखरा पड़ा हो। मैंने वह सब सोना बटोर कर कैमरे में बंद कर लिया। सफर में साथ देने के लिए मैं मौसम का भी शुक्रिया अदा करता रहा।

अच्छा मौसम देख हम केदार ताल पर एक दिन और रुके। दूसरी रात को कुछ देर हमने तारों का अध्ययन किया। जितना साफ आकाश पहाड़ों में होता है इतना साफ और कहीं दिखाई नहीं देता और सितारे बहुत समीप लगते हैं। एक साथी के पास ट्रांजिस्टर था जिसका अभी तक प्रयोग नहीं किया था। उसे ऑन करने पर बहुत स्पष्ट आवाज में समाचार और गाने सुने। उस ऊंचाई पर ट्रांजिस्टर पर गाने सुनने का आनंद निराला ही था। विशेष बात यह भी थी कि न तो कोई अखबार पढ़ने की चिंता थी और न ही टेलीविजन कार्यक्रम देखने-सुनने की चाहत।

वापसी का सफर

सवेरे जल्दी उठ हमने हिमशिखरों व केदराताल को आखिरी बार निगाहों में भर लिया। हमारे चेहरों की चमड़ी सूरज की अल्ट्रावायलेट किरणों के कारण झुलस चुकी थी। नाक सबसे अधिक प्रभावित हुई थी। हमें नीचे जाना था इसलिए एक ही दिन में सारा रास्ता तय करना था। राशन इस्तेमाल हो चुका था इसलिए बोझ भी कम था। शाम होते-होते हम गंगोत्री पहुंच चुके थे। अगले दिन सवेरे फिर गंगा के दर्शन करके हम दिल्ली के लिए लौट चले। केदार ताल की यादों के अतिरिक्त यदि हमारे पास कुछ था तो वो था ताल का पवित्र जल और चमचमाते पत्थरों के टुकड़े।

कैसे पहुंचें

ऋषिकेश या उससे पहले हरिद्वार तक उत्तर भारत के सभी प्रमुख शहरों से रेल व बस, दोनों से पहुंचा जा सकता है। निकट के शहरों से टैक्सी से भी जा सकते हैं। दिल्ली से ऋषिकेश का सफर लगभग छह घंटे का है। ऋषिकेश से उत्तरकाशी केवल सड़क द्वारा लगभग 8 से 9 घंटे में पहुंचा जा सकता है। उत्तरकाशी में कम से कम एक दिन ठहरना उचित रहता है। यहां सस्ते होटल उपलब्ध हैं। उत्तरकाशी से गंगोत्री की दूरी 99 किलोमीटर है। इस सफर में 5 से 6 घंटे लगते हैं। गंगोत्री में ठहरने के लिए गढ़वाल मंडल विकास निगम का होटल, साधुओं की धर्मशालाएं और अन्य छोटे होटल उपलब्ध हैं;

बाकी तैयारी

ट्रेकिंग के लिए कुली-कम-गाइड 250 रुपये व भोजन आदि सहित प्रति कुली-प्रतिदिन के हिसाब से या कभी-कभी इससे कम खर्च में भी मिल जाता है। राशन व रसोई का सामान: सभी कुछ अपने कार्यक्रम की अवधि के अनुसार लें। इस विषय में कुली सहायता कर देते हैं। जैसे बर्तन, मिट्टी के तेल व चूल्हे का प्रबंध आदि। उत्तरकाशी में ही यह प्रबंध करके चलना उचित रहता है। हालांकि गंगोत्री में भी सभी कुछ मिल जाता है

जरूरी सामान

यात्रियों की संख्या के हिसाब से टेंट, गर्म कपड़े, स्लीपिंग बैग, रकसैक (यानि पिट्ठू बैग), पानी की बोतल, टॉर्च, चश्मा, कैमरा व फिल्में, मजबूत लेकिन चलने में आरामदायक जूते, विंडचीटर और वर्षा से बचने के लिए प्लास्टिक शीट, आवश्यक दवाएं आदि। पहाड़ का नियम है- जरूरत का हर सामान हो लेकिन जरूरत से ज्यादा कुछ नहीं। दिल्ली से महज ढाई-तीन हजार रुपये के प्रति व्यक्ति खर्च पर पूरी यात्रा की जा सकती है। हालांकि अप्रत्याशित खर्च का ध्यान जरूर रखें।

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