आमेर फोर्ट: कछवाहा राजाओं का गौरवशाली गढ़

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जयपुर के समीप स्थित आमेर का किला कछवाहा राजपूतों के गौरवशाली इतिहास का गवाह है। आमेर की घाटी में मीणाओं को फतह कर उन्होंने जब आमेर नगरी बसाई तो वहीं एक पहाड़ी पर उन्होंने भव्य किले का निर्माण कराया था। वही किला आज आमेर फोर्ट के नाम से विख्यात है। जयपुर आने वाले सैलानी इस किले को देखे बिना अपनी यात्रा पूरी नहीं मानते।

आमेर घाटी को फूलों की घाटी कहा जाता है। घाटी में प्रवेश करते ही दूर से विशाल दुर्ग की प्राचीर, उसके गुंबद, बुर्ज और प्रवेशद्वार नजर आने लगते हैं। जिस पहाड़ी पर आमेर दुर्ग स्थित है उसके सामने एक सुंदर झील है। इसे मावठा सरोवर कहते हैं। झील के एक छोर पर ही किले में जाने का मार्ग है। जहां एक सुंदर वाटिका बनी है। इसे राजा जयसिंह के समय में बनवाया गया था। इसका नाम दूलाराम बाग है। बाग में कुछ छतरीनुमा कक्ष बने हैं। वहां एक छोटा सा संग्रहालय भी है। जिसमें ढूंढाढ़ क्षेत्र की धरोहरें प्रदर्शित हैं। इनमें प्राचीन मूर्तियां, शिलालेख, शिलापट्ट और सिक्के आदि शामिल हैं।

किला करीब 150 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से आगे पैदल ढलान पर बढ़ते हुए 10-15 मिनट में किले तक पहुंचा जा सकता है। यहीं कुछ गाइड पर्यटकों को घेर लेते हैं। इतिहास और स्थापत्य में रुचि रखने वाले सैलानी यहां गाइड जरूर करते हैं। उनसे उन्हें इमारत से जुड़ी तमाम गाथाओं की जानकारी हो जाती है। मार्ग में गाइड किले के निर्माण और कछवाहा राजपूतों का इतिहास बताने लगते हैं।

सौ साल में बना

आमेर के अतीत पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि छ: शताब्दियों तक यह नगरी ढूंढाढ़ क्षेत्र के सूर्यवंशी कछवाहों की राजधानी रही है। बलुआ पत्थर से बने आमेर के किले का निर्माण 1558 में राजा भारमल ने शुरू करवाया था। निर्माण की प्रक्रिया बाद में राजा मानसिंह और राजा जयसिंह के समय में भी जारी रही। करीब सौ वर्ष के अंतराल के बाद राजा जयसिंह सवाई के काल में यह किला बन कर पूरा हुआ। उसी दौर में कछवाहा राजपूत और मुगलों के बीच मधुर संबंध भी बने, जब राजा भारमल की पुत्री का विवाह अकबर से हुआ था। बाद में राजा मानसिंह अकबर के नवरत्‍‌नों में शामिल हुए और उनके सेनापति बने। वही आमेर घाटी और इस किले का स्वर्णिम काल था।

कछवाहों द्वारा अपनी राजधानी जयपुर स्थानांतरित करने के बाद आमेर का वैभव लुप्त होने लगा। लेकिन यह गौरवशाली किला आज भी उसी शान से खड़ा है। बाहरी परिदृश्य में यह किला मुगल शैली से प्रभावित दिखाई पड़ता है। जबकि अंदर से यह पूर्णतया राजपूत स्थापत्य शैली में है। पर्यटक आमेर किले के ऊंचे मेहराबदार पूर्वी द्वार से प्रवेश करते हैं। यह द्वार सूरजपोल कहलाता है। इसके सामने एक बड़ा सा चौक स्थित है।  इसे जलेब चौक कहते हैं। आमेर फोर्ट पहाड़ी के ढलान पर विभिन्न सोपानों पर बना है। जलेब चौक इनमें सबसे निचले सोपान पर स्थित है। विशाल चौक के तीन ओर कुछ कक्ष बने हैं। बताते हैं कि उस समय यहां सैन्य आवास तथा घुड़साल आदि होते थे। आज इनमें हैंडीक्राफ्ट आदि की दुकानें हैं। इसके पश्चिम दिशा में चांदपोल नामक एक अन्य द्वार है।

महलों की ओर

जलेब चौक से सैलानी महलों की ओर बढ़ते हैं तो वहां दो सीढि़यां नजर आती हंै। इनमें एक सीढ़ी शिला देवी मंदिर की ओर जाती है। मान्यता है कि शिला देवी राजाओं की कुलदेवी थीं। मंदिर के गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा राजा मानसिंह द्वारा 1605 में स्थापित की गई थी। मंदिर के द्वार पर चांदी के कलात्मक दरवाजे लगे हैं। मंदिर में दर्शन करने के बाद पर्यटक दूसरी सीढि़यों से सिंहपोल में प्रवेश करते हैं। यह एक दोहरा द्वार है। इससे अंदर जाते ही सामने दीवान-ए-आम है। यह एक विशाल आयताकार भवन है। इसके मध्य दरबार लगता था और राजा जनता से मिलते थे। इस हाल का निर्माण राजा जयसिंह प्रथम के काल में हुआ था। तीन ओर से खुले इस भवन के चारों ओर लाल पत्थर के खंबों की दो पक्तियां हैं। दीवान-ए-आम में कुल चालीस खंबे हैं। इनमें कुछ संगमरमर के खम्बे हैं। इसके दक्षिण दिशा में आलीशान गणेश पोल नजर आता है। यह इस किले का सुंदरतम द्वार है। जिसका निर्माण जयसिंह सवाई ने करवाया था। मेहराबनुमा इस शानदार द्वार के तीन ओर भव्य नक्काशी और चित्रकारी देखने को मिलती है। द्वार में पीतल के सुंदर दरवाजे जड़े हैं। द्वार के ऊपरी हिस्से में गणेश जी की छोटी सी प्रतिमा विराजमान है।

गणेशपोल से अंदर जाते ही शानदार महलों का सिलसिला शुरू हो जाता है। इनमें सर्वप्रमुख  शीश महल है। यह वास्तव में दीवान-ए-खास है। इसे जयमंदिर भी कहते हैं। इसकी दीवारों पर शीशे की आलीशान पच्चीकारी और मनमोहक नक्काशी देखने लायक है। इसकी छत में भी शीशे जड़े हैं। दीपक या मोमबती का जरा सा प्रकाश करते ही यह शीशमहल जगमगा उठता है। प्रत्येक शीशे में जब प्रकाश का प्रतिबिंब दिखता है तो ऐसा लगता है जैसे आसमान में असंख्य तारे टिमटिमा उठे हों। दीवान ए खास में दो विशाल कमरे हैं। आगे वाले कमरे में तीन तरफ सुंदर बरामदे बने हैं।

राजाओं का निजी महल

आगे बढ़ें तो सुखनिवास है। यह आमेर के राजाओं का निजी महल था। इसके आगे एक हरा-भरा उद्यान है। यह उद्यान मुगल उद्यानों की चारबाग शैली में बनाया गया था। मध्य में लगे फव्वारे और जल प्रवाह के लिए बनी नालियों में जब पानी बहता तो वातावरण शीतल हो जाता था। ग्रीष्म ऋतु में यह उनका प्रिय आवास होता था। सुखनिवास के चंदन के दरवाजों पर पच्चीकारी भी इस उद्यान के डिजाइन के अनुरूप की गई है। यह कारीगरी हाथी दांत से की गई है।

यश मंदिर नामक महल दीवान-ए-खास के ऊपर बना है। यहां पीछे की ओर बनी संगमरमर की जालियां और झरोखे बहुत शानदार लगते हैं। इनसे मावठा झील और आमेर घाटी का विहंगम दृश्य दिखाई पड़ता है। इसके पास ही सुहाग मंदिर है। यह गणेशपोल के ऊपरी भाग में बना है। यहां भी संगमरमर के बारी़क डिजाइन वाली जालियां लगी हैं। जिनमें छोटे-छोटे झरोखे भी बने हैं। रनिवास की स्ति्रयां यहां से दीवान-ए-आम में होने वाली गतिविधियां देखा करतीं थीं। आमेर फोर्ट के तीसरे सोपान पर जनाना महल है। यह यहां का सबसे प्राचीन महल बताया जाता है। जिसे राजा मानसिंह ने बनवाया था। इसमें रंगीन टाइल्स लगी थीं। जो अब क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। इसके निकट ही परिचारिकाओं के प्रवास के अलावा रसोईघर और भंडारगृह आदि बने हैं।

कैसे पहुंचें

आमेर का किला गुलाबी नगरी जयपुर से केवल 11 किलोमीटर दूर है। किले तक जाने के लिए हाथी की सवारी भी की जा सकती है। हालांकि यह छोटा सा ट्रिप काफी महंगा होता है। आमेर आने वाले सैलानी यहां की गलियों में भी घूमने निकल पड़ते हैं। जगत शिरोमणी मंदिर उन्हें बहुत प्रभावित करता है। इसे मीराबाई मंदिर भी कहते हैं। इसके अलावा प्राचीन नरसिंह मंदिर, पन्ना मियां की बावड़ी तथा कुछ हवेलियों के भग्नावशेष भी यहां देखे जा सकते हैं। यहां से ऊपर पहाड़ी पर आगे जाकर जयगढ़ फोर्ट भी देखा जा सकता है। ज्यादातर सैलानी जयपुर से आकर यह किला देख जाते हैं। यहां घूमने का उपयुक्त मौसम अगस्त से अप्रैल तक है। आमेर भ्रमण वैसे तो जयपुर यात्रा का हिस्सा ही है। लेकिन किले को अच्छी तरह देखना हो तो अधिक समय लेकर आना चाहिए। आमेर के भव्य किले को देखने के बाद हमें मध्यकालीन राजाओं के वैभव का अनुमान लगता है।

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